०५२ भीष्मसैन्यव्यूहे

भागसूचना

द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

पितामह भीष्मकी सम्मति

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलाः काष्ठाश्च युज्यन्ते मुहूर्ताश्च दिनानि च।
अर्धमासाश्च मासाश्च नक्षत्राणि ग्रहास्तथा ॥ १ ॥
ऋतवश्चापि युज्यन्ते तथा संवत्सरा अपि।
एवं कालविभागेन कालचक्रं प्रवर्तते ॥ २ ॥

मूलम्

कलाः काष्ठाश्च युज्यन्ते मुहूर्ताश्च दिनानि च।
अर्धमासाश्च मासाश्च नक्षत्राणि ग्रहास्तथा ॥ १ ॥
ऋतवश्चापि युज्यन्ते तथा संवत्सरा अपि।
एवं कालविभागेन कालचक्रं प्रवर्तते ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— कला, काष्ठा, मुहूर्त, दिन, मास, पक्ष, नक्षत्र, ग्रह, ऋतु और संवत्सर—ये सब एक-दूसरेसे जुड़ते हैं। इस तरह कालके इन छोटे-छोटे विभागोंद्वारा यह सम्पूर्ण कालचक्र चल रहा है॥१-२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां कालातिरेकेण ज्योतिषां च व्यतिक्रमात्।
पञ्चमे पञ्चमे वर्षे द्वौ मासावुपजायतः ॥ ३ ॥

मूलम्

तेषां कालातिरेकेण ज्योतिषां च व्यतिक्रमात्।
पञ्चमे पञ्चमे वर्षे द्वौ मासावुपजायतः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन पक्ष-मास आदिके समयके बढ़ने-घटनेसे और ग्रह-नक्षत्रोंकी गतिके व्यतिक्रमसे हर पाँचवें वर्षमें दो महीने अधिमासके बढ़ जाते हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एषामभ्यधिका मासाः पञ्च च द्वादश क्षपाः।
त्रयोदशानां वर्षाणामिति मे वर्तते मतिः ॥ ४ ॥

मूलम्

एषामभ्यधिका मासाः पञ्च च द्वादश क्षपाः।
त्रयोदशानां वर्षाणामिति मे वर्तते मतिः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार इन तेरह वर्षोंके पूर्ण होनेके पश्चात् भी पाण्डवोंके पाँच महीने बारह दिन और अधिक बीत चुके हैं। ऐसा मेरा विचार है1॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वं यथावच्चरितं यद् यदेभिः प्रतिश्रुतम्।
एवमेतद् ध्रुवं ज्ञात्वा ततो बीभत्सुरागतः ॥ ५ ॥

मूलम्

सर्वं यथावच्चरितं यद् यदेभिः प्रतिश्रुतम्।
एवमेतद् ध्रुवं ज्ञात्वा ततो बीभत्सुरागतः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन पाण्डवोंने जो-जो प्रतिज्ञाएँ की थीं, उन सबका यथावत् पालन किया है; अवश्य इस बातको अच्छी तरह जानकर ही अर्जुन यहाँ आये हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे चैव महात्मानः सर्वे धर्मार्थकोविदाः।
येषां युधिष्ठिरो राजा कस्माद् धर्मेऽपराध्नुयुः ॥ ६ ॥

मूलम्

सर्वे चैव महात्मानः सर्वे धर्मार्थकोविदाः।
येषां युधिष्ठिरो राजा कस्माद् धर्मेऽपराध्नुयुः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सभी पाण्डव महात्मा हैं और सभी धर्म तथा अर्थके ज्ञाता हैं। जिनके नेता राजा युधिष्ठिर हैं, वे धर्मके विषयमें कैसे कोई अपराध कर सकते हैं?॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अलुब्धाश्चैव कौन्तेयाः कृतवन्तश्च दुष्करम्।
न चापि केवलं राज्यमिच्छेयुस्तेऽनुपायतः ॥ ७ ॥

मूलम्

अलुब्धाश्चैव कौन्तेयाः कृतवन्तश्च दुष्करम्।
न चापि केवलं राज्यमिच्छेयुस्तेऽनुपायतः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीके पुत्र लोभी नहीं हैं। उन्होंने तपस्या आदि कठिन कर्म किये हैं। वे अधर्म या अनुचित उपायसे (धर्मको गँवाकर) केवल राज्य लेनेके इच्छुक नहीं हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदैव ते हि विक्रान्तुमीषुः कौरवनन्दनाः।
धर्मपाशनिबद्धास्तु न चेलुः क्षत्रियव्रतात् ॥ ८ ॥
यच्चानृत इति ख्यायाद् यः स गच्छेत्‌ पराभवम्।
वृणुयुर्मरणं पार्था नानृतत्वं कथंचन ॥ ९ ॥

मूलम्

तदैव ते हि विक्रान्तुमीषुः कौरवनन्दनाः।
धर्मपाशनिबद्धास्तु न चेलुः क्षत्रियव्रतात् ॥ ८ ॥
यच्चानृत इति ख्यायाद् यः स गच्छेत्‌ पराभवम्।
वृणुयुर्मरणं पार्था नानृतत्वं कथंचन ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुकुलको आनन्द देनेवाले पाण्डव उसी समय पराक्रम करनेमें समर्थ थे, किंतु वे धर्मके बन्धनमें बँधे थे; इसलिये क्षत्रियव्रतसे विचलित नहीं हुए। यदि कोई अर्जुनको असत्यवादी कहेगा तो वह पराजयको प्राप्त होगा। कुन्तीके पुत्र मौतको गले लगा सकते हैं, किंतु किसी प्रकार असत्यका आश्रय नहीं ले सकते॥८-९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राप्तकाले तु प्राप्तव्यं नोत्सृजेयुर्नरर्षभाः।
अपि वज्रभृता गुप्तं तथावीर्या हि पाण्डवाः ॥ १० ॥

मूलम्

प्राप्तकाले तु प्राप्तव्यं नोत्सृजेयुर्नरर्षभाः।
अपि वज्रभृता गुप्तं तथावीर्या हि पाण्डवाः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरश्रेष्ठ पाण्डव समय आनेपर अपने पाने योग्य भाग या हकको भी नहीं छोड़ सकते, भले ही वज्रधारी इन्द्र उस वस्तुकी रक्षा करते हों। पाण्डवोंका ऐसा ही पराक्रम है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतियुध्येम समरे सर्वशस्त्रभृतां वरम्।
तस्माद् यदत्र कल्याणं लोके सद्‌भिरनुष्ठितम्।
तत् संविधीयतां शीघ्रं
मा वो ह्यर्थोऽभ्यगात् परम् ॥ ११ ॥

मूलम्

प्रतियुध्येम समरे सर्वशस्त्रभृतां वरम्।
तस्माद् यदत्र कल्याणं लोके सद्‌भिरनुष्ठितम्।
तत् संविधीयतां शीघ्रं
मा वो ह्यर्थोऽभ्यगात् परम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस समय रणभूमिमें समस्त शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ अर्जुनके साथ हमें युद्ध करना है। इसलिये जगत्‌में साधुपुरुषोंद्वारा आचरित जो कल्याणकारी उपाय है, उसे शीघ्र करना चाहिये, जिससे तुम्हारा यह गोधन शत्रुके हाथमें न जाय॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि पश्यामि संग्रामे कदाचिदपि कौरव।
एकान्तसिद्धिं राजेन्द्र सम्प्राप्तश्च धनंजयः ॥ १२ ॥

मूलम्

न हि पश्यामि संग्रामे कदाचिदपि कौरव।
एकान्तसिद्धिं राजेन्द्र सम्प्राप्तश्च धनंजयः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! राजेन्द्र! मैं युद्धमें कभी ऐसा नहीं देखता कि किसी एक पक्षकी ही सफलता अनिवार्य हो। लो, अर्जुन आ पहुँचे हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्प्रवृत्ते तु संग्रामे भावाभावौ जयाजयौ।
अवश्यमेकं स्पृशतो दृष्टमेतदसंशयम् ॥ १३ ॥

मूलम्

सम्प्रवृत्ते तु संग्रामे भावाभावौ जयाजयौ।
अवश्यमेकं स्पृशतो दृष्टमेतदसंशयम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संग्राम छिड़ जानेपर किसी-न-किसी पक्षको लाभ या हानि, जय अथवा पराजय अवश्य प्राप्त होते हैं, यह सदा देखा गया है। इसमें संशयकी कोई बात नहीं है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद् युद्धोचितं कर्म कर्म वा धर्मसंहितम्।
क्रियतामाशु राजेन्द्र सम्प्राप्तश्च धनंजयः ॥ १४ ॥

मूलम्

तस्माद् युद्धोचितं कर्म कर्म वा धर्मसंहितम्।
क्रियतामाशु राजेन्द्र सम्प्राप्तश्च धनंजयः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः राजेन्द्र! तुम युद्धोचित कर्तव्यका पालन करो अथवा धर्मके अनुसार कार्य करो—बिना युद्धके ही राज्य देकर सन्धि कर लो। जो कुछ करना हो, जल्दी करो। अर्जुन अब सिरपर आ पहुँचे हैं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(एकोऽपि समरे पार्थः पृथिवीं निर्दहेच्छरैः।
भ्रातृभिः सहितस्तात किं पुनः कौरवान् रणे।
तस्मात् सन्धिं कुरुश्रेष्ठ कुरुष्व यदि मन्यसे।)

मूलम्

(एकोऽपि समरे पार्थः पृथिवीं निर्दहेच्छरैः।
भ्रातृभिः सहितस्तात किं पुनः कौरवान् रणे।
तस्मात् सन्धिं कुरुश्रेष्ठ कुरुष्व यदि मन्यसे।)

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीपुत्र अर्जुन अकेला ही समरभूमिमें समूची पृथ्वीको भी दग्ध कर सकता है, फिर वह अपने सम्पूर्ण वीर बन्धुओंके साथ मिलकर केवल कौरवोंको रणभूमिमें नष्ट कर दे, यह कौन बड़ी बात है? अतः कुरुश्रेष्ठ! यदि आप ठीक समझें, तो पाण्डवोंके साथ सन्धि कर लें।

मूलम् (वचनम्)

दुर्योधन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहं राज्यं प्रदास्यामि पाण्डवानां पितामह।
युद्धोपचारिकं यत् तु तच्छीघ्रं प्रविधीयताम् ॥ १५ ॥

मूलम्

नाहं राज्यं प्रदास्यामि पाण्डवानां पितामह।
युद्धोपचारिकं यत् तु तच्छीघ्रं प्रविधीयताम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधनने कहा— किन्तु पितामह! मैं पाण्डवोंको राज्य तो दूँगा नहीं, (अतः उनसे सन्धि हो नहीं सकती तब फिर) युद्धमें उपयोगी जो भी कार्य हो, उसे ही शीघ्र पूरा किया जाय॥१५॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र या मामिका बुद्धिः श्रूयतां यदि रोचते।
सर्वथा हि मया श्रेयो वक्तव्यं कुरुनन्दन ॥ १६ ॥

मूलम्

अत्र या मामिका बुद्धिः श्रूयतां यदि रोचते।
सर्वथा हि मया श्रेयो वक्तव्यं कुरुनन्दन ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मने कहा— कुरुनन्दन! यदि तुम्हें जचे, तो इस विषयमें मेरी जो सलाह है, उसे सुनो। मैं सर्वथा कल्याणकी ही बात कहूँगा॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षिप्रं बलचतुर्भागं गृह्य गच्छ पुरं प्रति।
ततोऽपरश्चतुर्भागो गाः समादाय गच्छतु ॥ १७ ॥

मूलम्

क्षिप्रं बलचतुर्भागं गृह्य गच्छ पुरं प्रति।
ततोऽपरश्चतुर्भागो गाः समादाय गच्छतु ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम सेनाका एक चौथाई भाग लेकर शीघ्र ही हस्तिनापुरकी ओर चल दो तथा दूसरी एक चौथाई टुकड़ी गौओंको साथ लेकर जाय॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वयं चार्धेन सैन्यस्य प्रतियोत्स्याम पाण्डवम्।
अहं द्रोणश्च कर्णश्च अश्वत्थामा कृपस्तथा।
प्रतियोत्स्याम बीभत्सुमागतं कृतनिश्चयम् ॥ १८ ॥

मूलम्

वयं चार्धेन सैन्यस्य प्रतियोत्स्याम पाण्डवम्।
अहं द्रोणश्च कर्णश्च अश्वत्थामा कृपस्तथा।
प्रतियोत्स्याम बीभत्सुमागतं कृतनिश्चयम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमलोग आधी सेना साथ लेकर पाण्डुनन्दन अर्जुनका सामना करेंगे। मैं, द्रोणाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा तथा कृपाचार्य युद्धका निश्चय करके आये हुए अर्जुनके साथ लड़ेंगे॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मत्स्यं वा पुनरायातमागतं वा शतक्रतुम्।
अहमावारयिष्यामि वेलेव मकरालयम् ॥ १९ ॥

मूलम्

मत्स्यं वा पुनरायातमागतं वा शतक्रतुम्।
अहमावारयिष्यामि वेलेव मकरालयम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर तो चाहे मत्स्यनरेश आ जायँ या साक्षात् इन्द्र, जैसे वेला समुद्रको रोक देती है, उसी प्रकार मैं उन्हें आगे बढ़नेसे रोक रखूँगा॥१९॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् वाक्यं रुरुचे तेषां भीष्मेणोक्तं महात्मना।
तथा हि कृतवान् राजा कौरवाणामनन्तरम् ॥ २० ॥
भीष्मः प्रस्थाप्य राजानं गोधनं तदनन्तरम्।
सेनामुख्यान् व्यवस्थाप्य व्यूहितुं सम्प्रचक्रमे ॥ २१ ॥

मूलम्

तद् वाक्यं रुरुचे तेषां भीष्मेणोक्तं महात्मना।
तथा हि कृतवान् राजा कौरवाणामनन्तरम् ॥ २० ॥
भीष्मः प्रस्थाप्य राजानं गोधनं तदनन्तरम्।
सेनामुख्यान् व्यवस्थाप्य व्यूहितुं सम्प्रचक्रमे ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! महात्मा भीष्मकी कही हुई यह बात सबको पसंद आ गयी। फिर कौरवोंके राजा दुर्योधनने वैसा ही किया। पहले राजा दुर्योधनको और उसके बाद गोधनको भेजकर सेनापतियोंको व्यवस्थित करके भीष्मजीने सेनाका व्यूह बनानेकी तैयारी की॥२०-२१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आचार्य मध्ये तिष्ठ त्वमश्वत्थामा तु सव्यतः।
कृपः शारद्वतो धीमान् पार्श्वं रक्षतु दक्षिणम् ॥ २२ ॥

मूलम्

आचार्य मध्ये तिष्ठ त्वमश्वत्थामा तु सव्यतः।
कृपः शारद्वतो धीमान् पार्श्वं रक्षतु दक्षिणम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी बोले— आचार्य! आप बीचमें खड़े हों, अश्वत्थामा वामभागकी रक्षा करें और शरद्वान्‌के पुत्र बुद्धिमान् कृपाचार्य सेनाके दक्षिणभागकी रक्षा करें॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्रतः सूतपुत्रस्तु कर्णस्तिष्ठतु दंशितः।
अहं सर्वस्य सैन्यस्य पश्चात् स्थास्यामि पालयन् ॥ २३ ॥

मूलम्

अग्रतः सूतपुत्रस्तु कर्णस्तिष्ठतु दंशितः।
अहं सर्वस्य सैन्यस्य पश्चात् स्थास्यामि पालयन् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूतपुत्र कर्ण कवच धारण करके सेनाके आगे रहे और मैं पृष्ठभागकी रक्षा करता हुआ सम्पूर्ण सेनाके पीछे स्थित रहूँगा॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(सर्वे महारथाः शूरा महेष्वासा महाबलाः।
युद्ध्यन्तु पाण्डवश्रेष्ठमागतं यत्नतो युधि॥

मूलम्

(सर्वे महारथाः शूरा महेष्वासा महाबलाः।
युद्ध्यन्तु पाण्डवश्रेष्ठमागतं यत्नतो युधि॥

अनुवाद (हिन्दी)

सभी महारथी महाधनुर्धर और महाबली शूरवीर योद्धा यहाँ आये हुए पाण्डवश्रेष्ठ अर्जुनके साथ रणभूमिमें यत्नपूर्वक युद्ध करें।

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभेद्यं सर्वसैन्यानां व्यूह्य व्यूहं कुरूत्तमः।
वज्रगर्भं व्रीहिमुखमर्धचक्रान्तमण्डलम् ॥
तस्य व्यूहस्य पश्चार्धे भीष्मश्चाथोद्यतायुधः।
सौवर्णं तालमुच्छ्रित्य रथे तिष्ठन्नशोभत॥)

मूलम्

अभेद्यं सर्वसैन्यानां व्यूह्य व्यूहं कुरूत्तमः।
वज्रगर्भं व्रीहिमुखमर्धचक्रान्तमण्डलम् ॥
तस्य व्यूहस्य पश्चार्धे भीष्मश्चाथोद्यतायुधः।
सौवर्णं तालमुच्छ्रित्य रथे तिष्ठन्नशोभत॥)

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर कुरुश्रेष्ठ भीष्मने समस्त सेनाओंका दुर्भेद्य व्यूह रचकर उसे वज्रगर्भ, व्रीहिमुख तथा अर्धचक्रान्तमण्डल आदिके रूपमें खड़ा किया और उसके पिछले भागमें भीष्मजी भी सुवर्णमय तालध्वज फहराकर हाथमें हथियार लिये खड़े हो गये। उस समय उनकी बड़ी शोभा हो रही थी।

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि गोहरणपर्वणि भीष्मसैन्यव्यूहे द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत गोहरणपर्वमें भीष्मजीके द्वारा सेनाकी व्यूहरचनाविषयक बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५२॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ४ श्लोक मिलाकर कुल २७ श्लोक हैं।)


  1. चान्द्रवर्ष तीन सौ चौवन दिनोंका होता है और सौरवर्ष तीन सौ पैंसठ दिन पंद्रह घड़ी एवं कुछ पलोंका हुआ करता है। इस हिसाबसे तेरह सौर वर्षोंमें चान्द्रवर्षके लगभग पाँच महीने अधिक हो जाते हैं। इन वर्षोंमें यदि छः बार अधिमास पड़ जायँ, तो जिस तिथिको पाण्डवोंका वनवास हुआ था, तेरहवें वर्षकी उसी तिथितक तेरह वर्षोंसे पाँच महीने और बारह दिन अधिक हो सकते हैं। पाण्डवोंने सूर्यकी संक्रान्तिके अनुसार वर्षकी गणना की थी; अतः उन्होंने अधिमास आदिके कारण बढ़े हुए महीनों और दिनोंकी संख्याको अलग नहीं माना। इसीलिये उनकी गणनामें तेरह ही वर्ष हुए। भीष्मजीने चान्द्रवर्षकी गणनाका आश्रय लेकर बढ़े हुए महीनों और दिनोंको भी गणनामें ले लिया। अतः उनके हिसाबसे उस दिनतक तेरह वर्ष पूर्ण होकर पाँच मास बारह दिन अधिक हुए। यह कालभेद सौर और चान्द्रवर्षोंकी गणनाके भेदसे ही हुआ है। वास्तवमें सूर्यकी संक्रान्तिके हिसाबसे उस समयतक पाण्डवोंके तेरह वर्ष छः दिन हो चुके थे। चान्द्रवर्षकी गणनाके अनुसार वही समय तेरह वर्ष पाँच माह बारह दिनका हो गया। ↩︎