०५५ अर्जुनकृपसंग्रामे

भागसूचना

पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अर्जुनद्वारा कौरवसेनाका संहार और उत्तरका उनके रथको कृपाचार्यके पास ले जाना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपयाते तु राधेये दुर्योधनपुरोगमाः।
अनीकेन यथास्वेन शनैरार्च्छन्त पाण्डवम् ॥ १ ॥

मूलम्

अपयाते तु राधेये दुर्योधनपुरोगमाः।
अनीकेन यथास्वेन शनैरार्च्छन्त पाण्डवम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! राधानन्दन कर्णके भाग जानेपर दुर्योधन आदि कौरवयोद्धा अपनी-अपनी सेनाके साथ धीरे-धीरे पाण्डुनन्दन अर्जुनकी ओर बढ़ आये॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुधा तस्य सैन्यस्य व्यूढस्यापततः शरैः।
अधारयत वेगं स वेलेव तु महोदधेः ॥ २ ॥

मूलम्

बहुधा तस्य सैन्यस्य व्यूढस्यापततः शरैः।
अधारयत वेगं स वेलेव तु महोदधेः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब जैसे वेला (तटभूमि) महासागरके वेगको रोक लेती है, उसी प्रकार अर्जुनने व्यूहरचनापूर्वक बाणवर्षाके साथ आती हुई अनेक भागोंमें विभक्त कौरवसेनाके बढ़ावको रोक दिया॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रहस्य बीभत्सुः कौन्तेयः श्वेतवाहनः।
दिव्यमस्त्रं प्रकुर्वाणः प्रत्यायाद् रथसत्तमः ॥ ३ ॥
यथा रश्मिभिरादित्यः प्रच्छादयति मेदिनीम्।
तथा गाण्डीवनिर्मुक्तैः शरैः पार्थो दिशो दश ॥ ४ ॥

मूलम्

ततः प्रहस्य बीभत्सुः कौन्तेयः श्वेतवाहनः।
दिव्यमस्त्रं प्रकुर्वाणः प्रत्यायाद् रथसत्तमः ॥ ३ ॥
यथा रश्मिभिरादित्यः प्रच्छादयति मेदिनीम्।
तथा गाण्डीवनिर्मुक्तैः शरैः पार्थो दिशो दश ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर श्वेत घोड़ोंवाले श्रेष्ठ रथपर आरूढ़ कुन्तीनन्दन अर्जुनने हँसकर दिव्यास्त्र प्रकट करते हुए उस सेनाका सामना किया। जैसे सूर्यदेव अपनी अनन्त किरणोंद्वारा समूची पृथ्वीको आच्छादित कर लेते हैं, उसी प्रकार अर्जुनने गाण्डीव धनुषसे छूटे हुए असंख्य बाणोंद्वारा दसों दिशाओंको ढँक दिया॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न रथानां न चाश्वानां न गजानां न वर्मणाम्।
अनिविद्धं शितैर्बाणैरासीद्‌द्व्यङ्‌गुलमन्तरम् ॥ ५ ॥

मूलम्

न रथानां न चाश्वानां न गजानां न वर्मणाम्।
अनिविद्धं शितैर्बाणैरासीद्‌द्व्यङ्‌गुलमन्तरम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ रथों, घोड़ों, हाथियों तथा उनके सवारोंके अंगों और कवचोंमें दो अंगुल भी ऐसा स्थान नहीं बचा था, जो अर्जुनके तीखे बाणोंसे बिंध न गया हो॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिव्ययोगाच्च पार्थस्य हयानामुत्तरस्य च।
शिक्षाशिल्पोपपन्नत्वादस्त्राणां च परिक्रमात् ।
वीर्यवत्त्वं द्रुतं चाग्र्यं दृष्ट्वा जिष्णोरपूजयन् ॥ ६ ॥

मूलम्

दिव्ययोगाच्च पार्थस्य हयानामुत्तरस्य च।
शिक्षाशिल्पोपपन्नत्वादस्त्राणां च परिक्रमात् ।
वीर्यवत्त्वं द्रुतं चाग्र्यं दृष्ट्वा जिष्णोरपूजयन् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनके दिव्यास्त्रोंका प्रयोग, घोड़ोंकी शिक्षा, रथ-संचालनकी कलामें उत्तरका कौशल तथा पार्थके अस्त्र चलानेका क्रम—इन सबके कारण तथा उनका पराक्रम और अत्यन्त फुर्ती देखकर शत्रु भी उनकी प्रशंसा करने लगे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालाग्निमिव बीभत्सुं निर्दहन्तमिव प्रजाः।
नारयः प्रेक्षितुं शेकुर्ज्वलन्तमिव पावकम् ॥ ७ ॥

मूलम्

कालाग्निमिव बीभत्सुं निर्दहन्तमिव प्रजाः।
नारयः प्रेक्षितुं शेकुर्ज्वलन्तमिव पावकम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन समस्त प्रजाका संहार करनेवाली प्रलयकालीन अग्निके समान शत्रुओंको भस्म कर रहे थे। वे मानो जलती आग हो रहे थे। शत्रु उनकी ओर आँख उठाकर देख भी नहीं पाते थे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तानि ग्रस्तान्यनीकानि रेजुरर्जुनमार्गणैः ।
शैलं प्रति बलाभ्राणि व्याप्तानीवार्करश्मिभिः ॥ ८ ॥

मूलम्

तानि ग्रस्तान्यनीकानि रेजुरर्जुनमार्गणैः ।
शैलं प्रति बलाभ्राणि व्याप्तानीवार्करश्मिभिः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनके बाणोंसे आच्छादित हुई कौरवोंकी सेना इस प्रकार सुशोभित हुई, मानो पर्वतके निकट नवीन मेघोंकी घटा सूर्यकी किरणोंसे व्याप्त हो गयी हो॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अशोकानां वनानीवच्छन्नानि बहुशः शुभैः।
रेजुः पार्थशरैस्तत्र तदा सैन्यानि भारत ॥ ९ ॥

मूलम्

अशोकानां वनानीवच्छन्नानि बहुशः शुभैः।
रेजुः पार्थशरैस्तत्र तदा सैन्यानि भारत ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! उस समय कुन्तीपुत्र अर्जुनके बाणोंसे घायल हो लहूलुहान हुए कौरवसैनिक बहुतेरे लाल फूलोंसे आच्छादित अशोकवनके समान शोभा पा रहे थे॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्रजोऽर्जुनशरैः शीर्णं शुष्यत्पुष्पं हिरण्मयम्।
छत्राणि च पताकाश्च खे दधार सदागतिः ॥ १० ॥

मूलम्

स्रजोऽर्जुनशरैः शीर्णं शुष्यत्पुष्पं हिरण्मयम्।
छत्राणि च पताकाश्च खे दधार सदागतिः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनके बाणोंसे छिन्न-भिन्न हो हारसे टूटकर बिखरे हुए स्वर्णचम्पाके सूखे फूल, छत्र और पताकाओं आदिको वायु कुछ देरतक आकाशमें ही धारण किये रहती थी (बाणोंके जालपर रुक जानेसे वे जल्दी नीचे नहीं गिरते थे)॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वबलत्रासनात्त्रस्ताः परिपेतुर्दिशो दश ।
रथाङ्गदेशानादाय पार्थच्छिन्नयुगा हयाः ॥ ११ ॥

मूलम्

स्वबलत्रासनात्त्रस्ताः परिपेतुर्दिशो दश ।
रथाङ्गदेशानादाय पार्थच्छिन्नयुगा हयाः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनने जिनके जुए काट दिये थे, वे शत्रुदलके घोड़े अपनी सेनाकी घबराहटसे स्वयं भी व्यग्र हो उठे और जुएका एक-एक टुकड़ा अपने साथ लिये सब ओर भागने लगे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णकक्षविषाणेषु अन्तरोष्ठेषु चैव ह।
मर्मस्वङ्गेषु चाहत्यापातयत् समरे गजान् ॥ १२ ॥

मूलम्

कर्णकक्षविषाणेषु अन्तरोष्ठेषु चैव ह।
मर्मस्वङ्गेषु चाहत्यापातयत् समरे गजान् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब अर्जुन युद्धभूमिमें गजराजोंके कान, कक्ष, दाँत, निचले ओठ तथा अन्य मर्मस्थानोंमें बाण मारकर उन्हें धराशायी करने लगे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कौरवाग्रगजानां तु शरीरैर्गतचेतसाम् ।
क्षणेन संवृता भूमिर्मेघैरिव नभस्तलम् ॥ १३ ॥

मूलम्

कौरवाग्रगजानां तु शरीरैर्गतचेतसाम् ।
क्षणेन संवृता भूमिर्मेघैरिव नभस्तलम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक ही क्षणमें प्राणहीन हुए कौरवसेनाके आगे चलनेवाले गजराजोंकी लाशोंसे वहाँकी भूमि पट गयी एवं मेघोंकी घटासे आच्छादित आकाशकी भाँति प्रतीत होने लगी॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युगान्तसमये सर्वं यथा स्थावरजङ्गमम्।
कालक्षयमशेषेण दहत्यग्रशिखः शिखी ।
तद्वत् पार्थो महाराज ददाह समरे रिपून् ॥ १४ ॥

मूलम्

युगान्तसमये सर्वं यथा स्थावरजङ्गमम्।
कालक्षयमशेषेण दहत्यग्रशिखः शिखी ।
तद्वत् पार्थो महाराज ददाह समरे रिपून् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! जैसे प्रलयकालमें लपलपाती लपटोंके साथ आगे बढ़नेवाली संवर्तकाग्नि सम्पूर्ण चराचर जगत्‌को भस्म कर डालती है, उसी प्रकार कुन्तीनन्दन अर्जुन उस समरभूमिमें शत्रुओंको अपनी बाणाग्निसे दग्ध करने लगे॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सर्वास्त्रतेजोभिर्धनुषो निःस्वनेन च।
शब्देनामानुषाणां च भूतानां ध्वजवासिनाम्।
भैरवं शब्दमत्यर्थं वानरस्य च कुर्वतः ॥ १५ ॥
दैवारिपाच्च बीभत्सुस्तस्मिन् दौर्योधने वने।
भयमुत्पादयामास बलवानरिमर्दनः ॥ १६ ॥

मूलम्

ततः सर्वास्त्रतेजोभिर्धनुषो निःस्वनेन च।
शब्देनामानुषाणां च भूतानां ध्वजवासिनाम्।
भैरवं शब्दमत्यर्थं वानरस्य च कुर्वतः ॥ १५ ॥
दैवारिपाच्च बीभत्सुस्तस्मिन् दौर्योधने वने।
भयमुत्पादयामास बलवानरिमर्दनः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर शत्रुओंका मान मर्दन करनेवाले बलवान् अर्जुनने अपने सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंके तेजसे, धनुषकी टंकारसे, ध्वजामें निवास करनेवाले मानवेतर भूतोंके भयंकर कोलाहलसे, अत्यन्त भैरव गर्जना करनेवाले वानरके प्रभावसे तथा भीषण नाद फैलानेवाले शंखसे भी दुर्योधनकी उस सेनामें भारी भय उत्पन्न कर दिया॥१५-१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथशक्तिममित्राणां प्रागेव निपतद् भुवि।
सोऽपयात्‌ सहसा पश्चात्‌ साहसाच्चाभ्युपेयिवान् ॥ १७ ॥

मूलम्

रथशक्तिममित्राणां प्रागेव निपतद् भुवि।
सोऽपयात्‌ सहसा पश्चात्‌ साहसाच्चाभ्युपेयिवान् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंकी रथशक्तिको तो अर्जुन पहलेसे ही धरतीपर सुला चुके थे। फिर असमर्थोंका वध करना अनुचित साहस मानकर वे एक बार वहाँसे हट गये, परंतु (उन सैनिकोंको युद्धके लिये उद्यत देख) फिर उनके पास आ गये॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरव्रातैः सुतीक्ष्णाग्रैः समादिष्टैः खगैरिव।
अर्जुनस्तु खमावव्रे लोहितप्राशनैः खगैः ॥ १८ ॥

मूलम्

शरव्रातैः सुतीक्ष्णाग्रैः समादिष्टैः खगैरिव।
अर्जुनस्तु खमावव्रे लोहितप्राशनैः खगैः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनके धनुषसे छूटे हुए अत्यन्त तीखी धारवाले बाणसमूह मानो रक्त पीनेवाले आकाशचारी पक्षी थे, उनके द्वारा उन्होंने सम्पूर्ण आकाशको ढँक दिया॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र मध्ये यथार्कस्य रश्मयस्तिग्मतेजसः।
दिशासु च तथा राजन्नसंख्याताः शरास्तदा ॥ १९ ॥

मूलम्

अत्र मध्ये यथार्कस्य रश्मयस्तिग्मतेजसः।
दिशासु च तथा राजन्नसंख्याताः शरास्तदा ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जैसे प्रचण्ड तेजवाले सूर्यदेवकी किरणें एक पात्रमें नहीं अँट सकतीं, उसी प्रकार उस समय सम्पूर्ण दिशाओंमें फैले हुए अर्जुनके असंख्य बाण आकाशमें समा नहीं पाते थे॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सकृदेवानतं शेकू रथमभ्यसितुं परे।
अलभ्यः पुनरश्वैस्तु रथात् सोऽतिप्रपादयेत् ॥ २० ॥

मूलम्

सकृदेवानतं शेकू रथमभ्यसितुं परे।
अलभ्यः पुनरश्वैस्तु रथात् सोऽतिप्रपादयेत् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुसैनिक अर्जुनका रथ निकट आनेपर उसे एक ही बार पहचान पाते थे; दुबारा इसके लिये उन्हें अवसर नहीं मिलता था; क्योंकि पास आते ही अर्जुन उन्हें घोड़ोंसहित इस लोकसे परलोक भेज देते थे॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते शरा द्विट्‌शरीरेषु यथैव न ससज्जिरे।
द्विडनीकेषु बीभत्सोर्न ससज्जे रथस्तदा ॥ २१ ॥

मूलम्

ते शरा द्विट्‌शरीरेषु यथैव न ससज्जिरे।
द्विडनीकेषु बीभत्सोर्न ससज्जे रथस्तदा ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनके वे बाण जिस प्रकार शत्रुओंके शरीरमें अटकते नहीं थे, उन्हें छेदकर पार निकल जाते थे, उसी प्रकार उनका रथ भी उस समय शत्रु-सेनाओंमें कहीं रुकता नहीं था; उनको चीरता हुआ आगे बढ़ जाता था॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तद् विक्षोभयामास ह्यरातिबलमञ्जसा।
अनन्तभोगो भुजगः क्रीडन्निव महार्णवे ॥ २२ ॥

मूलम्

स तद् विक्षोभयामास ह्यरातिबलमञ्जसा।
अनन्तभोगो भुजगः क्रीडन्निव महार्णवे ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे अनन्त फणोंवाले नागराज शेष महासागरमें क्रीड़ा करते हुए उसे मथ डालते हैं, उसी प्रकार अर्जुनने अनायास ही शत्रुसेनामें घूम-घूमकर भारी हलचल पैदा कर दी॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्यतो नित्यमत्यर्थं सर्वमेवातिगस्तथा ।
अश्रुतः श्रूयते भूतैर्धनुर्घोषः किरीटिनः ॥ २३ ॥

मूलम्

अस्यतो नित्यमत्यर्थं सर्वमेवातिगस्तथा ।
अश्रुतः श्रूयते भूतैर्धनुर्घोषः किरीटिनः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब अर्जुन बाण चलाते थे, उस समय समस्त प्राणी सदा उनके गाण्डीव धनुषकी बड़े जोरसे होनेवाली अद्‌भुत टंकार सुनते थे। वैसी टंकार-ध्वनि पहले किसीने कभी नहीं सुनी थी। उसके सामने दूसरे सभी प्रकारके शब्द दब जाते थे॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संततास्तत्र मातङ्गा बाणैरल्पान्तरान्तरे ।
संवृतास्तेन दृश्यन्ते मेघा इव गभस्तिभिः ॥ २४ ॥

मूलम्

संततास्तत्र मातङ्गा बाणैरल्पान्तरान्तरे ।
संवृतास्तेन दृश्यन्ते मेघा इव गभस्तिभिः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस युद्धभूमिमें खड़े हुए हाथियोंके सम्पूर्ण अंग बहुत थोड़ी-थोड़ी दूरपर बाणोंसे छिद गये थे। इस कारण वे सूर्यकी किरणोंसे आवृत मेघोंकी घटाके समान दिखायी देते थे॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिशोऽनुभ्रमतः सर्वाः सव्यदक्षिणमस्यतः ।
सततं दृश्यते युद्धे सायकासनमण्डलम् ॥ २५ ॥

मूलम्

दिशोऽनुभ्रमतः सर्वाः सव्यदक्षिणमस्यतः ।
सततं दृश्यते युद्धे सायकासनमण्डलम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन सब दिशाओंमें बार-बार घूमते हुए दाँयें-बाँयें बाण चला रहे थे; इसलिये युद्धमें अलातचक्रकी भाँति उनका मण्डलाकार धनुष सदा दृष्टिगोचर होता रहता था॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतन्त्यरूपेषु यथा चक्षूंषि न कदाचन।
नालक्ष्येषु शराः पेतुस्तथा गाण्डीवधन्वनः ॥ २६ ॥

मूलम्

पतन्त्यरूपेषु यथा चक्षूंषि न कदाचन।
नालक्ष्येषु शराः पेतुस्तथा गाण्डीवधन्वनः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे आँखें रूपहीन पदार्थोंपर कभी नहीं पड़तीं, उसी प्रकार गाण्डीवधारी अर्जुनके बाण उन व्यक्तियोंपर नहीं पड़ते थे, जो उनके बाणोंके लक्ष्य नहीं थे (अर्थात् जिन्हें वे अपने बाणोंका निशाना नहीं बनाना चाहते थे।)॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मार्गो गजसहस्रस्य युगपद् गच्छतो वने।
यथा भवेत् तथा जज्ञे रथमार्गः किरीटिनः ॥ २७ ॥

मूलम्

मार्गो गजसहस्रस्य युगपद् गच्छतो वने।
यथा भवेत् तथा जज्ञे रथमार्गः किरीटिनः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे वनमें एक साथ चलते हुए सहस्रों हाथियोंके पदचिह्नोंसे बहुत साफ और चौड़ा रास्ता बन जाता है, उसी प्रकार किरीटधारी अर्जुनके रथका मार्ग भी उनकी बाणवर्षासे साफ हो जाता था॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नूनं पार्थजयैषित्वाच्छक्रः सर्वामरैः सह।
हन्त्यस्मानित्यमन्यन्त पार्थेन निहताः परे ॥ २८ ॥

मूलम्

नूनं पार्थजयैषित्वाच्छक्रः सर्वामरैः सह।
हन्त्यस्मानित्यमन्यन्त पार्थेन निहताः परे ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनके बाणोंसे घायल हुए शत्रु ऐसा समझते थे कि निश्चय ही अर्जुनकी विजयकी अभिलाषा रखनेके कारण साक्षात् इन्द्र सम्पूर्ण देवताओंके साथ आकर हमें मार रहे हैं॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

घ्नन्तमत्यर्थमहितान् विजयं तत्र मेनिरे।
कालमर्जुनरूपेण संहरन्तमिव प्रजाः ॥ २९ ॥

मूलम्

घ्नन्तमत्यर्थमहितान् विजयं तत्र मेनिरे।
कालमर्जुनरूपेण संहरन्तमिव प्रजाः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समरभूमिमें असंख्य शत्रुओंका संहार करते हुए पार्थकी ओर देखकर लोग यह मानने लगे कि अर्जुनके रूपमें साक्षात् काल ही आकर सबका संहार कर रहा है॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुरुसेनाशरीराणि पार्थेनैवाहतान्यपि ।
सेदुः पार्थहतानीव पार्थकर्मानुशासनात् ॥ ३० ॥

मूलम्

कुरुसेनाशरीराणि पार्थेनैवाहतान्यपि ।
सेदुः पार्थहतानीव पार्थकर्मानुशासनात् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कौरव-योद्धाओंके शरीर कुन्तीनन्दन अर्जुनके बाणोंसे घायल होकर छिन्न-भिन्न हो गये थे। वे पार्थके बाणोंसे मरे हुएकी ही भाँति पड़े थे; क्योंकि पार्थके इस अद्‌भुत पराक्रमकी उन्हींसे उपमा दी जा सकती है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ओषधीनां शिरांसीव द्विषच्छीर्षाणि सोऽन्वयात्।
अवनेशुः कुरूणां हि वीर्याण्यर्जुनजाद् भयात् ॥ ३१ ॥

मूलम्

ओषधीनां शिरांसीव द्विषच्छीर्षाणि सोऽन्वयात्।
अवनेशुः कुरूणां हि वीर्याण्यर्जुनजाद् भयात् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे धानकी बालके समान शत्रुओंके सिर क्रमशः काटते जाते थे। अर्जुनके भयसे कौरवोंकी सारी शक्ति नष्ट हो गयी थी॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्जुनानिलभिन्नानि वनान्यर्जुनविद्विषाम् ।
चक्रुर्लोहितधाराभिर्धरणीं लोहितान्तराम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

अर्जुनानिलभिन्नानि वनान्यर्जुनविद्विषाम् ।
चक्रुर्लोहितधाराभिर्धरणीं लोहितान्तराम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनके शत्रुरूपी वन अर्जुनरूपी वायुसे ही छिन्न-भिन्न हो लाल धाराएँ (रक्त) बहाकर पृथ्वीको भी लाल करने लगे॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोहितेन समायुक्तैः पांसुभिः पवनोद्‌धृतैः।
बभूवुर्लोहितास्तत्र भृशमादित्यरश्मयः ॥ ३३ ॥

मूलम्

लोहितेन समायुक्तैः पांसुभिः पवनोद्‌धृतैः।
बभूवुर्लोहितास्तत्र भृशमादित्यरश्मयः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वायुद्वारा उड़ायी हुई रक्तसे सनी धूलके संसर्गसे आकाशमें सूर्यकी किरणें भी अधिक लाल हो गयीं॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सार्कं खं तत्क्षणेनासीत् संध्यायामिव लोहितम्।
अप्यस्तं प्राप्य सूर्योऽपि निवर्तेत न पाण्डवः ॥ ३४ ॥

मूलम्

सार्कं खं तत्क्षणेनासीत् संध्यायामिव लोहितम्।
अप्यस्तं प्राप्य सूर्योऽपि निवर्तेत न पाण्डवः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे संध्याकालमें पश्चिमका आकाश लाल हो जाता है, उसी प्रकार उस समय सूर्यसहित आकाश लाल रंगका हो गया था। संध्याकालमें तो सूर्य अस्ताचलपर पहुँचकर परसंताप-कर्मसे निवृत्त हो जाते हैं; परंतु पाण्डुनन्दन अर्जुन शत्रुपीड़नरूपी कर्मसे निवृत्त नहीं हुए॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान् सर्वान् समरे शूरः पौरुषे समवस्थितान्।
दिव्यैरस्त्रैरचिन्त्यात्मा सर्वानार्च्छद् धनुर्धरान् ॥ ३५ ॥

मूलम्

तान् सर्वान् समरे शूरः पौरुषे समवस्थितान्।
दिव्यैरस्त्रैरचिन्त्यात्मा सर्वानार्च्छद् धनुर्धरान् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अचिन्त्य मन-बुद्धिवाले शूरवीर अर्जुनने रणभूमिमें पुरुषार्थ दिखानेके लिये डटे हुए उन सभी धनुषधारियोंपर अपने दिव्यास्त्रोंद्वारा आक्रमण किया॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तु द्रोणं त्रिसप्तत्या क्षुरप्राणां समार्पयत्।
दुःसहं दशभिर्बाणैर्द्रौणिमष्टाभिरेव च ॥ ३६ ॥
दुःशासनं द्वादशभिः कृपं शारद्वतं त्रिभिः।
भीष्मं शान्तनवं षष्ट्या राजानं च शतेन ह।
कर्णं च कर्णिना कर्णे विव्याध परवीरहा ॥ ३७ ॥

मूलम्

स तु द्रोणं त्रिसप्तत्या क्षुरप्राणां समार्पयत्।
दुःसहं दशभिर्बाणैर्द्रौणिमष्टाभिरेव च ॥ ३६ ॥
दुःशासनं द्वादशभिः कृपं शारद्वतं त्रिभिः।
भीष्मं शान्तनवं षष्ट्या राजानं च शतेन ह।
कर्णं च कर्णिना कर्णे विव्याध परवीरहा ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने द्रोणाचार्यको तिहत्तर, दुःसहको दस, अश्वत्थामाको आठ, दुःशासनको बारह, शरद्वान्‌के पुत्र कृपाचार्यको तीन, शान्तनुनन्दन भीष्मको साठ तथा राजा दुर्योधनको सौ क्षुरप्र नामवाले बाणोंसे घायल किया। तत्पश्चात् शत्रुवीरोंका हनन करनेवाले अर्जुनने कर्णके कानमें एक कर्णी नामक बाण मारकर उसे बींध डाला॥३६-३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् विद्धे महेष्वासे कर्णे सर्वास्त्रकोविदे।
हताश्वसूते विरथे ततोऽनीकमभज्यत ॥ ३८ ॥

मूलम्

तस्मिन् विद्धे महेष्वासे कर्णे सर्वास्त्रकोविदे।
हताश्वसूते विरथे ततोऽनीकमभज्यत ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उसके घोड़े और सारथिको भी यमलोक भेजकर रथहीन कर दिया। इस प्रकार सम्पूर्ण अस्त्रोंके ज्ञाता महाधनुर्धर सुप्रसिद्ध कर्णके घायल होने तथा उसके घोड़े, सारथि एवं रथके नष्ट हो जानेपर सारी सेनामें भगदड़ मच गयी॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत् प्रभग्नं बलं दृष्ट्वा पार्थमाजिस्थितं पुनः।
अभिप्रायं समाज्ञाय वैराटिरिदमब्रवीत् ॥ ३९ ॥
आस्थाय रुचिरं जिष्णो रथं सारथिना मया।
कतमं यास्यसेऽनीकमुक्तो यास्याम्यहं त्वया ॥ ४० ॥

मूलम्

तत् प्रभग्नं बलं दृष्ट्वा पार्थमाजिस्थितं पुनः।
अभिप्रायं समाज्ञाय वैराटिरिदमब्रवीत् ॥ ३९ ॥
आस्थाय रुचिरं जिष्णो रथं सारथिना मया।
कतमं यास्यसेऽनीकमुक्तो यास्याम्यहं त्वया ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विराटकुमार उत्तरने कौरव-सेनाको भागती और कुन्तीपुत्र अर्जुनको पुनः युद्धके लिये डटा हुआ देखकर उनका अभिप्राय समझकर यों कहा—‘जिष्णो! मुझ सारथिके साथ इस सुन्दर रथपर बैठे हुए आप अब किस सेनाकी ओर जाना चाहते हैं? आप जहाँके लिये आज्ञा दें, वहीं आपके साथ चलूँ॥३९-४०॥

मूलम् (वचनम्)

अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोहिताश्वमरिष्टं यं वैयाघ्रमनुपश्यसि ।
नीलां पताकामाश्रित्य रथे तिष्ठन्तमुत्तर ॥ ४१ ॥
कृपस्यैतदनीकाग्र्यं प्रापयस्वैतदेव माम् ।
एतस्य दर्शयिष्यामि शीघ्रास्त्रं दृढधन्विनः ॥ ४२ ॥

मूलम्

लोहिताश्वमरिष्टं यं वैयाघ्रमनुपश्यसि ।
नीलां पताकामाश्रित्य रथे तिष्ठन्तमुत्तर ॥ ४१ ॥
कृपस्यैतदनीकाग्र्यं प्रापयस्वैतदेव माम् ।
एतस्य दर्शयिष्यामि शीघ्रास्त्रं दृढधन्विनः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन बोले— उत्तर! जिनके लाल-लाल घोड़े हैं, जिन शुभस्वरूप महापुरुषको तुम बाघम्बर पहने देख रहे हो, जो अपने रथपर नीले रंगकी पताका फहराकर बैठे हुए हैं, वे कृपाचार्यजी हैं और वहीं यह उनकी श्रेष्ठ सेना है। मुझे इसी सेनाके पास ले चलो। मैं इन दृढ़ धनुषवाले कृपाचार्यजीको शीघ्र अस्त्र चलानेकी कला दिखलाऊँगा॥४१-४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्वजे कमण्डलुर्यस्य शातकौम्भमयः शुभः।
आचार्य एष हि द्रोणः सर्वशस्त्रभृतां वरः ॥ ४३ ॥

मूलम्

ध्वजे कमण्डलुर्यस्य शातकौम्भमयः शुभः।
आचार्य एष हि द्रोणः सर्वशस्त्रभृतां वरः ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनकी ध्वजामें सुन्दर सुवर्णमय कमण्डलु सुशोभित है, ये सम्पूर्ण शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ आचार्य द्रोण हैं॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदा ममैष मान्यस्तु सर्वशस्त्रभृतामपि।
सुप्रसन्नं महावीरं कुरुष्वैनं प्रदक्षिणम् ॥ ४४ ॥

मूलम्

सदा ममैष मान्यस्तु सर्वशस्त्रभृतामपि।
सुप्रसन्नं महावीरं कुरुष्वैनं प्रदक्षिणम् ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये मेरे तथा अन्य सब शस्त्रधारियोंके माननीय हैं। तुम इन परम प्रसन्न महावीर आचार्यपादकी रथद्वारा प्रदक्षिणा करो॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्रैव वावरोहैनमेष धर्मः सनातनः।
यदि मे प्रथमं द्रोणः शरीरे प्रहरिष्यति।
ततोऽस्य प्रहरिष्यामि नास्य कोपो भवेदिति ॥ ४५ ॥

मूलम्

अत्रैव वावरोहैनमेष धर्मः सनातनः।
यदि मे प्रथमं द्रोणः शरीरे प्रहरिष्यति।
ततोऽस्य प्रहरिष्यामि नास्य कोपो भवेदिति ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम इसी समय इन्हें आदर दो और युद्धके लिये उद्यत हो रथपर बैठे रहो। यह सनातन धर्म है। यदि आचार्य द्रोण पहले मेरे शरीरपर प्रहार करेंगे, तब मैं इनके ऊपर भी बाणोंद्वारा आघात करूँगा। ऐसा करनेपर इन्हें क्रोध नहीं होगा॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्याविदूरे हि धनुर्ध्वजाग्रे यस्य दृश्यते।
आचार्यस्यैष पुत्रो वै अश्वत्थामा महारथः ॥ ४६ ॥
सदा ममैष मान्यस्तु सर्वशस्त्रभृतामपि।
एतस्य त्वं रथं प्राप्य निवर्तेथाः पुनः पुनः ॥ ४७ ॥

मूलम्

अस्याविदूरे हि धनुर्ध्वजाग्रे यस्य दृश्यते।
आचार्यस्यैष पुत्रो वै अश्वत्थामा महारथः ॥ ४६ ॥
सदा ममैष मान्यस्तु सर्वशस्त्रभृतामपि।
एतस्य त्वं रथं प्राप्य निवर्तेथाः पुनः पुनः ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनके पास ही जिनकी ध्वजाके अग्रभागमें धनुषका चिह्न दिखायी देता है, ये आचार्यके ही योग्य पुत्र महारथी अश्वत्थामा हैं। ये भी मेरे तथा सम्पूर्ण शस्त्रधारियोंके लिये माननीय हैं, अतः इनके रथके समीप जाकर भी तुम बार-बार लौट आना॥४६-४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

य एष तु रथानीके सुवर्णकवचावृतः।
सेनाग्र्येण तृतीयेन व्यावहार्येण तिष्ठति ॥ ४८ ॥
यस्य नागो ध्वजाग्रेऽसौ हेमकेतनसंवृतः।
धृतराष्ट्रात्मजः श्रीमानेष राजा सुयोधनः ॥ ४९ ॥

मूलम्

य एष तु रथानीके सुवर्णकवचावृतः।
सेनाग्र्येण तृतीयेन व्यावहार्येण तिष्ठति ॥ ४८ ॥
यस्य नागो ध्वजाग्रेऽसौ हेमकेतनसंवृतः।
धृतराष्ट्रात्मजः श्रीमानेष राजा सुयोधनः ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह जो रथियोंकी सेनामें सोनेका कवच धारण किये तीसरी काम देने योग्य (बिना थकी-मादी) सेनाके साथ विराजमान है, जिसकी ध्वजाके अग्रभागमें नागका चिह्न है और सोनेकी पताका फहरा रही है, यह धृतराष्ट्रपुत्र श्रीमान् राजा सुयोधन है॥४८-४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्याभिमुखं वीर रथं पररथारुजम्।
प्रापयस्वैष राजा हि प्रमाथी युद्धदुर्मदः ॥ ५० ॥

मूलम्

एतस्याभिमुखं वीर रथं पररथारुजम्।
प्रापयस्वैष राजा हि प्रमाथी युद्धदुर्मदः ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वीर! शत्रुओंके रथको तोड़ डालनेवाले अपने इस रथको तुम इसीके सम्मुख ले चलो। यह राजा शत्रुओंको मथ डालनेवाला तथा युद्धके लिये उन्मत्त रहनेवाला है॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष द्रोणस्य शिष्याणां शीघ्रास्त्रे प्रथमो मतः।
एतस्य दर्शयिष्यामि शीघ्रास्त्रं विपुलं रणे ॥ ५१ ॥

मूलम्

एष द्रोणस्य शिष्याणां शीघ्रास्त्रे प्रथमो मतः।
एतस्य दर्शयिष्यामि शीघ्रास्त्रं विपुलं रणे ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह शीघ्रतापूर्वक अस्त्र चलानेमें आचार्य द्रोणके शिष्योंमें प्रथम माना गया है। इस युद्धमें आज मैं इसे शीघ्र अस्त्र चलानेकी विपुल कलाका दर्शन कराऊँगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नागकक्षा तु रुचिरा ध्वजाग्रे यस्य तिष्ठति।
एष वैकर्तनः कर्णो विदितः पूर्वमेव ते ॥ ५२ ॥

मूलम्

नागकक्षा तु रुचिरा ध्वजाग्रे यस्य तिष्ठति।
एष वैकर्तनः कर्णो विदितः पूर्वमेव ते ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसकी ध्वजाके अग्रभागपर हाथी या उसकी साँकलके चिह्नसे युक्त पताका फहरा रही है, यह विकर्तनपुत्र कर्ण है। इससे तुम पहले ही परिचित हो चुके हो॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्य रथमास्थाय राधेयस्य दुरात्मनः।
यत्तो भवेथाः संग्रामे स्पर्धते हि सदा मया ॥ ५३ ॥

मूलम्

एतस्य रथमास्थाय राधेयस्य दुरात्मनः।
यत्तो भवेथाः संग्रामे स्पर्धते हि सदा मया ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस दुरात्मा राधापुत्रके रथके निकट जाकर सावधान हो जाना। यह सदा युद्धमें मेरे साथ स्पर्धा रखता है॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्तु नीलानुसारेण पञ्चतारेण केतुना।
हस्तावापी बृहद्धन्वा रथे तिष्ठति वीर्यवान् ॥ ५४ ॥
यस्य तारार्कचित्रोऽसौ ध्वजो रथवरे स्थितः।
यस्यैतत् पाण्डुरं छत्रं विमलं मूर्ध्नि तिष्ठति ॥ ५५ ॥
महतो रथवंशस्य नानाध्वजपताकिनः ।
बलाहकाग्रे सूर्यो वा य एष प्रमुखे स्थितः ॥ ५६ ॥
हैमं चन्द्रार्कसंकाशं कवचं यस्य दृश्यते।
जातरूपशिरस्त्राणं मनस्तापयतीव मे ॥ ५७ ॥
एष शान्तनवो भीष्मः सर्वेषां नः पितामहः।
राजश्रियाभिवृद्धश्च सुयोधनवशानुगः ॥ ५८ ॥

मूलम्

यस्तु नीलानुसारेण पञ्चतारेण केतुना।
हस्तावापी बृहद्धन्वा रथे तिष्ठति वीर्यवान् ॥ ५४ ॥
यस्य तारार्कचित्रोऽसौ ध्वजो रथवरे स्थितः।
यस्यैतत् पाण्डुरं छत्रं विमलं मूर्ध्नि तिष्ठति ॥ ५५ ॥
महतो रथवंशस्य नानाध्वजपताकिनः ।
बलाहकाग्रे सूर्यो वा य एष प्रमुखे स्थितः ॥ ५६ ॥
हैमं चन्द्रार्कसंकाशं कवचं यस्य दृश्यते।
जातरूपशिरस्त्राणं मनस्तापयतीव मे ॥ ५७ ॥
एष शान्तनवो भीष्मः सर्वेषां नः पितामहः।
राजश्रियाभिवृद्धश्च सुयोधनवशानुगः ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो नीले रंगकी पाँच तारोंके चिह्नसे सुशोभित पताकावाले रथपर बैठे हुए हैं, जिनका धनुष विशाल है, जिन्होंने हाथोंमें दस्ताने पहन रखे हैं, जिनका वह तारों और सूर्यके चिह्नोंसे विचित्र शोभा धारण करनेवाला ध्वज फहरा रहा है, जिनके मस्तकपर श्वेत रंगका उज्ज्वल छत्र सुशोभित है, जो नाना प्रकारकी ध्वजा-पताकाओंसे उपलक्षित रथियोंकी विशाल सेनाके अग्रभागमें बादलोंके आगे सूर्यकी भाँति प्रकाशित हो रहे हैं, जिनके शरीरपर चन्द्रमा और सूर्यके समान चमकीला सोनेका कवच और सुवर्णमय शिरस्त्राण दिखायी देता है, वे श्रेष्ठ रथपर विराजमान महापराक्रमी वीर पुरुष हम सबके पितामह शान्तनुनन्दन भीष्म हैं। वे राज्यलक्ष्मीसे सम्पन्न होकर भी दुर्योधनके अधीन हो रहे हैं। इसलिये मेरे मनको संतप्त-सा किये देते हैं॥५४—५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्चादेष प्रयातव्यो न मे विघ्नकरो भवेत्।
एतेन युध्यमानस्य यत्तः संयच्छ मे हयान् ॥ ५९ ॥

मूलम्

पश्चादेष प्रयातव्यो न मे विघ्नकरो भवेत्।
एतेन युध्यमानस्य यत्तः संयच्छ मे हयान् ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनके पास सबसे पीछे चलना। ये मेरे मार्गमें विघ्नकारक नहीं होंगे। इनके साथ युद्ध करते समय सावधान होकर मेरे घोड़ोंको सँभालना॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽभ्यवहदव्यग्रो वैराटिः सव्यसाचिनम् ।
यत्रातिष्ठत्‌ कृपो राजन्‌ योत्स्यमानो धनंजयम् ॥ ६० ॥

मूलम्

ततोऽभ्यवहदव्यग्रो वैराटिः सव्यसाचिनम् ।
यत्रातिष्ठत्‌ कृपो राजन्‌ योत्स्यमानो धनंजयम् ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! अर्जुनकी यह बात सुनकर विराटपुत्र उत्तर निर्भय एवं सावधान हो सव्यसाची धनंजयको उस स्थानपर ले गया, जहाँ कृपाचार्य उनसे युद्ध करनेके लिये खड़े थे॥६०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि गोहरणपर्वणि अर्जुनकृपसंग्रामे पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत गोहरणपर्वमें अर्जुन-कृप-संग्रामविषयक पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५५॥