०४७ दुर्योधनेन युद्धनिश्चयः

भागसूचना

सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

दुर्योधनके द्वारा युद्धका निश्चय तथा कर्णकी उक्ति

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ दुर्योधनो राजा समरे भीष्ममब्रवीत्।
द्रोणं च रथशार्दूलं कृपं च सुमहारथम् ॥ १ ॥

मूलम्

अथ दुर्योधनो राजा समरे भीष्ममब्रवीत्।
द्रोणं च रथशार्दूलं कृपं च सुमहारथम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर राजा दुर्योधनने समरभूमिमें भीष्म, रथियोंमें श्रेष्ठ द्रोण और महारथी कृपाचार्यसे कहा—॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उक्तोऽयमर्थ आचार्यौ मया कर्णेन चासकृत्।
पुनरेव प्रवक्ष्यामि न हि तृप्यामि तं ब्रुवन् ॥ २ ॥

मूलम्

उक्तोऽयमर्थ आचार्यौ मया कर्णेन चासकृत्।
पुनरेव प्रवक्ष्यामि न हि तृप्यामि तं ब्रुवन् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आचार्यो! मैंने और कर्णने यह बात आपलोगोंसे कई बार कही है और फिर उसीको दुहराता हूँ; क्योंकि उसे बार-बार कहकर भी मुझे तृप्ति नहीं होती॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पराभूतैर्हि वस्तव्यं तैश्च द्वादश वत्सरान्।
वने जनपदे ज्ञातैरेष एव पणो हि नः ॥ ३ ॥

मूलम्

पराभूतैर्हि वस्तव्यं तैश्च द्वादश वत्सरान्।
वने जनपदे ज्ञातैरेष एव पणो हि नः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जूआ खेलते समय हमलोगोंकी यही शर्त थी कि हममेंसे जो हारेंगे, उन्हें बारह वर्षोंतक किसी वनमें प्रकटरूपसे और एक वर्षतक किसी नगरमें अज्ञात-भावसे निवास करना पड़ेगा॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां न तावन्निर्वृत्तं वर्तते तु त्रयोदशम्।
अज्ञातवासो बीभत्सुरथास्माभिः समागतः ॥ ४ ॥

मूलम्

तेषां न तावन्निर्वृत्तं वर्तते तु त्रयोदशम्।
अज्ञातवासो बीभत्सुरथास्माभिः समागतः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अभी पाण्डवोंका तेरहवाँ वर्ष पूरा नहीं हुआ है, तो भी अज्ञातवासमें रहनेवाला अर्जुन आज प्रकटरूपसे हमारे साथ युद्ध करने आ रहा है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनिवृत्ते तु निर्वासे यदि बीभत्सुरागतः।
पुनर्द्वादश वर्षाणि वने वत्स्यन्ति पाण्डवाः ॥ ५ ॥

मूलम्

अनिवृत्ते तु निर्वासे यदि बीभत्सुरागतः।
पुनर्द्वादश वर्षाणि वने वत्स्यन्ति पाण्डवाः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि अज्ञातवास पूर्ण होनेके पहले ही अर्जुन आ गया है, तो पाण्डव फिर बारह वर्षों तक वनमें निवास करेंगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोभाद् वा ते न जानीयुरस्मान् वा मोह आविशत्।
हीनातिरिक्तमेतेषां भीष्मो वेदितुमर्हति ॥ ६ ॥

मूलम्

लोभाद् वा ते न जानीयुरस्मान् वा मोह आविशत्।
हीनातिरिक्तमेतेषां भीष्मो वेदितुमर्हति ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वे राज्यके लोभसे अपनी प्रतिज्ञाको स्मरण नहीं रख सके हैं या हमलोगोंमें ही मोह (प्रमाद) आ गया है। इनके तेरहवें वर्षमें अभी कुछ कमी है या अधिक दिन बीत गये हैं; यह भीष्मजी जान सकते हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्थानां च पुनर्द्वैधे नित्यं भवति संशयः।
अन्यथा चिन्तितो ह्यर्थः पुनर्भवति सोऽन्यथा ॥ ७ ॥

मूलम्

अर्थानां च पुनर्द्वैधे नित्यं भवति संशयः।
अन्यथा चिन्तितो ह्यर्थः पुनर्भवति सोऽन्यथा ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिन विषयोंमें दुविधा पड़ जाती है, उनमें सदा संदेह बना रहता है। किसी विषयको अन्य प्रकारसे सोचा जाता है, किंतु पता लगनेपर वह किसी और ही प्रकारका सिद्ध होता है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तरं मार्गमाणानां मत्स्यानां च युयुत्सताम्।
यदि बीभत्सुरायातस्तदा कस्यापराध्नुमः ॥ ८ ॥

मूलम्

उत्तरं मार्गमाणानां मत्स्यानां च युयुत्सताम्।
यदि बीभत्सुरायातस्तदा कस्यापराध्नुमः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हमलोग मत्स्यदेशके उत्तरगोष्ठकी खोज करते हुए यहाँ आये और मत्स्यदेशीय सैनिकोंके साथ ही युद्ध करना चाहते थे। इस दशामें भी यदि अर्जुन हमसे युद्ध करने आया है, तो हम किसका अपराध कर रहे हैं?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिगर्तानां वयं हेतोर्मत्स्यान् योद्‌धुमिहागताः।
मत्स्यानां विप्रकारांस्ते बहूनस्मानकीर्तयन् ॥ ९ ॥

मूलम्

त्रिगर्तानां वयं हेतोर्मत्स्यान् योद्‌धुमिहागताः।
मत्स्यानां विप्रकारांस्ते बहूनस्मानकीर्तयन् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मत्स्यनिवासियोंके साथ भी जो हम यहाँ युद्धके लिये आये हैं, वह अपने स्वार्थको लेकर नहीं, त्रिगर्तोंकी सहायताके उद्देश्यसे हमारा यहाँ आगमन हुआ है। त्रिगर्तोंने हमारे सामने मत्स्यदेशीय सैनिकोंके बहुत-से अत्याचारोंका वर्णन किया था॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां भयाभिभूतानां तदस्माभिः प्रतिश्रुतम्।
प्रथमं तैर्ग्रहीतव्यं मत्स्यानां गोधनं महत्।
सप्तम्यामपराह्णे वै तथा तैस्तु समाहितम् ॥ १० ॥

मूलम्

तेषां भयाभिभूतानां तदस्माभिः प्रतिश्रुतम्।
प्रथमं तैर्ग्रहीतव्यं मत्स्यानां गोधनं महत्।
सप्तम्यामपराह्णे वै तथा तैस्तु समाहितम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वे भयसे बहुत दबे हुए थे; इसलिये हमने उनकी सहायताके लिये प्रतिज्ञा की थी। हमारी उनकी बात यह हुई थी कि वे लोग सप्तमी तिथिको अपराह्णकालमें मत्स्यदेशके (दक्षिण) गोष्ठपर आक्रमण करके वहाँका महान् गोधन अपने अधिकारमें कर लें। ऐसा ही उन्होंने किया भी है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अष्टम्यां पुनरस्माभिरादित्यस्योदयं प्रति ।
इमा गावो ग्रहीतव्या गते मत्स्ये गवां पदम् ॥ ११ ॥

मूलम्

अष्टम्यां पुनरस्माभिरादित्यस्योदयं प्रति ।
इमा गावो ग्रहीतव्या गते मत्स्ये गवां पदम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘साथ ही यह भी तय हुआ था कि हमलोग अष्टमीको सूर्योदय होते-होते उत्तरगोष्ठकी इन गौओंको ग्रहण कर लें; क्योंकि उस समय मत्स्यराज गौओंके पदचिह्नोंका अनुसरण करते हुए त्रिगर्तोंके पीछे गये होंगे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते वा गाश्चानयिष्यन्ति यदि वा स्युः पराजिताः।
अस्मान् वा ह्युपसंधाय कुर्युर्मत्स्येन संगतम् ॥ १२ ॥

मूलम्

ते वा गाश्चानयिष्यन्ति यदि वा स्युः पराजिताः।
अस्मान् वा ह्युपसंधाय कुर्युर्मत्स्येन संगतम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वे त्रिगर्त-सैनिक गौओंको यहाँ ले आयेंगे अथवा यदि परास्त हो गये, तो हमलोगोंसे मिलकर पुनः मत्स्यराजके साथ युद्ध करेंगे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथवा तानपाहाय मत्स्यो जानपदैः सह।
सर्वया सेनया सार्धं संवृतो भीमरूपया।
आयातः केवलं रात्रिमस्मान् योद्‌धुमिहागतः ॥ १३ ॥

मूलम्

अथवा तानपाहाय मत्स्यो जानपदैः सह।
सर्वया सेनया सार्धं संवृतो भीमरूपया।
आयातः केवलं रात्रिमस्मान् योद्‌धुमिहागतः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा यदि मत्स्यराज त्रिगर्तोंको भगाकर अपने देशके लोगों एवं अपनी सारी भयंकर सेनाके साथ इस रातमें हमलोगोंसे युद्ध करनेके लिये यहाँ आ रहे होंगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषामेव महावीर्यः कश्चिदेष पुरःसरः।
अस्मान्‌ जेतुमिहायातो मत्स्यो वापि स्वयं भवेत् ॥ १४ ॥

मूलम्

तेषामेव महावीर्यः कश्चिदेष पुरःसरः।
अस्मान्‌ जेतुमिहायातो मत्स्यो वापि स्वयं भवेत् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उन्हीं सैनिकोंमेंसे यह कोई महापराक्रमी योद्धा अगुआ बनकर हमें जीतने आया है। यह भी सम्भव है कि ये स्वयं मत्स्यराज ही हों॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्येष राजा मत्स्यानां यदि बीभत्सुरागतः।
सर्वैर्योद्धव्यमस्माभिरिति नः समयः कृतः ॥ १५ ॥

मूलम्

यद्येष राजा मत्स्यानां यदि बीभत्सुरागतः।
सर्वैर्योद्धव्यमस्माभिरिति नः समयः कृतः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि यह मत्स्योंका राजा विराट हो अथवा अर्जुन ही उसकी ओरसे आया हो, तो भी हम सब लोगोंको उससे युद्ध करना ही है; यह हमने प्रतिज्ञा कर ली है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ कस्मात् स्थिता ह्येते रथेषु रथसत्तमाः।
भीष्मो द्रोणः कृपश्चैव विकर्णो द्रौणिरेव च ॥ १६ ॥
सम्भ्रान्तमनसः सर्वे काले ह्यस्मिन् महारथाः।
नान्यत्र युद्धाच्छ्रेयोऽस्ति तथाऽऽत्मा प्रणिधीयताम् ॥ १७ ॥

मूलम्

अथ कस्मात् स्थिता ह्येते रथेषु रथसत्तमाः।
भीष्मो द्रोणः कृपश्चैव विकर्णो द्रौणिरेव च ॥ १६ ॥
सम्भ्रान्तमनसः सर्वे काले ह्यस्मिन् महारथाः।
नान्यत्र युद्धाच्छ्रेयोऽस्ति तथाऽऽत्मा प्रणिधीयताम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘फिर वे हमारे श्रेष्ठ रथी-महारथी भीष्म, द्रोण, कृप, विकर्ण और अश्वत्थामा आदि इस समय भ्रान्तचित्त हो रथोंमें चुपचाप क्यों बैठे हैं? युद्धके सिवा और किसी बातमें कल्याण नहीं है। यह समझकर अपने-आपको इस परिस्थितिके अनुकूल बनाना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आच्छिन्ने गोधनेऽस्माकमपि देवेन वज्रिणा।
यमेन वापि संग्रामे को हास्तिनपुरं व्रजेत् ॥ १८ ॥

मूलम्

आच्छिन्ने गोधनेऽस्माकमपि देवेन वज्रिणा।
यमेन वापि संग्रामे को हास्तिनपुरं व्रजेत् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि स्वयं वज्रधारी इन्द्र अथवा यमराज ही युद्धमें आकर हमसे गोधन छीन लें, तो भी ऐसा कौन होगा, जो उनका सामना करना छोड़कर हस्तिनापुरको लौट जाय?॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरैरेभिः प्रणुन्नानां भग्नानां गहने वने।
को हि जीवेत् पदातीनां भवेदश्वेषु संशयः ॥ १९ ॥

मूलम्

शरैरेभिः प्रणुन्नानां भग्नानां गहने वने।
को हि जीवेत् पदातीनां भवेदश्वेषु संशयः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि कोई गहन वनमें भागकर प्राण बचाना चाहें, तो मेरे इन बाणोंसे वे छिन्न-भिन्न कर दिये जायँगे। इस तरह भागनेवाले पैदल सैनिकोंमेंसे कौन जीवित रह सकता है? घुड़सवारोंके विषयमें संदेह है (वे भागनेपर मारे भी जा सकते हैं और बच भी सकते हैं)’॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधनवचः श्रुत्वा राधेयस्त्वब्रवीद् वचः।
आचार्यं पृष्ठतः कृत्वा तथा नीतिर्विधीयताम् ॥ २० ॥

मूलम्

दुर्योधनवचः श्रुत्वा राधेयस्त्वब्रवीद् वचः।
आचार्यं पृष्ठतः कृत्वा तथा नीतिर्विधीयताम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधनकी बात सुनकर राधानन्दन कर्णने कहा—‘राजन्! आप आचार्य द्रोणको पीछे रखकर ऐसी नीति बनाइये कि विजय प्राप्त हो॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानाति हि मतं तेषामतस्त्रासयतीह नः।
अर्जुने चास्य सम्प्रीतिमधिकामुपलक्षये ॥ २१ ॥

मूलम्

जानाति हि मतं तेषामतस्त्रासयतीह नः।
अर्जुने चास्य सम्प्रीतिमधिकामुपलक्षये ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ये पाण्डवोंका मत जानते हैं, इसीलिये यहाँ हमें डरा रहे हैं और अर्जुनके प्रति इनका प्रेम अधिक मैं देखता हूँ॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा हि दृष्ट्वा बीभत्सुमुपायान्तं प्रशंसति।
यथा सेना न भज्येत तथा नीतिर्विधीयताम् ॥ २२ ॥

मूलम्

तथा हि दृष्ट्वा बीभत्सुमुपायान्तं प्रशंसति।
यथा सेना न भज्येत तथा नीतिर्विधीयताम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तभी तो अर्जुनको आते देख ये उसकी प्रशंसा कर रहे हैं। (इनकी बातोंसे हतोत्साह होकर) सेनामें भगदड़ न मच जाय, इसका खयाल रखते हुए तदनुकूल नीति निर्धारित कीजिये॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ह्रेषितं ह्युपशृण्वाने द्रोणे सर्वं विघट्टितम्।
अदेशिका महारण्ये ग्रीष्मे शत्रुवशं गताः।
यथा न विभ्रमेत् सेना तथा नीतिर्विधीयताम् ॥ २३ ॥

मूलम्

ह्रेषितं ह्युपशृण्वाने द्रोणे सर्वं विघट्टितम्।
अदेशिका महारण्ये ग्रीष्मे शत्रुवशं गताः।
यथा न विभ्रमेत् सेना तथा नीतिर्विधीयताम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘[आगे रहनेपर] ये अर्जुनके घोड़ोंकी हिनहिनाहट सुनते ही घबरा उठेंगे। फिर तो सारी सेना ही विचलित हो जायगी। इस समय हम विदेशमें हैं, बड़े भारी जंगलमें पड़े हुए हैं, गरमीकी ऋतु है और हम शत्रुके वशमें आ गये हैं; अतः ऐसी नीतिसे काम लें कि इनकी बातें सुनकर सैनिकोंके मनमें भ्रम न फैले॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इष्टा हि पाण्डवा नित्यमाचार्यस्य विशेषतः।
आसयन्नपरार्थाश्च कथ्यते स्म स्वयं तथा ॥ २४ ॥

मूलम्

इष्टा हि पाण्डवा नित्यमाचार्यस्य विशेषतः।
आसयन्नपरार्थाश्च कथ्यते स्म स्वयं तथा ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आचार्यको सदासे ही पाण्डव अधिक प्रिय रहे हैं। उन स्वार्थियोंने अपना काम बनानेके लिये ही द्रोणाचार्यको आपके पास रख छोड़ा है। ये स्वयं भी ऐसी बातें कहते हैं, जिससे हमारे कथनकी पुष्टि होती है॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्वानां ह्रेषितं श्रुत्वा कः प्रशंसापरो भवेत्।
स्थाने वापि व्रजन्तो वा सदा ह्रेषन्ति वाजिनः ॥ २५ ॥

मूलम्

अश्वानां ह्रेषितं श्रुत्वा कः प्रशंसापरो भवेत्।
स्थाने वापि व्रजन्तो वा सदा ह्रेषन्ति वाजिनः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भला, घोड़ोंकी हिनहिनाहट सुनकर कौन किसीकी प्रशंसा करने लग जाता है? घोड़े अपने स्थानपर हों या यात्रा करते हों, वे सदा ही हींसते रहते हैं (इससे किसीकी वीरताका क्या सम्बन्ध है?)॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदा च वायवो वान्ति नित्यं वर्षति वासवः।
स्तनयित्नोश्च निर्घोषः श्रूयते बहुशस्तथा ॥ २६ ॥
किमत्र कार्यं पार्थस्य कथं वा स प्रशस्यते।
अन्यत्र कामाद् द्वेषाद् वा रोषादस्मासु केवलात् ॥ २७ ॥

मूलम्

सदा च वायवो वान्ति नित्यं वर्षति वासवः।
स्तनयित्नोश्च निर्घोषः श्रूयते बहुशस्तथा ॥ २६ ॥
किमत्र कार्यं पार्थस्य कथं वा स प्रशस्यते।
अन्यत्र कामाद् द्वेषाद् वा रोषादस्मासु केवलात् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हवा सदा चला करती है। इन्द्र हमेशा वर्षा करते हैं। मेघोंकी गर्जना बहुत बार सुननेको मिलती है। (इससे डरने या अपशकुन माननेकी क्या बात है?) इसमें अर्जुनका क्या काम है (कौन-सा चमत्कार है?) इस बातको लेकर क्यों उसकी प्रशंसा की जाती है? इसका कारण इस बातके सिवा और क्या हो सकता है कि आचार्यके मनमें अर्जुनका भला करनेकी इच्छा हो एवं हमारे प्रति इनके हृदयमें केवल द्वेष तथा रोषका भाव ही संचित हो?॥२६-२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आचार्या वै कारुणिकाः प्राज्ञाश्चापापदर्शिनः।
नैते महाभये प्राप्ते सम्प्रष्टव्याः कथंचन ॥ २८ ॥

मूलम्

आचार्या वै कारुणिकाः प्राज्ञाश्चापापदर्शिनः।
नैते महाभये प्राप्ते सम्प्रष्टव्याः कथंचन ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आचार्यलोग बड़े दयालु, बुद्धिमान् और पाप तथा हिंसाके विरुद्ध विचार रखनेवाले होते हैं। जब कोई महान् भयका अवसर प्राप्त हो, उस समय इनसे किसी प्रकारकी सलाह नहीं पूछनी चाहिये॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रासादेषु विचित्रेषु गोष्ठीषूपवनेषु च।
कथा विचित्राः कुर्वाणाः पण्डितास्तत्र शोभनाः ॥ २९ ॥

मूलम्

प्रासादेषु विचित्रेषु गोष्ठीषूपवनेषु च।
कथा विचित्राः कुर्वाणाः पण्डितास्तत्र शोभनाः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पण्डितलोग सुन्दर महलों और मन्दिरोंमें, सभाओंमें और बगीचोंमें बैठकर जब विचित्र कथावार्ता सुना रहे हों, तब वहीं उनकी शोभा होती है॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहून्याश्चर्यरूपाणि कुर्वाणा जनसंसदि ।
इज्यास्त्रे चोपसंधाने पण्डितास्तत्र शोभनाः ॥ ३० ॥

मूलम्

बहून्याश्चर्यरूपाणि कुर्वाणा जनसंसदि ।
इज्यास्त्रे चोपसंधाने पण्डितास्तत्र शोभनाः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनसमुदायमें बहुत-से आश्चर्यजनक विनोदपूर्ण कार्य करने तथा यज्ञ-सम्बन्धी आयुधों (पात्रों) को यथास्थान रखने एवं प्रोक्षण आदि करनेमें ही पण्डितोंकी शोभा है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परेषां विवरज्ञाने मनुष्यचरितेषु च।
हस्त्यश्वरथचर्यासु खरोष्ट्राजाविकर्मणि ॥ ३१ ॥
गोधनेषु प्रतोलीषु वरद्वारमुखेषु च।
अन्नसंस्कारदोषेषु पण्डितास्तत्र शोभनाः ॥ ३२ ॥

मूलम्

परेषां विवरज्ञाने मनुष्यचरितेषु च।
हस्त्यश्वरथचर्यासु खरोष्ट्राजाविकर्मणि ॥ ३१ ॥
गोधनेषु प्रतोलीषु वरद्वारमुखेषु च।
अन्नसंस्कारदोषेषु पण्डितास्तत्र शोभनाः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दूसरोंके छिद्रको जानने या देखनेमें, मनुष्योंकी दिनचर्या बतानेमें, हाथी, घोड़े तथा रथयात्रा करनेका मुहूर्त आदिसे निकालनेमें, गदहों, ऊँटों, बकरों और भेड़ोंकी गुण-दोष-समीक्षा एवं चिकित्सा आदिमें गोधनके संग्रह और परीक्षणमें, गलियों तथा घरके श्रेष्ठ दरवाजोंपर किये जानेवाले मांगलिक कृत्यमें, नवीन अन्नका इष्टिद्वारा संस्कार कराने तथा अन्नमें केश-कीट आदि गिर जानेसे जो दोष आता है, उनपर विचार करनेमें भी पण्डितोंकी राय लेनी चाहिये। ऐसे ही कार्योंमें उनकी शोभा है॥३१-३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पण्डितान् पृष्ठतः कृत्वा परेषां गुणवादिनः।
विधीयतां तथा नीतिर्यथा वध्यो भवेत् परः ॥ ३३ ॥

मूलम्

पण्डितान् पृष्ठतः कृत्वा परेषां गुणवादिनः।
विधीयतां तथा नीतिर्यथा वध्यो भवेत् परः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुओंके गुणोंका बखान करनेवाले पण्डितोंको पीछे करके ऐसी नीति काममें लें, जिससे शत्रुका वध हो सके॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गावश्च सम्प्रतिष्ठाप्य सेनां व्यूह्य समन्ततः।
आरक्षाश्च विधीयन्तां यत्र योत्स्यामहे परान् ॥ ३४ ॥

मूलम्

गावश्च सम्प्रतिष्ठाप्य सेनां व्यूह्य समन्ततः।
आरक्षाश्च विधीयन्तां यत्र योत्स्यामहे परान् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘गौओंको बीचमें खड़ी करके उनके चारों ओर सेनाका व्यूह बना लिया जाय तथा सब ओरसे रक्षाकी ऐसी व्यवस्था कर ली जाय, जिससे हम शत्रुओंके साथ युद्ध कर सकें’॥३४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि गोहरणपर्वणि उत्तरगोग्रहे दुर्योधनवाक्ये सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत गोहरणपर्वमें उत्तरगोग्रहमें दुर्योधनवाक्यसम्बन्धी सैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४७॥