भागसूचना
एकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
कृपाचार्यका कर्णको फटकारते हुए युद्धके विषयमें अपना विचार बताना
मूलम् (वचनम्)
कृप उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदैव तव राधेय युद्धे क्रूरतरा मतिः।
नार्थानां प्रकृतिं वेत्सि नानुबन्धमवेक्षसे ॥ १ ॥
मूलम्
सदैव तव राधेय युद्धे क्रूरतरा मतिः।
नार्थानां प्रकृतिं वेत्सि नानुबन्धमवेक्षसे ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर कृपाचार्यने कहा— राधानन्दन! युद्धके विषयमें तुम्हारा विचार सदा ही क्रूरतापूर्ण रहता है। तुम न तो कार्योंके स्वरूपको ही जानते हो और न उनके परिणामका ही विचार करते हो॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
माया हि बहवः सन्ति शास्त्रमाश्रित्य चिन्तिताः।
तेषां युद्धं तु पापिष्ठं वेदयन्ति पुराविदः ॥ २ ॥
मूलम्
माया हि बहवः सन्ति शास्त्रमाश्रित्य चिन्तिताः।
तेषां युद्धं तु पापिष्ठं वेदयन्ति पुराविदः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने शास्त्रका आश्रय लेकर बहुत-सी मायाओंका चिन्तन किया है; किंतु उन सबमें युद्ध ही सर्वाधिक पापपूर्ण कर्म है—ऐसा प्राचीन विद्वान् बताते हैं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देशकालेन संयुक्तं युद्धं विजयदं भवेत्।
हीनकालं तदेवेह फलं न लभते पुनः।
देशे काले च विक्रान्तं कल्याणाय विधीयते ॥ ३ ॥
मूलम्
देशकालेन संयुक्तं युद्धं विजयदं भवेत्।
हीनकालं तदेवेह फलं न लभते पुनः।
देशे काले च विक्रान्तं कल्याणाय विधीयते ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देश और कालके अनुसार जो युद्ध किया जाता है, वह विजय देनेवाला होता है; किंतु जो अनुपयुक्त कालमें किया जाता है, वह युद्ध सफल नहीं होता। देश और कालके अनुसार किया हुआ पराक्रम ही कल्याणकारी होता है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आनुकूल्येन कार्याणामन्तरं संविधीयते ।
भारं हि रथकारस्य न व्यवस्यन्ति पण्डिताः ॥ ४ ॥
मूलम्
आनुकूल्येन कार्याणामन्तरं संविधीयते ।
भारं हि रथकारस्य न व्यवस्यन्ति पण्डिताः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देश और कालकी अनुकूलता होनेसे ही कार्योंका फल सिद्ध होता है। विद्वान् पुरुष रथ बनानेवाले (सूत) की बातपर ही सारा भार डालकर स्वयं देश-कालका विचार किये बिना युद्ध आदिका निश्चय नहीं करते1॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परिचिन्त्य तु पार्थेन संनिपातों न नः क्षमः।
एकः कुरूनभ्यगच्छदेकश्चाग्निमतर्पयत् ॥ ५ ॥
मूलम्
परिचिन्त्य तु पार्थेन संनिपातों न नः क्षमः।
एकः कुरूनभ्यगच्छदेकश्चाग्निमतर्पयत् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विचार करनेपर तो यही समझमें आता है कि अर्जुनके साथ युद्ध करना हमारे लिये कदापि उचित नहीं है; [क्योंकि वे अकेले भी हमें परास्त कर सकते हैं।] अर्जुनने अकेले ही उत्तरकुरुदेशपर चढ़ाई की और उसे जीत लिया। अकेले ही खाण्डववन देकर अग्निको तृप्त किया॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकश्च पञ्च वर्षाणि ब्रह्मचर्यमधारयत्।
एकः सुभद्रामारोप्य द्वैरथे कृष्णमाह्वयत् ॥ ६ ॥
मूलम्
एकश्च पञ्च वर्षाणि ब्रह्मचर्यमधारयत्।
एकः सुभद्रामारोप्य द्वैरथे कृष्णमाह्वयत् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने अकेले ही पाँच वर्षतक कठोर तप करते हुए ब्रह्मचर्यव्रतका पालन किया। अकेले ही सुभद्राको रथपर बिठाकर उसका अपहरण किया और द्वन्द्वयुद्धके लिये श्रीकृष्णको भी ललकारा॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकः किरातरूपेण स्थितं रुद्रमयोधयत्।
अस्मिन्नेव वने पार्थो हृतां कृष्णामवाजयत् ॥ ७ ॥
मूलम्
एकः किरातरूपेण स्थितं रुद्रमयोधयत्।
अस्मिन्नेव वने पार्थो हृतां कृष्णामवाजयत् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनने अकेले ही किरातरूपमें सामने आये हुए भगवान् शंकरसे युद्ध किया। इसी वनवासकी घटना है, जब जयद्रथने द्रौपदीका अपहरण किया था, उस समय भी अर्जुनने अकेले ही उसे हराकर द्रौपदीको उसके हाथसे छुड़ाया था॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकश्च पञ्च वर्षाणि शक्रादस्त्राण्यशिक्षत।
एकः सोऽयमरिं जित्वा कुरूणामकरोद् यशः ॥ ८ ॥
एको गन्धर्वराजानं चित्रसेनमरिंदमः ।
विजिग्ये तरसा संख्ये सेनां प्राप्य सुदुर्जयाम् ॥ ९ ॥
मूलम्
एकश्च पञ्च वर्षाणि शक्रादस्त्राण्यशिक्षत।
एकः सोऽयमरिं जित्वा कुरूणामकरोद् यशः ॥ ८ ॥
एको गन्धर्वराजानं चित्रसेनमरिंदमः ।
विजिग्ये तरसा संख्ये सेनां प्राप्य सुदुर्जयाम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने अकेले ही पाँच वर्षतक स्वर्गमें रहकर साक्षात् इन्द्रसे अस्त्र-शस्त्र सीखे हैं और अकेले ही सब शत्रुओंको जीतकर कुरुवंशका यश बढ़ाया है। शत्रुओंका दमन करनेवाले महावीर अर्जुनने कौरवोंकी घोषयात्राके समय युद्धमें गन्धर्वोंकी दुर्जय सेनाका वेगपूर्वक सामना करते हुए अकेले ही गन्धर्वराज चित्रसेनपर विजय पायी थी॥८-९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा निवातकवचाः कालखञ्जाश्च दानवाः।
दैवतैरप्यवध्यास्ते एकेन युधि पातिताः ॥ १० ॥
मूलम्
तथा निवातकवचाः कालखञ्जाश्च दानवाः।
दैवतैरप्यवध्यास्ते एकेन युधि पातिताः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निवातकवच और कालखञ्ज आदि दानवगण तो देवताओंके लिये भी अवध्य थे, किंतु अर्जुनने अकेले ही उन सबको युद्धमें मार गिराया है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकेन हि त्वया कर्ण किं नामेह कृतं पुरा।
एकैकेन यथा तेषां भूमिपाला वशे कृताः ॥ ११ ॥
मूलम्
एकेन हि त्वया कर्ण किं नामेह कृतं पुरा।
एकैकेन यथा तेषां भूमिपाला वशे कृताः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किंतु कर्ण! तुम तो बताओ, तुमने पहले कभी अकेले रहकर इस जगत्में कौन-सा पुरुषार्थ किया है? पाण्डवोंमेंसे तो एक-एकने विभिन्न दिशाओंमें जाकर वहाँके भूमिपालोंको अपने वशमें कर लिया था [क्या तुमने भी ऐसा कोई कार्य किया है?]॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रोऽपि हि न पार्थेन संयुगे योद्धुमर्हति।
यस्तेनाशंसते योद्धुं कर्तव्यं तस्य भेषजम् ॥ १२ ॥
मूलम्
इन्द्रोऽपि हि न पार्थेन संयुगे योद्धुमर्हति।
यस्तेनाशंसते योद्धुं कर्तव्यं तस्य भेषजम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनके साथ तो इन्द्र भी रणभूमिमें खड़े होकर युद्ध नहीं कर सकते। फिर जो उनसे अकेले भिड़नेकी बात करता है, (वह पागल है।) उसकी दवा करानी चाहिये॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आशीविषस्य क्रुद्धस्य पाणिमुद्यम्य दक्षिणम्।
अवमुच्य प्रदेशिन्या दंष्ट्रामादातुमिच्छसि ॥ १३ ॥
मूलम्
आशीविषस्य क्रुद्धस्य पाणिमुद्यम्य दक्षिणम्।
अवमुच्य प्रदेशिन्या दंष्ट्रामादातुमिच्छसि ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूतपुत्र! (अर्जुनके साथ अकेले भिड़नेका साहस करके) तुम मानो क्रोधमें भरे हुए विषधर सर्पके मुखमें अपना दाहिना हाथ उठाकर डालना और तर्जनी अंगुलीसे उसके दाँत उखाड़ लेना चाहते हो॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवा कुञ्जरं मत्तमेक एव चरन् वने।
अनङ्कुशं समारुह्य नगरं गन्तुमिच्छसि ॥ १४ ॥
मूलम्
अथवा कुञ्जरं मत्तमेक एव चरन् वने।
अनङ्कुशं समारुह्य नगरं गन्तुमिच्छसि ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा वनमें अकेले घूमते हुए तुम बिना अंकुशके ही मतवाले हाथीकी पीठपर बैठकर नगरमें जाना चाहते हो॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समिद्धं पावकं चैव घृतमेदोवसाहुतम्।
घृताक्तश्चीरवासास्त्वं मध्येनोत्तर्तुमिच्छसि ॥ १५ ॥
मूलम्
समिद्धं पावकं चैव घृतमेदोवसाहुतम्।
घृताक्तश्चीरवासास्त्वं मध्येनोत्तर्तुमिच्छसि ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा अपने शरीरमें घी पोतकर चिथड़े या वल्कल पहने हुए तुम घी, मेदा और चर्बी आदिकी आहुतियोंसे प्रज्वलित आगके भीतरसे होकर निकलना चाहते हो॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मानं कः समुद्बद्ध्य कण्ठे बद्ध्वा महाशिलाम्।
समुद्रं तरते दोर्भ्यां तत्र किं नाम पौरुषम् ॥ १६ ॥
मूलम्
आत्मानं कः समुद्बद्ध्य कण्ठे बद्ध्वा महाशिलाम्।
समुद्रं तरते दोर्भ्यां तत्र किं नाम पौरुषम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने-आपको बन्धनसे जकड़कर और गलेमें बड़ी भारी शिला बाँधकर कौन दोनों हाथोंसे तैरता हुआ समुद्रको पार कर सकता है? उसमें क्या यह पुरुषार्थ है! अर्थात् मूर्खता है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अकृतास्त्रः कृतास्त्रं वै बलवन्तं सुदुर्बलः।
तादृशं कर्ण यः पार्थं योद्धुमिच्छेत् स दुर्मतिः ॥ १७ ॥
मूलम्
अकृतास्त्रः कृतास्त्रं वै बलवन्तं सुदुर्बलः।
तादृशं कर्ण यः पार्थं योद्धुमिच्छेत् स दुर्मतिः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्ण! जिसने अस्त्र-शस्त्रोंकी पूर्ण शिक्षा न पायी हो, वह अत्यन्त दुर्बल पुरुष यदि अस्त्र-शस्त्रोंकी कलामें प्रवीण तथा कुन्तीपुत्र अर्जुन-जैसे बलवान् वीरसे युद्ध करना चाहे, तो समझना चाहिये कि उसकी बुद्धि मारी गयी है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्माभिर्ह्येष निकृतो वर्षाणीह त्रयोदश।
सिंहः पाशविनिर्मुक्तो न नः शेषं करिष्यति ॥ १८ ॥
एकान्ते पार्थमासीनं कूपेऽग्निमिव संवृतम्।
अज्ञानादभ्यवस्कन्द्य प्राप्ताः स्मो भयमुत्तमम् ॥ १९ ॥
मूलम्
अस्माभिर्ह्येष निकृतो वर्षाणीह त्रयोदश।
सिंहः पाशविनिर्मुक्तो न नः शेषं करिष्यति ॥ १८ ॥
एकान्ते पार्थमासीनं कूपेऽग्निमिव संवृतम्।
अज्ञानादभ्यवस्कन्द्य प्राप्ताः स्मो भयमुत्तमम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमलोगोंने तेरह वर्षोंतक इन्हें वनमें रखकर इनके साथ कपटपूर्ण बर्ताव किया है। (अब ये प्रतिज्ञाके बन्धनसे मुक्त हो गये हैं;) अतः बन्धनसे छूटे हुए सिंहकी भाँति क्या वे हमारा नाश न कर डालेंगे? कुएँमें छिपी हुई अग्निके समान यहाँ एकान्तमें स्थित कुन्तीपुत्र अर्जुनके पास हम अज्ञानवश आ पहुँचे हैं और भारी भय एवं संकटमें पड़ गये हैं॥१८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सह युध्यामहे पार्थमागतं युद्धदुर्मदम्।
सैन्यास्तिष्ठन्तु संनद्धा व्यूढानीकाः प्रहारिणः ॥ २० ॥
मूलम्
सह युध्यामहे पार्थमागतं युद्धदुर्मदम्।
सैन्यास्तिष्ठन्तु संनद्धा व्यूढानीकाः प्रहारिणः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये हमारा विचार है कि हमलोग एक साथ संगठित होकर यहाँ आये हुए रणोन्मत्त अर्जुनके साथ युद्ध करें। हमारे सैनिक कवच बाँधकर खड़े रहें, सेनाका व्यूह बना लिया जाय और सब लोग प्रहार करनेके लिये उद्यत हो जायँ॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रोणो दुर्योधनो भीष्मो भवान् द्रौणिस्तथा वयम्।
सर्वे युध्यामहे पार्थं कर्ण मा साहसं कृथाः ॥ २१ ॥
वयं व्यवसितं पार्थं वज्रपाणिमिवोद्यतम्।
षड्रथाः प्रतियुध्येम तिष्ठेम यदि संहताः ॥ २२ ॥
मूलम्
द्रोणो दुर्योधनो भीष्मो भवान् द्रौणिस्तथा वयम्।
सर्वे युध्यामहे पार्थं कर्ण मा साहसं कृथाः ॥ २१ ॥
वयं व्यवसितं पार्थं वज्रपाणिमिवोद्यतम्।
षड्रथाः प्रतियुध्येम तिष्ठेम यदि संहताः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्ण! तुम अकेले अर्जुनसे भिड़नेका दुःसाहस न करो। आचार्य द्रोण, दुर्योधन, भीष्म, तुम, अश्वत्थामा और हम सब मिलकर अर्जुनसे युद्ध करेंगे। यदि हम छहों महारथी संगठित होकर सामना करें, तभी इन्द्रके सदृश दुर्धर्ष एवं दृढ़निश्चयी कुलीपुत्र अर्जुनके साथ युद्ध कर सकते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यूढानीकानि सैन्यानि यत्ताः परमधन्विनः।
युध्यामहेऽर्जुनं संख्ये दानवा इव वासवम् ॥ २३ ॥
मूलम्
व्यूढानीकानि सैन्यानि यत्ताः परमधन्विनः।
युध्यामहेऽर्जुनं संख्ये दानवा इव वासवम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सेनाओंकी व्यूहरचना हो जाय और हम सभी श्रेष्ठ धनुर्धर सावधान रहें, तो जैसे दानव इन्द्रसे भिड़ते हैं, उसी प्रकार हम युद्धमें अर्जुनका सामना कर सकते हैं॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि गोहरणपर्वणि उत्तरगोग्रहे कृपवाक्यं नाम एकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥४९॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत गोहरणपर्वमें उत्तरगोग्रहके समय कृपाचार्यवाक्यविषयक उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४९॥
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जैसे कोई रथ बनानेवाला कारीगर रथ लाकर यह कहे कि मैंने इस दिव्य रथका निर्माण किया है। इसका प्रत्येक अंग सुदृढ़ है। इसपर बैठकर युद्ध करनेसे तुम देवताओंपर भी सर्वथा विजय पा सकोगे, तो केवल उसके इस कहनेपर भरोसा करके कोई बुद्धिमान् पुरुष युद्धके लिये तैयार न हो जायगा। उसी प्रकार कर्ण! केवल तुम्हारे इस डींग मारनेपर भरोसा करके देश-काल आदिका विचार किये बिना हमलोगोंका युद्धके लिये उद्यत होना ठीक नहीं है, यही कृपाचार्यके उपर्युक्त कथनका अभिप्राय है ↩︎