भागसूचना
सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
कृपाचार्य और अर्जुनका युद्ध तथा कौरवपक्षके सैनिकोंद्वारा कृपाचार्यको हटा ले जाना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा व्यूढान्यनीकानि कुरूणां कुरुनन्दन।
तत्र वैराटिमामन्त्र्य पार्थो वचनमब्रवीत् ॥ १ ॥
मूलम्
दृष्ट्वा व्यूढान्यनीकानि कुरूणां कुरुनन्दन।
तत्र वैराटिमामन्त्र्य पार्थो वचनमब्रवीत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! कौरव-सेनाओंको व्यूह-रचना करके खड़ी हुई देखकर कुन्तीनन्दन अर्जुनने विराटकुमार उत्तरको सम्बोधित करके कहा—॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाम्बूनदमयी वेदी ध्वजे यस्य प्रदृश्यते।
तस्य दक्षिणतो याहि कृपः शारद्वतो यतः ॥ २ ॥
मूलम्
जाम्बूनदमयी वेदी ध्वजे यस्य प्रदृश्यते।
तस्य दक्षिणतो याहि कृपः शारद्वतो यतः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उत्तर! जिसकी ध्वजापर सोनेकी वेदीका चिह्न दिखायी देता है, उस रथके दाहिने होकर चलो। उधर ही शरद्वान्के पुत्र कृपाचार्य हैं’॥२॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनंजयवचः श्रुत्वा वैराटिस्त्वरितस्ततः ।
हयान् रजतसंकाशान् हेमभाण्डानचोदयत् ॥ ३ ॥
मूलम्
धनंजयवचः श्रुत्वा वैराटिस्त्वरितस्ततः ।
हयान् रजतसंकाशान् हेमभाण्डानचोदयत् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! धनंजयकी बात सुनकर विराटकुमार उत्तरने तुरंत ही चाँदीके समान चमकीले उन श्वेत घोड़ोंको; जो सोनेके साज-सामानसे सुशोभित हो रहे थे, हाँका॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आनुपूर्व्यात् तु तत् सर्वमास्थाय जवमुत्तमम्।
प्राहिणोच्चन्द्रसंकाशान् कुपितानिव तान् हयान् ॥ ४ ॥
मूलम्
आनुपूर्व्यात् तु तत् सर्वमास्थाय जवमुत्तमम्।
प्राहिणोच्चन्द्रसंकाशान् कुपितानिव तान् हयान् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
घोड़ोंको वेगपूर्वक भगानेके जितने उत्तम ढंग हैं, क्रमशः उन सबका सहारा लेकर उत्तरने उन चन्द्रमाके समान श्वेत घोड़ोंको इतनी तीव्र गतिसे आगे बढ़ाया, मानो वे कुपित होकर भाग रहे हों॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स गत्वा कुरुसेनायाः समीपं हयकोविदः।
पुनरावर्तयामास तान् हयान् वातरंहसः ॥ ५ ॥
प्रदक्षिणमुपावृत्य मण्डलं सव्यमेव च।
मूलम्
स गत्वा कुरुसेनायाः समीपं हयकोविदः।
पुनरावर्तयामास तान् हयान् वातरंहसः ॥ ५ ॥
प्रदक्षिणमुपावृत्य मण्डलं सव्यमेव च।
अनुवाद (हिन्दी)
अश्वविद्यामें प्रवीण विराटपुत्रने पहले कौरवसेनाके समीप जाकर उन वायुके समान वेगशाली घोड़ोंको पुनः लौटाया और दाँयीं ओरसे घुमाकर बाँयीं ओर बढ़ा दिया॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुरून् सम्मोहयामास मत्स्यो यानेन तत्त्ववित् ॥ ६ ॥
कृपस्य रथमास्थाय वैराटिरकुतोभयः ।
प्रदक्षिणमुपावृत्य तस्थौ तस्याग्रतो बली ॥ ७ ॥
मूलम्
कुरून् सम्मोहयामास मत्स्यो यानेन तत्त्ववित् ॥ ६ ॥
कृपस्य रथमास्थाय वैराटिरकुतोभयः ।
प्रदक्षिणमुपावृत्य तस्थौ तस्याग्रतो बली ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अश्वसंचालनका रहस्य जाननेवाले मत्स्यनरेशके पुत्रने रथकी चालसे कौरवोंको मोह (भ्रम) में डाल दिया—वे यह न जान सके कि रथ किस महारथीके पास जाना चाहता है। विराटनन्दन महाबली उत्तरको किसी ओरसे कोई भय नहीं था। उसने कृपाचार्यके रथके समीप जा रथद्वारा उनकी प्रदक्षिणा की। फिर उनके सामने जा वह रथ रोककर खड़ा हो गया॥६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽर्जुनः शङ्खवरं देवदत्तं महारवम्।
प्रदध्मौ बलमास्थाय नाम विश्राव्य चात्मनः ॥ ८ ॥
मूलम्
ततोऽर्जुनः शङ्खवरं देवदत्तं महारवम्।
प्रदध्मौ बलमास्थाय नाम विश्राव्य चात्मनः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब अर्जुनने अपना नाम सुनाकर और पूरा बल लगाकर भारी आवाज करनेवाले अपने उत्तम शंख देवदत्तको बजाया॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य शब्दो महानासीद् धम्यमानस्य जिष्णुना।
तथा वीर्यवता संख्ये पर्वतस्येव दीर्यतः ॥ ९ ॥
मूलम्
तस्य शब्दो महानासीद् धम्यमानस्य जिष्णुना।
तथा वीर्यवता संख्ये पर्वतस्येव दीर्यतः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युद्धभूमिमें वैसे महापराक्रमी विजयशील अर्जुनके द्वारा बजाये जानेपर उस शंखसे इतने जोरकी आवाज हुई, मानो कोई पर्वत फट गया हो॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूजयांचक्रिरे शङ्खं कुरवः सहसैनिकाः।
अर्जुनेन तथा ध्मातः शतधा यन्न दीर्यते ॥ १० ॥
मूलम्
पूजयांचक्रिरे शङ्खं कुरवः सहसैनिकाः।
अर्जुनेन तथा ध्मातः शतधा यन्न दीर्यते ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय समस्त कौरव अपने सैनिकोंके साथ यह कहकर उस शंखकी सराहना करने लगे कि अहो! यह अद्भुत शंख है, जो अर्जुनके इस प्रकार बजानेपर भी उसके सैकड़ों टुकड़े नहीं हो जाते?॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिवमावृत्य शब्दस्तु निवृत्तः शुश्रुवे पुनः।
सृष्टो मघवता वज्रः प्रपतन्निव पर्वते ॥ ११ ॥
मूलम्
दिवमावृत्य शब्दस्तु निवृत्तः शुश्रुवे पुनः।
सृष्टो मघवता वज्रः प्रपतन्निव पर्वते ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह शंखनाद स्वर्गलोकसे टकराकर जब पुनः लौटा, तब इस प्रकार सुनायी दिया, मानो इन्द्रका चलाया हुआ वज्र किसी पर्वतपर गिरा हो॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतस्मिन्नन्तरे वीरो बलवीर्यसमन्वितः ।
अर्जुनं प्रति संरब्धः कृपः परमदुर्जयः।
अमृष्यमाणस्तं शब्दं कृपः शारद्वतस्तदा ॥ १२ ॥
अर्जुनं प्रति संरब्धो युद्धार्थी स महारथः।
महोदधिजमादाय दध्मौ वेगेन वीर्यवान् ॥ १३ ॥
मूलम्
एतस्मिन्नन्तरे वीरो बलवीर्यसमन्वितः ।
अर्जुनं प्रति संरब्धः कृपः परमदुर्जयः।
अमृष्यमाणस्तं शब्दं कृपः शारद्वतस्तदा ॥ १२ ॥
अर्जुनं प्रति संरब्धो युद्धार्थी स महारथः।
महोदधिजमादाय दध्मौ वेगेन वीर्यवान् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीरवर कृपाचार्य बल और पराक्रमसे सम्पन्न थे। उन्हें जीतना अत्यन्त कठिन था। वे अर्जुनके शंख बजानेके अनन्तर उनके प्रति कुपित हो उठे। शरद्वान्के पुत्र महारथी कृपाचार्य उस समय अर्जुनके शंखनादको नहीं सह सके उनके मनमें अर्जुनपर कुछ रोष हो आया; इसलिये युद्धके (उसके साथ) अभिलाषी होकर उन महापराक्रमी महारथीने अपना शंख लेकर उसे बड़े जोरसे फूँका॥१२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तु शब्देन लोकांस्त्रीनावृत्य रथिनां वरः।
धनुरादाय सुमहज्ज्याशब्दमकरोत् तदा ॥ १४ ॥
मूलम्
स तु शब्देन लोकांस्त्रीनावृत्य रथिनां वरः।
धनुरादाय सुमहज्ज्याशब्दमकरोत् तदा ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रथियोंमें श्रेष्ठ कृपाचार्यने उस शंखनादसे तीनों लोकोंको गुँजाकर उस समय हाथमें धनुष ले लिया और उसकी प्रत्यंचा खींचकर टंकारध्वनि की॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौ रथौ सूर्यसंकाशौ योत्स्यमानौ महाबलौ।
शारदाविव जीमूतौ व्यरोचेतां व्यवस्थितौ ॥ १५ ॥
मूलम्
तौ रथौ सूर्यसंकाशौ योत्स्यमानौ महाबलौ।
शारदाविव जीमूतौ व्यरोचेतां व्यवस्थितौ ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे दोनों महारथी बड़े पराक्रमी और सूर्यके समान तेजस्वी थे, अतः युद्ध करनेके लिये खड़े हुए वे दोनों वीर शरत्कालके दो मेघोंकी भाँति शोभा पाने लगे॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः शारद्वतस्तूर्णं पार्थं दशभिराशुगैः।
विव्याध परवीरघ्नं निशितैर्मर्मभेदिभिः ॥ १६ ॥
मूलम्
ततः शारद्वतस्तूर्णं पार्थं दशभिराशुगैः।
विव्याध परवीरघ्नं निशितैर्मर्मभेदिभिः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर कृपाचार्यने मर्मस्थानको विदीर्ण कर देनेवाले दस तीखे बाणोंद्वारा शत्रुवीरोंके संहारक कुन्तीनन्दन अर्जुनको तुरंत बींध डाला॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पार्थोऽपि विश्रुतं लोके गाण्डीवं परमायुधम्।
विकृष्य चिक्षेप बहून् नाराचान् मर्मभेदिनः ॥ १७ ॥
मूलम्
पार्थोऽपि विश्रुतं लोके गाण्डीवं परमायुधम्।
विकृष्य चिक्षेप बहून् नाराचान् मर्मभेदिनः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब अर्जुनने भी अपने विश्वविख्यात उत्तम आयुध गाण्डीवको (कानतक) खींचकर बहुत-से मर्मभेदी नाराच छोड़े॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तानप्राप्तान् शितैर्बाणैर्नासचान् रक्तभोजनान् ।
कृपश्चिच्छेद पार्थस्य शतशोऽथ सहस्रशः ॥ १८ ॥
मूलम्
तानप्राप्तान् शितैर्बाणैर्नासचान् रक्तभोजनान् ।
कृपश्चिच्छेद पार्थस्य शतशोऽथ सहस्रशः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किंतु अर्जुनके द्वारा चलाये हुए उन रक्त पीनेवाले नाराचोंको अपने पास आनेसे पहले ही कृपाचार्यने तीखे बाण मारकर उनके सैकड़ों और हजारों टुकड़े कर डाले॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पार्थस्तु संक्रुद्धश्चित्रान् मार्गान् प्रदर्शयन्।
दिशः संछादयन् बाणैः प्रदिशश्च महारथः।
एकच्छायमिवाकाशमकरोत् सर्वतः प्रभुः ॥ १९ ॥
मूलम्
ततः पार्थस्तु संक्रुद्धश्चित्रान् मार्गान् प्रदर्शयन्।
दिशः संछादयन् बाणैः प्रदिशश्च महारथः।
एकच्छायमिवाकाशमकरोत् सर्वतः प्रभुः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब सामर्थ्यशाली महारथी कुन्तीपुत्र अर्जुनने क्रोधमें भरकर बाण चलानेकी विचित्र पद्धतियोंका प्रदर्शन करते हुए बाणोंकी झड़ी लगाकर सम्पूर्ण दिशा-विदिशाओंको ढँक दिया और आकाशको सब ओरसे एकमात्र अन्धकारमें निमग्न-सा कर दिया॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राच्छादयदमेयात्मा पार्थः शरशतैः कृपम्।
स शरैरर्दितः क्रुद्धः शितैरग्निशिखोपमैः ॥ २० ॥
मूलम्
प्राच्छादयदमेयात्मा पार्थः शरशतैः कृपम्।
स शरैरर्दितः क्रुद्धः शितैरग्निशिखोपमैः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर अचिन्त्य मन-बुद्धिवाले पृथापुत्र अर्जुनने सैकड़ों बाण मारकर कृपाचार्यको ढँक दिया। आगकी लपटोंके समान जलानेवाले उन तीखे बाणोंसे पीड़ित होनेपर कृपाचार्यको बड़ा क्रोध हुआ॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तूर्णं दशसहस्रेण पार्थमप्रतिमौजसम् ।
अर्दयित्वा महात्मानं ननर्द समरे कृपः ॥ २१ ॥
मूलम्
तूर्णं दशसहस्रेण पार्थमप्रतिमौजसम् ।
अर्दयित्वा महात्मानं ननर्द समरे कृपः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उन्होंने अनुपम पराक्रमी महात्मा पृथापुत्रको युद्धमें तुरंत ही दस हजार बाणोंसे पीड़ित करके बड़े जोरसे गर्जना की॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कनकपर्वाग्रैर्वीरः संनतपर्वभिः ।
त्वरन् गाण्डीवनिर्मुक्तैरर्जुनस्तस्य वाजिनः ॥ २२ ॥
चतुर्भिश्चतुरस्तीक्ष्णैरविध्यत् परमेषुभिः ।
ते हया निशितैर्बाणैर्ज्वलद्भिरिव पन्नगैः।
उत्पेतुः सहसा सर्वे कृपः स्थानादथाच्यवत् ॥ २३ ॥
मूलम्
ततः कनकपर्वाग्रैर्वीरः संनतपर्वभिः ।
त्वरन् गाण्डीवनिर्मुक्तैरर्जुनस्तस्य वाजिनः ॥ २२ ॥
चतुर्भिश्चतुरस्तीक्ष्णैरविध्यत् परमेषुभिः ।
ते हया निशितैर्बाणैर्ज्वलद्भिरिव पन्नगैः।
उत्पेतुः सहसा सर्वे कृपः स्थानादथाच्यवत् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब वीर अर्जुनने गाण्डीव धनुषसे छूटे हुए झुकी हुई गाँठ और सुनहरे पर्वाग्र (फल)-वाले चार बाणोंद्वारा बड़ी उतावलीसे कृपाचार्यके चारों घोड़ोंको बींध डाला। वे चारों बाण बड़े तीखे और उत्तम थे। विषाग्निसे जलते हुए सर्पोंकी भाँति उन तेज बाणोंकी मार खाकर वे सभी घोड़े सहसा उछल पड़े। इससे कृपाचार्य अपने स्थानसे गिर गये॥२२-२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
च्युतं तु गौतमं स्थानात् समीक्ष्य कुरुनन्दनः।
नाविध्यत् परवीरघ्नो रक्षमाणोऽस्य गौरवम् ॥ २४ ॥
मूलम्
च्युतं तु गौतमं स्थानात् समीक्ष्य कुरुनन्दनः।
नाविध्यत् परवीरघ्नो रक्षमाणोऽस्य गौरवम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कृपाचार्यको स्थानसे गिरा हुआ देख शत्रुवीरोंका नाश करनेवाले कुरुनन्दन अर्जुनने उनके गौरवकी रक्षा करते हुए उनपर बाणोंसे आघात नहीं किया॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तु लब्ध्वा पुनः स्थानं गौतमः सव्यसाचिनम्।
विव्याध दशभिर्बाणैस्त्वरितः कङ्कपत्रिभिः ॥ २५ ॥
मूलम्
स तु लब्ध्वा पुनः स्थानं गौतमः सव्यसाचिनम्।
विव्याध दशभिर्बाणैस्त्वरितः कङ्कपत्रिभिः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किंतु कृपाचार्यने पुनः अपना स्थान ग्रहण कर लेनेपर तुरंत ही सफेद चीलके पंखोंसे युत्त दस बाणोंका प्रहार करके सव्यसाची अर्जुनको बींध डाला॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पार्थो धनुस्तस्य भल्लेन निशितेन ह।
चिच्छेदैकेन भूयश्च हस्तावापमथाहरत् ॥ २६ ॥
मूलम्
ततः पार्थो धनुस्तस्य भल्लेन निशितेन ह।
चिच्छेदैकेन भूयश्च हस्तावापमथाहरत् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब अर्जुनने एक तीखे भल्ल नामक बाणद्वारा कृपाचार्यका धनुष काट डाला और पुनः उनके दस्तानेको नष्ट कर दिया॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथास्य कवचं बाणैर्निशितैर्मर्मभेदिभिः ।
व्यधमन्न च पार्थोऽस्य शरीरमवपीडयत् ॥ २७ ॥
मूलम्
अथास्य कवचं बाणैर्निशितैर्मर्मभेदिभिः ।
व्यधमन्न च पार्थोऽस्य शरीरमवपीडयत् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके बाद पार्थने मर्मभेदी तीखे बाणोंद्वारा उनके कवचको भी छिन्न-भिन्न कर दिया, किंतु उनके शरीरको तनिक भी कष्ट नहीं पहुँचाया॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य निर्मुच्यमानस्य कवचात् काय आबभौ।
समये मुच्यमानस्य सर्पस्येव तनुर्यथा ॥ २८ ॥
मूलम्
तस्य निर्मुच्यमानस्य कवचात् काय आबभौ।
समये मुच्यमानस्य सर्पस्येव तनुर्यथा ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कवचसे मुक्त होनेपर कृपाचार्यका शरीर इस प्रकार सुशोभित हुआ, मानो समयपर केंचुल छूटनेके बाद सर्पका शरीर सुशोभित हो रहा हो॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
छिन्ने धनुषि पार्थेन सोऽन्यदादाय कार्मुकम्।
चकार गौतमः सज्यं तदद्भुतमिवाभवत् ॥ २९ ॥
मूलम्
छिन्ने धनुषि पार्थेन सोऽन्यदादाय कार्मुकम्।
चकार गौतमः सज्यं तदद्भुतमिवाभवत् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनद्वारा धनुष काट दिये जानेपर गौतम (कृप) ने दूसरा धनुष लेकर उसपर प्रत्यंचा चढ़ा ली। यह एक अद्भुत-सी बात हुई॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तदप्यस्य कौन्तेयश्चिच्छेद नतपर्वणा।
एवमन्यानि चापानि बहूनि कृतहस्तवत्।
शारद्वतस्य चिच्छेद पाण्डवः परवीरहा ॥ ३० ॥
मूलम्
स तदप्यस्य कौन्तेयश्चिच्छेद नतपर्वणा।
एवमन्यानि चापानि बहूनि कृतहस्तवत्।
शारद्वतस्य चिच्छेद पाण्डवः परवीरहा ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु कुन्तीनन्दनने झुकी हुई गाँठवाले एक बाणसे उनके उस धनुषको भी काट दिया और इसी प्रकार कृपाचार्यके बहुत-से दूसरे धनुष भी शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले पाण्डुनन्दनने हाथकी फुर्ती दिखानेमें कुशल वीरकी भाँति छिन्न-भिन्न कर डाले॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स च्छिन्नधनुरादाय रथशक्तिं प्रतापवान्।
प्राहिणोत् पाण्डुपुत्राय प्रदीप्तामशनीमिव ॥ ३१ ॥
मूलम्
स च्छिन्नधनुरादाय रथशक्तिं प्रतापवान्।
प्राहिणोत् पाण्डुपुत्राय प्रदीप्तामशनीमिव ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस तरह धनुष कट जानेपर प्रतापी कृपाचार्यने पाण्डुपुत्र अर्जुनपर वज्रकी भाँति प्रज्वलित रथशक्ति चलायी॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामर्जुनस्तदाऽऽयान्तीं शक्तिं हेमविभूषिताम् ।
वियद्गतां महोल्काभां चिच्छेद दशभिः शरैः ॥ ३२ ॥
सापतद् दशधा छिन्ना भूमौ पार्थेन धीमता ॥ ३३ ॥
मूलम्
तामर्जुनस्तदाऽऽयान्तीं शक्तिं हेमविभूषिताम् ।
वियद्गतां महोल्काभां चिच्छेद दशभिः शरैः ॥ ३२ ॥
सापतद् दशधा छिन्ना भूमौ पार्थेन धीमता ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब अर्जुनने भारी उल्काकी भाँति अपनी ओर आती हुई उस सुवर्णभूषित शक्तिको दस बाण मारकर आकाशमें ही काट डाला। बुद्धिमान् पार्थके द्वारा दस टुकड़ोंमें कटी हुई वह शक्ति पृथ्वीपर गिर पड़ी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युगपच्चैव भल्लैस्तु ततः सज्यधनुः कृपः।
तमाशु निशितैः पार्थं बिभेद दशभिः शरैः ॥ ३४ ॥
मूलम्
युगपच्चैव भल्लैस्तु ततः सज्यधनुः कृपः।
तमाशु निशितैः पार्थं बिभेद दशभिः शरैः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब कृपाचार्यने पुनः प्रत्यंचासहित धनुष लेकर उसके ऊपर एक ही साथ भल्ल नामक दस बाणोंका संधान किया और उन दसों तीक्ष्ण बाणोंद्वारा तुरंत ही अर्जुनको बींध डाला॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पार्थो महातेजा विशिखानग्नितेजसः।
चिक्षेप समरे क्रुद्धस्त्रयोदश शिलाशितान् ॥ ३५ ॥
मूलम्
ततः पार्थो महातेजा विशिखानग्नितेजसः।
चिक्षेप समरे क्रुद्धस्त्रयोदश शिलाशितान् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर महातेजस्वी कुन्तीपुत्रने उस संग्रामभूमिमें कुपित हो (कृपाचार्यपर) पत्थरपर रगड़कर तेज किये हुए अग्निके समान तेजस्वी तेरह बाण चलाये॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथास्य युगमेकेन चतुर्भिश्चतुरो हयान्।
षष्ठेन च शिरः कायाच्छरेण रथसारथेः ॥ ३६ ॥
मूलम्
अथास्य युगमेकेन चतुर्भिश्चतुरो हयान्।
षष्ठेन च शिरः कायाच्छरेण रथसारथेः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक बाणसे उनके रथका जूआ काटकर चार बाणोंसे चारों घोड़े मार डाले और छठे बाणसे रथके सारथिका सिर धड़से अलग कर दिया॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिभिस्त्रिवेणुं समरे द्वाभ्यामक्षं महारथः।
द्वादशेन तु भल्लेन चकर्तास्य ध्वजं तदा ॥ ३७ ॥
ततो वज्रनिकाशेन फाल्गुनः प्रहसन्निव।
त्रयोदशेनेन्द्रसमः कृपं वक्षस्यविध्यत ॥ ३८ ॥
मूलम्
त्रिभिस्त्रिवेणुं समरे द्वाभ्यामक्षं महारथः।
द्वादशेन तु भल्लेन चकर्तास्य ध्वजं तदा ॥ ३७ ॥
ततो वज्रनिकाशेन फाल्गुनः प्रहसन्निव।
त्रयोदशेनेन्द्रसमः कृपं वक्षस्यविध्यत ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर उन महारथी अर्जुनने तीन बाणोंसे रथके तीनों वेणु, दोसे रथका धुरा और बारहवें भल्ल नामक बाणसे उनके रथकी ध्वजाको भी उस समय रणभूमिमें काट गिराया। इसके बाद इन्द्रके समान पराक्रमी फाल्गुनने हँसते हुए-से वज्रसदृश तेरहवें बाणद्वारा कृपाचार्यकी छातीमें चोट पहुँचायी॥३७-३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स च्छिन्नधन्वा विरथो हताश्वो हतसारथिः।
गदापाणिरवप्लुत्य तूर्णं चिक्षेप तां गदाम् ॥ ३९ ॥
मूलम्
स च्छिन्नधन्वा विरथो हताश्वो हतसारथिः।
गदापाणिरवप्लुत्य तूर्णं चिक्षेप तां गदाम् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार धनुष, रथ, घोड़े और सारथि आदिके नष्ट हो जानेपर कृपाचार्य हाथमें गदा लिये रथसे कूद पड़े और तुरंत ही उसे अर्जुनपर दे मारा॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा च मुक्ता गदा गुर्वी कृपेण सुपरिष्कृता।
अर्जुनेन शरैर्नुन्ना प्रतिमार्गमथागमत् ॥ ४० ॥
मूलम्
सा च मुक्ता गदा गुर्वी कृपेण सुपरिष्कृता।
अर्जुनेन शरैर्नुन्ना प्रतिमार्गमथागमत् ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसका सुवर्ण आदिसे भलीभाँति परिष्कार किया गया था, वह कृपाचार्यद्वारा चलायी हुई भारी गदा अर्जुनके बाणोंसे प्रेरित हो उलटी लौट गयी॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं तु योधाः परीप्सन्तः शारद्वतममर्षणम्।
सर्वतः समरे पार्थं शरवर्षैरवाकिरन् ॥ ४१ ॥
मूलम्
तं तु योधाः परीप्सन्तः शारद्वतममर्षणम्।
सर्वतः समरे पार्थं शरवर्षैरवाकिरन् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शरद्वान्के पुत्र कृपाचार्य अत्यन्त अमर्षमें भरे थे। उनके प्राण बचानेकी इच्छावाले कौरव सैनिक सब ओरसे आकर उस युद्धमें अर्जुनपर बाणोंकी वर्षा करने लगे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो विराटस्य सुतः सव्यमावृत्य वाजिनः।
यमकं मण्डलं कृत्वा तान् योधान् प्रत्यवारयत् ॥ ४२ ॥
मूलम्
ततो विराटस्य सुतः सव्यमावृत्य वाजिनः।
यमकं मण्डलं कृत्वा तान् योधान् प्रत्यवारयत् ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह देख विराटपुत्र उत्तरने घोड़ोंको दाँयीं ओरसे घुमाकर यमकमण्डलसे रथ-संचालन करते हुए उन सब योद्धाओंको बाणवर्षासे रोक दिया॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कृपमुपादाय विरथं ते नरर्षभाः।
अपजह्रुर्महावेगा कुन्तीपुत्राद् धनंजयात् ॥ ४३ ॥
मूलम्
ततः कृपमुपादाय विरथं ते नरर्षभाः।
अपजह्रुर्महावेगा कुन्तीपुत्राद् धनंजयात् ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतनेमें ही वे नरश्रेष्ठ सैनिक कुन्तीपुत्र धनंजयसे डरकर रथहीन कृपाचार्यको बड़े वेगसे हटा ले गये॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि गोहरणपर्वणि उत्तरगोग्रहणे कृपापयाने सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत गोहरणपर्वमें उत्तरगोष्ठकी गौओंके अपहरणके प्रसंगमें कृपाचार्यका पलायनसम्बन्धी सत्तावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५७॥