०३९ द्रोणाचार्येण अर्जुनपराक्रमप्रशंसा

भागसूचना

एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

द्रोणाचार्यद्वारा अर्जुनके अलौकिक पराक्रमकी प्रशंसा

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं दृष्ट्वा क्लीबवेषेण रथस्थं नरपुङ्गवम्।
शमीमभिमुखं यान्तं रथमारोप्य चोत्तरम् ॥ १ ॥
भीष्मद्रोणमुखास्तत्र कुरवो रथिसत्तमाः ।
वित्रस्तमनसः सर्वे धनंजयकृताद् भयात् ॥ २ ॥

मूलम्

तं दृष्ट्वा क्लीबवेषेण रथस्थं नरपुङ्गवम्।
शमीमभिमुखं यान्तं रथमारोप्य चोत्तरम् ॥ १ ॥
भीष्मद्रोणमुखास्तत्र कुरवो रथिसत्तमाः ।
वित्रस्तमनसः सर्वे धनंजयकृताद् भयात् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! नपुंसकवेषमें रथपर बैठे हुए नरश्रेष्ठ अर्जुनको, जो उत्तरको रथपर बिठाकर शमीवृक्षकी ओर जा रहे थे, भीष्म-द्रोण आदि कौरव महारथियोंने देखा। यह देखकर अर्जुनकी आशंका होनेसे वे सबके सब मन-ही-मन भयभीत हो उठे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तानवेक्ष्य हतोत्साहानुत्पातानपि चाद्भुतान् ।
गुरुः शस्त्रभृतां श्रेष्ठो भारद्वाजोऽभ्यभाषत ॥ ३ ॥

मूलम्

तानवेक्ष्य हतोत्साहानुत्पातानपि चाद्भुतान् ।
गुरुः शस्त्रभृतां श्रेष्ठो भारद्वाजोऽभ्यभाषत ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन सब महारथियोंको हतोत्साह देख तथा अद्‌भुत उत्पातोंको भी देखकर शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ भरद्वाजनन्दन आचार्य द्रोण बोले—॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चण्डाश्च वाताः संवान्ति रूक्षाः शर्करवर्षिणः।
भस्मवर्णप्रकाशेन तमसा संवृतं नभः ॥ ४ ॥

मूलम्

चण्डाश्च वाताः संवान्ति रूक्षाः शर्करवर्षिणः।
भस्मवर्णप्रकाशेन तमसा संवृतं नभः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस समय कंकड़ बरसानेवाली प्रचण्ड एवं रूखी हवा चल रही है। राखके समान रंगवाले अन्धकारसे आकाश आच्छादित हो रहा है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रूक्षवर्णाश्च जलदा दृश्यन्तेऽद्भुतदर्शनाः ।
निःसरन्ति च कोशेभ्यः शस्त्राणि विविधानि च ॥ ५ ॥

मूलम्

रूक्षवर्णाश्च जलदा दृश्यन्तेऽद्भुतदर्शनाः ।
निःसरन्ति च कोशेभ्यः शस्त्राणि विविधानि च ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘रूक्ष वर्णवाले अद्‌भुत बादल भी दृष्टिगोचर हो रहे हैं। म्यानोंसे अनेक प्रकारके शस्त्र निकल रहे हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिवाश्च विनदन्त्येता दीप्तायां दिशि दारुणाः।
हयाश्चाश्रूणि मुञ्चन्ति ध्वजाः कम्पन्त्यकम्पिताः ॥ ६ ॥

मूलम्

शिवाश्च विनदन्त्येता दीप्तायां दिशि दारुणाः।
हयाश्चाश्रूणि मुञ्चन्ति ध्वजाः कम्पन्त्यकम्पिताः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दिशाओंमें आग-सी लग रही है और उनमें ये भयंकर गीदड़ियाँ चीत्कार करती हैं। घोड़े आँसू बहाते हैं और रथोंकी ध्वजाएँ बिना हिलाये ही हिल रही हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यादृशान्यत्र रूपाणि संदृश्यन्ते बहूनि च।
यत्ता भवन्तस्तिष्ठन्तु साध्यसं समुपस्थितम् ॥ ७ ॥

मूलम्

यादृशान्यत्र रूपाणि संदृश्यन्ते बहूनि च।
यत्ता भवन्तस्तिष्ठन्तु साध्यसं समुपस्थितम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यहाँ जैसे-जैसे बहुत-से रूप (लक्षण) दिखायी दे रहे हैं, उनसे यह सूचित होता है कि कोई महान् भय उपस्थित होनेवाला है; आप सब लोग सावधान हो जायँ॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रक्षध्वमपि चात्मानं व्यूहध्वं वाहिनीमपि।
वैशसं च प्रतीक्षध्वं रक्षध्वं चापि गोधनम् ॥ ८ ॥

मूलम्

रक्षध्वमपि चात्मानं व्यूहध्वं वाहिनीमपि।
वैशसं च प्रतीक्षध्वं रक्षध्वं चापि गोधनम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपलोग अपने आपकी रक्षा तो करें ही, सेनाका भी व्यूह बना लें। युद्धमें बहुत बड़ा नरसंहार होनेवाला है। उसकी प्रतीक्षा करें और इस गोधनकी भी रखवाली करते रहें॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष वीरो महेष्वासः सर्वशस्त्रभृतां वरः।
आगतः क्लीबवेषेण पार्थो नास्त्यत्र संशयः ॥ ९ ॥

मूलम्

एष वीरो महेष्वासः सर्वशस्त्रभृतां वरः।
आगतः क्लीबवेषेण पार्थो नास्त्यत्र संशयः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नपुंसकवेशमें ये समस्त शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ महान् धनुर्धर वीर अर्जुन ही आ गये हैं, इसमें संदेह नहीं है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नदीज लङ्केशवनारिकेतु-
र्नगाह्वयो नाम नगारिसूनुः ।
एषोऽङ्गनावेषधरः किरीटी
जित्वाऽव यं नेष्यति चाद्य गा वः ॥ १० ॥

मूलम्

नदीज लङ्केशवनारिकेतु-
र्नगाह्वयो नाम नगारिसूनुः ।
एषोऽङ्गनावेषधरः किरीटी
जित्वाऽव यं नेष्यति चाद्य गा वः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘गंगानन्दन! जिनकी ध्वजापर हनुमान्‌जी विराजमान होते हैं, एक वृक्षका नाम (अर्जुन) ही जिनका नाम है और जो इन्द्रके पुत्र हैं, वे किरीटधारी धनंजय ही नारी-वेश धारण किये यहाँ आ रहे हैं। ये जिसको जीतकर आज हमारी इन गौओंको लौटा ले जायँगे, उस दुर्योधनकी रक्षा कीजिये॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स एष पार्थो विक्रान्तः सव्यसाची परंतपः।
नायुद्धेन निवर्तेत सर्वैरपि सुरासुरैः ॥ ११ ॥

मूलम्

स एष पार्थो विक्रान्तः सव्यसाची परंतपः।
नायुद्धेन निवर्तेत सर्वैरपि सुरासुरैः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ये वे ही शत्रुओंको संताप देनेवाले महापराक्रमी सव्यसाची अर्जुन हैं, जो (सामना होनेपर) सम्पूर्ण देवताओं तथा असुरोंके साथ भी बिना युद्ध किये पीछे नहीं लौट सकते॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्लेशितश्च वने शूरो वासवेनापि शिक्षितः।
अमर्षवशमापन्नो वासवप्रतिमो युधि ।
नेहास्य प्रतियोद्धारमहं पश्यामि कौरवाः ॥ १२ ॥

मूलम्

क्लेशितश्च वने शूरो वासवेनापि शिक्षितः।
अमर्षवशमापन्नो वासवप्रतिमो युधि ।
नेहास्य प्रतियोद्धारमहं पश्यामि कौरवाः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कौरवो! साक्षात् इन्द्रने भी इन्हें अस्त्रविद्याकी शिक्षा दी है। युद्धमें कुपित होनेपर ये साक्षात् इन्द्रके समान पराक्रम दिखाते हैं। तुम लोगोंने इन शूरवीरको वनमें (अनुचित) क्लेश पहुँचाया है। मुझे इनका सामना करनेवाला कोई योद्धा यहाँ नहीं दिखायी देता॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महादेवोऽपि पार्थेन श्रूयते युधि तोषितः।
किरातवेषप्रच्छन्नो गिरौ हिमवति प्रभुः ॥ १३ ॥

मूलम्

महादेवोऽपि पार्थेन श्रूयते युधि तोषितः।
किरातवेषप्रच्छन्नो गिरौ हिमवति प्रभुः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुना जाता है, हिमालय पर्वतपर किरातवेशमें छिपे हुए साक्षात् भगवान् शंकरको भी अर्जुनने युद्धमें संतुष्ट किया था’॥१३॥

मूलम् (वचनम्)

कर्ण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदा भवान्‌ फाल्गुनस्य गुणैरस्मान् विकत्थसे।
न चार्जुनः कलापूर्णो मम दुर्योधनस्य च ॥ १४ ॥

मूलम्

सदा भवान्‌ फाल्गुनस्य गुणैरस्मान् विकत्थसे।
न चार्जुनः कलापूर्णो मम दुर्योधनस्य च ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्णने कहा— आचार्य! आप सदा हमारे सामने अर्जुनके गुणोंकी श्लाघा करते रहते हैं, परंतु अर्जुन मेरी और दुर्योधनकी सोलहवीं कलाके भी बराबर नहीं है॥

मूलम् (वचनम्)

दुर्योधन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्येष पार्थो राधेय कृतं कार्यं भवेन्मम।
ज्ञाताः पुनश्चरिष्यन्ति द्वादशाब्दान् विशाम्पते ॥ १५ ॥

मूलम्

यद्येष पार्थो राधेय कृतं कार्यं भवेन्मम।
ज्ञाताः पुनश्चरिष्यन्ति द्वादशाब्दान् विशाम्पते ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधनने कहा— राधानन्दन! यदि यह अर्जुन है; तब तो मेरा काम ही बन गया। अंगराज! अब ये पाण्डव पहचान लिये जानेके कारण फिर बारह वर्षोंतक वनमें भटकेंगे॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथैष कश्चिदेवान्यः क्लीबवेषेण मानवः।
शरैरेनं सुनिशितैः पातयिष्यामि भूतले ॥ १६ ॥

मूलम्

अथैष कश्चिदेवान्यः क्लीबवेषेण मानवः।
शरैरेनं सुनिशितैः पातयिष्यामि भूतले ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

और यदि यह नपुंसकवेशमें कोई दूसरा ही मनुष्य है, तो इसे अत्यन्त तीखे बाणोंद्वारा अभी इस भूतलपर मार गिराऊँगा॥१६॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् ब्रुवति तद् वाक्यं धार्तराष्ट्रे परंतप।
भीष्मो द्रोणः कृपो द्रौणिः पौरुषं तदपूजयन् ॥ १७ ॥

मूलम्

तस्मिन् ब्रुवति तद् वाक्यं धार्तराष्ट्रे परंतप।
भीष्मो द्रोणः कृपो द्रौणिः पौरुषं तदपूजयन् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— परंतप! धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधनके ऐसा कहनेपर भीष्म, द्रोण, कृप और अश्वत्थामाने उसके इस पराक्रमकी बड़ी प्रशंसा की॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि गोहरणपर्वणि उत्तरगोग्रहे अर्जुनप्रशंसायामेकोनचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ३९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत गोहरणपर्वमें उत्तर दिशाकी ओरसे गौओंके अपहरणके प्रसंगमें अर्जुनकी प्रशंसाविषयक उनतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३९॥