०४८ कर्णेन आत्मप्रशंसा

भागसूचना

अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

कर्णकी आत्मप्रशंसापूर्ण अहंकारोक्ति

मूलम् (वचनम्)

कर्ण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वानायुष्मतो भीतान् संत्रस्तानिव लक्षये।
अयुद्धमनसश्चैव सर्वांश्चैवानवस्थितान् ॥ १ ॥

मूलम्

सर्वानायुष्मतो भीतान् संत्रस्तानिव लक्षये।
अयुद्धमनसश्चैव सर्वांश्चैवानवस्थितान् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्ण बोला— मैं आप सब आयुष्मानोंको भयभीत एवं त्रस्त-सा देखता हूँ। आपमेंसे किसीका मन युद्धमें नहीं लग रहा है एवं सभी चञ्चल दिखायी देते हैं॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्येष राजा मत्स्यानां यदि बीभत्सुरागतः।
अहमावारयिष्यामि वेलेव मकरालयम् ॥ २ ॥

मूलम्

यद्येष राजा मत्स्यानां यदि बीभत्सुरागतः।
अहमावारयिष्यामि वेलेव मकरालयम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि यह मत्स्यदेशका राजा हो अथवा यदि स्वयं अर्जुन आया हो, तो भी जैसे वेला समुद्रको रोक देती है, उसी प्रकार मैं भी इसे आगे बढ़नेसे रोक दूँगा॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मम चापप्रयुक्तानां शराणां नतपर्वणाम्।
नावृत्तिर्गच्छतां तेषां सर्पाणामिव सर्पताम् ॥ ३ ॥

मूलम्

मम चापप्रयुक्तानां शराणां नतपर्वणाम्।
नावृत्तिर्गच्छतां तेषां सर्पाणामिव सर्पताम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे धनुषसे छूटकर सर्पोंकी भाँति आगे बढ़नेवाले और झुकी हुई गाँठवाले बाण कभी अपने लक्ष्यसे च्युत नहीं होते॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुक्मपुङ्खा सुतीक्ष्णाग्रा मुक्ता हस्तवता मया।
छादयन्तु शराः पार्थं शलभा इव पादपम् ॥ ४ ॥

मूलम्

रुक्मपुङ्खा सुतीक्ष्णाग्रा मुक्ता हस्तवता मया।
छादयन्तु शराः पार्थं शलभा इव पादपम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुनहरी पाँख और तीखी नोकवाले बाण मेरे हाथोंसे छूटकर अर्जुनको ठीक उसी तरह, ढँक लेंगे; जैसे टिड्डियाँ पेड़को आच्छादित कर देती हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शराणां पुङ्खसक्तानां मौर्व्याभिहतया दृढम्।
श्रूयतां तलयोः शब्दो भेर्योराहतयोरिव ॥ ५ ॥

मूलम्

शराणां पुङ्खसक्तानां मौर्व्याभिहतया दृढम्।
श्रूयतां तलयोः शब्दो भेर्योराहतयोरिव ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाँखवाले बाणोंको धनुषकी प्रत्यञ्चापर चढ़ाकर भलीभाँति खींचनेके पश्चात् मेरी दोनों हथेलियोंका ऐसा शब्द होता है, जैसे दो नगाड़े पीटे गये हों। आज वह शब्द आपलोग सुनें॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समाहितो हि बीभत्सुर्वर्षाण्यष्टौ च पञ्च च।
जातस्नेहश्च युद्धेऽस्मिन् मयि सम्प्रहरिष्यति ॥ ६ ॥

मूलम्

समाहितो हि बीभत्सुर्वर्षाण्यष्टौ च पञ्च च।
जातस्नेहश्च युद्धेऽस्मिन् मयि सम्प्रहरिष्यति ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन तेरह वर्षोंतक वनमें समाधि लगाता रहा है, किंतु उसका इस युद्धमें स्नेह है; अतः मुझपर वह बाणोंका प्रहार करेगा॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पात्रीभूतश्च कौन्तेयो ब्राह्मणो गुणवानिव।
शरौघान् प्रतिगृह्णातु मया मुक्तान् सहस्रशः ॥ ७ ॥

मूलम्

पात्रीभूतश्च कौन्तेयो ब्राह्मणो गुणवानिव।
शरौघान् प्रतिगृह्णातु मया मुक्तान् सहस्रशः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन धनंजय गुणवान् ब्राह्मणकी भाँति मेरे लिये एक सुपात्र व्यक्ति है। अतः आज वह मेरे छोड़े हुए सहस्रों बाणसमुदायोंका दान स्वीकार करे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष चैव महेष्वासस्त्रिषु लोकेषु विश्रुतः।
अहं चापि नरश्रेष्ठादर्जुनान्नावरः क्वचित् ॥ ८ ॥

मूलम्

एष चैव महेष्वासस्त्रिषु लोकेषु विश्रुतः।
अहं चापि नरश्रेष्ठादर्जुनान्नावरः क्वचित् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह तीनों लोकोंमें महान् धनुर्धरके रूपमें विख्यात है और मैं भी नरश्रेष्ठ अर्जुनसे किसी बातमें कम नहीं हूँ॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इतश्चेतश्च निर्मुक्तैः काञ्चनैर्गार्ध्रवाजितैः ।
दृश्यतामद्य वै व्योम खद्योतैरिव संवृतम् ॥ ९ ॥

मूलम्

इतश्चेतश्च निर्मुक्तैः काञ्चनैर्गार्ध्रवाजितैः ।
दृश्यतामद्य वै व्योम खद्योतैरिव संवृतम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर-उधर दोनों ओरसे छूटे हुए गीधकी पाँखोंसे युक्त सुवर्णमय बाणोंद्वारा आच्छादित हो आज आकाश जुगुनुओंसे भरा हुआ-सा दिखायी देगा॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्याहमृणमक्षय्यं पुरा वाचा प्रतिश्रुतम्।
धार्तराष्ट्राय दास्यामि निहत्य समरेऽर्जुनम् ॥ १० ॥

मूलम्

अद्याहमृणमक्षय्यं पुरा वाचा प्रतिश्रुतम्।
धार्तराष्ट्राय दास्यामि निहत्य समरेऽर्जुनम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं आज युद्धमें अर्जुनको मारकर पहले की हुई अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार दुर्योधनका अक्षय ऋण चुका दूँगा॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्तराच्छिद्यमानानां पुङ्खानां व्यतिशीर्यताम् ।
शलभानामिवाकाशे प्रचारः सम्प्रदृश्यताम् ॥ ११ ॥

मूलम्

अन्तराच्छिद्यमानानां पुङ्खानां व्यतिशीर्यताम् ।
शलभानामिवाकाशे प्रचारः सम्प्रदृश्यताम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आज बीचसे कटकर इधर-उधर बिखर जानेवाले पंखयुक्त बाणोंका आकाशमें फतिंगोंकी भाँति उड़ना और गिरना देखो॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्राशनिसमस्पर्शैर्महेन्द्रसमतेजसम् ।
अर्दयिष्याम्यहं पार्थमुल्काभिरिव कुञ्जरम् ॥ १२ ॥

मूलम्

इन्द्राशनिसमस्पर्शैर्महेन्द्रसमतेजसम् ।
अर्दयिष्याम्यहं पार्थमुल्काभिरिव कुञ्जरम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि अर्जुन महेन्द्रके समान तेजस्वी है, तो भी आज उसे उल्काओं (मशालों) द्वारा गजराजकी भाँति इन्द्रके वज्रकी तरह कठोर स्पर्शवाले अपने बाणोंसे पीड़ित कर दूँगा॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथादतिरथं शूरं सर्वशस्त्रभृतां वरम्।
विवशं पार्थमादास्ये गरुत्मानिव पन्नगम् ॥ १३ ॥

मूलम्

रथादतिरथं शूरं सर्वशस्त्रभृतां वरम्।
विवशं पार्थमादास्ये गरुत्मानिव पन्नगम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो रथियोंसे भी बढ़कर अतिरथी, सम्पूर्ण शस्त्र-धारियोंमें श्रेष्ठ और शूरवीर है, उस कुन्तीपुत्रको आज मैं युद्धमें विवश करके उसी प्रकार दबोच लूँगा, जैसे गरुड़ साँपको पकड़ लेता है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमग्निमिव दुर्धर्षमसिशक्तिशरेन्धनम् ।
पाण्डवाग्निमहं दीप्तं प्रदहन्तमिवाहितम् ॥ १४ ॥
अश्ववेगपुरोवातो रथौघस्तनयित्नुमान् ।
शरधारो महामेघः शमयिष्यामि पाण्डवम् ॥ १५ ॥

मूलम्

तमग्निमिव दुर्धर्षमसिशक्तिशरेन्धनम् ।
पाण्डवाग्निमहं दीप्तं प्रदहन्तमिवाहितम् ॥ १४ ॥
अश्ववेगपुरोवातो रथौघस्तनयित्नुमान् ।
शरधारो महामेघः शमयिष्यामि पाण्डवम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अग्निकी भाँति दुर्धर्ष है, खड्ग, शक्ति और बाणरूपी ईंधनसे प्रज्वलित है और अपने शत्रुको भस्म कर रही है, उस अर्जुनरूपी जलती हुई आगको आज मैं महामेघ बनकर बुझा दूँगा। मेरे अश्वोंका वेग ही पुरवैया हवाका काम करेगा। रथसमूहकी घर्घराहट ही बादलोंकी गम्भीर गर्जना होगी और बाणोंकी धारा ही जलधाराका काम करेगी॥१४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मत्कार्मुकविनिर्मुक्ताः पार्थमाशीविषोपमाः ।
शराः समभिसर्पन्तु वल्मीकमिव पन्नगाः ॥ १६ ॥

मूलम्

मत्कार्मुकविनिर्मुक्ताः पार्थमाशीविषोपमाः ।
शराः समभिसर्पन्तु वल्मीकमिव पन्नगाः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आज मेरे धनुषसे छूटे हुए सर्पोंके समान विषैले बाण अर्जुनके शरीरमें उसी प्रकार प्रवेश करेंगे, जैसे साँप बाँबीमें घुसते हैं॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुतेजनै रुक्मपुङ्खैः सुधौतैर्नतपर्वभिः ।
आचितं पश्य कौन्तेयं कर्णिकारैरिवाचलम् ॥ १७ ॥

मूलम्

सुतेजनै रुक्मपुङ्खैः सुधौतैर्नतपर्वभिः ।
आचितं पश्य कौन्तेयं कर्णिकारैरिवाचलम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कनेरके फूलोंसे व्याप्त पर्वतकी जैसी शोभा होती है, उसी प्रकार मेरे तेज, सुनहरे पंखवाले, उज्ज्वल और झुकी हुई गाँठवाले बाणोंद्वारा कुन्तीपुत्र अर्जुनको आच्छादित हुआ देखो॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जामदग्न्यान्मया ह्यस्त्रं यत् प्राप्तमृषिसत्तमात्।
तदुपाश्रित्य वीर्यं च युध्येयमपि वासवम् ॥ १८ ॥

मूलम्

जामदग्न्यान्मया ह्यस्त्रं यत् प्राप्तमृषिसत्तमात्।
तदुपाश्रित्य वीर्यं च युध्येयमपि वासवम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनिश्रेष्ठ परशुरामजीसे मैंने जो अस्त्र प्राप्त किये हैं, उन अस्त्रों और अपने पराक्रमका आश्रय लेकर मैं इन्द्रसे भी युद्ध कर सकता हूँ॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्वजाग्रे वानरस्तिष्ठन् भल्लेन निहतो मया।
अद्यैव पततां भूमौ विनदन् भैरवान् रवान् ॥ १९ ॥

मूलम्

ध्वजाग्रे वानरस्तिष्ठन् भल्लेन निहतो मया।
अद्यैव पततां भूमौ विनदन् भैरवान् रवान् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनकी ध्वजाके अग्रभागपर स्थित होनेवाला वानर जो भयंकर गर्जना किया करता है, वह आज ही मेरे बाणोंसे मारा जाकर पृथ्वीपर गिर जाय॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शत्रोर्मया विपन्नानां भूतानां ध्वजवासिनाम्।
दिशः प्रतिष्ठमानानामस्तु शब्दो दिवंगमः ॥ २० ॥

मूलम्

शत्रोर्मया विपन्नानां भूतानां ध्वजवासिनाम्।
दिशः प्रतिष्ठमानानामस्तु शब्दो दिवंगमः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुकी ध्वजामें निवास करनेवाले भूतगण भी मुझसे मारे जाकर जब चारों दिशाओंमें भागने लगेंगे, उस समय उनके हाहाकारका शब्द स्वर्गलोकतक पहुँच जायगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य दुर्योधनस्याहं शल्यं ह्रदि चिरस्थितम्।
समूलमुद्धरिष्यामि बीभत्सुं पातयन् रथात् ॥ २१ ॥

मूलम्

अद्य दुर्योधनस्याहं शल्यं ह्रदि चिरस्थितम्।
समूलमुद्धरिष्यामि बीभत्सुं पातयन् रथात् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनको रथसे गिराकर आज मैं दुर्योधनके हृदयमें चिरकालसे चुभे हुए काँटेको जड़सहित निकाल फेंकूँगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हताश्वं विरथं पार्थं पौरुषे पर्यवस्थितम्।
निःश्वसन्तं यथा नागमद्य पश्यन्तु कौरवाः ॥ २२ ॥

मूलम्

हताश्वं विरथं पार्थं पौरुषे पर्यवस्थितम्।
निःश्वसन्तं यथा नागमद्य पश्यन्तु कौरवाः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषार्थसाधनमें लगे हुए अर्जुनके घोड़े मार दिये जायँगे और वह रथहीन होकर केवल साँपकी भाँति फुफकार मारता फिरेगा। कौरवलोग आज उसकी यह अवस्था भी देखें॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामं गच्छन्तु कुरवो धनमादाय केवलम्।
रथेषु वापि तिष्ठन्तो युद्धं पश्यन्तु मामकम् ॥ २३ ॥

मूलम्

कामं गच्छन्तु कुरवो धनमादाय केवलम्।
रथेषु वापि तिष्ठन्तो युद्धं पश्यन्तु मामकम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कौरवोंकी इच्छा हो, तो वे केवल गोधन लेकर यहाँसे चले जायँ अथवा अपने रथोंपर बैठे रहकर अर्जुनके साथ मेरा युद्ध देखें॥२३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि गोहरणपर्वणि उत्तरगोग्रहे कर्णविकत्थने अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत गोहरणपर्वमें उत्तरगोग्रहके समय कर्णके आत्मप्रशंसापूर्ण वचनसम्बन्धी अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४८॥