भागसूचना
अष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अर्जुनका द्रोणाचार्यके साथ युद्ध और आचार्यका पलायन
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृपेऽपनीते द्रोणस्तु प्रगृह्य सशरं धनुः।
अभ्यद्रवदनाधृष्यः शोणाश्वः श्वेतवाहनम् ॥ १ ॥
मूलम्
कृपेऽपनीते द्रोणस्तु प्रगृह्य सशरं धनुः।
अभ्यद्रवदनाधृष्यः शोणाश्वः श्वेतवाहनम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! जब कृपाचार्य रणभूमिसे बाहर हटा दिये गये, तब लाल घोड़ोंवाले दुर्धर्ष वीर आचार्य द्रोणने धनुष-बाण लेकर श्वेतवाहन अर्जुनपर धावा किया॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तु रुक्मरथं दृष्ट्वा गुरुमायान्तमन्तिकात्।
अर्जुनो जयतां श्रेष्ठ उत्तरं वाक्यमब्रवीत् ॥ २ ॥
मूलम्
स तु रुक्मरथं दृष्ट्वा गुरुमायान्तमन्तिकात्।
अर्जुनो जयतां श्रेष्ठ उत्तरं वाक्यमब्रवीत् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुवर्णमय रथपर आरूढ़ गुरुदेवको अपने निकट आते देख विजयी वीरोंमें श्रेष्ठ अर्जुन उत्तरसे इस प्रकार बोले॥२॥
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्रैषा काञ्चनी वेदी ध्वजे यस्य प्रकाशते।
उच्छ्रिता प्रवरे दण्डे पताकाभिरलङ्कृता।
अत्र मां वह भद्रं ते द्रोणानीकाय सारथे ॥ ३ ॥
मूलम्
यत्रैषा काञ्चनी वेदी ध्वजे यस्य प्रकाशते।
उच्छ्रिता प्रवरे दण्डे पताकाभिरलङ्कृता।
अत्र मां वह भद्रं ते द्रोणानीकाय सारथे ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनने कहा— सारथे! तुम्हारा कल्याण हो। जिस रथकी ध्वजामें ऊँचे डंडेके ऊपर पताकाओंसे विभूषित यह ऊँची सुवर्णमयी वेदी प्रकाशित हो रही है, वहाँ आचार्य द्रोणकी सेना है। मुझे वहीं ले चलो॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवाः शोणाः प्रकाशन्ते बृहन्तश्चारुवाहिनः।
स्निग्धविद्रुमसंकाशास्ताम्रास्याः प्रियदर्शनाः ।
युक्ता रथवरे यस्य सर्वशिक्षाविशारदाः ॥ ४ ॥
दीर्घबाहुर्महातेजा बलरूपसमन्वितः ।
सर्वलोकेषु विक्रान्तो भारद्वाजः प्रतापवान् ॥ ५ ॥
मूलम्
अथवाः शोणाः प्रकाशन्ते बृहन्तश्चारुवाहिनः।
स्निग्धविद्रुमसंकाशास्ताम्रास्याः प्रियदर्शनाः ।
युक्ता रथवरे यस्य सर्वशिक्षाविशारदाः ॥ ४ ॥
दीर्घबाहुर्महातेजा बलरूपसमन्वितः ।
सर्वलोकेषु विक्रान्तो भारद्वाजः प्रतापवान् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनके श्रेष्ठ रथमें जुते हुए सब प्रकारकी शिक्षाओंमें निपुण, चिकने, मूँगेके समान लाल रंगके, ताँबे-से मुखवाले, सुन्दर तथा अच्छे ढंगसे रथका भार वहन करनेवाले बड़े-बड़े अश्व सुशोभित हो रहे हैं, वे महातेजस्वी दीर्घबाहु, बल एवं रूपसे सम्पन्न तथा समस्त संसारमें विख्यात पराक्रमी प्रतापी वीर भरद्वाजनन्दन द्रोण हैं॥४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बुद्ध्या तुल्यो ह्युशनसा बृहस्पतिसमो नये।
वेदास्तथैव चत्वारो ब्रह्मचर्यं तथैव च ॥ ६ ॥
ससंहाराणि सर्वाणि दिव्यान्यस्त्राणि मारिष।
धनुर्वेदश्च कार्त्स्न्येन यस्मिन् नित्यं प्रतिष्ठितः ॥ ७ ॥
मूलम्
बुद्ध्या तुल्यो ह्युशनसा बृहस्पतिसमो नये।
वेदास्तथैव चत्वारो ब्रह्मचर्यं तथैव च ॥ ६ ॥
ससंहाराणि सर्वाणि दिव्यान्यस्त्राणि मारिष।
धनुर्वेदश्च कार्त्स्न्येन यस्मिन् नित्यं प्रतिष्ठितः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये बुद्धिमें शुक्राचार्य और नीतिमें बृहस्पतिके समान हैं। 1मारिष! इनमें चारों वेद, ब्रह्मचर्य, संहार-विधिसहित सम्पूर्ण दिव्यास्त्र और समस्त धनुर्वेद सदा प्रतिष्ठित है॥६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षमा दमश्च सत्यं च आनृशंस्यमथार्जवम्।
एते चान्ये च बहवो यस्मिन् नित्यं द्विजे गुणाः॥८॥
मूलम्
क्षमा दमश्च सत्यं च आनृशंस्यमथार्जवम्।
एते चान्ये च बहवो यस्मिन् नित्यं द्विजे गुणाः॥८॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन विप्रशिरोमणिमें क्षमा, इन्द्रियसंयम, सत्य, कोमलता, सरलता तथा अन्य बहुत-से सद्गुण नित्य विद्यमान हैं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेनाहं योद्धुमिच्छामि महाभागेन संयुगे।
तस्मात् तं प्रापयाचार्यं क्षिप्रमुत्तर वाहय ॥ ९ ॥
मूलम्
तेनाहं योद्धुमिच्छामि महाभागेन संयुगे।
तस्मात् तं प्रापयाचार्यं क्षिप्रमुत्तर वाहय ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः मैं इन्हीं महाभाग आचार्यके साथ इस समरभूमिमें युद्ध करना चाहता हूँ। अतः उत्तर! रथ बढ़ाओ और मुझे शीघ्र उन आचार्यके समीप पहुँचा दो॥९॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्जुनेनैवमुक्तस्तु वैराटिर्हेमभूषणान् ।
चोदयामास तानश्वान् भारद्वाजरथं प्रति ॥ १० ॥
मूलम्
अर्जुनेनैवमुक्तस्तु वैराटिर्हेमभूषणान् ।
चोदयामास तानश्वान् भारद्वाजरथं प्रति ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! अर्जुनके इस प्रकार आदेश देनेपर विराटनन्दन उत्तरने सोनेके आभूषणोंसे विभूषित उन अश्वोंको आचार्य द्रोणके रथकी ओर हाँक दिया॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमापतन्तं वेगेन पाण्डवं रथिनां वरम्।
द्रोणः प्रत्युद्ययौ पार्थं मत्तो मत्तमिव द्विपम् ॥ ११ ॥
मूलम्
तमापतन्तं वेगेन पाण्डवं रथिनां वरम्।
द्रोणः प्रत्युद्ययौ पार्थं मत्तो मत्तमिव द्विपम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महारथियोंमें श्रेष्ठ पाण्डुनन्दन अर्जुनको बड़े वेगसे अपनी ओर आते देख आचार्य द्रोण भी पार्थकी ओर आगे बढ़ आये, ठीक उसी तरह जैसे एक उन्मत्त गजराज दूसरे मतवाले गजराजसे भिड़नेके लिये जा रहा हो॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्राध्मापयच्छङ्खं भेरीशतनिनादिनम् ।
प्रचुक्षुभे बलं सर्वमुद्भूत इव सागरः ॥ १२ ॥
मूलम्
ततः प्राध्मापयच्छङ्खं भेरीशतनिनादिनम् ।
प्रचुक्षुभे बलं सर्वमुद्भूत इव सागरः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर द्रोणने सौ नगाड़ोंके बराबर आवाज करनेवाले अपने शंखको बजाया। उसे सुनकर सारी सेनामें हलचल मच गयी, मानो समुद्रमें ज्वार आ गया हो॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ शोणान् सदश्वांस्तान् हंसवर्णैर्मनोजवैः।
मिश्रितान् समरे दृष्ट्वा व्यस्मयन्त रणे नराः ॥ १३ ॥
मूलम्
अथ शोणान् सदश्वांस्तान् हंसवर्णैर्मनोजवैः।
मिश्रितान् समरे दृष्ट्वा व्यस्मयन्त रणे नराः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रणभूमिमें उन लाल रंगके सुन्दर घोड़ोंको हंसके समान वर्णवाले मनके सदृश वेगशाली श्वेत घोड़ोंसे मिला देख युद्ध करनेके विषयमें सब लोग आश्चर्यमें पड़ गये॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौ रथौ वीर्यसम्पन्नौ दृष्ट्वा संग्राममूर्धनि।
आचार्यशिष्यावजितौ कृतविद्यौ मनस्विनौ ॥ १४ ॥
समाश्लिष्टौ तदान्योन्यं द्रोणपार्थौ महाबलौ।
दृष्ट्वा प्राकम्पत मुहुर्भरतानां महद् बलम् ॥ १५ ॥
मूलम्
तौ रथौ वीर्यसम्पन्नौ दृष्ट्वा संग्राममूर्धनि।
आचार्यशिष्यावजितौ कृतविद्यौ मनस्विनौ ॥ १४ ॥
समाश्लिष्टौ तदान्योन्यं द्रोणपार्थौ महाबलौ।
दृष्ट्वा प्राकम्पत मुहुर्भरतानां महद् बलम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबली द्रोण और कुन्तीपुत्र अर्जुन दोनों महारथी बल-वीर्य-सम्पन्न, अजेय, अस्त्रविद्याके विशेषज्ञ और मनस्वी थे। युद्धके सिरेपर वे दोनों आचार्य और शिष्य अपने-अपने रथपर बैठे हुए (ही एक-दूसरेकी ओर हाथ बढ़ाकर मानो) परस्पर आलिंगन करने लगे। उन्हें इस अवस्थामें देखकर भरतवंशियोंकी वह विशाल सेना बारंबार भयसे काँपने लगी॥१४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हर्षयुक्तस्ततः पार्थः प्रहसन्निव वीर्यवान्।
रथं रथेन द्रोणस्य समासाद्य महारथः ॥ १६ ॥
अभिवाद्य महाबाहुः सामपूर्वमिदं वचः।
उवाच श्लक्ष्णया वाचा कौन्तेयः परवीरहा ॥ १७ ॥
मूलम्
हर्षयुक्तस्ततः पार्थः प्रहसन्निव वीर्यवान्।
रथं रथेन द्रोणस्य समासाद्य महारथः ॥ १६ ॥
अभिवाद्य महाबाहुः सामपूर्वमिदं वचः।
उवाच श्लक्ष्णया वाचा कौन्तेयः परवीरहा ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर शत्रुवीरोंका नाश करनेवाले महारथी और महापराक्रमी कुन्तीपुत्र महाबाहु अर्जुन हर्षोल्लासमें भर गये और आचार्य द्रोणके रथसे अपना रथ भिड़ाकर उन्हें प्रणाम करके हँसते हुए-से शान्तिपूर्वक मधुर वाणीमें यों बोले—॥१६-१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उषिताः स्मो वने वासं प्रतिकर्म चिकीर्षवः।
कोपं नार्हसि नः कर्तुं सदा समरदुर्जय ॥ १८ ॥
अहं तु प्रहृते पूर्वं प्रहरिष्यामि तेऽनघ।
इति मे वर्तते बुद्धिस्तद् भवान् कर्तुमर्हति ॥ १९ ॥
मूलम्
उषिताः स्मो वने वासं प्रतिकर्म चिकीर्षवः।
कोपं नार्हसि नः कर्तुं सदा समरदुर्जय ॥ १८ ॥
अहं तु प्रहृते पूर्वं प्रहरिष्यामि तेऽनघ।
इति मे वर्तते बुद्धिस्तद् भवान् कर्तुमर्हति ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आचार्य! युद्धमें आपपर विजय पाना सर्वथा कठिन है। हमलोग बहुत वर्षोंतक वनमें रहकर कष्ट उठाते रहे हैं। अब शत्रुओंसे बदला लेनेकी इच्छासे आये हैं; अतः आप हमलोगोंपर क्रोध न करें। अनघ! मैं तो आपपर तभी प्रहार करूँगा, जब पहले आप मुझपर प्रहार कर लेंगे। मेरा यही निश्चय है, अतः आप ही पहले मुझपर प्रहार करें’॥१८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽस्मै प्राहिणोद् द्रोणः शरानधिकविंशतिम्।
अप्राप्तांश्चैव तान् पार्थश्चिच्छेद कृतहस्तवत् ॥ २० ॥
मूलम्
ततोऽस्मै प्राहिणोद् द्रोणः शरानधिकविंशतिम्।
अप्राप्तांश्चैव तान् पार्थश्चिच्छेद कृतहस्तवत् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब आचार्य द्रोणने अर्जुनपर इक्कीस बाण चलाये; किंतु पार्थने उन सबको पास आनेसे पहले ही काट गिराया, मानो उनके हाथ इस कलामें पूर्ण सुशिक्षित थे॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः शरसहस्रेण रथं पार्थस्य वीर्यवान्।
अवाकिरत् ततो द्रोणः शीघ्रमस्त्रं विदर्शयन् ॥ २१ ॥
मूलम्
ततः शरसहस्रेण रथं पार्थस्य वीर्यवान्।
अवाकिरत् ततो द्रोणः शीघ्रमस्त्रं विदर्शयन् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर पराक्रमी द्रोणने अपनी अस्त्र चलानेकी फुर्ती दिखाते हुए अर्जुनके रथपर सहस्रों बाणोंकी वृष्टि की॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हयांश्च रजतप्रख्यान् कङ्कपत्रैः शिलाशितैः।
अवाकिरदमेयात्मा पार्थं संकोपयन्निव ॥ २२ ॥
मूलम्
हयांश्च रजतप्रख्यान् कङ्कपत्रैः शिलाशितैः।
अवाकिरदमेयात्मा पार्थं संकोपयन्निव ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनका आत्मबल असीम था। उन्होंने चाँदीके समान अंगवाले अर्जुनके श्वेत घोड़ोंको भी शानपर चढ़ाकर तेज किये हुए सफेद चीलकी पाँखवाले बाणोंसे ढँक दिया। जान पड़ता था, आचार्य यह सब करके अर्जुनके क्रोधको उभाड़ना चाहते थे॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं प्रववृते युद्धं भारद्वाजकिरीटिनोः।
समं विमुञ्चतो संख्ये विशिखान् दीप्ततेजसः ॥ २३ ॥
मूलम्
एवं प्रववृते युद्धं भारद्वाजकिरीटिनोः।
समं विमुञ्चतो संख्ये विशिखान् दीप्ततेजसः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार भरद्वाजनन्दन द्रोण और किरीटधारी अर्जुनमें युद्ध छिड़ गया। वे दोनों समरभूमिमें (एक दूसरेपर) समानरूपसे तेजस्वी बाणोंकी वर्षा करने लगे॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावुभौ ख्यातकर्माणावुभौ वायुसमौ जवे।
उभौ दिव्यास्त्रविदुषावुभावुत्तमतेजसौ ।
क्षिपन्तौ शरजालानि मोहयामासतुर्नृपान् ॥ २४ ॥
मूलम्
तावुभौ ख्यातकर्माणावुभौ वायुसमौ जवे।
उभौ दिव्यास्त्रविदुषावुभावुत्तमतेजसौ ।
क्षिपन्तौ शरजालानि मोहयामासतुर्नृपान् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दोनों ही विख्यात पराक्रमी थे। वेगमें दोनों ही वायुके समान थे। वे दोनों गुरु-शिष्य दिव्यास्त्रोंके महापण्डित और उत्तम तेजसे सम्पन्न थे। परस्पर बाणोंकी झड़ी लगाते हुए दोनोंने सब राजाओंको मोहमें डाल दिया॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यस्मयन्त ततो योधा ये तत्रासन् समागताः।
शरान् विसृजतोस्तूर्णं साधु साध्वित्यपूजयन् ॥ २५ ॥
मूलम्
व्यस्मयन्त ततो योधा ये तत्रासन् समागताः।
शरान् विसृजतोस्तूर्णं साधु साध्वित्यपूजयन् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर जो-जो सैनिक वहाँ आये थे, वे एक-दूसरेपर तीव्र गतिसे बाण-वर्षा करनेवाले दोनों वीरोंकी ‘साधु-साधु’ कहकर सराहना करने लगे—॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रोणं हि समरे कोऽन्यो योद्धुमर्हति फाल्गुनात्।
रौद्रः क्षत्रियधर्मोऽयं गुरुणा यदयुध्यत।
इत्यब्रुवञ्जनास्तत्र संग्रामशिरसि स्थिताः ॥ २६ ॥
मूलम्
द्रोणं हि समरे कोऽन्यो योद्धुमर्हति फाल्गुनात्।
रौद्रः क्षत्रियधर्मोऽयं गुरुणा यदयुध्यत।
इत्यब्रुवञ्जनास्तत्र संग्रामशिरसि स्थिताः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भला, युद्धमें अर्जुनके सिवा दूसरा कौन द्रोणाचार्यका सामना कर सकता है? यह क्षत्रियधर्म कितना भयंकर है कि शिष्यको गुरुसे युद्ध करना पड़ा है।’ इस प्रकार वहाँ युद्धके मुहानेपर खड़े हुए योद्धा आपसमें बातें करते थे॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वीरौ तावभिसंरब्धौ संनिकृष्टौ महाभूजौ।
छादयेतां शरव्रातैरन्योन्यमपराजितौ ॥ २७ ॥
मूलम्
वीरौ तावभिसंरब्धौ संनिकृष्टौ महाभूजौ।
छादयेतां शरव्रातैरन्योन्यमपराजितौ ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दोनों महाबाहु वीर क्रोधमें भरकर निकट आ गये और बाणसमूहोंसे एक-दूसरेको आच्छादित करने लगे। उनमेंसे कोई भी पराजित होनेवाला न था॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विस्फार्य सुमहच्चापं हेमपृष्ठं दुरासदम्।
भारद्वाजोऽथ संक्रुद्धः फाल्गुनं प्रत्यविध्यत ॥ २८ ॥
मूलम्
विस्फार्य सुमहच्चापं हेमपृष्ठं दुरासदम्।
भारद्वाजोऽथ संक्रुद्धः फाल्गुनं प्रत्यविध्यत ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरद्वाजनन्दन द्रोण अत्यन्त कुपित हो, जिसके पृष्ठभागमें सुवर्ण जड़ा हुआ था और जिसे उठाना दूसरोंके लिये बहुत कठिन था, उस महान् धनुषको खींचकर अर्जुनको बाणोंसे बींधने लगे॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स सायकमयैर्जालैरर्जुनस्य रथं प्रति।
भानुमद्भिः शिलाधौतैर्भानोराच्छादयत् प्रभाम् ॥ २९ ॥
मूलम्
स सायकमयैर्जालैरर्जुनस्य रथं प्रति।
भानुमद्भिः शिलाधौतैर्भानोराच्छादयत् प्रभाम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने अर्जुनके रथपर बाणोंका जाल-सा बिछा दिया। इतना ही नहीं, शानपर चढ़ाकर तेज किये हुए उन तेजस्वी बाणोंद्वारा उन्होंने सूर्यकी प्रभाको भी आच्छादित कर दिया॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पार्थं च सुमहाबाहुर्महावेगैर्महारथः ।
विव्याध निशितैर्बाणैर्मेघो वृष्ट्येव पर्वतम् ॥ ३० ॥
मूलम्
पार्थं च सुमहाबाहुर्महावेगैर्महारथः ।
विव्याध निशितैर्बाणैर्मेघो वृष्ट्येव पर्वतम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे मेघ पर्वतपर जलकी वर्षा करता है, उसी प्रकार महाबाहु महारथी द्रोण पृथापुत्र अर्जुनको अत्यन्त वेगशाली तीखे बाणोंद्वारा बींध रहे थे॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव दिव्यं गाण्डीवं धनुरादाय पाण्डवः।
शत्रुघ्नं वेगवान् हृष्टो भारसाधनमुत्तमम् ॥ ३१ ॥
विससर्ज शरांश्चित्रान् सुवर्णविकृतान् बहून्।
नाशयन् शरवर्षाणि भारद्वाजस्य वीर्यवान्।
तूर्णं चापविनिर्मुक्तैस्तदद्भुतमिवाभवत् ॥ ३२ ॥
मूलम्
तथैव दिव्यं गाण्डीवं धनुरादाय पाण्डवः।
शत्रुघ्नं वेगवान् हृष्टो भारसाधनमुत्तमम् ॥ ३१ ॥
विससर्ज शरांश्चित्रान् सुवर्णविकृतान् बहून्।
नाशयन् शरवर्षाणि भारद्वाजस्य वीर्यवान्।
तूर्णं चापविनिर्मुक्तैस्तदद्भुतमिवाभवत् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार हर्षमें भरे हुए वेगशाली पाण्डुनन्दन अर्जुन भी भार सहन करनेमें समर्थ और शत्रुओंका नाश करनेवाला उत्तम एवं दिव्य गाण्डीव धनुष लेकर बहुतसे स्वर्णभूषित विचित्र बाणोंकी वर्षा कर रहे थे। पराक्रमी पार्थ अपने धनुषसे छूटे हुए बाणसमूहोंद्वारा तुरंत ही आचार्य द्रोणकी बाण-वर्षाको नष्ट करते जाते थे। यह एक अद्भुत-सी बात थी॥३१-३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स रथेन चरन् पार्थः प्रेक्षणीयो धनंजयः।
युगपद् दिक्षु सर्वासु सर्वतोऽस्त्राण्यदर्शयत् ॥ ३३ ॥
एकच्छायमिवाकाशं बाणैश्चक्रे समन्ततः ।
नादृश्यत तदा द्रोणो नीहारेणेव संवृतः ॥ ३४ ॥
मूलम्
स रथेन चरन् पार्थः प्रेक्षणीयो धनंजयः।
युगपद् दिक्षु सर्वासु सर्वतोऽस्त्राण्यदर्शयत् ॥ ३३ ॥
एकच्छायमिवाकाशं बाणैश्चक्रे समन्ततः ।
नादृश्यत तदा द्रोणो नीहारेणेव संवृतः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रथसे विचरनेवाले कुन्तीपुत्र धनंजय सबके लिये दर्शनीय हो रहे थे। उन्होंने सब दिशाओंमें एक ही साथ अस्त्रोंकी वर्षा दिखायी और आकाशको चारों ओरसे बाणोंद्वारा ढँककर एकमात्र अन्धकारमें निमग्न-सा कर दिया। उस समय आचार्य द्रोण कुहरेसे ढके हुएकी भाँति अदृश्य हो गये॥३३-३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्याभवत् तदा रूपं संवृतस्य शरोत्तमैः।
जाज्वल्यमानस्य तदा पर्वतस्येव सर्वतः ॥ ३५ ॥
मूलम्
तस्याभवत् तदा रूपं संवृतस्य शरोत्तमैः।
जाज्वल्यमानस्य तदा पर्वतस्येव सर्वतः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उत्तम बाणोंसे ढके हुए द्रोणाचार्यका स्वरूप उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो सब ओरसे जलता हुआ कोई पर्वत हो॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा तु पार्थस्य रणे शरैः स्वरथमावृतम्।
स विस्फार्य धनुः श्रेष्ठं मेघस्तनितनिःस्वनम् ॥ ३६ ॥
अग्निचक्रोपमं घोरं व्यकर्षत् परमायुधम्।
व्यशातयच्छरांस्तांस्तु द्रोणः समितिशोभनः ॥ ३७ ॥
मूलम्
दृष्ट्वा तु पार्थस्य रणे शरैः स्वरथमावृतम्।
स विस्फार्य धनुः श्रेष्ठं मेघस्तनितनिःस्वनम् ॥ ३६ ॥
अग्निचक्रोपमं घोरं व्यकर्षत् परमायुधम्।
व्यशातयच्छरांस्तांस्तु द्रोणः समितिशोभनः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आचार्य द्रोण संग्रामभूमिमें बड़ी शोभा पानेवाले थे। संग्राममें उन्होंने अपने रथको जब अर्जुनके बाणोंसे ढका हुआ देखा, तब मेघगर्जनाके समान गम्भीर नाद करनेवाले अग्निचक्रके सदृश भयंकर परम उत्तम आयुधश्रेष्ठ धनुषकी टंकार फैलाते हुए उसे (कानोंतक) खींचा और अपने शर-समूहोंसे अर्जुनके उन सब बाणोंको काट डाला॥३६-३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महानभूत् ततः शब्दो वंशानामिव दह्यताम् ॥ ३८ ॥
मूलम्
महानभूत् ततः शब्दो वंशानामिव दह्यताम् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय जलते हुए बाँसोंके चटखनेका-सा बड़ा भयंकर शब्द हो रहा था॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाम्बूनदमयैः पुङ्खैश्चित्रचापविनिर्गतैः ।
प्राच्छादयदमेयात्मा दिशः सूर्यस्य च प्रभाम् ॥ ३९ ॥
मूलम्
जाम्बूनदमयैः पुङ्खैश्चित्रचापविनिर्गतैः ।
प्राच्छादयदमेयात्मा दिशः सूर्यस्य च प्रभाम् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनकी मन-बुद्धि अमेय है, उन द्रोणने अपने विचित्र धनुषसे छूटे हुए सुवर्णमय पंखोंवाले बाणोंद्वारा सम्पूर्ण दिशाओं तथा सूर्यके प्रकाशको भी ढक दिया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कनकपुङ्खानां शराणां नतपर्वणाम्।
वियच्चराणां वियति दृश्यन्ते बहवो व्रजाः ॥ ४० ॥
मूलम्
ततः कनकपुङ्खानां शराणां नतपर्वणाम्।
वियच्चराणां वियति दृश्यन्ते बहवो व्रजाः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय सोनेकी पाँख और झुकी हुई गाँठवाले आकाशचारी बाणोंके बहुत-से समुदाय आकाशमें दृष्टिगोचर हो रहे थे॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रोणस्य पुङ्खसक्ताश्च प्रभवन्तः शरासनात्।
एको दीर्घ इवादृश्यदाकाशे संहतः शरः ॥ ४१ ॥
मूलम्
द्रोणस्य पुङ्खसक्ताश्च प्रभवन्तः शरासनात्।
एको दीर्घ इवादृश्यदाकाशे संहतः शरः ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सभी पक्षधारी बाण-समुदाय आचार्य द्रोणके धनुषसे प्रकट हुए थे। आकाशमें उन बाणोंका समूह परस्पर सटकर एक ही विशाल बाणके समान दिखायी देता था॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं तौ स्वर्णविकृतान् विमुञ्चन्तौ महाशरान्।
आकाशं संवृतं वीरावुल्काभिरिव चक्रतुः ॥ ४२ ॥
मूलम्
एवं तौ स्वर्णविकृतान् विमुञ्चन्तौ महाशरान्।
आकाशं संवृतं वीरावुल्काभिरिव चक्रतुः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार वे दोनों वीर सुवर्णविभूषित महाबाणोंकी वर्षा करते हुए आकाशको मानो उल्काओंसे आच्छादित करने लगे॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरास्तयोस्तु विबभुः कङ्कबर्हिणवाससः ।
पङ्क्त्यः शरदि खस्थानां हंसानां चरतामिव ॥ ४३ ॥
मूलम्
शरास्तयोस्तु विबभुः कङ्कबर्हिणवाससः ।
पङ्क्त्यः शरदि खस्थानां हंसानां चरतामिव ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कंक और मोरकी पाँखवाले उन दोनोंके बाण शरद्ऋतुमें आकाशमें विचरनेवाले हंसोंकी पाँतके समान सुशोभित होते थे॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युद्धं समभवत् तत्र सुसंरब्धं महात्मनोः।
द्रोणपाण्डवयोर्घोरं वृत्रवासवयोरिव ॥ ४४ ॥
मूलम्
युद्धं समभवत् तत्र सुसंरब्धं महात्मनोः।
द्रोणपाण्डवयोर्घोरं वृत्रवासवयोरिव ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महामना द्रोण और पाण्डुनन्दन अर्जुनका वह रोषपूर्ण युद्ध वृत्रासुर और इन्द्रके समान भयंकर प्रतीत होता था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौ गजाविव चासाद्य विषाणाग्रैः परस्परम्।
शरैः पूर्णायतोत्सृष्टैरन्योन्यमभिजघ्नतुः ॥ ४५ ॥
मूलम्
तौ गजाविव चासाद्य विषाणाग्रैः परस्परम्।
शरैः पूर्णायतोत्सृष्टैरन्योन्यमभिजघ्नतुः ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे दो हाथी एक-दूसरेसे भिड़कर दाँतोंके अग्रभागसे प्रहार करते हों, उसी प्रकार वे दोनों धनुषको अच्छी तरह खींचकर छोड़े हुए बाणोंद्वारा एक-दूसरेको घायल कर रहे थे॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौ व्यवाहरतां युद्धे संरब्धौ रणशोभिनौ।
उदीरयन्तौ समरे दिव्यान्यस्त्राणि भागशः ॥ ४६ ॥
मूलम्
तौ व्यवाहरतां युद्धे संरब्धौ रणशोभिनौ।
उदीरयन्तौ समरे दिव्यान्यस्त्राणि भागशः ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्रोधमें भरे हुए उन दोनों वीरोंकी रणभूमिमें बड़ी शोभा हो रही थी। वे उस संग्राममें पृथक्-पृथक् दिव्यास्त्र प्रकट करते हुए धर्मयुद्ध कर रहे थे॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ त्वाचार्यमुख्येन शरान् सृष्टाञ्छिलाशितान्।
न्यवारयच्छितैर्बाणैरर्जुनो जयतां वरः ॥ ४७ ॥
मूलम्
अथ त्वाचार्यमुख्येन शरान् सृष्टाञ्छिलाशितान्।
न्यवारयच्छितैर्बाणैरर्जुनो जयतां वरः ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर विजयी वीरोंमें श्रेष्ठ अर्जुनने आचार्यप्रवर द्रोणके द्वारा चलाये हुए शानपर तेज किये हुए बाणोंको अपने तीखे सायकोंसे नष्ट कर दिया॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दर्शयन् वीक्षमाणानामस्त्रमुग्रपराक्रमः ।
इषुभिस्तूर्णमाकाशं बहुभिश्च समावृणोत् ॥ ४८ ॥
जिघांसन्तं नरव्याघ्रमर्जुनं तिग्मतेजसम् ।
आचार्यमुख्यः समरे द्रोणः शस्त्रभृतां वरः।
अर्जुनेन सहाक्रीडच्छरैः संनतपर्वभिः ॥ ४९ ॥
मूलम्
दर्शयन् वीक्षमाणानामस्त्रमुग्रपराक्रमः ।
इषुभिस्तूर्णमाकाशं बहुभिश्च समावृणोत् ॥ ४८ ॥
जिघांसन्तं नरव्याघ्रमर्जुनं तिग्मतेजसम् ।
आचार्यमुख्यः समरे द्रोणः शस्त्रभृतां वरः।
अर्जुनेन सहाक्रीडच्छरैः संनतपर्वभिः ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे भयानक पराक्रमी थे, उन्होंने दर्शकोंको अपना अस्त्र-कौशल दिखाते हुए तुरंत बहुसंख्यक बाणोंद्वारा आकाशको ढँक दिया। यद्यपि प्रचण्ड तेजस्वी नरश्रेष्ठ अर्जुन विपक्षीको मार डालनेकी इच्छा रखते थे, तो भी शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ आचार्यप्रवर द्रोण उस समरभूमिमें झुकी हुई गाँठवाले बाणोंद्वारा प्रहार करके अर्जुनके साथ मानो खेल कर रहे थे (उनमें अर्जुनके प्रति वात्सल्यका भाव उमड़ रहा था)॥४८-४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिव्यान्यस्त्राणि वर्षन्तं तस्मिन् वै तुमुले रणे।
अस्त्रैरस्त्राणि संवार्य फाल्गुनं समयोधयत् ॥ ५० ॥
मूलम्
दिव्यान्यस्त्राणि वर्षन्तं तस्मिन् वै तुमुले रणे।
अस्त्रैरस्त्राणि संवार्य फाल्गुनं समयोधयत् ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस तुमुल युद्धमें अर्जुन दिव्यास्त्रोंकी वर्षा कर रहे थे, किंतु आचार्य अपने अस्त्रोंद्वारा उनके अस्त्रोंका निवारणमात्र करके उन्हें लड़ा रहे थे॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोरासीत् सम्प्रहारः क्रुद्धयोर्नरसिंहयोः ।
अमर्षिणोस्तदान्योन्यं देवदानवयोरिव ॥ ५१ ॥
मूलम्
तयोरासीत् सम्प्रहारः क्रुद्धयोर्नरसिंहयोः ।
अमर्षिणोस्तदान्योन्यं देवदानवयोरिव ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे दोनों नरश्रेष्ठ जब क्रोध और अमर्षमें भर गये, तब उनमें परस्पर देवताओं और दानवोंकी भाँति घमासान युद्ध छिड़ गया॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐन्द्रं वायव्यमाग्नेयमस्त्रमस्त्रेण पाण्डवः ।
द्रोणेन मुक्तमात्रं तु ग्रसति स्म पुनः पुनः ॥ ५२ ॥
मूलम्
ऐन्द्रं वायव्यमाग्नेयमस्त्रमस्त्रेण पाण्डवः ।
द्रोणेन मुक्तमात्रं तु ग्रसति स्म पुनः पुनः ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डुनन्दन अर्जुन आचार्य द्रोणके छोड़े हुए ऐन्द्र, वायव्य और आग्नेय आदि अस्त्रोंको उसके विरोधी अस्त्रद्वारा बार-बार नष्ट कर देते थे॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं शूरौ महेष्वासौ विसृजन्तौ शिताञ्छरान्।
एकच्छायं चक्रतुस्तावाकाशं शरवृष्टिभिः ॥ ५३ ॥
मूलम्
एवं शूरौ महेष्वासौ विसृजन्तौ शिताञ्छरान्।
एकच्छायं चक्रतुस्तावाकाशं शरवृष्टिभिः ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार वे दोनों महान् धनुर्धर शूरवीर तीखे बाण छोड़ते हुए अपनी बाणवर्षाद्वारा आकाशको एकमात्र अन्धकारमें निमग्न करने लगे॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रार्जुनेन मुक्तानां पततां वै शरीरिषु।
पर्वतेष्विव वज्राणां शराणां श्रूयते स्वनः ॥ ५४ ॥
मूलम्
तत्रार्जुनेन मुक्तानां पततां वै शरीरिषु।
पर्वतेष्विव वज्राणां शराणां श्रूयते स्वनः ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनके छोड़े हुए बाण जब देहधारियोंपर पड़ते थे, तब पर्वतोंपर गिरनेवाले वज्रके समान भयंकर शब्द सुनायी देता था॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो नागा रथाश्चैव वाजिनश्च विशाम्पते।
शोणिताक्ता व्यदृश्यन्त पुष्पिता इव किंशुकाः ॥ ५५ ॥
मूलम्
ततो नागा रथाश्चैव वाजिनश्च विशाम्पते।
शोणिताक्ता व्यदृश्यन्त पुष्पिता इव किंशुकाः ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजय! उस समय हाथीसवार, रथी और घुड़सवार लोहूलुहान होकर फूले हुए पलाश वृक्षके समान दिखायी देते थे॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाहुभिश्च सकेयूरैर्विचित्रैश्च महारथैः ।
सुवर्णचित्रैः कवचैर्ध्वजैश्च विनिपातितैः ॥ ५६ ॥
योधैश्च निहतैस्तत्र पार्थबाणप्रपीडितैः ।
बलमासीत् समुद्भ्रान्तं द्रोणार्जुनसमागमे ॥ ५७ ॥
मूलम्
बाहुभिश्च सकेयूरैर्विचित्रैश्च महारथैः ।
सुवर्णचित्रैः कवचैर्ध्वजैश्च विनिपातितैः ॥ ५६ ॥
योधैश्च निहतैस्तत्र पार्थबाणप्रपीडितैः ।
बलमासीत् समुद्भ्रान्तं द्रोणार्जुनसमागमे ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रोणाचार्य और अर्जुनके उस युद्धमें पार्थके बाणोंसे पीड़ित हो कितने ही योद्धा मर गये थे। कितनोंकी केयूरभूषित भुजाएँ कटकर गिरी थीं। विचित्र वेष-भूषावाले महारथी धराशायी हो रहे थे। सुवर्णजटित विचित्र कवच और ध्वजाएँ वहाँ बिखरी पड़ी थीं। इन सब कारणोंसे वह सारी सेना उद्भ्रान्त (भयसे अचेत)-सी हो गयी थी॥५६-५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विधुन्वानौ तु तौ तत्र धनुषी भारसाधने।
आच्छादयेतामन्योन्यं ततक्षतुरथेषुभिः ॥ ५८ ॥
मूलम्
विधुन्वानौ तु तौ तत्र धनुषी भारसाधने।
आच्छादयेतामन्योन्यं ततक्षतुरथेषुभिः ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन दोनोंके धनुष भार सहन करनेमें समर्थ थे। वे उन धनुषोंको कँपाते हुए (तीखे) बाणोंद्वारा एक-दूसरेको बींधते और आच्छादित कर देते थे॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोः समभवद् युद्धं तुमुलं भरतर्षभ।
द्रोणकौन्तेययोस्तत्र बलिवासवयोरिव ॥ ५९ ॥
मूलम्
तयोः समभवद् युद्धं तुमुलं भरतर्षभ।
द्रोणकौन्तेययोस्तत्र बलिवासवयोरिव ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ जनमेजय! तदनन्तर द्रोण और कुन्तीपुत्रमें बलि और इन्द्रके संग्राम-सा तुमुल युद्ध होने लगा॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ पूर्णायतोत्सृष्टैः शरैः संनतपर्वभिः।
व्यदारयेतामन्योन्यं प्राणद्यूते प्रवर्तिते ॥ ६० ॥
मूलम्
अथ पूर्णायतोत्सृष्टैः शरैः संनतपर्वभिः।
व्यदारयेतामन्योन्यं प्राणद्यूते प्रवर्तिते ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय प्राणोंकी बाजी लगाकर (युद्धका जूआ खेला जा रहा था।) दोनों वीर धनुषको कानतक खींचकर छोड़े हुए झुकी गाँठवाले बाणोंसे एक-दूसरेको विदीर्ण कर रहे थे॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथान्तरिक्षे नादोऽभूद् द्रोणं तत्र प्रशंसताम्।
दुष्करं कृतवान् द्रोणो यदर्जुनमयोधयत् ॥ ६१ ॥
प्रमाथिनं महावीर्यं दृढमुष्टिं दुरासदम्।
जेतारं देवदैत्यानां सर्वेषां च महारथम् ॥ ६२ ॥
मूलम्
अथान्तरिक्षे नादोऽभूद् द्रोणं तत्र प्रशंसताम्।
दुष्करं कृतवान् द्रोणो यदर्जुनमयोधयत् ॥ ६१ ॥
प्रमाथिनं महावीर्यं दृढमुष्टिं दुरासदम्।
जेतारं देवदैत्यानां सर्वेषां च महारथम् ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय आचार्य द्रोणकी प्रशंसा करनेवाले देवताओंका यह शब्द आकाशमें गूँज उठा—‘अहो! द्रोणाचार्यने बड़ा दुष्कर कार्य किया कि अबतक अर्जुनके साथ युद्धमें डटे रह गये। ये अर्जुन तो शत्रुओंको मथ डालनेवाले, महापराक्रमी, दृढ़ मुष्टिवाले, दुर्धर्ष तथा सम्पूर्ण देवताओं और दैत्योंको जीतनेवाले महारथी वीर हैं’॥६१-६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अविभ्रमं च शिक्षां च लाघवं दूरपातिताम्।
पार्थस्य समरे दृष्ट्वा द्रोणस्याभूच्च विस्मयः ॥ ६३ ॥
मूलम्
अविभ्रमं च शिक्षां च लाघवं दूरपातिताम्।
पार्थस्य समरे दृष्ट्वा द्रोणस्याभूच्च विस्मयः ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समरभूमिमें अर्जुनका कभी न चूकनेका स्वभाव, अस्त्र-शस्त्रोंकी अद्भुत शिक्षा, हाथोंकी फुर्ती और दूरतक बाण मारनेकी शक्ति देखकर आचार्य द्रोणको भी बड़ा विस्मय हुआ॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ गाण्डीवमुद्यम्य दिव्यं धनुरमर्षणः।
विचकर्ष रणे पार्थो बाहुभ्यां भरतर्षभ ॥ ६४ ॥
मूलम्
अथ गाण्डीवमुद्यम्य दिव्यं धनुरमर्षणः।
विचकर्ष रणे पार्थो बाहुभ्यां भरतर्षभ ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजय! तदनन्तर रणभूमिमें कुन्तीपुत्रने दिव्य गाण्डीव धनुषको ऊँचे उठाकर कुपित हो उसे दोनों हाथोंसे खींचना आरम्भ किया॥६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य बाणमयं वर्षं शलभानामिवायतिम्।
दृष्ट्वा ते विस्मिताः सर्वे साधु साध्वित्य पूजयन् ॥ ६५ ॥
मूलम्
तस्य बाणमयं वर्षं शलभानामिवायतिम्।
दृष्ट्वा ते विस्मिताः सर्वे साधु साध्वित्य पूजयन् ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर तो टिड्डियोंके झुंडके समान उनकी (अद्भुत) बाणवर्षा देखकर वे सभी सैनिक आश्चर्यचकित हो ‘साधु-साधु’ कहते हुए उनकी प्रशंसा करने लगे॥६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च बाणान्तरे वायुरस्य शक्नोति सर्पितुम्।
अनिशं संदधानस्य शरानुत्सृजतस्तथा ॥ ६६ ॥
ददर्श नान्तरं कश्चित् पार्थस्याददतोऽपि च ॥ ६७ ॥
मूलम्
न च बाणान्तरे वायुरस्य शक्नोति सर्पितुम्।
अनिशं संदधानस्य शरानुत्सृजतस्तथा ॥ ६६ ॥
ददर्श नान्तरं कश्चित् पार्थस्याददतोऽपि च ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके बाणोंके भीतर वायु भी प्रवेश नहीं कर पाती थी। कुन्तीनन्दन अर्जुन निरन्तर बाणोंको हाथमें लेते, धनुषपर रखते और छोड़ते थे। कोई भी उनकी इन क्रियाओंमें क्षणभरका भी अन्तर नहीं देख पाता था॥६६-६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा शीघ्रास्त्रयुद्धे तु वर्तमाने सुदारुणे।
शीघ्रं शीघ्रतरं पार्थः शरानन्यानुदीरयत् ॥ ६८ ॥
मूलम्
तथा शीघ्रास्त्रयुद्धे तु वर्तमाने सुदारुणे।
शीघ्रं शीघ्रतरं पार्थः शरानन्यानुदीरयत् ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार शीघ्रतापूर्वक अस्त्रप्रहारके द्वारा चलनेवाले उस अत्यन्त भयंकर संग्राममें कुन्तीपुत्र अर्जुन शीघ्र एवं अत्यन्त शीघ्र दूसरे-दूसरे बाण प्रकट करने लगे॥६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः शतसहस्राणि शराणां नतपर्वणाम्।
युगपत् प्रापतंस्तत्र द्रोणस्य रथमन्तिकात् ॥ ६९ ॥
कीर्यमाणे तदा द्रोणे शरैर्गाण्डीवधन्वना।
हाहाकारो महानासीत् सैन्यानां भरतर्षभ ॥ ७० ॥
मूलम्
ततः शतसहस्राणि शराणां नतपर्वणाम्।
युगपत् प्रापतंस्तत्र द्रोणस्य रथमन्तिकात् ॥ ६९ ॥
कीर्यमाणे तदा द्रोणे शरैर्गाण्डीवधन्वना।
हाहाकारो महानासीत् सैन्यानां भरतर्षभ ॥ ७० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् एक ही साथ झुकी हुई गाँठवाले एक लाख बाण द्रोणाचार्यके रथके समीप आ गिरे। जनमेजय! गाण्डीवधन्वा अर्जुनके द्वारा जब द्रोणपर इस प्रकार बाणवर्षा होने लगी, तब कौरव-सैनिकोंमें भारी हाहाकार मच गया॥६९-७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डवस्य तु शीघ्रास्त्रं मघवा प्रत्यपूजयत्।
गन्धर्वाप्सरसश्चैव ये च तत्र समागताः ॥ ७१ ॥
मूलम्
पाण्डवस्य तु शीघ्रास्त्रं मघवा प्रत्यपूजयत्।
गन्धर्वाप्सरसश्चैव ये च तत्र समागताः ॥ ७१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डुनन्दनके शीघ्रतापूर्वक अस्त्र-संचालनके लिये इन्द्रने उनकी बड़ी प्रशंसा की। उनके सिवा वहाँ जो गन्धर्व और अप्सराएँ आयी थीं, उन्होंने भी उनकी बड़ी सराहना की॥७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो वृन्देन महता रथानां रथयूथपः।
आचार्यपुत्रः सहसा पाण्डवं पर्यवारयत् ॥ ७२ ॥
मूलम्
ततो वृन्देन महता रथानां रथयूथपः।
आचार्यपुत्रः सहसा पाण्डवं पर्यवारयत् ॥ ७२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर रथियोंके यूथपति आचार्यपुत्र अश्वत्थामाने रथारोहियोंके विशाल समूहके साथ सहसा वहाँ पहुँचकर पाण्डुनन्दनको चारों ओरसे घेर लिया॥७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्वत्थामा तु तत् कर्म हृदयेन महात्मनः।
पूजयामास पार्थस्य कोपं चास्याकरोद् भृशम् ॥ ७३ ॥
मूलम्
अश्वत्थामा तु तत् कर्म हृदयेन महात्मनः।
पूजयामास पार्थस्य कोपं चास्याकरोद् भृशम् ॥ ७३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अश्वत्थामाने महात्मा अर्जुनके उस पराक्रमकी मन-ही-मन भूरि-भूरि प्रशंसा की और उनपर अपना महान् क्रोध प्रकट किया॥७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स मन्युवशमापन्नः पार्थमभ्यद्रवद् रणे।
किरञ्छरसहस्राणि पर्जन्य इव वृष्टिमान् ॥ ७४ ॥
मूलम्
स मन्युवशमापन्नः पार्थमभ्यद्रवद् रणे।
किरञ्छरसहस्राणि पर्जन्य इव वृष्टिमान् ॥ ७४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आचार्यपुत्र क्रोधके वशीभूत हो गया था। वह रणभूमिमें जल बरसानेवाले मेघकी भाँति सहस्रों बाणोंकी बौछार करता हुआ पार्थपर टूट पड़ा॥७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आवृत्य तु महाबाहुर्यतो द्रौणिस्ततो हयान्।
अन्तरं प्रददौ पार्थो द्रोणस्य व्यपसर्पितुम् ॥ ७५ ॥
मूलम्
आवृत्य तु महाबाहुर्यतो द्रौणिस्ततो हयान्।
अन्तरं प्रददौ पार्थो द्रोणस्य व्यपसर्पितुम् ॥ ७५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब महाबाहु अर्जुनने जिधर अश्वत्थामा था, उसी ओर घोड़ोंको घुमाकर आचार्य द्रोणको भाग जानेका अवसर दे दिया॥७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तु लब्ध्वान्तरं तूर्णमपायाज्जवनैर्हयैः।
छिन्नवर्मध्वजः शूरो निकृत्तः परमेषुभिः ॥ ७६ ॥
मूलम्
स तु लब्ध्वान्तरं तूर्णमपायाज्जवनैर्हयैः।
छिन्नवर्मध्वजः शूरो निकृत्तः परमेषुभिः ॥ ७६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनके उत्तम बाणोंसे द्रोणके कवच और ध्वज छिन्न-भिन्न हो चुके थे। वे स्वयं भी बहुत घायल हो गये थे, अतः मौका पाते ही वेगशाली घोड़ोंको बढ़ाकर तुरंत वहाँसे भाग निकले॥७६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि गोहरणपर्वणि द्रोणापयाने अष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत गोहरणपर्वमें द्रोणाचार्यके पलायनसे सम्बन्ध रखनेवाला अट्ठावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५८॥
-
‘आर्यस्तु मारिषः’ (अमरकोष)। ↩︎