०५३ गोनिवर्तने

भागसूचना

त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अर्जुनका दुर्योधनकी सेनापर आक्रमण करके गौओंको लौटा लेना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा व्यूढेष्वनीकेषु कौरवेयेषु भारत।
उपायादर्जुनस्तूर्णं रथघोषेण नादयन् ॥ १ ॥
ददृशुस्ते ध्वजाग्रं वै शुश्रुवुश्च महास्वनम्।
दोधूयमानस्य भृशं गाण्डीवस्य च निःस्वनम् ॥ २ ॥

मूलम्

तथा व्यूढेष्वनीकेषु कौरवेयेषु भारत।
उपायादर्जुनस्तूर्णं रथघोषेण नादयन् ॥ १ ॥
ददृशुस्ते ध्वजाग्रं वै शुश्रुवुश्च महास्वनम्।
दोधूयमानस्य भृशं गाण्डीवस्य च निःस्वनम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! इस प्रकार कौरव-सेनाकी व्यूह-रचना हो जानेपर अर्जुन अपने रथकी घर्घराहटसे सम्पूर्ण दिशाओंको गुँजारे हुए शीघ्र ही निकट आ पहुँचे। सैनिकोंने उनकी ध्वजाके अग्रभागको देखा, उनके रथसे आती हुई भयंकर आवाज भी सुनी और खींचे जाते हुए गाण्डीवकी जोर-जोरसे होनेवाली टंकारध्वनि भी उनके कानोंमें पड़ी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तु सर्वमालोक्य द्रोणो वचनमब्रवीत्।
महारथमनुप्राप्तं दृष्ट्वा गाण्डीवधन्विनम् ॥ ३ ॥

मूलम्

ततस्तु सर्वमालोक्य द्रोणो वचनमब्रवीत्।
महारथमनुप्राप्तं दृष्ट्वा गाण्डीवधन्विनम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब सब कुछ देखकर गाण्डीव धनुष धारण करनेवाले महारथी अर्जुनको निकट आया जानकर आचार्य द्रोण यह वचन बोले॥३॥

मूलम् (वचनम्)

द्रोण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् ध्वजाग्रं पार्थस्य दूरतः सम्प्रकाशते।
एष घोषः स रथजो रोरवीति च वानरः ॥ ४ ॥

मूलम्

एतद् ध्वजाग्रं पार्थस्य दूरतः सम्प्रकाशते।
एष घोषः स रथजो रोरवीति च वानरः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रोणने कहा— यह अर्जुनकी ध्वजाका ऊपरी भाग दूरसे ही प्रकाशित हो रहा है। यह उन्हींके रथकी घर्घराहटका शब्द है। साथ ही ध्वजापर बैठा हुआ वानर भी उच्च स्वरसे गर्जना कर रहा है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष तिष्ठन् रथश्रेष्ठे रथे च रथिनां वरः।
उत्कर्षति धनुःश्रेष्ठं गाण्डीवमशनिस्वनम् ॥ ५ ॥

मूलम्

एष तिष्ठन् रथश्रेष्ठे रथे च रथिनां वरः।
उत्कर्षति धनुःश्रेष्ठं गाण्डीवमशनिस्वनम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह देखो, उस श्रेष्ठ रथमें बैठे हुए रथियोंमें प्रधान वीर अर्जुन धनुषोंमें सर्वोत्तम गाण्डीवकी डोरी खींच रहे हैं और उससे वज्रकी गड़गड़ाहटके समान शब्द हो रहा है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमौ च बाणौ सहितौ पादयोर्मे व्यवस्थितौ।
अपरौ चाप्यतिक्रान्तौ कर्णौ संस्पृश्य मे शरौ ॥ ६ ॥

मूलम्

इमौ च बाणौ सहितौ पादयोर्मे व्यवस्थितौ।
अपरौ चाप्यतिक्रान्तौ कर्णौ संस्पृश्य मे शरौ ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये दो बाण एक साथ आकर मेरे पैरोंके आगे गिरे हैं और दूसरे दो बाण मेरे दोनों कानोंको छूकर निकल गये हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरुष्य हि वने वासं कृत्वा कर्मातिमानुषम्।
अभिवादयते पार्थः श्रोत्रे च परिपृच्छति ॥ ७ ॥

मूलम्

निरुष्य हि वने वासं कृत्वा कर्मातिमानुषम्।
अभिवादयते पार्थः श्रोत्रे च परिपृच्छति ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन अर्जुन वनमें रहकर वहाँ तपस्या तथा शौर्यद्वारा अतिमानुष (मानवी शक्तिके बाहरका) पराक्रम करके आज प्रकट हुए हैं। ये प्रथम दो बाणोंद्वारा मुझे प्रणाम कर रहे हैं और दूसरे दो बाणोंद्वारा कानोंमें युद्धके लिये आज्ञा माँगते हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चिरदृष्टोऽयमस्माभिः प्रज्ञावान् बान्धवप्रियः ।
अतीव ज्वलितो लक्ष्म्या पाण्डुपुत्रो धनंजयः ॥ ८ ॥

मूलम्

चिरदृष्टोऽयमस्माभिः प्रज्ञावान् बान्धवप्रियः ।
अतीव ज्वलितो लक्ष्म्या पाण्डुपुत्रो धनंजयः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बन्धु-बन्धवोंको प्रिय लगनेवाले परम बुद्धिमान् अर्जुनको आज हमने दीर्घकालके बाद देखा है। अहा! पाण्डुपुत्र धनंजय अपनी दिव्य लक्ष्मी (शोभा) से अत्यन्त प्रकाशित हो रहे हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथी शरी चारुतली निषङ्गी
शङ्खी पताकी कवची किरीटी।
खड्गी च धन्वी च विभाति पार्थः
शिखी वृतः स्रुग्भिरिवाज्यसिक्तः ॥ ९ ॥

मूलम्

रथी शरी चारुतली निषङ्गी
शङ्खी पताकी कवची किरीटी।
खड्गी च धन्वी च विभाति पार्थः
शिखी वृतः स्रुग्भिरिवाज्यसिक्तः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रथपर बैठे हुए धनंजयने बाण, सुन्दर दस्ताने, तरकस, शंख, कवच, किरीट, खड्ग और धनुष धारण कर रखे हैं। इनके रथपर पताका फहरा रही है। इन सामग्रियोंसे सम्पन्न होकर आज ये तेजस्वी पार्थ स्रुवा आदि यज्ञसाधनोंसे घिरे और घीकी आहुति पाकर प्रज्वलित हुए अग्निके समान शोभा पा रहे हैं॥९॥

मूलम् (वचनम्)

(वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमदूरमुपायान्तं दृष्ट्वा पाण्डवमर्जुनम् ।
नारयः प्रेक्षितुं शेकुस्तपन्तं हि यथा रविम्॥

मूलम्

तमदूरमुपायान्तं दृष्ट्वा पाण्डवमर्जुनम् ।
नारयः प्रेक्षितुं शेकुस्तपन्तं हि यथा रविम्॥

Misc Detail

स तं दृष्ट्वा रथानीकं पार्थः सारथिमब्रवीत्। )

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तपते हुए सूर्यकी भाँति देदीप्यमान पाण्डुनन्दन अर्जुनको समीप आते देख शत्रु उनकी ओर दृष्टिपात न कर सके। रथियोंकी सेनाको सामने देख कुन्तीकुमार अर्जुनने सारथिसे कहा।

मूलम् (वचनम्)

अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इषुपाते च सेनाया हयान् संयच्छ सारथे।
यावत्‌ समीक्षे सैन्येऽस्मिन्‌ क्वासौ कुरुकुलाधमः ॥ १० ॥
सर्वानेताननादृत्य दृष्ट्वा तमतिमानिनम् ।
तस्य मुर्ध्नि पतिष्यामि तत एते पराजिताः ॥ ११ ॥

मूलम्

इषुपाते च सेनाया हयान् संयच्छ सारथे।
यावत्‌ समीक्षे सैन्येऽस्मिन्‌ क्वासौ कुरुकुलाधमः ॥ १० ॥
सर्वानेताननादृत्य दृष्ट्वा तमतिमानिनम् ।
तस्य मुर्ध्नि पतिष्यामि तत एते पराजिताः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनने कहा— सारथे! धनुषसे बाण चलानेपर वह जितनी दूरीपर जाकर गिरता है, कौरवसेनासे उतना ही अन्तर रह जाय, तो घोड़ोंको रोक लेना; जिससे मैं यह देख लूँ कि इस सेनामें वह कुरुकुलाधम दुर्योधन कहाँ है। उस अत्यन्त अभिमानी दुर्योधनको देख लेनेपर मैं इन सब योद्धाओंको छोड़कर उसीके सिरपर पड़ूँगा। उसके पराजित होनेसे ये सब परास्त हो जायँगे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष व्यवस्थितो द्रोणो द्रौणिश्च तदनन्तरम्।
भीष्मः कृपश्च कर्णश्च महेष्वासाः समागताः ॥ १२ ॥

मूलम्

एष व्यवस्थितो द्रोणो द्रौणिश्च तदनन्तरम्।
भीष्मः कृपश्च कर्णश्च महेष्वासाः समागताः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये आचार्य द्रोण खड़े हैं। उनके बाद उन्हींके पुत्र अश्वत्थामा हैं। उधर पितामह भीष्म दिखायी देते हैं। इधर कृपाचार्य हैं और वह कर्ण है। ये सब महान् धनुर्धर यहाँ युद्धके लिये आये हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजानं नात्र पश्यामि गाः समादाय गच्छति।
दक्षिणं मार्गमास्थाय शङ्के जीवपरायणः ॥ १३ ॥

मूलम्

राजानं नात्र पश्यामि गाः समादाय गच्छति।
दक्षिणं मार्गमास्थाय शङ्के जीवपरायणः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु इनमें मैं राजा दुर्योधनको नहीं देखता हूँ। मुझे संदेह है कि वह दक्षिण दिशाका मार्ग पकड़-कर गौओंको साथ ले अपनी जान बचाये भागा जा रहा है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्सृजैतद् रथानीकं गच्छ यत्र सुयोधनः।
तत्रैव योत्स्ये वैराटे नास्ति युद्धं निरामिषम्।
तं जित्वा विनिवर्तिष्ये गाः समादाय वै पुनः ॥ १४ ॥

मूलम्

उत्सृजैतद् रथानीकं गच्छ यत्र सुयोधनः।
तत्रैव योत्स्ये वैराटे नास्ति युद्धं निरामिषम्।
तं जित्वा विनिवर्तिष्ये गाः समादाय वै पुनः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः विराटनन्दन! इस रथियोंकी सेनाको छोड़ो और जहाँ दुर्योधन है, वहीं चलो। मैं वहीं युद्ध करूँगा। यहाँ व्यर्थ युद्ध करनेकी आवश्यकता नहीं है। उसे जीतकर गौओंको अपने साथ ले मैं पुनः लौट आऊँगा॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तः स वैराटिर्हयान् संयम्य यत्नतः।
नियम्य च ततो रश्मीन् यत्र ते कुरुपुङ्गवाः।
अचोदयत् ततो वाहान् यत्र दुर्योधनो गतः ॥ १५ ॥

मूलम्

एवमुक्तः स वैराटिर्हयान् संयम्य यत्नतः।
नियम्य च ततो रश्मीन् यत्र ते कुरुपुङ्गवाः।
अचोदयत् ततो वाहान् यत्र दुर्योधनो गतः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— अर्जुनके इस प्रकार आज्ञा देनेपर विराटकुमार उत्तरने यत्नपूर्वक घोड़ोंकी रास खींचकर जहाँ बड़े-बड़े कौरव महारथी खड़े थे, उधर जानेसे उन्हें रोका। फिर उसने काबूमें रखते हुए उन घोड़ोंको उसी ओर बढ़ाया, जिधर राजा दुर्योधन गया था॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्सृज्य रथवंशं तु प्रयाते श्वेतवाहने।
अभिप्रायं विदित्वा च कृपो वचनमब्रवीत् ॥ १६ ॥

मूलम्

उत्सृज्य रथवंशं तु प्रयाते श्वेतवाहने।
अभिप्रायं विदित्वा च कृपो वचनमब्रवीत् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रथियोंकी सेना छोड़कर श्वेतवाहन अर्जुन जब दूसरी ओर चल दिये, तब उनका अभिप्राय समझकर कृपाचार्य बोले—॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैषोऽन्तरेण राजानं बीभत्सुः स्थातुमिच्छति।
तस्य पार्ष्णिं ग्रहीष्यामो जवेनाभिप्रयास्यतः ॥ १७ ॥

मूलम्

नैषोऽन्तरेण राजानं बीभत्सुः स्थातुमिच्छति।
तस्य पार्ष्णिं ग्रहीष्यामो जवेनाभिप्रयास्यतः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ये अर्जुन राजा दुर्योधनके बिना ठहरना नहीं चाहते, इसलिये उधर ही बड़े वेगसे जा रहे हैं। अतः हमलोग शीघ्र चलकर इनका पीछा करें॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ह्येनमतिसंक्रुद्धमेको युध्येत संयुगे।
अन्यो देवात्‌ सहस्राक्षात्‌ कृष्णाद् वा देवकीसुतात्।
आचार्याच्च सपुत्राद् वा भारद्वाजान्महारथात् ॥ १८ ॥

मूलम्

न ह्येनमतिसंक्रुद्धमेको युध्येत संयुगे।
अन्यो देवात्‌ सहस्राक्षात्‌ कृष्णाद् वा देवकीसुतात्।
आचार्याच्च सपुत्राद् वा भारद्वाजान्महारथात् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस समय ये बड़े क्रोधमें भरे हैं; अतः साक्षात् इन्द्र या देवकीनन्दन श्रीकृष्ण अथवा पुत्रसहित महारथी आचार्य द्रोणके सिवा दूसरा कोई इनके साथ अकेला युद्ध नहीं कर सकता॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं नो गावः करिष्यन्ति धनं वा विपुलं तथा।
दुर्योधनः पार्थजले पुरा नौरिव मज्जति ॥ १९ ॥

मूलम्

किं नो गावः करिष्यन्ति धनं वा विपुलं तथा।
दुर्योधनः पार्थजले पुरा नौरिव मज्जति ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ये गौएँ अथवा प्रचुर धन हमें क्या लाभ पहुँचायेंगे? राजा दुर्योधन पार्थरूपी जलमें पुरानी नावकी भाँति डूबना चाहता है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव गत्वा बीभत्सुर्नाम विश्राव्य चात्मनः।
शलभैरिव तां सेनां शरैः शीघ्रमवाकिरत् ॥ २० ॥

मूलम्

तथैव गत्वा बीभत्सुर्नाम विश्राव्य चात्मनः।
शलभैरिव तां सेनां शरैः शीघ्रमवाकिरत् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उधर अर्जुन उसी प्रकार रथसे दुर्योधनके पास पहुँच गये और उच्चस्वरसे अपना नाम सुनाकर बड़ी शीघ्रतासे कौरवसेनापर टिड्डीदलोंकी भाँति असंख्य बाणोंकी वर्षा करने लगे॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कीर्यमाणाः शरौघैस्तु योधास्ते पार्थचोदितैः।
नापश्यन्नावृतां भूमिं नान्तरिक्षं च पत्रिभिः ॥ २१ ॥

मूलम्

कीर्यमाणाः शरौघैस्तु योधास्ते पार्थचोदितैः।
नापश्यन्नावृतां भूमिं नान्तरिक्षं च पत्रिभिः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनके छोड़े हुए बाणसमूहोंसे आच्छादित होकर वे समस्त सैनिक कुछ देख नहीं पाते थे। पृथ्वी और आकाश भी बाणोंसे ढँक गये थे॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषामापततां युद्धे नापयानेऽभवन्मतिः ।
शीघ्रत्वमेव पार्थस्य पूजयन्ति स्म चेतसा ॥ २२ ॥

मूलम्

तेषामापततां युद्धे नापयानेऽभवन्मतिः ।
शीघ्रत्वमेव पार्थस्य पूजयन्ति स्म चेतसा ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युद्धमें बाणोंकी मार खाकर कौरवसैनिक धराशायी होते जा रहे थे, तो भी उनका मन वहाँसे भागनेको नहीं होता था। वे मन-ही-मन अर्जुनकी फुर्तीकी सराहना करते थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शङ्खं प्रदध्मौ स द्विषतां लोमहर्षणम्।
विस्फार्य च धनुःश्रेष्ठं ध्वजे भूतान्यचोदयत् ॥ २३ ॥

मूलम्

ततः शङ्खं प्रदध्मौ स द्विषतां लोमहर्षणम्।
विस्फार्य च धनुःश्रेष्ठं ध्वजे भूतान्यचोदयत् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर पार्थने अपना शंख बजाया, जो शत्रुओंके रोंगटे खड़े कर देनेवाला था। फिर उन्होंने अपने श्रेष्ठ धनुषकी टंकार करके ध्वजापर बैठे हुए भूतोंको सिंहनाद करनेकी प्रेरणा दी॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य शङ्खस्य शब्देन रथनेमिस्वनेन च।
गाण्डीवस्य च घोषेण पृथिवी समकम्पत ॥ २४ ॥
अमानुषाणां भूतानां तेषां च ध्वजवासिनाम्।
ऊर्ध्वं पुच्छान् विधुन्वाना रेभमाणाः समन्ततः।
गावः प्रतिन्यवर्तन्त दिशमास्थाय दक्षिणाम् ॥ २५ ॥

मूलम्

तस्य शङ्खस्य शब्देन रथनेमिस्वनेन च।
गाण्डीवस्य च घोषेण पृथिवी समकम्पत ॥ २४ ॥
अमानुषाणां भूतानां तेषां च ध्वजवासिनाम्।
ऊर्ध्वं पुच्छान् विधुन्वाना रेभमाणाः समन्ततः।
गावः प्रतिन्यवर्तन्त दिशमास्थाय दक्षिणाम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनके शंखनाद, रथके पहियोंकी घर्घराहट, गाण्डीव धनुषकी टंकार तथा ध्वजमें निवास करनेवाले मानवेतर भूतोंके भयंकर कोलाहलसे पृथ्वी काँप उठी तथा गौएँ ऊपरको पूँछ उठाकर हिलाती और रँभाती हुई सब ओरसे लौट पड़ीं और दक्षिण दिशाकी ओर भाग चलीं॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि गोहरणपर्वणि उत्तरगोग्रहे गोनिवर्तने त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत गोहरणपर्वमें उत्तरगोग्रहके समय गौओंके लौटनेसे सम्बन्ध रखनेवाला तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५३॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल २६ श्लोक हैं।)