भागसूचना
चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अर्जुनका उत्तरकुमारसे अपना और अपने भाइयोंका यथार्थ परिचय देना
मूलम् (वचनम्)
उत्तर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुवर्णविकृतानीमान्यायुधानि महात्मनाम् ।
रुचिराणि प्रकाशन्ते पार्थानामाशुकारिणाम् ॥ १ ॥
क्व नु स्विदर्जुनः पार्थः कौरव्यो वा युधिष्ठिरः।
नकुलः सहदेवश्च भीमसेनश्च पाण्डवः ॥ २ ॥
मूलम्
सुवर्णविकृतानीमान्यायुधानि महात्मनाम् ।
रुचिराणि प्रकाशन्ते पार्थानामाशुकारिणाम् ॥ १ ॥
क्व नु स्विदर्जुनः पार्थः कौरव्यो वा युधिष्ठिरः।
नकुलः सहदेवश्च भीमसेनश्च पाण्डवः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उत्तरने पूछा— बृहन्नले! रणमें फुर्ती दिखानेवाले जिन महात्मा कुन्तीपुत्रोंके ये सुवर्णभूषित सुन्दर आयुध इतने प्रकाशित हो रहे हैं, वे पृथापुत्र अर्जुन, कुरुनन्दन युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव और पाण्डुपुत्र भीमसेन अब कहाँ हैं?॥१-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्व एव महात्मानः सर्वामित्रविनाशनाः।
राज्यमक्षैः पराकीर्य न श्रूयन्ते कथंचन ॥ ३ ॥
मूलम्
सर्व एव महात्मानः सर्वामित्रविनाशनाः।
राज्यमक्षैः पराकीर्य न श्रूयन्ते कथंचन ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सम्पूर्ण शत्रुओंका नाश करनेवाले वे सभी महात्मा जूएद्वारा अपना राज्य हारकर कहाँ गये? जिससे कहीं किसी प्रकार भी उनके विषयमें कुछ सुननेमें नहीं आता?॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रौपदी क्व च पाञ्चाली स्त्रीरत्नमिति विश्रुता।
जितानक्षैस्तदा कृष्णा तानेवान्वगमद् वनम् ॥ ४ ॥
मूलम्
द्रौपदी क्व च पाञ्चाली स्त्रीरत्नमिति विश्रुता।
जितानक्षैस्तदा कृष्णा तानेवान्वगमद् वनम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पांचालदेशकी राजकुमारी द्रौपदी स्त्रीरत्नके रूपमें विख्यात है। वह कहाँ है? सुना है, जब पाण्डव जूएमें हार गये, तब द्रुपदकुमारी कृष्णा भी उन्हींके साथ वनमें चली गयी थी॥४॥
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहमस्म्यर्जुनः पार्थः सभास्तारो युधिष्ठिरः।
बल्लवो भीमसेनस्तु पितुस्ते रसपाचकः ॥ ५ ॥
मूलम्
अहमस्म्यर्जुनः पार्थः सभास्तारो युधिष्ठिरः।
बल्लवो भीमसेनस्तु पितुस्ते रसपाचकः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनने कहा— राजकुमार! मैं ही पृथापुत्र अर्जुन हूँ। राजाकी सभाके माननीय सदस्य कंक ही युधिष्ठिर हैं। बल्लव भीमसेन हैं, जो तुम्हारे पिताके भोजनालयमें रसोइयेका काम करते हैं॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्वबन्धोऽथ नकुलः सहदेवस्तु गोकुले।
सैरन्ध्रीं द्रौपदीं विद्धि यत्कृते कीचका हताः ॥ ६ ॥
मूलम्
अश्वबन्धोऽथ नकुलः सहदेवस्तु गोकुले।
सैरन्ध्रीं द्रौपदीं विद्धि यत्कृते कीचका हताः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अश्वोंकी देखभाल करनेवाले ग्रन्थिक नकुल हैं और गोशालाके अध्यक्ष तन्तिपाल सहदेव। सैरन्ध्रीको ही द्रौपदी समझो, जिसके कारण सभी कीचक मारे गये हैं॥६॥
मूलम् (वचनम्)
उत्तर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दश पार्थस्य नामानि यानि पूर्वं श्रुतानि मे।
प्रब्रूयास्तानि यदि मे श्रद्दध्यां सर्वमेव ते ॥ ७ ॥
मूलम्
दश पार्थस्य नामानि यानि पूर्वं श्रुतानि मे।
प्रब्रूयास्तानि यदि मे श्रद्दध्यां सर्वमेव ते ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उत्तर बोला— मैंने पहलेसे जो अर्जुनके दस नाम सुन रखे हैं, उन्हें यदि तुम बता दो तो मैं तुम्हारी सारी बातोंपर विश्वास कर सकता हूँ॥७॥
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
हन्त तेऽहं समाचक्षे दश नामानि यानि मे।
वैराटे शृणु तानि त्वं यानि पूर्वं श्रुतानि ते॥८॥
मूलम्
हन्त तेऽहं समाचक्षे दश नामानि यानि मे।
वैराटे शृणु तानि त्वं यानि पूर्वं श्रुतानि ते॥८॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनने कहा— विराटपुत्र! मेरे जो दस नाम हैं और जिन्हें तुमने पहलेसे ही सुन रखा है, उनका वर्णन करता हूँ, सुनो॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकाग्रमानसो भूत्वा शृणु सर्वं समाहितः।
अर्जुनः फाल्गुनो जिष्णुः किरीटी श्वेतवाहनः।
बीभत्सुर्विजयः कृष्णः सव्यसाची धनंजयः ॥ ९ ॥
मूलम्
एकाग्रमानसो भूत्वा शृणु सर्वं समाहितः।
अर्जुनः फाल्गुनो जिष्णुः किरीटी श्वेतवाहनः।
बीभत्सुर्विजयः कृष्णः सव्यसाची धनंजयः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एकाग्रचित्त हो सावधानीके साथ सबको सुनना। (वे नाम ये हैं—) अर्जुन, फाल्गुन, जिष्णु, किरीटी, श्वेतवाहन, बीभत्सु, विजय, कृष्ण, सव्यसाची और धनंजय॥९॥
मूलम् (वचनम्)
उत्तर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
केनासि विजयो नाम केनासि श्वेतवाहनः।
किरीटी नाम केनासि सव्यसाची कथं भवान् ॥ १० ॥
मूलम्
केनासि विजयो नाम केनासि श्वेतवाहनः।
किरीटी नाम केनासि सव्यसाची कथं भवान् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उत्तरने पूछा— किस कारणसे आपका नाम विजय हुआ और किसलिये आप श्वेतवाहन कहलाते हैं? आपके किरीटी नाम धारण करनेका क्या कारण है? और आप सव्यसाची नामसे कैसे प्रसिद्ध हुए?॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्जुनः फाल्गुनो जिष्णुः कृष्णो बीभत्सुरेव च।
धनंजयश्च केनासि ब्रूहि तन्मम तत्त्वतः ॥ ११ ॥
मूलम्
अर्जुनः फाल्गुनो जिष्णुः कृष्णो बीभत्सुरेव च।
धनंजयश्च केनासि ब्रूहि तन्मम तत्त्वतः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार आपके अर्जुन, फाल्गुन, जिष्णु, कृष्ण, बीभत्सु और धनंजय नाम पड़नेका भी क्या कारण है? यह सब मुझे ठीक-ठीक बताइये॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुता मे तस्य वीरस्य केवला नामहेतवः।
तत् सर्वं यदि मे ब्रूयाः श्रद्दध्यां सर्वमेव ते॥१२॥
मूलम्
श्रुता मे तस्य वीरस्य केवला नामहेतवः।
तत् सर्वं यदि मे ब्रूयाः श्रद्दध्यां सर्वमेव ते॥१२॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीर अर्जुनके विभिन्न नाम पड़नेके जो प्रधान हेतु हैं, वे सब मैंने सुन रखे हैं। उन सबको यदि आप बता देंगे तो आपकी सब बातोंपर मेरा विश्वास हो जायगा॥
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वान् जनपदान् जित्वा वित्तमादाय केवलम्।
मध्ये धनस्य तिष्ठामि तेनाहुर्मां धनंजयम् ॥ १३ ॥
मूलम्
सर्वान् जनपदान् जित्वा वित्तमादाय केवलम्।
मध्ये धनस्य तिष्ठामि तेनाहुर्मां धनंजयम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनने कहा— मैं सम्पूर्ण देशोंको जीतकर और उनसे (कररूपमें) केवल धन लेकर धनके ही बीचमें स्थित था, इसलिये लोग मुझे ‘धनंजय’ कहते हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिप्रयामि संग्रामे यदहं युद्धदुर्मदान्।
नाजित्वा विनिवर्तामि तेन मां विजयं विदुः ॥ १४ ॥
मूलम्
अभिप्रयामि संग्रामे यदहं युद्धदुर्मदान्।
नाजित्वा विनिवर्तामि तेन मां विजयं विदुः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब मैं संग्रामभूमिमें रणोन्मत्त योद्धाओंका सामना करनेके लिये जाता हूँ, तब उन्हें परास्त किये बिना कभी नहीं लौटता। इसीलिये वीर पुरुष मुझे ‘विजय’ के नामसे जानते हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्वेताः काञ्चनसंनाहा रथे युज्यन्ति मे हयाः।
संग्रामे युध्यमानस्य तेनाहं श्वेतवाहनः ॥ १५ ॥
उत्तराभ्यां फल्गुनीभ्यां नक्षत्राभ्यामहं दिवा।
जातो हिमवतः पृष्ठे तेन मां फाल्गुनं विदुः ॥ १६ ॥
मूलम्
श्वेताः काञ्चनसंनाहा रथे युज्यन्ति मे हयाः।
संग्रामे युध्यमानस्य तेनाहं श्वेतवाहनः ॥ १५ ॥
उत्तराभ्यां फल्गुनीभ्यां नक्षत्राभ्यामहं दिवा।
जातो हिमवतः पृष्ठे तेन मां फाल्गुनं विदुः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संग्राममें युद्ध करते समय मेरे रथमें सोनेके बख्तरसे सजे हुए श्वेत रंगके घोड़े जोते जाते हैं, इसलिये मेरा नाम ‘श्वेतवाहन’ हुआ है तथा हिमालयके शिखरपर उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रमें दिनके समय मेरा जन्म हुआ था; इसलिये मुझे ‘फाल्गुन’ कहते हैं॥१५-१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरा शक्रेण मे दत्तं युध्यतो दानवर्षभैः।
किरीटं मुर्ध्नि सूर्याभं तेनाहुर्मां किरीटिनम् ॥ १७ ॥
मूलम्
पुरा शक्रेण मे दत्तं युध्यतो दानवर्षभैः।
किरीटं मुर्ध्नि सूर्याभं तेनाहुर्मां किरीटिनम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालमें बड़े-बड़े दानव वीरोंके साथ युद्ध करते समय देवराज इन्द्रने मेरे मस्तकपर सूर्यके समान प्रकाशित होनेवाला किरीट रख दिया था; इसीलिये मुझे ‘किरीटी’ कहते हैं॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न कुर्यां कर्म बीभत्सं युध्यमानः कथंचन।
तेन देवमनुष्येषु बीभत्सुरिति विश्रुतः ॥ १८ ॥
मूलम्
न कुर्यां कर्म बीभत्सं युध्यमानः कथंचन।
तेन देवमनुष्येषु बीभत्सुरिति विश्रुतः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युद्ध करते समय मैं किसी प्रकार भी बीभत्स (घृणित) कर्म नहीं करता; इसीलिये देवताओं और मनुष्योंमें मेरी ‘बीभत्सु’ नामसे प्रसिद्धि हुई है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उभौ मे दक्षिणौ पाणी गाण्डीवस्य विकर्षणे।
तेन देवमनुष्येषु सव्यसाचीति मां विदुः ॥ १९ ॥
मूलम्
उभौ मे दक्षिणौ पाणी गाण्डीवस्य विकर्षणे।
तेन देवमनुष्येषु सव्यसाचीति मां विदुः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरा बाँया और दाहिना दोनों हाथ गाण्डीव धनुषकी डोरी खींचनेमें समर्थ हैं, इसलिये देवताओं और मनुष्योंमें लोग मुझे ‘सव्यसाची’ समझते हैं॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथिव्यां चतुरन्तायां वर्णो मे दुर्लभः समः।
करोमि कर्म शुक्लं च तस्मान्मामर्जुनं विदुः ॥ २० ॥
मूलम्
पृथिव्यां चतुरन्तायां वर्णो मे दुर्लभः समः।
करोमि कर्म शुक्लं च तस्मान्मामर्जुनं विदुः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अर्जुन शब्दके तीन अर्थ हैं—वर्ण या दीप्ति, ऋजुता या समता, धवल या शुद्ध।) चारों ओर समुद्रपर्यन्त पृथ्वीपर मेरे-जैसी दीप्ति दुर्लभ है। मैं सबके प्रति समभाव रखता हूँ और शुद्ध कर्म करता हूँ। इसी कारण विज्ञ पुरुष मुझे ‘अर्जुन’ के नामसे जानते हैं॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं दुरापो दुर्धर्षो दमनः पाकशासनिः।
तेन देवमनुष्येषु जिष्णुर्नामास्मि विश्रुतः ॥ २१ ॥
कृष्ण इत्येव दशमं नाम चक्रे पिता मम।
कृष्णावदातस्य ततः प्रियत्वाद् बालकस्य वै ॥ २२ ॥
मूलम्
अहं दुरापो दुर्धर्षो दमनः पाकशासनिः।
तेन देवमनुष्येषु जिष्णुर्नामास्मि विश्रुतः ॥ २१ ॥
कृष्ण इत्येव दशमं नाम चक्रे पिता मम।
कृष्णावदातस्य ततः प्रियत्वाद् बालकस्य वै ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझे पकड़ना या तिरस्कृत करना बहुत कठिन है। मैं इन्द्रका पुत्र एवं शत्रुदमन विजयी वीर हूँ, इसलिये देवताओं और मनुष्योंमें ‘जिष्णु’ नामसे मेरी ख्याति हुई है। (कृष्णशब्दका अर्थ है—श्यामवर्ण तथा मनको आकर्षित करनेवाला) मेरे शरीरका रंग कृष्ण-गौर है तथा बाल्यावस्थामें चित्ताकर्षक होनेके कारण मैं पिताजीको बहुत प्रिय था। अतः मेरे पिताने ही मेरा दसवाँ नाम ‘कृष्ण’ रखा था॥२१-२२॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स पार्थं वैराटिरभ्यवादयदन्तिकात्।
अहं भूमिंजयो नाम नाम्नाहमपि चोत्तरः ॥ २३ ॥
मूलम्
ततः स पार्थं वैराटिरभ्यवादयदन्तिकात्।
अहं भूमिंजयो नाम नाम्नाहमपि चोत्तरः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर विराटपुत्र उत्तरने निकट जाकर अर्जुनके चरणोंमें प्रणाम किया और बोला—‘मेरा नाम भूमिंजय तथा उत्तर भी है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिष्ट्या त्वां पार्थ पश्यामि स्वागतं ते धनंजय।
लोहिताक्ष महाबाहो नागराजकरोपम ॥ २४ ॥
मूलम्
दिष्ट्या त्वां पार्थ पश्यामि स्वागतं ते धनंजय।
लोहिताक्ष महाबाहो नागराजकरोपम ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुन्तीनन्दन! मेरा सौभाग्य है कि मुझे आपका दर्शन मिला। धनंजय! आपका स्वागत है। महाबाहो! आपके नेत्र लाल हैं और बाहुदण्ड गजराजके शुण्डको लज्जित कर रहे हैं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदज्ञानादवोचं त्वां क्षन्तुमर्हसि तन्मम।
यतस्त्वया कृतं पूर्वं चित्रं कर्म सुदुष्करम्।
अतो भयं व्यतीतं मे प्रीतिश्च परमा त्वयि ॥ २५ ॥
मूलम्
यदज्ञानादवोचं त्वां क्षन्तुमर्हसि तन्मम।
यतस्त्वया कृतं पूर्वं चित्रं कर्म सुदुष्करम्।
अतो भयं व्यतीतं मे प्रीतिश्च परमा त्वयि ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैंने अज्ञानवश आपसे जो अनुचित बात कह दी हो, उसे आप क्षमा करेंगे। पूर्वकालमें आपने अत्यन्त दुष्कर और अद्भुत कार्य किये हैं, इसलिये आपका संरक्षण पाकर मेरा भय दूर हो गया है और आपके प्रति मेरा प्रेम बहुत बढ़ गया है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(दासोऽहं ते भविष्यामि पश्य मामनुकम्पया।
या प्रतिज्ञा कृता पूर्वं तव सारथ्यकर्मणि॥
मनः स्वास्थ्यं च मे जातं जातं भाग्यं च मे महत्।)
मूलम्
(दासोऽहं ते भविष्यामि पश्य मामनुकम्पया।
या प्रतिज्ञा कृता पूर्वं तव सारथ्यकर्मणि॥
मनः स्वास्थ्यं च मे जातं जातं भाग्यं च मे महत्।)
अनुवाद (हिन्दी)
‘पार्थ! मैं आपका दास होऊँगा। आप मेरी ओर कृपापूर्ण दृष्टिसे देखें। मैंने आपके सारथिका कार्य करनेके लिये पहले जो प्रतिज्ञा की थी, उसके लिये अब मेरा मन स्वस्थ हो गया है। मेरा महान् सौभाग्य प्रकट हुआ है (जिससे मुझे आपकी सेवाका यह शुभ अवसर प्राप्त हो रहा है)’।
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि गोहरणपर्वणि उत्तरगोग्रहे अर्जुनपरिचये चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत गोहरणपर्वमें उत्तरगोग्रहके अवसरपर अर्जुनपरिचयसम्बन्धी चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४४॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १ श्लोक मिलाकर कुल २६ श्लोक हैं।)