०४१ उत्तरेण पाण्डवदिव्यास्त्राधिरोपणम्

भागसूचना

एकचत्वारिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

उत्तरका अर्जुनके आदेशके अनुसार शमीवृक्षसे पाण्डवोंके दिव्य धनुष आदि उतारना

मूलम् (वचनम्)

उत्तर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मिन् वृक्षे किलोद्बद्धं नः श्रुतम्।
तदहं राजपुत्रः सन् स्पृशेयं पाणिना कथम् ॥ १ ॥

मूलम्

अस्मिन् वृक्षे किलोद्बद्धं नः श्रुतम्।
तदहं राजपुत्रः सन् स्पृशेयं पाणिना कथम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तर बोला—मैंने तो सुन रखा था कि इस वृक्षमें कोई लाश बँधी है, ऐसी दशामें मैं राजकुमार होकर अपने हाथसे उसका स्पर्श कैसे कर सकता हूँ?॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैवंविधं मया मुक्तमालब्धुं क्षत्रयोनिना।
महता राजपुत्रेण मन्त्रयज्ञविदा सता ॥ २ ॥

मूलम्

नैवंविधं मया मुक्तमालब्धुं क्षत्रयोनिना।
महता राजपुत्रेण मन्त्रयज्ञविदा सता ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक तो मैं क्षत्रिय, दूसरे महान् राजकुमार तथा तीसरे मन्त्र और यज्ञोंका ज्ञाता एवं सत्पुरुष हूँ, अतः मुझे ऐसी अपवित्र वस्तुका स्पर्श करना उचित नहीं है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्पृष्टवन्तं शरीरं मां शववाहमिवाशुचिम्।
कथं वा व्यवहार्यं वै कुर्वीथास्त्वं बृहन्नले ॥ ३ ॥

मूलम्

स्पृष्टवन्तं शरीरं मां शववाहमिवाशुचिम्।
कथं वा व्यवहार्यं वै कुर्वीथास्त्वं बृहन्नले ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बृहन्नले! यदि मैं शवका स्पर्श कर लूँ, तो मुर्दा ढोनेवालोंकी भाँति अपवित्र हो जाऊँगा; फिर तुम मुझे व्यवहारमें लाने योग्य युद्ध कैसे कर सकोगी?॥३॥

मूलम् (वचनम्)

बृहन्नलोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यवहार्यश्च राजेन्द्र शुचिश्चैव भविष्यसि।
धनूंष्येतानि मा भैस्त्वं शरीरं नात्र विद्यते ॥ ४ ॥

मूलम्

व्यवहार्यश्च राजेन्द्र शुचिश्चैव भविष्यसि।
धनूंष्येतानि मा भैस्त्वं शरीरं नात्र विद्यते ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बृहन्नलाने कहा— राजेन्द्र! तुम इन धनुषोंको छूकर भी व्यवहारमें लाने योग्य और पवित्र ही रहोगे। डरो मत, ये केवल धनुष हैं; इनमें कोई शव नहीं है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दायादं मत्स्यराजस्य कुले जातं मनस्विनाम्।
त्वां कथं निन्दितं कर्म कारयेयं नृपात्मज ॥ ५ ॥

मूलम्

दायादं मत्स्यराजस्य कुले जातं मनस्विनाम्।
त्वां कथं निन्दितं कर्म कारयेयं नृपात्मज ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजकुमार! तुम मनस्वी पुरुषोंके उत्तम कुलमें उत्पन्न और मत्स्यनरेशके पुत्र हो। भला, मैं तुमसे कोई निन्दित कर्म कैसे करवा सकती हूँ॥५॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तः स पार्थेन रथात् प्रस्कन्द्य कुण्डली।
आरुरोह शमीवृक्षं वैराटिरवशस्तदा ॥ ६ ॥
तमन्वशासच्छत्रुघ्नो रथे तिष्ठन् धनंजयः।
अवरोपय वृक्षाग्राद् धनूंष्येतानि मा चिरम् ॥ ७ ॥
परिवेष्टनमेतेषां क्षिप्रं चैव व्यपानुद।

मूलम्

एवमुक्तः स पार्थेन रथात् प्रस्कन्द्य कुण्डली।
आरुरोह शमीवृक्षं वैराटिरवशस्तदा ॥ ६ ॥
तमन्वशासच्छत्रुघ्नो रथे तिष्ठन् धनंजयः।
अवरोपय वृक्षाग्राद् धनूंष्येतानि मा चिरम् ॥ ७ ॥
परिवेष्टनमेतेषां क्षिप्रं चैव व्यपानुद।

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! अर्जुनके ऐसा कहनेपर कुण्डलधारी विराटपुत्र उत्तर विवश हो रथसे कूदकर शमीवृक्षपर चढ़ गया। तब रथपर बैठे हुए शत्रुनाशक पृथापुत्र धनंजयने शासनके स्वरमें कहा—‘इन धनुषोंको जल्दी वृक्षसे नीचे उतारो और इन सबका पत्रमय वेष्टन भी शीघ्र हटा दो’॥६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽपहृत्य महार्हाणि धनूंषि पृथुवक्षसाम्।
परिवेष्टनपत्राणि विमुच्य समुपानयत् ॥ ८ ॥
तथा संनहनान्येषां परिमुच्य समन्ततः।
अपश्यद् गाण्डिवं तत्र चतुर्भिरपरैः सह ॥ ९ ॥

मूलम्

सोऽपहृत्य महार्हाणि धनूंषि पृथुवक्षसाम्।
परिवेष्टनपत्राणि विमुच्य समुपानयत् ॥ ८ ॥
तथा संनहनान्येषां परिमुच्य समन्ततः।
अपश्यद् गाण्डिवं तत्र चतुर्भिरपरैः सह ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब उत्तरने विशाल वक्षःस्थलवाले पाण्डवोंके बहुमूल्य धनुषोंको वृक्षके नीचे ले आकर उनपर जो पत्तोंके वेष्टन लगे थे, उन्हें खोलकर हटाया। फिर उन धनुषों तथा उनकी डोरियोंको सब ओरसे खोलकर अर्जुनके पास ले आया। उसमें अन्य चार धनुषोंके साथ रखे हुए गाण्डीव धनुषको उत्तरने देखा॥८-९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां विमुच्यमानानां धनुषामर्कवर्चसाम् ।
विनिश्चेरुः प्रभा दिव्या ग्रहाणामुदयेष्विव ॥ १० ॥

मूलम्

तेषां विमुच्यमानानां धनुषामर्कवर्चसाम् ।
विनिश्चेरुः प्रभा दिव्या ग्रहाणामुदयेष्विव ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेष्टन खोलनेपर उन सूर्यके समान तेजस्वी धनुषोंकी प्रभा चारों ओर फैल गयी, जैसे उदय होनेपर ग्रहोंका दिव्य प्रकाश सब ओर छा जाता है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तेषां रूपमालोक्य भोगिनामिव जृम्भताम्।
हृष्टरोमा भयोद्विग्नः क्षणेन समपद्यत ॥ ११ ॥
संस्पृश्य तानि चापानि भानुमन्ति बृहन्ति च।
वैराटिरर्जुनं राजन्निदं वचनमब्रवीत् ॥ १२ ॥

मूलम्

स तेषां रूपमालोक्य भोगिनामिव जृम्भताम्।
हृष्टरोमा भयोद्विग्नः क्षणेन समपद्यत ॥ ११ ॥
संस्पृश्य तानि चापानि भानुमन्ति बृहन्ति च।
वैराटिरर्जुनं राजन्निदं वचनमब्रवीत् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जँभाई लेनेके लिये मुँह खोले हुए विशाल सर्पोंकी भाँति उन धनुषोंका रूप देखकर उत्तरके शरीरमें रोमांच हो आया और वह क्षणभरमें भयसे उद्विग्न हो गया। राजन्! तदनन्तर उन प्रभापूर्ण विशाल धनुषोंका स्पर्श करके विराटपुत्र उत्तरने अर्जुनसे इस प्रकार कहा॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि गोहरणपर्वणि उत्तरगोग्रहे अस्त्रावरोपणे एकचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत गोहरणपर्वमें उत्तरगोग्रहके अवसरपर वृक्षसे अस्त्रोंको उतारनेसे सम्बन्ध रखनेवाला इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४१॥