भागसूचना
पञ्चाशत्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अश्वत्थामाके उद्गार
मूलम् (वचनम्)
अश्वत्थामोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च तावज्जिता गावो न च सीमान्तरं गताः।
न हास्तिनपुरं प्राप्तास्त्वं च कर्ण विकत्थसे ॥ १ ॥
मूलम्
न च तावज्जिता गावो न च सीमान्तरं गताः।
न हास्तिनपुरं प्राप्तास्त्वं च कर्ण विकत्थसे ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अश्वत्थामाने कहा— कर्ण! अभी तो हमने न गौओंको जीता है, न मत्स्यदेशकी सीमाके बाहर जा सके हैं और न हस्तिनापुरमें ही पहुँच गये हैं। फिर तुम इतनी व्यर्थ बकवाद क्यों कर रहे हो?॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संग्रामांश्च बहून् जित्वा लब्धवा च विपुलं धनम्।
विजित्य च परां सेनां नाहुः किंचन पौरुषम् ॥ २ ॥
दहत्यग्निरवाक्यस्तु तूष्णीं भाति दिवाकरः।
तूष्णीं धारयते लोकान् वसुधा सचराचरान् ॥ ३ ॥
मूलम्
संग्रामांश्च बहून् जित्वा लब्धवा च विपुलं धनम्।
विजित्य च परां सेनां नाहुः किंचन पौरुषम् ॥ २ ॥
दहत्यग्निरवाक्यस्तु तूष्णीं भाति दिवाकरः।
तूष्णीं धारयते लोकान् वसुधा सचराचरान् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विद्वान् पुरुष बहुत-सी लड़ाइयाँ जीतकर, असंख्य धनराशि पाकर तथा शत्रुओंकी सेनाको परास्त करके भी इस तरह व्यर्थ बकवाद नहीं करते। आग बिना कुछ कहे-सुने ही सबको जलाकर भस्म कर देती है, सूर्यदेव मौन रहकर ही प्रकाशित होते हैं, पृथ्वी चुप रहकर ही सम्पूर्ण चराचर लोकोंको धारण करती है (इनमेंसे कोई अपने पराक्रमकी प्रशंसा नहीं करता)॥२-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चातुर्वर्ण्यस्य कर्माणि विहितानि स्वयम्भुवा।
धनं यैरधिगन्तव्यं यच्च कुर्वन् न दुष्यति ॥ ४ ॥
मूलम्
चातुर्वर्ण्यस्य कर्माणि विहितानि स्वयम्भुवा।
धनं यैरधिगन्तव्यं यच्च कुर्वन् न दुष्यति ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीने चारों वर्णोंके कर्म नियत कर दिये हैं, जिनसे धन भी मिल सकता है और जिनका अनुष्ठान करनेसे कर्ता दोषका भागी नहीं होता॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधीत्य ब्राह्मणो वेदान् याजयेत यजेत वा।
क्षत्रियो धनुराश्रित्य यजेच्चैव न याजयेत् ॥ ५ ॥
मूलम्
अधीत्य ब्राह्मणो वेदान् याजयेत यजेत वा।
क्षत्रियो धनुराश्रित्य यजेच्चैव न याजयेत् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण वेदोंको पढ़कर यज्ञ करावे अथवा करे। क्षत्रिय धनुषका आश्रय लेकर धन कमाये और यज्ञ करे; परंतु वह दूसरोंका यज्ञ न करावे (क्योंकि यह काम ब्राह्मणोंका है)॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैश्योऽधिगम्य वित्तानि ब्रह्मकर्माणि कारयेत्।
शूद्रः शुश्रूषणं कुर्यात् त्रिषु वर्णेषु नित्यशः।
वन्दनायोगविधिभिर्वैतसीं वृत्तिमास्थितः ॥ ६ ॥
मूलम्
वैश्योऽधिगम्य वित्तानि ब्रह्मकर्माणि कारयेत्।
शूद्रः शुश्रूषणं कुर्यात् त्रिषु वर्णेषु नित्यशः।
वन्दनायोगविधिभिर्वैतसीं वृत्तिमास्थितः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैश्य कृषि और व्यापार आदिके द्वारा धनोपार्जन करके ब्राह्मणोंके द्वारा वेदोक्त कर्म करावें और शूद्र वैतसीवृत्ति (बेंतके वृक्षकी भाँति नम्रता) का आश्रय ले प्रणाम और आज्ञापालन आदिके द्वारा सदा तीनों वर्णोंके पास रहकर उनकी सेवा करे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्तमाना यथाशास्त्रं प्राप्य चापि महीमिमाम्।
सत्कुर्वन्ति महाभागा गुरून् सुविगुणानपि ॥ ७ ॥
मूलम्
वर्तमाना यथाशास्त्रं प्राप्य चापि महीमिमाम्।
सत्कुर्वन्ति महाभागा गुरून् सुविगुणानपि ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महान् सौभाग्यशाली श्रेष्ठ पुरुष शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार बर्ताव करते हुए न्यायसे इस पृथ्वीको प्राप्त करके भी अत्यन्त गुणहीन गुरुजनोंका भी सत्कार करते हैं (और यहाँ अन्यायसे राज्य लेकर गुणवान् गुरुजनोंका भी तिरस्कार हो रहा है)॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राप्य द्यूतेन को राज्यं क्षत्रियस्तोष्टुमर्हति।
तथा नृशंसरूपोऽयं धार्तराष्ट्रश्च निर्घृणः ॥ ८ ॥
मूलम्
प्राप्य द्यूतेन को राज्यं क्षत्रियस्तोष्टुमर्हति।
तथा नृशंसरूपोऽयं धार्तराष्ट्रश्च निर्घृणः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भला जुएसे राज्य पाकर कौन क्षत्रिय संतुष्ट हो सकता है? परंतु इस धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधनको इसीमें संतोष है; क्योंकि यह क्रूर और निर्दयी है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथाधिगम्य वित्तानि को विकत्थेद् विचक्षणः।
निकृत्या वञ्चनायोगैश्चरन् वैतंसिको यथा ॥ ९ ॥
मूलम्
तथाधिगम्य वित्तानि को विकत्थेद् विचक्षणः।
निकृत्या वञ्चनायोगैश्चरन् वैतंसिको यथा ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे व्याध शठता और छल-कपटसे भरे हुए उपायोंद्वारा जीवननिर्वाह करता है, उसी प्रकार कपटपूर्ण वृत्तिसे धन पाकर कौन बुद्धिमान् पुरुष अपने ही मुँह अपनी बड़ाई करेगा?॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कतमद् द्वैरथं युद्धं यत्राजैषीर्धनंजयम्।
नकुलं सहदेवं वा धनं येषां त्वया हृतम् ॥ १० ॥
मूलम्
कतमद् द्वैरथं युद्धं यत्राजैषीर्धनंजयम्।
नकुलं सहदेवं वा धनं येषां त्वया हृतम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा दुर्योधन! तुमने जिन पाण्डवोंका धन कपटद्यूतके द्वारा हर लिया है, उनमेंसे धनंजय, नकुल या सहदेव किसको कब युद्धमें हराया है? वह कौन-सा द्वन्द्वयुद्ध हुआ था, जिसमें तुमने अर्जुन आदिमेंसे किसीको जीता हो?॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युधिष्ठिरो जितः कस्मिन् भीमश्च बलिनां वरः।
इन्द्रप्रस्थं त्वया कस्मिन् संग्रामे निर्जितं पुरा ॥ ११ ॥
मूलम्
युधिष्ठिरो जितः कस्मिन् भीमश्च बलिनां वरः।
इन्द्रप्रस्थं त्वया कस्मिन् संग्रामे निर्जितं पुरा ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मराज युधिष्ठिर अथवा बलवानोंमें श्रेष्ठ भीमसेन तुम्हारे द्वारा किस युद्धमें परास्त किये गये हैं? आज जिस इन्द्रप्रस्थपर तुम्हारा अधिकार है, उसे पहले तुमने किस युद्धमें जीता था?॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव कतमद् युद्धं यस्मिन् कृष्णा जिता त्वया।
एकवस्त्रा सभां नीता दुष्टकर्मन् रजस्वला ॥ १२ ॥
मूलम्
तथैव कतमद् युद्धं यस्मिन् कृष्णा जिता त्वया।
एकवस्त्रा सभां नीता दुष्टकर्मन् रजस्वला ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुष्ट कर्म करनेवाले पापी! बताओ तो, कौन-सा ऐसा युद्ध हुआ था, जिसमें तुमने द्रौपदीको जीत लिया हो? तुमलोग तो अकारण ही एक वस्त्र धारण करनेवाली बेचारी द्रौपदीको रजस्वलावस्थामें राजसभाके भीतर घसीट लाये थे॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूलमेषां महत् कृत्तं सारार्थी चन्दनं यथा।
कर्म कारयिथाः सूत तत्र किं विदुरोऽब्रवीत् ॥ १३ ॥
मूलम्
मूलमेषां महत् कृत्तं सारार्थी चन्दनं यथा।
कर्म कारयिथाः सूत तत्र किं विदुरोऽब्रवीत् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूतपुत्र! जैसे धनकी इच्छा रखनेवाला मनुष्य चन्दनकी लकड़ी काटता है, उसी प्रकार तुमने और दुर्योधनने कपट-द्यूत और द्रौपदीके अपमानद्वारा इन पाण्डवोंका मूलोच्छेद किया। जिस समय तुमलोगोंने पाण्डवोंको कर्मकार (दास) बनाया था, उस दिन वहाँ महात्मा विदुरने क्या कहा था; (उन्होंने जूएको कुरुकुलके संहारका कारण बताया था,) याद है न?॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथाशक्ति मनुष्याणां शममालक्षयामहे ।
अन्येषामपि सत्त्वानामपि कीटपिपीलिकैः ।
द्रौपद्याः सम्परिक्लेशं न क्षन्तुं पाण्डवोऽर्हति ॥ १४ ॥
मूलम्
यथाशक्ति मनुष्याणां शममालक्षयामहे ।
अन्येषामपि सत्त्वानामपि कीटपिपीलिकैः ।
द्रौपद्याः सम्परिक्लेशं न क्षन्तुं पाण्डवोऽर्हति ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हम देखते हैं, मनुष्य हों या अन्य जीव-जन्तु अथवा कीड़े-मकोड़े आदि ही क्यों न हों, सबमें अपनी-अपनी शक्तिके अनुसार सहनशीलताकी एक सीमा होती है। द्रौपदीको जो कष्ट दिये गये हैं, उन्हें पाण्डुपुत्र अर्जुन कभी क्षमा नहीं कर सकते॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षयाय धार्तराष्ट्राणां प्रादुर्भूतो धनंजयः।
त्वं पुनः पण्डितो भूत्वा वाचं वक्तुमिहेच्छसि ॥ १५ ॥
मूलम्
क्षयाय धार्तराष्ट्राणां प्रादुर्भूतो धनंजयः।
त्वं पुनः पण्डितो भूत्वा वाचं वक्तुमिहेच्छसि ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्रके पुत्रोंका संहार करनेके लिये ही धनंजय प्रकट हुए हैं और एक तुम हो, जो यहाँ पण्डित बनकर बड़ी-बड़ी बातें बनाना चाहते हो॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैरान्तकरणो जिष्णुर्न नः शेषं करिष्यति ॥ १६ ॥
मूलम्
वैरान्तकरणो जिष्णुर्न नः शेषं करिष्यति ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्या वैरका बदला चुकानेवाले अर्जुन हमलोगोंका संहार नहीं कर डालेंगे?॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैष देवान् न गन्धर्वान् नासुरान् न च राक्षसान्।
भयादिह न मुध्येत कुन्तीपुत्रो धनंजयः ॥ १७ ॥
मूलम्
नैष देवान् न गन्धर्वान् नासुरान् न च राक्षसान्।
भयादिह न मुध्येत कुन्तीपुत्रो धनंजयः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह कभी सम्भव नहीं है कि कुन्तीनन्दन अर्जुन भयके कारण देवता, गन्धर्व, असुर तथा राक्षसोंसे भी युद्ध न करें॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यं यमेषोऽतिसंक्रुद्धः संग्रामे निपतिष्यति।
वृक्षं गरुत्मान् वेगेन विनिहत्य तमेष्यति ॥ १८ ॥
मूलम्
यं यमेषोऽतिसंक्रुद्धः संग्रामे निपतिष्यति।
वृक्षं गरुत्मान् वेगेन विनिहत्य तमेष्यति ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे गरुड़ जिस-जिस वृक्षपर पैर रखते हैं, अपने वेगसे उसे गिराकर चले जाते हैं, उसी प्रकार अर्जुन अत्यन्त क्रोधमें भरकर संग्रामभूमिमें जिस-जिस महारथीपर आक्रमण करेंगे, उसे नष्ट करके ही आगे बढ़ेंगे॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वत्तो विशिष्टं वीर्येण धनुष्यमरराट्समम्।
वासुदेवसमं युद्धे तं पार्थं को न पूजयेत् ॥ १९ ॥
मूलम्
त्वत्तो विशिष्टं वीर्येण धनुष्यमरराट्समम्।
वासुदेवसमं युद्धे तं पार्थं को न पूजयेत् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्ण! अर्जुन पराक्रममें तुमसे बहुत बढ़े-चढ़े हैं, धनुष चलानेमें तो वे देवराज इन्द्रके तुल्य हैं और युद्धकी कलामें साक्षात् वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णके समान हैं; ऐसे कुन्तीपुत्रकी कौन प्रशंसा नहीं करेगा?॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवं दैवेन युध्येत मानुषेण च मानुषम्।
अस्त्रं ह्यस्त्रेण यो हन्यात् कोऽर्जुनेन समः पुमान् ॥ २० ॥
मूलम्
देवं दैवेन युध्येत मानुषेण च मानुषम्।
अस्त्रं ह्यस्त्रेण यो हन्यात् कोऽर्जुनेन समः पुमान् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो देवताओंके साथ देवोचित ढंगसे और मनुष्योंके साथ मानवोचित प्रणालीसे युद्ध करते हैं और प्रत्येक अस्त्रको उसके विरोधी अस्त्रद्वारा नष्ट कर सकते हैं, उन कुन्तीनन्दन धनंजयकी समानता करनेवाला कौन पुरुष है?॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्रादनन्तरं शिष्य इति धर्मविदो विदुः।
एतेनापि निमित्तेन प्रियो द्रोणस्य पाण्डवः ॥ २१ ॥
मूलम्
पुत्रादनन्तरं शिष्य इति धर्मविदो विदुः।
एतेनापि निमित्तेन प्रियो द्रोणस्य पाण्डवः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मज्ञ पुरुष ऐसा मानते हैं कि गुरुको पुत्रके बाद शिष्य ही प्रिय होता है, इस कारणसे भी पाण्डुनन्दन अर्जुन आचार्य द्रोणको प्रिय हैं [अतः वे उनकी प्रशंसा क्यों न करें?]॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा त्वमकरोर्द्यूतमिन्द्रप्रस्थं यथाऽऽहरः ।
यथाऽऽनैषीः सभां कृष्णां तथा युध्यस्व पाण्डवम् ॥ २२ ॥
मूलम्
यथा त्वमकरोर्द्यूतमिन्द्रप्रस्थं यथाऽऽहरः ।
यथाऽऽनैषीः सभां कृष्णां तथा युध्यस्व पाण्डवम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्योधन! जैसे तुमलोगोंने जूएका खेल किया, जिस तरह इन्द्रप्रस्थके राज्यका अपहरण किया और जिस प्रकार भरी सभामें द्रौपदीको घसीट ले गये, उसी प्रकार पाण्डुनन्दन अर्जुनसे युद्ध भी करो। [जब उन अन्यायोंके समय तुम्हें हमारे सहयोगकी आवश्यकता नहीं जान पड़ी, तब इस युद्धमें भी सहयोगकी आशा न रखो]॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं ते मातुलः प्राज्ञः क्षत्रधर्मस्य कोविदः।
दुर्द्यूतदेवी गान्धारः शकुनिर्युध्यतामिह ॥ २३ ॥
मूलम्
अयं ते मातुलः प्राज्ञः क्षत्रधर्मस्य कोविदः।
दुर्द्यूतदेवी गान्धारः शकुनिर्युध्यतामिह ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये तुम्हारे मामा शकुनि बड़े बुद्धिमान् और क्षत्रियधर्मके महापण्डित हैं। छलपूर्वक जूआ खेलनेवाले ये गान्धारदेशके नरेश शकुनि ही यहाँ युद्ध करें॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाक्षान् क्षिपति गाण्डीवं न कृतं द्वापरं न च।
ज्वलतो निशितान् बाणांस्तांस्तान् क्षिपति गाण्डिवम् ॥ २४ ॥
मूलम्
नाक्षान् क्षिपति गाण्डीवं न कृतं द्वापरं न च।
ज्वलतो निशितान् बाणांस्तांस्तान् क्षिपति गाण्डिवम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गाण्डीव धनुष कृतयुग, द्वापर और त्रेता नामक पासे नहीं फेंकता है, वह तो लगातार तीखे और प्रज्वलित बाणोंकी वर्षा करता है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि गाण्डीवनिर्मुक्ता गार्ध्रपक्षाः सुतेजनाः।
नान्तरेष्ववतिष्ठन्ते गिरीणामपि दारणाः ॥ २५ ॥
मूलम्
न हि गाण्डीवनिर्मुक्ता गार्ध्रपक्षाः सुतेजनाः।
नान्तरेष्ववतिष्ठन्ते गिरीणामपि दारणाः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गाण्डीवसे छूटे हुए गीधके पंखवाले तीखे बाण पर्वतोंको भी विदीर्ण करनेवाले हैं। वे शत्रुकी छातीमें घुसे बिना नहीं रहते॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तकः पवनो मृत्युस्तथाग्निर्वडवामुखः ।
कुर्युरेते क्वचिच्छेषं न तु क्रुद्धो धनंजयः ॥ २६ ॥
मूलम्
अन्तकः पवनो मृत्युस्तथाग्निर्वडवामुखः ।
कुर्युरेते क्वचिच्छेषं न तु क्रुद्धो धनंजयः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यमराज, वायु, मृत्यु और बड़वानल—ये चाहे जड़-मूलसे नष्ट न करें, कुछ बाकी छोड़ दें, परंतु अर्जुन कुपित होनेपर कुछ भी नहीं छोड़ेंगे॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा सभायां द्यूतं त्वं मातुलेन सहाकरोः।
तथा युध्यस्व संग्रामे सौबलेन सुरक्षितः ॥ २७ ॥
मूलम्
यथा सभायां द्यूतं त्वं मातुलेन सहाकरोः।
तथा युध्यस्व संग्रामे सौबलेन सुरक्षितः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जैसे राजसभामें तुमने मामाके साथ जूएका खेल किया है, उसी प्रकार इस संग्रामभूमिमें भी तुम उन्हीं मामा शकुनिसे सुरक्षित होकर युद्ध करो। (किसी दूसरेसे सहयोगकी आशा न रखो)॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युध्यन्तां कामतो योधा नाहं योत्स्ये धनंजयम्।
मत्स्यो ह्यस्माभिरायोध्यो यद्यागच्छेद् गवां पदम् ॥ २८ ॥
मूलम्
युध्यन्तां कामतो योधा नाहं योत्स्ये धनंजयम्।
मत्स्यो ह्यस्माभिरायोध्यो यद्यागच्छेद् गवां पदम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा अन्य योद्धाओंकी इच्छा हो, तो वे युद्ध कर सकते हैं, किंतु मैं अर्जुनके साथ नहीं लड़ूँगा। हमें तो मत्स्यनरेशसे युद्ध करना है। यदि वे इस गोष्ठपर आ जायँ, तो मैं उनके साथ युद्ध कर सकता हूँ॥२८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि गोहरणपर्वणि उत्तरगोग्रहे द्रौणिवाक्यं नाम पञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥५०॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत गोहरणपर्वमें उत्तरगोग्रहके समय अश्वत्थामावाक्यविषयक पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५०॥