भागसूचना
एकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
भीष्मजीके द्वारा सेनामें शान्ति और एकता बनाये रखनेकी चेष्टा तथा द्रोणाचार्यके द्वारा दुर्योधनकी रक्षाके लिये प्रयत्न
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधु पश्यति वै द्रौणिः कृपः साध्वनुपश्यति।
कर्णस्तु क्षत्रधर्मेण केवलं योद्धुमिच्छति ॥ १ ॥
मूलम्
साधु पश्यति वै द्रौणिः कृपः साध्वनुपश्यति।
कर्णस्तु क्षत्रधर्मेण केवलं योद्धुमिच्छति ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी बोले— दुर्योधन! अश्वत्थामा ठीक विचार कर रहे हैं। कृपाचार्यकी दृष्टि भी ठीक है। कर्ण तो केवल क्षत्रिय-धर्मकी दृष्टिसे युद्ध करना चाहता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आचार्यो नाभिवक्तव्यः पुरुषेण विजानता।
देशकालौ तु सम्प्रेक्ष्य योद्धव्यमिति मे मतिः ॥ २ ॥
मूलम्
आचार्यो नाभिवक्तव्यः पुरुषेण विजानता।
देशकालौ तु सम्प्रेक्ष्य योद्धव्यमिति मे मतिः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विज्ञ पुरुषको अपने आचार्यकी निन्दा या तिरस्कार नहीं करना चाहिये। मेरा भी विचार यही है कि देश, कालका विचार करके ही युद्ध करना उचित है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य सूर्यसमाः पञ्च सपत्नाः स्युः प्रहारिणः।
कथमभ्युदये तेषां न प्रमुह्येत पण्डितः ॥ ३ ॥
मूलम्
यस्य सूर्यसमाः पञ्च सपत्नाः स्युः प्रहारिणः।
कथमभ्युदये तेषां न प्रमुह्येत पण्डितः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके सूर्यके समान तेजस्वी और प्रहार करनेमें समर्थ पाँच शत्रु हों और उन शत्रुओंका अभ्युदय हो रहा हो, तो उस दशामें विद्वान् पुरुषको भी कैसे मोह न होगा॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वार्थे सर्वे विमुह्यन्ति येऽपि धर्मविदो जनाः।
तस्माद् राजन् ब्रवीम्येष वाक्यं ते यदि रोचते ॥ ४ ॥
मूलम्
स्वार्थे सर्वे विमुह्यन्ति येऽपि धर्मविदो जनाः।
तस्माद् राजन् ब्रवीम्येष वाक्यं ते यदि रोचते ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्वार्थके विषयमें सोचते समय सभी मनुष्य—धर्मज्ञ पुरुष भी मोहमें पड़ जाते हैं; अतः राजन्! यदि तुम्हें जचे, तो मैं इस विषयमें अपनी सलाह भी देता हूँ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णो हि यदवोचत् त्वां तेजःसंजननाय तत्।
आचार्यपुत्रः क्षमतां महत् कार्यमुपस्थितम् ॥ ५ ॥
मूलम्
कर्णो हि यदवोचत् त्वां तेजःसंजननाय तत्।
आचार्यपुत्रः क्षमतां महत् कार्यमुपस्थितम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्णने तुमसे जो कुछ कहा है, वह तेज एवं उत्साहको बढ़ानेके लिये ही कहा है। आचार्यपुत्र क्षमा करें। इस समय महान् कार्य उपस्थित है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नायं कालो विरोधस्य कौन्तेये समुपस्थिते।
क्षन्तव्यं भवता सर्वमाचार्येण कृपेण च ॥ ६ ॥
मूलम्
नायं कालो विरोधस्य कौन्तेये समुपस्थिते।
क्षन्तव्यं भवता सर्वमाचार्येण कृपेण च ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह समय आपसके विरोधका नहीं है; विशेषतः ऐसे मौकेपर जब कि कुन्तीनन्दन अर्जुन युद्धके लिये उपस्थित हैं। पूजनीय आचार्य द्रोण तथा कृपाचार्यको सब अपराध क्षमा करना चाहिये॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवतां हि कृतास्त्रत्वं यथाऽऽदित्ये प्रभा तथा।
यथा चन्द्रमसो लक्ष्मीः सर्वथा नापकृष्यते ॥ ७ ॥
मूलम्
भवतां हि कृतास्त्रत्वं यथाऽऽदित्ये प्रभा तथा।
यथा चन्द्रमसो लक्ष्मीः सर्वथा नापकृष्यते ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे सूर्यमें प्रभा और चन्द्रमामें लक्ष्मी (शोभा) सर्वथा विद्यमान रहती है—कभी कम नहीं होती, उसी प्रकार आपलोगोंका अस्त्रविद्यामें जो पाण्डित्य है, वह अक्षुण्ण है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं भवत्सु ब्राह्मण्यं ब्रह्मास्त्रं च प्रतिष्ठितम्।
चत्वार एकतो वेदाः क्षात्रमेकत्र दृश्यते ॥ ८ ॥
मूलम्
एवं भवत्सु ब्राह्मण्यं ब्रह्मास्त्रं च प्रतिष्ठितम्।
चत्वार एकतो वेदाः क्षात्रमेकत्र दृश्यते ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार आपलोगोंमें ब्राह्मणत्व तथा ब्रह्मास्त्र दोनों ही प्रतिष्ठित हैं, यद्यपि प्रायः एक व्यक्तिमें चारों वेदोंका ज्ञान देखा जाता है, तो दूसरेमें क्षात्रधर्मका॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैतत् समस्तमुभयं कस्मिंश्चिदनुशुश्रुम ।
अन्यत्र भारताचार्यात् सपुत्रादिति मे मतिः ॥ ९ ॥
मूलम्
नैतत् समस्तमुभयं कस्मिंश्चिदनुशुश्रुम ।
अन्यत्र भारताचार्यात् सपुत्रादिति मे मतिः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये दोनों बातें पूर्णरूपसे किसी एक व्यक्तिमें हमने नहीं सुनी हैं। केवल भरतवंशियोंके आचार्य कृप, द्रोण और उनके पुत्र अश्वत्थामामें ही ये दोनों शक्तियाँ (ब्रह्मबल और क्षात्रबल) हैं। इनके सिवा और कहीं उक्त दोनों बातोंका एकत्र समावेश नहीं है। यह मेरा दृढ़ विश्वास है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदान्ताश्च पुराणानि इतिहासं पुरातनम्।
जामदग्न्यमृते राजन् को द्रोणादधिको भवेत् ॥ १० ॥
मूलम्
वेदान्ताश्च पुराणानि इतिहासं पुरातनम्।
जामदग्न्यमृते राजन् को द्रोणादधिको भवेत् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! वेदान्त, पुराण और प्राचीन इतिहासके ज्ञानमें जमदग्निनन्दन परशुरामजीके सिवा दूसरा कौन मनुष्य द्रोणाचार्यसे बढ़कर हो सकता है?॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मास्त्रं चैव वेदाश्च नैतदन्यत्र दृश्यते।
आचार्यपुत्रः क्षमतां नायं कालो विभेदने ॥ ११ ॥
सर्वे संहत्य युध्यामः पाकशासनिमागतम् ॥ १२ ॥
मूलम्
ब्रह्मास्त्रं चैव वेदाश्च नैतदन्यत्र दृश्यते।
आचार्यपुत्रः क्षमतां नायं कालो विभेदने ॥ ११ ॥
सर्वे संहत्य युध्यामः पाकशासनिमागतम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मास्त्र और वेद—ये दोनों वस्तुएँ हमारे आचार्योंके सिवा अन्यत्र कहीं नहीं देखी जातीं। आचार्यपुत्र क्षमा करें, यह समय आपसमें फूट पैदा करनेका नहीं है। हम सब लोग मिलकर यहाँ आये हुए अर्जुनसे युद्ध करेंगे॥११-१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलस्य व्यसनानीह यान्युक्तानि मनीषिभिः।
मुख्यो भेदो हि तेषां तु पापिष्ठो विदुषां मतः॥१३॥
मूलम्
बलस्य व्यसनानीह यान्युक्तानि मनीषिभिः।
मुख्यो भेदो हि तेषां तु पापिष्ठो विदुषां मतः॥१३॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनीषी पुरुषोंने सेनाका विनाश करनेवाले जितने संकट बताये हैं, उनमें आपसकी फूट सबसे प्रधान कहा है। विद्वानोंने इस फूटको महान् पाप माना है॥१३॥
मूलम् (वचनम्)
अश्वत्थामोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैव न्याय्यमिदं वाच्यमस्माकं पुरुषर्षभ।
किं तु रोषपरीतेन गुरुणा भाषिता गुणाः ॥ १४ ॥
मूलम्
नैव न्याय्यमिदं वाच्यमस्माकं पुरुषर्षभ।
किं तु रोषपरीतेन गुरुणा भाषिता गुणाः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अश्वत्थामाने कहा— पुरुषश्रेष्ठ! हमारी न्यायोचित बातकी निन्दा नहीं की जानी चाहिये। आचार्य द्रोणने पाण्डवोंपर हुए पहलेके अन्यायोंका स्मरण करके रोषपूर्वक अर्जुनके गुणोंका यहाँ वर्णन किया है (भेद उत्पन्न करनेके लिये नहीं)॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शत्रोरपि गुणा ग्राह्या दोषा वाच्या गुरोरपि।
सर्वथा सर्वयत्नेन पुत्रे शिष्ये हितं वदेत् ॥ १५ ॥
मूलम्
शत्रोरपि गुणा ग्राह्या दोषा वाच्या गुरोरपि।
सर्वथा सर्वयत्नेन पुत्रे शिष्ये हितं वदेत् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुके भी गुण ग्रहण करने चाहिये और गुरुके भी दोष बतानेमें संकोच नहीं करना चाहिये। गुरुको सब प्रकारसे पूर्ण प्रयत्न करके पुत्र और शिष्यके लिये जो हितकर हो, वही बात कहनी चाहिये॥१५॥
मूलम् (वचनम्)
दुर्योधन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आचार्य एव क्षमतां शान्तिरत्र विधीयताम्।
अभिद्यमाने तु गुरौ तद् वृत्तं रोषकारितम् ॥ १६ ॥
मूलम्
आचार्य एव क्षमतां शान्तिरत्र विधीयताम्।
अभिद्यमाने तु गुरौ तद् वृत्तं रोषकारितम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्योधनने कहा— आचार्य! क्षमा करें, अब शान्ति धारण करनी चाहिये। यदि गुरुके मनमें भेद न हो, तभी यह समझा जायगा कि पहले जो बातें कही गयी हैं, उनमें रोष ही कारण था॥१६॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दुर्योधनो द्रोणं क्षमयामास भारत।
सह कर्णेन भीष्मेण कृपेण च महात्मना ॥ १७ ॥
मूलम्
ततो दुर्योधनो द्रोणं क्षमयामास भारत।
सह कर्णेन भीष्मेण कृपेण च महात्मना ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर दुर्योधनने कर्ण, भीष्म और महात्मा कृपाचार्यके साथ आचार्य द्रोणसे क्षमा माँगी॥१७॥
मूलम् (वचनम्)
द्रोण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदेतत् प्रथमं वाक्यं भीष्मः शान्तनवोऽब्रवीत्।
तेनैवाहं प्रसन्नो वै नीतिरत्र विधीयताम् ॥ १८ ॥
यथा दुर्योधनं पार्थो नोपसर्पति संगरे।
साहसाद् यदि वा मोहात् तथा नीतिर्विधीयताम् ॥ १९ ॥
मूलम्
यदेतत् प्रथमं वाक्यं भीष्मः शान्तनवोऽब्रवीत्।
तेनैवाहं प्रसन्नो वै नीतिरत्र विधीयताम् ॥ १८ ॥
यथा दुर्योधनं पार्थो नोपसर्पति संगरे।
साहसाद् यदि वा मोहात् तथा नीतिर्विधीयताम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब द्रोण बोले— शान्तनुनन्दन भीष्मजीने पहले जो बात कही थी, उसीसे मैं प्रसन्न हूँ। अब ऐसी नीतिसे काम लेना चाहिये, जिससे अर्जुन इस युद्धमें दुर्योधनके पासतक न पहुँच सकें। साहससे अथवा प्रमादवश भी दुर्योधनपर उनका आक्रमण न हो, ऐसी नीति निर्धारित करनी चाहिये॥१८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वनवासे ह्यनिर्वृत्ते दर्शयेन्न धनंजयः।
धनं चालभमानोऽत्र नाद्य तत् क्षन्तुमर्हति ॥ २० ॥
मूलम्
वनवासे ह्यनिर्वृत्ते दर्शयेन्न धनंजयः।
धनं चालभमानोऽत्र नाद्य तत् क्षन्तुमर्हति ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वनवासकी अवधि पूर्ण हुए बिना अर्जुन अपनेको प्रकट नहीं कर सकते थे। आज यदि वे यहाँ आकर अपना गोधन न पा सके, तो हमको क्षमा नहीं कर सकते॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा नायं समायुञ्ज्याद् धार्तराष्ट्रन् कथंचन।
न च सेनाः पराजय्यात् तथा नीतिर्विधीयताम् ॥ २१ ॥
मूलम्
यथा नायं समायुञ्ज्याद् धार्तराष्ट्रन् कथंचन।
न च सेनाः पराजय्यात् तथा नीतिर्विधीयताम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसी दशामें जैसे भी सम्भव हो; वे धृतराष्ट्रपुत्रोंपर आक्रमण न कर सकें और किसी प्रकार भी कौरव-सेनाओंको परास्त न करने पावें, ऐसी कोई नीति बनानी चाहिये॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उक्तं दुर्योधनेनापि पुरस्ताद् वाक्यमीदृशम्।
तदनुस्मृत्य गाङ्गेय यथावद् वक्तुमर्हसि ॥ २२ ॥
मूलम्
उक्तं दुर्योधनेनापि पुरस्ताद् वाक्यमीदृशम्।
तदनुस्मृत्य गाङ्गेय यथावद् वक्तुमर्हसि ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्योधनने भी पहले ऐसी बात कही थी कि पाण्डवोंका अज्ञातवास पूर्ण होनेमें संदेह है, अतः गंगानन्दन भीष्म! आप स्वयं स्मरण करके यथार्थ बात क्या है—उनका अज्ञातवास पूर्ण हो गया है या नहीं, इसका निर्णय करें॥२२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि गोहरणपर्वणि उत्तरगोग्रहे द्रोणवाक्ये एकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत गोहरणपर्वमें उत्तरगोग्रहके समय द्रोणवाक्यसम्बन्धी इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५१॥