भागसूचना
षष्टितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अर्जुन और कर्णका संवाद तथा कर्णका अर्जुनसे हारकर भागना
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्ण यत् ते सभामध्ये बहु वाचा विकत्थितम्।
न मे युधि समोऽस्तीति तदिदं समुपस्थितम् ॥ १ ॥
मूलम्
कर्ण यत् ते सभामध्ये बहु वाचा विकत्थितम्।
न मे युधि समोऽस्तीति तदिदं समुपस्थितम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुन बोले— कर्ण! पहले कौरवोंकी सभामें तूने जो अपनी बहुत प्रशंसा करते हुए यह बात कही थी कि युद्धमें मेरे समान दूसरा कोई योद्धा नहीं है। (उसकी सचाईकी परीक्षाके लिये) यह युद्धका अवसर उपस्थित हो गया है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽद्य कर्ण मया सार्धं व्यवहृत्य महामृधे।
ज्ञास्यस्यबलमात्मानं न चान्यानवमंस्यसे ॥ २ ॥
मूलम्
सोऽद्य कर्ण मया सार्धं व्यवहृत्य महामृधे।
ज्ञास्यस्यबलमात्मानं न चान्यानवमंस्यसे ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्ण! आज इस महासंग्राममें मेरे साथ भिड़कर तू अपनेको भलीभाँति निर्बल समझ लेगा और फिर कभी दूसरोंका अपमान नहीं करेगा॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवोचः परुषा वाचो धर्ममुत्सृज्य केवलम्।
इदं तु दुष्करं मन्ये यदिदं ते चिकीर्षितम् ॥ ३ ॥
मूलम्
अवोचः परुषा वाचो धर्ममुत्सृज्य केवलम्।
इदं तु दुष्करं मन्ये यदिदं ते चिकीर्षितम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहले तूने केवल धर्मकी अवहेलना करके बड़ी कठोर बातें कही हैं, परंतु तू जो कुछ करना चाहता है, वह तेरे लिये मैं अत्यन्त दुष्कर समझता हूँ॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् त्वया कथितं पूर्वं मामनासाद्य किंचन।
तदद्य कुरु राधेय कुरुमध्ये मया सह ॥ ४ ॥
मूलम्
यत् त्वया कथितं पूर्वं मामनासाद्य किंचन।
तदद्य कुरु राधेय कुरुमध्ये मया सह ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राधानन्दन! मेरे साथ भिड़न्त होनेके पहले कौरवोंकी सभामें तूने जो कुछ कहा है, आज मेरे साथ युद्ध करके वह सब सत्य कर दिखा॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् सभायां स पाञ्चालीं क्लिश्यमानां दुरात्मभिः।
दृष्टवानसि तस्याद्य फलमाप्नुहि केवलम् ॥ ५ ॥
मूलम्
यत् सभायां स पाञ्चालीं क्लिश्यमानां दुरात्मभिः।
दृष्टवानसि तस्याद्य फलमाप्नुहि केवलम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अरे! भरी सभामें दुरात्मा कौरव पांचालराजकुमारी द्रौपदीको क्लेश दे रहे थे और तू मौजसे यह सब देखता रहा। आज केवल उस अत्याचारका फल भोग ले॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मपाशनिबद्धेन यन्मया मर्षितं पुरा।
तस्य राधेय कोपस्य विजयं पश्य मे मृधे ॥ ६ ॥
मूलम्
धर्मपाशनिबद्धेन यन्मया मर्षितं पुरा।
तस्य राधेय कोपस्य विजयं पश्य मे मृधे ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहले मैं धर्मके बन्धनमें बँधा हुआ था। इसलिये मैंने सब कुछ (चुपचाप) सह लिया। परंतु राधापुत्र! आजके युद्धमें मेरे उस क्रोधका फल मेरी विजयके रूपमें अभी देख ले॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वने द्वादश वर्षाणि यानि सोढानि दुर्मते।
तस्याद्य प्रतिकोपस्य फलं प्राप्नुहि सम्प्रति ॥ ७ ॥
मूलम्
वने द्वादश वर्षाणि यानि सोढानि दुर्मते।
तस्याद्य प्रतिकोपस्य फलं प्राप्नुहि सम्प्रति ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ओ दुर्मते! हमने बारह वर्षोंतक वनमें रहकर जो क्लेश सहन किये हैं, उनका बदला चुकानेके लिये आज मेरे बढ़े हुए क्रोधका फल तू अभी चख ले॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एहि कर्ण मया सार्धं प्रतियुध्यस्व सङ्गरे।
प्रेक्षकाः कुरवः सर्वे भवन्तु तव सैनिकाः ॥ ८ ॥
मूलम्
एहि कर्ण मया सार्धं प्रतियुध्यस्व सङ्गरे।
प्रेक्षकाः कुरवः सर्वे भवन्तु तव सैनिकाः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्ण! आ, रणभूमिमें मेरा सामना कर। समस्त कौरव और तेरे सैनिक सब दर्शक होकर हमारे युद्धको देखें॥
मूलम् (वचनम्)
कर्ण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रवीषि वाचा यत् पार्थ कर्मणा तत् समाचर।
अतिशेते हि ते वाक्यं कर्मैतत् प्रथितं भुवि ॥ ९ ॥
मूलम्
ब्रवीषि वाचा यत् पार्थ कर्मणा तत् समाचर।
अतिशेते हि ते वाक्यं कर्मैतत् प्रथितं भुवि ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्णने कहा— कुन्तीपुत्र! तू मुझसे जो कुछ कहता है, उसे क्रियाद्वारा करके दिखा। तेरी बातें कार्य करनेकी अपेक्षा बहुत बढ़-चढ़कर होती हैं। यह बात भूमण्डलमें प्रसिद्ध है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् त्वया मर्षितं पूर्वं तदशक्तेन मर्षितम्।
इतो गृह्णीमहे पार्थ तव दृष्ट्वा पराक्रमम् ॥ १० ॥
मूलम्
यत् त्वया मर्षितं पूर्वं तदशक्तेन मर्षितम्।
इतो गृह्णीमहे पार्थ तव दृष्ट्वा पराक्रमम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पार्थ! तेरा यह जबानी पराक्रम देखकर तो हम इसी परिणामपर पहुँचते हैं कि तूने पहले जो कुछ सहन किया है, वह अपनी असमर्थताके ही कारण किया है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मपाशनिबद्धेन यत् त्वया मर्षितं पुरा।
तथैव बद्धमात्मानमबद्धमिव मन्यसे ॥ ११ ॥
मूलम्
धर्मपाशनिबद्धेन यत् त्वया मर्षितं पुरा।
तथैव बद्धमात्मानमबद्धमिव मन्यसे ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि तूने पहले धर्मके बन्धनमें बँधकर कष्ट सहन किया है, तो आज भी तू उसी प्रकार बँधा हुआ है; तो भी तू अपने-आपको उस बन्धनसे मुक्त-सा मान रहा है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि तावद् वने वासो यथोक्तश्चरितस्त्वया।
तत् त्वं धर्मार्थवित् क्लिष्टः स मया योद्धुमिच्छसि ॥ १२ ॥
मूलम्
यदि तावद् वने वासो यथोक्तश्चरितस्त्वया।
तत् त्वं धर्मार्थवित् क्लिष्टः स मया योद्धुमिच्छसि ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि तूने वनवासके पूर्वोक्त नियमका भलीभाँति पालन कर लिया है, तो तू धर्म और अर्थका ज्ञाता ठहरा। इसलिये तूने कष्ट सहा है और उसीको याद करके इस समय मेरे साथ लड़ना चाहता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि शक्रः स्वयं पार्थ युध्यते तव कारणात्।
तथापि न व्यथा काचिन्मम स्याद् विक्रमिष्यतः ॥ १३ ॥
मूलम्
यदि शक्रः स्वयं पार्थ युध्यते तव कारणात्।
तथापि न व्यथा काचिन्मम स्याद् विक्रमिष्यतः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पार्थ! यदि इस समय साक्षात् इन्द्र भी तेरे लिये युद्ध करने आयें, तो भी युद्धमें पराक्रम दिखाते हुए मुझको किसी प्रकारकी व्यथा न होगी॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं कौन्तेय कामस्ते नचिरात् समुपस्थितः।
योत्स्यसे हि मया सार्धमद्य द्रक्ष्यसि मे बलम् ॥ १४ ॥
मूलम्
अयं कौन्तेय कामस्ते नचिरात् समुपस्थितः।
योत्स्यसे हि मया सार्धमद्य द्रक्ष्यसि मे बलम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीकुमार! मेरे साथ युद्धका जो तेरा हौसला है, वह अभी-अभी प्रकट हुआ है। अतः अब मेरे साथ तेरा युद्ध होगा और आज तू मेरा बल स्वयं देख लेगा॥१४॥
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदानीमेव तावत् त्वमपयातो रणान्मम।
तेन जीवसि राधेय निहतस्त्वनुजस्तव ॥ १५ ॥
मूलम्
इदानीमेव तावत् त्वमपयातो रणान्मम।
तेन जीवसि राधेय निहतस्त्वनुजस्तव ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुन बोले— राधापुत्र! अभी कुछ ही देर पहलेकी बात है, मेरे सामने युद्धसे पीठ दिखाकर तू भाग गया था, इसीलिये अबतक जी रहा है; किंतु तेरा छोटा भाई मारा गया॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रातरं घातयित्वा कस्त्यक्त्वा रणशिरश्च कः।
त्वदन्यः कः पुमान् सत्सु ब्रूयादेवं व्यवस्थितः ॥ १६ ॥
मूलम्
भ्रातरं घातयित्वा कस्त्यक्त्वा रणशिरश्च कः।
त्वदन्यः कः पुमान् सत्सु ब्रूयादेवं व्यवस्थितः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तेरे सिवा दूसरा कौन ऐसा पुरुष होगा, जो अपने भाईको मरवाकर और युद्धका मुहाना छोड़कर (भाग जानेके बाद भी) भलेमानसोंके बीचमें खड़ा हो ऐसी डींग मारेगा?॥१६॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति कर्णं ब्रुवन्नेव बीभत्सुरपराजितः।
अभ्ययाद् विसृजन् बाणान् कायावरणभेदिनः ॥ १७ ॥
मूलम्
इति कर्णं ब्रुवन्नेव बीभत्सुरपराजितः।
अभ्ययाद् विसृजन् बाणान् कायावरणभेदिनः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! अर्जुन किसीसे भी परास्त होनेवाले नहीं थे। वे कर्णसे उपर्युक्त बातें कहकर कवचको भी विदीर्ण कर देनेवाले बाण छोड़ते हुए उसकी ओर बढ़े॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिजग्राह तं कर्णः प्रीयमाणो महारथः।
महता शरवर्षेण वर्षमाणमिवाम्बुदम् ॥ १८ ॥
मूलम्
प्रतिजग्राह तं कर्णः प्रीयमाणो महारथः।
महता शरवर्षेण वर्षमाणमिवाम्बुदम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महारथी कर्णने बड़ी प्रसन्नताके साथ मेघके सदृश बाणोंकी दृष्टि करनेवाले अर्जुनको अपने सायकोंकी भारी बौछार करके रोका॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्पेतुः शरजालानि घोररूपाणि सर्वशः।
अविध्यदश्वान् बाह्वोश्च हस्तावापं पृथक् पृथक् ॥ १९ ॥
सोऽमृष्यमाणः कर्णस्य निषङ्गस्यावलम्बनम् ।
चिच्छेद निशिताग्रेण शरेण नतपर्वणा ॥ २० ॥
मूलम्
उत्पेतुः शरजालानि घोररूपाणि सर्वशः।
अविध्यदश्वान् बाह्वोश्च हस्तावापं पृथक् पृथक् ॥ १९ ॥
सोऽमृष्यमाणः कर्णस्य निषङ्गस्यावलम्बनम् ।
चिच्छेद निशिताग्रेण शरेण नतपर्वणा ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर तो आकाशमें सब ओर भयंकर बाणोंके समूह उड़ने लगे। अर्जुनसे यह सहन न हो सका; अतः उन्होंने झुकी हुई गाँठ एवं तीखी नोकवाले बाणसे कर्णके घोड़ोंको बींध डाला। भुजाओंमें भी गहरी चोट पहुँचायी और हाथोंके दस्तानोंको भी पृथक्-पृथक् विदीर्ण कर दिया। इतना ही नहीं, कर्णके भाथा लटकानेकी रस्सीको भी काट गिराया॥१९-२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपासङ्गादुपादाय कर्णो बाणानथापरान् ।
विव्याध पाण्डवं हस्ते तस्य मुष्टिरशीर्यत ॥ २१ ॥
मूलम्
उपासङ्गादुपादाय कर्णो बाणानथापरान् ।
विव्याध पाण्डवं हस्ते तस्य मुष्टिरशीर्यत ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब कर्णने (अलग रखे हुए) छोटे तरकससे दूसरे बाण लेकर पाण्डुनन्दन अर्जुनके हाथमें चोट पहुँचायी। इससे उनकी मुट्ठी ढीली पड़ गयी॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पार्थो महाबाहुः कर्णस्य धनुरच्छिनत्।
स शक्तिं प्राहिणोत् तस्मै तां पार्थो व्यधमच्छरैः ॥ २२ ॥
मूलम्
ततः पार्थो महाबाहुः कर्णस्य धनुरच्छिनत्।
स शक्तिं प्राहिणोत् तस्मै तां पार्थो व्यधमच्छरैः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब महाबाहु पार्थने कर्णका धनुष काट दिया। यह देख कर्णने अर्जुनपर शक्ति चलायी; किंतु पार्थने उसे बाणोंसे नष्ट कर दिया॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽनुपेतुर्बहवो राधेयस्य पदानुगाः ।
तांश्च गाण्डीवनिर्मुक्तैः प्राहिणोद् यमसादनम् ॥ २३ ॥
मूलम्
ततोऽनुपेतुर्बहवो राधेयस्य पदानुगाः ।
तांश्च गाण्डीवनिर्मुक्तैः प्राहिणोद् यमसादनम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतनेमें ही राधापुत्र कर्णके बहुत-से सैनिक वहाँ आ पहुँचे, किंतु अर्जुनने गाण्डीवद्वारा छोड़े हुए बाणोंसे मारकर उन सबको यमलोक भेज दिया॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽस्याश्वाञ्छरैस्तीक्ष्णैर्बीभत्सुर्भारसाधनैः ।
आकर्णमुक्तैरवधीत् ते हताः प्रापतन् भुवि ॥ २४ ॥
मूलम्
ततोऽस्याश्वाञ्छरैस्तीक्ष्णैर्बीभत्सुर्भारसाधनैः ।
आकर्णमुक्तैरवधीत् ते हताः प्रापतन् भुवि ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् बीभत्सुने भार (शत्रुओंके आघात) सहनेमें समर्थ तीखे बाणोंद्वारा, जो धनुषको कानतक खींचकर छोड़े गये थे, कर्णके घोड़ोंको घायल कर दिया। वे घोड़े मरकर पृथ्वीपर गिर पड़े॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथापरेण बाणेन ज्वलितेन महौजसा।
विव्याध कर्णं कौन्तेयस्तीक्ष्णेनोरसि वीर्यवान् ॥ २५ ॥
मूलम्
अथापरेण बाणेन ज्वलितेन महौजसा।
विव्याध कर्णं कौन्तेयस्तीक्ष्णेनोरसि वीर्यवान् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् पराक्रमी कुन्तीकुमारने महान् तेजस्वी तथा अग्निके समान प्रज्वलित दूसरे बाणद्वारा कर्णकी छातीमें आघात किया॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य भित्त्वा तनुत्राणं कायमभ्यगमच्छरः।
ततः स तमसाऽऽविष्टो न स्म किंचित् प्रजज्ञिवान् ॥ २६ ॥
मूलम्
तस्य भित्त्वा तनुत्राणं कायमभ्यगमच्छरः।
ततः स तमसाऽऽविष्टो न स्म किंचित् प्रजज्ञिवान् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह बाण कर्णका कवच काटकर उसके वक्षःस्थलके भीतर घुस गया। इससे कर्णको मूर्च्छा आ गयी और उसे किसी भी बातकी सुध-बुध न रही॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स गाढवेदनो हित्वा रणं प्रायादुदङ्मुखः।
ततोऽर्जुन उदक्रोशदुत्तरश्च महारथः ॥ २७ ॥
मूलम्
स गाढवेदनो हित्वा रणं प्रायादुदङ्मुखः।
ततोऽर्जुन उदक्रोशदुत्तरश्च महारथः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्णको उस चोटसे बड़ी भारी वेदना हुई और वह युद्धभूमिको छोड़कर उत्तर दिशाकी ओर भागा। यह देख अर्जुन और उत्तर दोनों महारथी जोर-जोरसे सिंहनाद करने लगे॥२७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि गोहरणपर्वणि कर्णापयाने षष्टितमोऽध्यायः ॥ ६० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत गोहरणपर्वमें कर्णका पलायनविषयक साठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६०॥