०४५ अर्जुनेन उत्तरयुद्धभयनिवारणम्

भागसूचना

पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अर्जुनद्वारा युद्धकी तैयारी, अस्त्र-शस्त्रोंका स्मरण, उनसे वार्तालाप तथा उत्तरके भयका निवारण

मूलम् (वचनम्)

उत्तर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आस्थाय रुचिरं वीर रथं सारथिना मया।
कतमं यास्यसेऽनीकमुक्तो यास्याम्यहं त्वया ॥ १ ॥

मूलम्

आस्थाय रुचिरं वीर रथं सारथिना मया।
कतमं यास्यसेऽनीकमुक्तो यास्याम्यहं त्वया ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तर बोला— वीरवर! आप सुन्दर रथपर आरूढ़ हो मुझ सारथिके साथ किस सेनाकी ओर चलेंगे? आप जहाँ चलनेके लिये आज्ञा देंगे, वहीं मैं आपके साथ चलूँगा॥१॥

मूलम् (वचनम्)

अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीतोऽस्मि पुरुषव्याघ्र न भयं विद्यते तव।
सर्वान् नुदामि ते शत्रून् रणे रणविशारद ॥ २ ॥

मूलम्

प्रीतोऽस्मि पुरुषव्याघ्र न भयं विद्यते तव।
सर्वान् नुदामि ते शत्रून् रणे रणविशारद ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनने कहा— पुरुषसिंह! अब तुम्हें कोई भय नहीं रहा, यह जानकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ। रणकर्ममें कुशल वीर! मैं तुम्हारे सब शत्रुओंको अभी मार भगाता हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वस्थो भव महाबाहो पश्य मां शत्रुभिः सह।
युध्यमानं विमर्देऽस्मिन् कुर्वाणं भैरवं महत् ॥ ३ ॥

मूलम्

स्वस्थो भव महाबाहो पश्य मां शत्रुभिः सह।
युध्यमानं विमर्देऽस्मिन् कुर्वाणं भैरवं महत् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहो! तुम स्वस्थचित्त (निश्चिन्त) हो जाओ और इस संग्राममें मुझे शत्रुओंके साथ युद्ध तथा अत्यन्त भयंकर पराक्रम करते देखो॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतान् सर्वानुपासङ्गान् क्षिप्रं बध्नीहि मे रथे।
एकं चाहर निस्त्रिंशं जातरूपपरिष्कृतम् ॥ ४ ॥

मूलम्

एतान् सर्वानुपासङ्गान् क्षिप्रं बध्नीहि मे रथे।
एकं चाहर निस्त्रिंशं जातरूपपरिष्कृतम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे इन सब तरकसोंको शीघ्र रथमें बाँध दो और एक सुवर्णभूषित खड्ग भी ले आओ॥४॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्जुनस्य वचः श्रुत्वा त्वरावानुत्तरस्तदा।
अर्जुनस्यायुधान् गृह्य शीघ्रेणावातरत् ततः ॥ ५ ॥

मूलम्

अर्जुनस्य वचः श्रुत्वा त्वरावानुत्तरस्तदा।
अर्जुनस्यायुधान् गृह्य शीघ्रेणावातरत् ततः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! अर्जुनका यह कथन सुनकर उत्तर उतावला हो अर्जुनके सब आयुधोंको लेकर शीघ्रतापूर्वक वृक्षसे उतर आया॥५॥

मूलम् (वचनम्)

अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं वै कुरुभिर्योत्स्याम्यवजेष्यामि ते पशून् ॥ ६ ॥

मूलम्

अहं वै कुरुभिर्योत्स्याम्यवजेष्यामि ते पशून् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन बोले— मैं कौरवोंसे युद्ध करूँगा और तुम्हारे पशुओंको जीत लूँगा॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संकल्पपक्षविक्षेपं बाहुप्राकारतोरणम् ।
त्रिदण्डतूणसम्बाधमनेकध्वजसंकुलम् ॥ ७ ॥
ज्याक्षेपणं क्रोधकृतं नेमीनिनददुन्दुभि ।
नगरं ते मया गुप्तं रथोपस्थं भविष्यति ॥ ८ ॥

मूलम्

संकल्पपक्षविक्षेपं बाहुप्राकारतोरणम् ।
त्रिदण्डतूणसम्बाधमनेकध्वजसंकुलम् ॥ ७ ॥
ज्याक्षेपणं क्रोधकृतं नेमीनिनददुन्दुभि ।
नगरं ते मया गुप्तं रथोपस्थं भविष्यति ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुझसे सुरक्षित होकर रथका यह ऊपरी भाग ही तुम्हारे लिये नगर हो जायगा। इस रथके जो धुरी-पहिये आदि अंग हैं, उनकी सुदृढ़ कल्पना ही नगरकी गलियोंके दोनों भागोंमें बने हुए गृहोंका विस्तार है। मेरी दोनों भुजाएँ ही चहारदीवारी और नगरद्वार हैं। इस रथमें जो त्रिदण्ड (हरिस और उसके अगल-बगलकी लकड़ियाँ) तथा तूणीर आदि हैं, वे किसीको यहाँतक फटकने नहीं देंगे। जैसे नगरमें हाथीसवार, घुड़सवार तथा रथी—इन त्रिविध सेनाओं तथा आयुधोंके कारण उसके भीतर दूसरोंका प्रवेश करना असम्भव होता है। नगरमें जैसे बहुत-सी ध्वजा-पताकाएँ फहराती हैं, उसी प्रकार इस रथमें भी फहरा रही हैं। धनुषकी प्रत्यञ्चा ही नगरमें लगी हुई तोपकी नली है, जिसका क्रोधपूर्वक उपयोग होता है और रथके पहियोंकी घर्घराहटको ही नगरमें बजनेवाले नगाड़ोंकी आवाज समझो॥७-८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधिष्ठितो मया संख्ये रथो गाण्डीवधन्वना।
अजेयः शत्रुसैन्यानां वैराटे व्येतु ते भयम् ॥ ९ ॥

मूलम्

अधिष्ठितो मया संख्ये रथो गाण्डीवधन्वना।
अजेयः शत्रुसैन्यानां वैराटे व्येतु ते भयम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब मैं युद्धभूमिमें गाण्डीव धनुष लेकर रथपर सवार होऊँगा, उस समय शत्रुओंकी सेनाएँ मुझे जीत नहीं सकेंगी; अतः विराटनन्दन! तुम्हारा भय अब दूर हो जाना चाहिये॥९॥

मूलम् (वचनम्)

उत्तर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिभेमि नाहमेतेषां जानामि त्वां स्थिरं युधि।
केशवेनापि संग्रामे साक्षादिन्द्रेण वा समम् ॥ १० ॥

मूलम्

बिभेमि नाहमेतेषां जानामि त्वां स्थिरं युधि।
केशवेनापि संग्रामे साक्षादिन्द्रेण वा समम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तरने कहा— अब मैं उनसे नहीं डरता; क्योंकि मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि आप संग्रामभूमिमें भगवान् श्रीकृष्ण और साक्षात् इन्द्रके समान स्थिर रहनेवाले हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं तु चिन्तयन्नेवं परिमुह्यामि केवलम्।
निश्चयं चापि दुर्मेधा न गच्छामि कथंचन ॥ ११ ॥

मूलम्

इदं तु चिन्तयन्नेवं परिमुह्यामि केवलम्।
निश्चयं चापि दुर्मेधा न गच्छामि कथंचन ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

केवल इसी एक बातको सोचकर मैं ऐसे मोहमें पड़ जाता हूँ कि बुद्धि अच्छी न होनेके कारण किसी तरह भी किसी निश्चयतक नहीं पहुँच पाता॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं युक्ताङ्गरूपस्य लक्षणैः सूचितस्य च।
केन कर्मविपाकेन क्लीबत्वमिदमागतम् ॥ १२ ॥

मूलम्

एवं युक्ताङ्गरूपस्य लक्षणैः सूचितस्य च।
केन कर्मविपाकेन क्लीबत्वमिदमागतम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(वह चिन्ता इस प्रकार है—) आपका एक-एक अवयव तथा रूप सब प्रकारसे उपयुक्त है। आप लक्षणोंद्वारा भी अलौकिक सूचित हो रहे हैं। ऐसी दशामें भी किस कर्मके परिणामसे आपको यह नपुंसकता प्राप्त हुई है?॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन्ये त्वां क्लीबवेषेण चरन्तं शूलपाणिनम्।
गन्धर्वराजप्रतिमं देवं वापि शतक्रतुम् ॥ १३ ॥

मूलम्

मन्ये त्वां क्लीबवेषेण चरन्तं शूलपाणिनम्।
गन्धर्वराजप्रतिमं देवं वापि शतक्रतुम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं तो नपुंसकवेषमें विचरनेवाले आपको शूलपाणि भगवान् शंकरका स्वरूप मानता हूँ अथवा गन्धर्वराजके समान या साक्षात् देवराज इन्द्र समझता हूँ॥१३॥

मूलम् (वचनम्)

अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

(उर्वशीशापसम्भूतं क्लैब्यं मां समुपस्थितम्।
पुराहमाज्ञया भ्रातुर्ज्येष्ठस्यास्मि सुरालयम् ॥
प्राप्तवानुर्वशी दृष्टा सुधर्मायां मया तदा।
नृत्यन्ती परमं रूपं बिभ्रती वज्रिसंनिधौ॥
अपश्यंस्तामनिमिषं कूटस्थामन्वयस्य मे ।
रात्रौ समागता मह्यं शयानं रन्तुमिच्छया॥
अहं तामभिवाद्यैव मातृसत्कारमाचरम् ।
सा च मामशपत् क्रुद्धा शिखण्डी त्वं भवेरिति॥
श्रुत्वा तमिन्द्रो मामाह मा भैस्त्वं पार्थ षण्ढतः।
उपकारो भवेत् तुभ्यमज्ञातवसतौ पुरा॥
इतीन्द्रो मामनुग्राह्य ततः प्रेषितवान् वृषा।
तदिदं समनुप्राप्तं व्रतं तीर्णं मयानघ॥)

मूलम्

(उर्वशीशापसम्भूतं क्लैब्यं मां समुपस्थितम्।
पुराहमाज्ञया भ्रातुर्ज्येष्ठस्यास्मि सुरालयम् ॥
प्राप्तवानुर्वशी दृष्टा सुधर्मायां मया तदा।
नृत्यन्ती परमं रूपं बिभ्रती वज्रिसंनिधौ॥
अपश्यंस्तामनिमिषं कूटस्थामन्वयस्य मे ।
रात्रौ समागता मह्यं शयानं रन्तुमिच्छया॥
अहं तामभिवाद्यैव मातृसत्कारमाचरम् ।
सा च मामशपत् क्रुद्धा शिखण्डी त्वं भवेरिति॥
श्रुत्वा तमिन्द्रो मामाह मा भैस्त्वं पार्थ षण्ढतः।
उपकारो भवेत् तुभ्यमज्ञातवसतौ पुरा॥
इतीन्द्रो मामनुग्राह्य ततः प्रेषितवान् वृषा।
तदिदं समनुप्राप्तं व्रतं तीर्णं मयानघ॥)

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन बोले— महाबाहो! उर्वशीके शापसे मुझे यह नपुंसकभाव प्राप्त हुआ है। पूर्वकालमें मैं अपने बड़े भाईकी आज्ञासे देवलोकमें गया था। वहाँ सुधर्मा नामक सभामें मैंने उस समय उर्वशी अप्सराको देखा। वह परम सुन्दर रूप धारण करके वज्रधारी इन्द्रके समीप नृत्य कर रही थी। मेरे वंशकी मूलहेतु (जननी) होनेके कारण मैं उसे अपलक नेत्रोंसे देखने लगा। तब वह रातमें सोते समय रमणकी इच्छासे मेरे पास आयी, परंतु मैंने उसे प्रणाम करके (उसकी इच्छाकी पूर्ति न करके) उसका माताके समान सत्कार किया। तब उसने कुपित होकर मुझे शाप दे दिया—‘तुम नपुंसक हो जाओ।’ तब इन्द्रने वह शाप सुनकर मुझसे कहा—‘पार्थ! तुम नपुंसक होनेसे डरो मत। यह तुम्हारे लिये अज्ञातवासके समय उपकारक होगा।’ इस प्रकार देवराज इन्द्रने मुझपर अनुग्रह करके यह आश्वासन दिया और स्वर्गलोकसे यहाँ भेजा। अनघ! वही यह व्रत प्राप्त हुआ था, जिसको मैंने पूरा किया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रातुर्नियोगाज्ज्येष्ठस्य संवत्सरमिदं व्रतम् ।
चरामि व्रतचर्यं च सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ॥ १४ ॥
नास्मि क्लीबो महाबाहो परवान् धर्मसंयुतः।
समाप्तव्रतमुत्तीर्णं विद्धि मां त्वं नृपात्मज ॥ १५ ॥

मूलम्

भ्रातुर्नियोगाज्ज्येष्ठस्य संवत्सरमिदं व्रतम् ।
चरामि व्रतचर्यं च सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ॥ १४ ॥
नास्मि क्लीबो महाबाहो परवान् धर्मसंयुतः।
समाप्तव्रतमुत्तीर्णं विद्धि मां त्वं नृपात्मज ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहो! मैं बड़े भाईकी आज्ञासे इस वर्ष एक व्रतका पालन कर रहा था। उस व्रतकी जो दिनचर्या है, उसके अनुसार मैं नपुंसक बनकर रहा हूँ। मैं तुमसे यह सच्ची बात कह रहा हूँ। वास्तवमें मैं नपुंसक नहीं हूँ; भाईकी आज्ञाके अधीन होकर धर्मके पालनमें तत्पर रहा हूँ। राजकुमार! तुम्हें मालूम होना चाहिये कि अब मेरा व्रत समाप्त हो गया है; अतः मैं नपुंसकभावके कष्टसे भी मुक्त हो चुका हूँ॥१४-१५॥

मूलम् (वचनम्)

उत्तर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

परमोऽनुग्रहो मेऽद्य यतस्तर्को न मे वृथा।
न हीदृशाः क्लीबरूपा भवन्ति तु नरोत्तम ॥ १६ ॥

मूलम्

परमोऽनुग्रहो मेऽद्य यतस्तर्को न मे वृथा।
न हीदृशाः क्लीबरूपा भवन्ति तु नरोत्तम ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तरने कहा— नरश्रेष्ठ! आज मुझपर आपने बड़ा अनुग्रह किया, जो मुझे सब बात बता दी। ऐसे लक्षणोंवाले पुरुष नपुंसक नहीं होते, इस प्रकार जो मेरे मनमें तर्क उठ रहा था, वह व्यर्थ नहीं था॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहायवानस्मि रणे युध्येयममरैरपि ।
साध्वसं हि प्रणष्टं मे किं करोमि ब्रवीहि मे॥१७॥
अहं ते संग्रहीष्यामि हयान् शत्रुरथारुजान्।
शिक्षितो ह्यस्मि सारथ्ये तीर्थतः पुरुषर्षभ ॥ १८ ॥

मूलम्

सहायवानस्मि रणे युध्येयममरैरपि ।
साध्वसं हि प्रणष्टं मे किं करोमि ब्रवीहि मे॥१७॥
अहं ते संग्रहीष्यामि हयान् शत्रुरथारुजान्।
शिक्षितो ह्यस्मि सारथ्ये तीर्थतः पुरुषर्षभ ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब तो मुझे आपकी सहायता मिल गयी है; अतः युद्धभूमिमें देवताओंका भी सामना कर सकता हूँ। मेरा सारा भय नष्ट हो गया। बताइये, अब मैं क्या करूँ? पुरुषप्रवर! मैंने गुरुसे सारथ्यकर्मकी शिक्षा प्राप्त की है; इसलिये आपके घोड़ोंको, जो शत्रुके रथका नाश करनेवाले हैं, मैं काबूमें रखूँगा॥१७-१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दारुको वासुदेवस्य यथा शक्रस्य मातलिः।
तथा मां विद्धि सारथ्ये शिक्षितं नरपुङ्गव ॥ १९ ॥

मूलम्

दारुको वासुदेवस्य यथा शक्रस्य मातलिः।
तथा मां विद्धि सारथ्ये शिक्षितं नरपुङ्गव ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरपुंगव! जैसे भगवान् वासुदेवका सारथि दारुक और इन्द्रका सारथि मातलि है, उसी प्रकार मुझे भी आप सारथिके कार्यमें पूर्ण शिक्षित मानिये॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य याते न पश्यन्ति भूमौ क्षिप्तं पदं पदम्।
दक्षिणां यो धुरं युक्तः सुग्रीवसदृशो हयः ॥ २० ॥

मूलम्

यस्य याते न पश्यन्ति भूमौ क्षिप्तं पदं पदम्।
दक्षिणां यो धुरं युक्तः सुग्रीवसदृशो हयः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो घोड़ा दाहिनी धुरीमें जोता गया है तथा जिसके जाते समय लोग यह नहीं देख पाते कि उसने कब कहाँ पृथ्वीपर पैर रखा या उठाया है, यह (भगवान् श्रीकृष्णके चार अश्वोंमेंसे) सुग्रीव नामक घोड़ेके समान है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽयं धुरं धुर्यवरो वामां वहति शोभनः।
तं मन्ये मेघपुष्पस्य जवेन सदृशं हयम् ॥ २१ ॥

मूलम्

योऽयं धुरं धुर्यवरो वामां वहति शोभनः।
तं मन्ये मेघपुष्पस्य जवेन सदृशं हयम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

और भार ढोनेवालोंमें श्रेष्ठ जो यह सुन्दर अश्व बाँयीं धुरीका भार वहन करता है, उसे वेगमें मेघपुष्प नामक अश्वके समान मानता हूँ॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽयं काञ्चनसंनाहः पार्ष्णिं वहति शोभनः।
समं शैब्यस्य तं मन्ये जवेन बलवत्तरम् ॥ २२ ॥

मूलम्

योऽयं काञ्चनसंनाहः पार्ष्णिं वहति शोभनः।
समं शैब्यस्य तं मन्ये जवेन बलवत्तरम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह जो सोनेके बख्तरसे सजा हुआ सुन्दर अश्व बाँयीं ओर पिछला जुआ ढो रहा है, इसे वेगमें मैं शैब्य नामक अश्वके समान अत्यन्त बलवान् मानता हूँ॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽयं वहति मे पार्ष्णिं दक्षिणामभितः स्थितः।
बलाहकादपि मतः स जवे वीर्यवत्तरः ॥ २३ ॥

मूलम्

योऽयं वहति मे पार्ष्णिं दक्षिणामभितः स्थितः।
बलाहकादपि मतः स जवे वीर्यवत्तरः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

और यह जो दाहिने भागका पिछला जुआ धारण करके खड़ा है, वह वेगमें बलाहक नामवाले अश्वसे भी अधिक समझा गया है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वामेवायं रथो वोढुं संग्रामेऽर्हति धन्विनम्।
त्वं चेमं रथमास्थाय योद्‌धुमर्हो मतो मम ॥ २४ ॥

मूलम्

त्वामेवायं रथो वोढुं संग्रामेऽर्हति धन्विनम्।
त्वं चेमं रथमास्थाय योद्‌धुमर्हो मतो मम ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह रथ आप-जैसे धनुर्धर वीरको ही वहन करने योग्य है और मेरी रायमें आप इसी रथपर बैठकर युद्ध करने योग्य हैं॥२४॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो विमुच्य बाहुभ्यां वलयानि स वीर्यवान्।
चित्र काञ्चनसंनाहे प्रत्यमुञ्चत् तदा तले ॥ २५ ॥

मूलम्

ततो विमुच्य बाहुभ्यां वलयानि स वीर्यवान्।
चित्र काञ्चनसंनाहे प्रत्यमुञ्चत् तदा तले ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर पराक्रमी अर्जुनने हाथोंसे कड़े और चूड़ियाँ उतार दीं और हथेलियोंमें सोनेके बने हुए विचित्र कवच धारण कर लिये॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्णान् भङ्गिमतः केशान् श्वेतेनोद्‌ग्रथ्य वाससा।
अथासौ प्राङ्‌मुखो भूत्वा शुचिः प्रयतमानसः।
अभिदध्यौ महाबाहुः सर्वास्त्राणि रथोत्तमे ॥ २६ ॥

मूलम्

कृष्णान् भङ्गिमतः केशान् श्वेतेनोद्‌ग्रथ्य वाससा।
अथासौ प्राङ्‌मुखो भूत्वा शुचिः प्रयतमानसः।
अभिदध्यौ महाबाहुः सर्वास्त्राणि रथोत्तमे ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उन्होंने काले-काले घुँघराले केशोंको श्वेत वस्त्रसे बाँध दिया और पूर्वकी ओर मुँह करके पवित्र एवं एकाग्रचित्त हो महाबाहु धनंजयने उस श्रेष्ठ रथपर सम्पूर्ण अस्त्रोंका ध्यान किया॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊचुश्च पार्थं सर्वाणि प्राञ्जलीनि नृपात्मजम्।
इमे स्म परमोदाराः किंकराः पाण्डुनन्दन ॥ २७ ॥

मूलम्

ऊचुश्च पार्थं सर्वाणि प्राञ्जलीनि नृपात्मजम्।
इमे स्म परमोदाराः किंकराः पाण्डुनन्दन ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब वे सब अस्त्र प्रकट होकर राजकुमार अर्जुनसे हाथ जोड़कर बोले—‘पाण्डुनन्दन! ये हमलोग तुम्हारे परम उदार किंकर हैं’॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रणिपत्य ततः पार्थः समालभ्य च पाणिना।
सर्वाणि मानसानीह भवतेत्यभ्यभाषत ॥ २८ ॥

मूलम्

प्रणिपत्य ततः पार्थः समालभ्य च पाणिना।
सर्वाणि मानसानीह भवतेत्यभ्यभाषत ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब अर्जुनने उन्हें प्रणाम करके अपने हाथसे उनका स्पर्श किया और कहा—‘आप सब लोग मेरे मनमें निवास करें’॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिगृह्य ततोऽस्त्राणि प्रहृष्टवदनोऽभवत् ।
अधिज्यं तरसा कृत्वा गाण्डीवं व्याक्षिपद् धनुः ॥ २९ ॥

मूलम्

प्रतिगृह्य ततोऽस्त्राणि प्रहृष्टवदनोऽभवत् ।
अधिज्यं तरसा कृत्वा गाण्डीवं व्याक्षिपद् धनुः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार अपने अस्त्र-शस्त्रोंको अनुकूल करके अर्जुनका मुखारविन्द प्रसन्नतासे खिल उठा। उन्होंने बड़े वेगसे गाण्डीव धनुषपर प्रत्यंचा चढ़ाकर उसकी टंकार की॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य विक्षिप्यमाणस्य धनुषोऽभून्महाध्वनिः ।
यथा शैलस्य महतः शैलेनैवावजघ्नतः ॥ ३० ॥

मूलम्

तस्य विक्षिप्यमाणस्य धनुषोऽभून्महाध्वनिः ।
यथा शैलस्य महतः शैलेनैवावजघ्नतः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस धनुषकी टंकारके समय बड़े जोरका शब्द हुआ, मानो किसी महान् पर्वतको पर्वतसे ही टक्कर लगी हो॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स निर्घातोऽभवद् भूभिद्‌ दिक्षु वायुर्ववौ भृशम्।
पपात महती चोल्का दिशो न प्रचकाशिरे।
भ्रान्तध्वजं खं तदासीत् प्रकम्पितमहाद्रुमम् ॥ ३१ ॥
तं शब्दं कुरवोऽजानन् विस्फोटमशनेरिव।
यदर्जुनो धनुःश्रेष्ठं बाहुभ्यामाक्षिपद् रथे ॥ ३२ ॥

मूलम्

स निर्घातोऽभवद् भूभिद्‌ दिक्षु वायुर्ववौ भृशम्।
पपात महती चोल्का दिशो न प्रचकाशिरे।
भ्रान्तध्वजं खं तदासीत् प्रकम्पितमहाद्रुमम् ॥ ३१ ॥
तं शब्दं कुरवोऽजानन् विस्फोटमशनेरिव।
यदर्जुनो धनुःश्रेष्ठं बाहुभ्यामाक्षिपद् रथे ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह भयानक शब्द पृथ्वीको विदीर्ण करता-सा गूँज उठा। सम्पूर्ण दिशाओंमें प्रचण्ड आँधी चलने लगी, महान् उल्कापात होने लगा और दिशाओंमें अन्धकार छा गया। शत्रुसेनाके ध्वज आकाशमें अकारण हिलने लगे। बड़े-बड़े वृक्ष भी हिलने लगे। अर्जुनने अपने दोनों हाथोंसे रथपर बैठे-बैठे जो अपने श्रेष्ठ धनुषकी टंकार-ध्वनि की, उसे सुनकर कौरवोंने समझा, कहींसे बिजली टूट पड़ी है॥३१-३२॥

मूलम् (वचनम्)

उत्तर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकस्त्वं पाण्डवश्रेष्ठ बहूनेतान् महारथान्।
कथं जेष्यसि संग्रामे सर्वशस्त्रास्त्रपारगान् ॥ ३३ ॥

मूलम्

एकस्त्वं पाण्डवश्रेष्ठ बहूनेतान् महारथान्।
कथं जेष्यसि संग्रामे सर्वशस्त्रास्त्रपारगान् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय उत्तर बोला— पाण्डवश्रेष्ठ! आप तो अकेले हैं, इन सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंके पारगामी बहुसंख्यक महारथियोंको युद्धमें कैसे जीत सकेंगे?॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असहायोऽसि कौन्तेय ससहायाश्च कौरवाः।
अतएव महाबाहो भीतस्तिष्ठामि तेऽग्रतः ॥ ३४ ॥

मूलम्

असहायोऽसि कौन्तेय ससहायाश्च कौरवाः।
अतएव महाबाहो भीतस्तिष्ठामि तेऽग्रतः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन! आप असहाय हैं और कौरवोंके साथ बहुतेरे सहायक हैं। महाबाहो! यह सोचकर मैं आपके सामने भयभीत हो रहा हूँ॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उवाच पार्थो मा भैषीः प्रहस्य स्वनवत् तदा ॥ ३५ ॥
युध्यमानस्य मे वीर गन्धर्वैः सुमहाबलैः।
सहायो घोषयात्रायां कस्तदाऽऽसीत् सखा मम ॥ ३६ ॥

मूलम्

उवाच पार्थो मा भैषीः प्रहस्य स्वनवत् तदा ॥ ३५ ॥
युध्यमानस्य मे वीर गन्धर्वैः सुमहाबलैः।
सहायो घोषयात्रायां कस्तदाऽऽसीत् सखा मम ॥ ३६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा प्रतिभये तस्मिन् देवदानवसंकुले।
खाण्डवे युध्यमानस्य कस्तदाऽऽसीत् सखा मम ॥ ३७ ॥

मूलम्

तथा प्रतिभये तस्मिन् देवदानवसंकुले।
खाण्डवे युध्यमानस्य कस्तदाऽऽसीत् सखा मम ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर अर्जुन खिलखिलाकर हँस पड़े और बोले—‘वीर! डरो मत! कौरवोंकी घोषयात्राके समय जब मैंने महाबली गन्धर्वोंके साथ युद्ध किया था, उस समय मेरा सखा या सहायक कौन था? जब देवताओं और दानवोंसे भरे हुए उस अत्यन्त भयंकर खाण्डववनमें मैं युद्ध कर रहा था, उस समय मेरा साथी कौन था?॥३५—३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवातकवचैः सार्धं पौलोमैश्च महाबलैः।
युध्यतो देवराजार्थे कः सहायस्तदाभवत् ॥ ३८ ॥

मूलम्

निवातकवचैः सार्धं पौलोमैश्च महाबलैः।
युध्यतो देवराजार्थे कः सहायस्तदाभवत् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवराज इन्द्रके लिये महाबली निवातकवच और पौलोम दैत्योंके साथ युद्ध करते समय मेरा कौन सहायक था?॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वयंवरे तु पाञ्चाल्या राजभिः सह संयुगे।
युध्यतो बहुभिस्तात कः सहायस्तदाभवत् ॥ ३९ ॥

मूलम्

स्वयंवरे तु पाञ्चाल्या राजभिः सह संयुगे।
युध्यतो बहुभिस्तात कः सहायस्तदाभवत् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! द्रौपदीके स्वयंवरमें जब मुझे अनेक राजाओंके साथ युद्ध करना पड़ा था, उस समय किसने मेरी सहायता की थी?॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपजीव्य गुरुं द्रोणं शक्रं वैश्रवणं यमम्।
वरुणं पावकं चैव कृपं कृष्णं च माधवम् ॥ ४० ॥
पिनाकपाणिनं चैव कथमेतान् न योधये।
रथं वाहय मे शीघ्रं व्येतु ते मानसो ज्वरः॥४१॥

मूलम्

उपजीव्य गुरुं द्रोणं शक्रं वैश्रवणं यमम्।
वरुणं पावकं चैव कृपं कृष्णं च माधवम् ॥ ४० ॥
पिनाकपाणिनं चैव कथमेतान् न योधये।
रथं वाहय मे शीघ्रं व्येतु ते मानसो ज्वरः॥४१॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं गुरुवर द्रोणाचार्य, इन्द्र, कुबेर, यमराज, वरुण, अग्निदेव, कृपाचार्य, लक्ष्मीपति श्रीकृष्ण तथा पिनाकपाणि भगवान् शंकर—इन सबका आश्रय पा चुका हूँ; फिर भला, इन महारथियोंसे युद्ध क्यों नहीं कर सकूँगा? शीघ्र मेरा रथ हाँको; तुम्हारी मानसिक चिन्ता दूर हो जानी चाहिये॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि गोहरणपर्वणि उत्तरगोग्रहे उत्तरार्जुनयोर्वाक्यं नाम पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः॥४५॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत गोहरणपर्वमें उत्तरगोग्रहके अवसरपर विराटकुमार उत्तर और अर्जुनकी बातचीतविषयक पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४५॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ६ श्लोक मिलाकर कुल ४७ श्लोक हैं।)