०३८ युद्धाद् भीतस्योत्तरकुमारस्य अर्जुनेन समाधानम्

भागसूचना

अष्टात्रिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

उत्तरकुमारका भय और अर्जुनका उसे आश्वासन देकर रथपर चढ़ाना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स राजधान्या निर्याय वैराटिरकुतोभयः।
प्रयाहीत्यब्रवीत् सूतं यत्र ते कुरवो गताः ॥ १ ॥

मूलम्

स राजधान्या निर्याय वैराटिरकुतोभयः।
प्रयाहीत्यब्रवीत् सूतं यत्र ते कुरवो गताः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! राजधानीसे निकलकर विराटकुमार उत्तरने सर्वथा निर्भय हो सारथिसे कहा—‘बृहन्नले! जहाँ कौरव गये हैं, उधर ही रथ ले चलो॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समवेतान् कुरून् सर्वान् जिगीषूनवजित्य वै।
गास्तेषां क्षिप्रमादाय पुनरेष्याम्यहं पुरम् ॥ २ ॥

मूलम्

समवेतान् कुरून् सर्वान् जिगीषूनवजित्य वै।
गास्तेषां क्षिप्रमादाय पुनरेष्याम्यहं पुरम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं यहाँ विजयकी आशासे एकत्र होनेवाले समस्त कौरवोंको परास्त करके उनसे अपनी गौएँ वापस ले शीघ्र अपने नगरमें लौट आऊँगा’॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तांश्चोदयामास सदश्वान् पाण्डुनन्दनः ।
ते हया नरसिंहेन नोदिता वातरंहसः।
आलिखन्त इवाकाशमूहुः काञ्चनमालिनः ॥ ३ ॥

मूलम्

ततस्तांश्चोदयामास सदश्वान् पाण्डुनन्दनः ।
ते हया नरसिंहेन नोदिता वातरंहसः।
आलिखन्त इवाकाशमूहुः काञ्चनमालिनः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब पाण्डुनन्दन अर्जुनने उत्तरके उत्तम जातिके घोड़ोंको हाँका और उनकी बाग ढीली कर दी। नरश्रेष्ठ अर्जुनके हाँकनेपर सोनेकी माला पहने हुए वे घोड़े हवाके समान वेगसे चलने लगे, मानो आकाशमें अपनी टाप अड़ाते हुए रथ लिये उड़े जा रहे हों॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नातिदूरमथो गत्वा मत्स्यपुत्रधनंजयौ ।
अवेक्षेताममित्रघ्नौ कुरूणां बलिनां बलम् ॥ ४ ॥

मूलम्

नातिदूरमथो गत्वा मत्स्यपुत्रधनंजयौ ।
अवेक्षेताममित्रघ्नौ कुरूणां बलिनां बलम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

थोड़ी ही दूर जानेपर शत्रुहन्ता विराटपुत्र उत्तर और धनंजयने महाबली कौरवोंकी विशाल सेना देखी॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्मशानमभितो गत्वा आससाद कुरूनथ।
तां शमीमन्ववीक्षेतां व्यूढानीकांश्च सर्वशः ॥ ५ ॥

मूलम्

श्मशानमभितो गत्वा आससाद कुरूनथ।
तां शमीमन्ववीक्षेतां व्यूढानीकांश्च सर्वशः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्मशानभूमिके समीप जाकर उन्होंने कौरवोंको पा लिया। वे दोनों उस शमीवृक्षके आसपास सब ओर सेनाका व्यूह बनाकर खड़े हुए कौरव-सैनिकोंकी ओर देखने लगे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदनीकं महत् तेषां विबभौ सागरोपमम्।
सर्पमाणमिवाकाशे वनं बहुलपादपम् ॥ ६ ॥

मूलम्

तदनीकं महत् तेषां विबभौ सागरोपमम्।
सर्पमाणमिवाकाशे वनं बहुलपादपम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनकी वह विशालवाहिनी समुद्रके समान जान पड़ती थी। जब वह चलती, तब ऐसा जान पड़ता था, मानो आकाशमें असंख्य वृक्षोंसे भरा हुआ वन चल रहा हो॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ददृशे पार्थिवो रेणुर्जनितस्तेन सर्पता।
दृष्टिप्रणाशो भूतानां दिवस्पृक् कुरुसत्तम ॥ ७ ॥

मूलम्

ददृशे पार्थिवो रेणुर्जनितस्तेन सर्पता।
दृष्टिप्रणाशो भूतानां दिवस्पृक् कुरुसत्तम ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुश्रेष्ठ जनमेजय! कौरव-सेनाके चलनेसे ऊपर उठी हुई धरतीकी धूल अन्तरिक्षको छूती-सी दिखायी देती थी। उसके कारण समस्त प्राणियोंकी दृष्टिका लोप-सा हो गया था—किसीको कुछ सूझ नहीं पड़ता था॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदनीकं महद् दृष्ट्वा गजाश्वरथसंकुलम्।
कर्णदुर्योधनकृपैर्गुप्तं शान्तनवेन च ॥ ८ ॥
द्रोणेन च सपुत्रेण महेष्वासेन धीमता।
हृष्टरोमा भयोद्विग्नः पार्थं वैराटिरब्रवीत् ॥ ९ ॥

मूलम्

तदनीकं महद् दृष्ट्वा गजाश्वरथसंकुलम्।
कर्णदुर्योधनकृपैर्गुप्तं शान्तनवेन च ॥ ८ ॥
द्रोणेन च सपुत्रेण महेष्वासेन धीमता।
हृष्टरोमा भयोद्विग्नः पार्थं वैराटिरब्रवीत् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह भारी सेना हाथी, घोड़ों एवं रथोंसे भरी हुई थी। कर्ण, दुर्योधन, कृपाचार्य, भीष्म, अश्वत्थामा और महान् धनुर्धर एवं परम बुद्धिमान् द्रोण उसकी रक्षा कर रहे थे। उसे देखकर विराटपुत्र उत्तरके रोंगटे खड़े हो गये। उसने भयसे व्याकुल होकर अर्जुनसे कहा॥८-९॥

मूलम् (वचनम्)

उत्तर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नोत्सहे कुरुभिर्योद्‌धुं रोमहर्षं हि पश्य मे।
बहुप्रवीरमत्युग्रं देवैरपि दुरासदम् ॥ १० ॥

मूलम्

नोत्सहे कुरुभिर्योद्‌धुं रोमहर्षं हि पश्य मे।
बहुप्रवीरमत्युग्रं देवैरपि दुरासदम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तर बोला— बृहन्नले! मुझमें कौरवोंके साथ युद्ध करनेका साहस नहीं है; क्योंकि देखो, भयके कारण मेरे रोएँ खड़े हो गये हैं। इस सेनाके भीतर बहुतेरे बड़े-बड़े वीर हैं। यह बड़ी भयानक जान पड़ती है। इसे परास्त करना तो देवताओंके लिये भी अत्यन्त कठिन है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतियोद्‌धुं न शक्ष्यामि कुरुसैन्यमनन्तकम्।
नाशंसे भारतीं सेनां प्रवेष्टुं भीमकार्मुकाम् ॥ ११ ॥

मूलम्

प्रतियोद्‌धुं न शक्ष्यामि कुरुसैन्यमनन्तकम्।
नाशंसे भारतीं सेनां प्रवेष्टुं भीमकार्मुकाम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कौरवोंकी सेनाका कहीं अन्त नहीं है। मैं इसका सामना नहीं कर सकता। भयानक धनुषवाली भरतवंशियोंकी इस विशाल वाहिनीमें प्रवेश करना तो दूर रहे, मैं उसके सम्बन्धमें बात भी नहीं कर सकता॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथनागाश्वकलिलां पत्तिध्वजसमाकुलाम् ।
दृष्ट्वैव हि परानाजौ मनः प्रव्यथतीव मे ॥ १२ ॥

मूलम्

रथनागाश्वकलिलां पत्तिध्वजसमाकुलाम् ।
दृष्ट्वैव हि परानाजौ मनः प्रव्यथतीव मे ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रथ, हाथी और घोड़ोंसे यह कौरवदल खचाखच भरा हुआ है। पैदल सिपाहियों और असंख्य ध्वजाओंसे व्याप्त है। इसलिये रणभूमिमें इन शत्रुओंको देखकर ही मेरा हृदय व्यथित-सा हो गया है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्र द्रोणश्च भीष्मश्च कृपः कर्णो विविंशतिः।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सोमदत्तश्च बाह्लिकः ॥ १३ ॥
दुर्योधनस्तथा वीरो राजा च रथिनां वरः।
द्युतिमन्तो महेष्वासाः सर्वे युद्धविशारदाः ॥ १४ ॥

मूलम्

यत्र द्रोणश्च भीष्मश्च कृपः कर्णो विविंशतिः।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सोमदत्तश्च बाह्लिकः ॥ १३ ॥
दुर्योधनस्तथा वीरो राजा च रथिनां वरः।
द्युतिमन्तो महेष्वासाः सर्वे युद्धविशारदाः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ द्रोण, भीष्म, कृप, कर्ण, विविंशति, अश्वत्थामा, विकर्ण, सोमदत्त, बाह्लिक तथा रथियोंमें श्रेष्ठ वीर राजा दुर्योधन हैं। जो सबके सब तेजस्वी, महान् धनुर्धर और युद्धकी कलामें प्रवीण हैं॥१३-१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(मत्ता इव महानागा युक्तध्वजपताकिनः।
नीतिमन्तो महेष्वासा सर्वास्त्रकृतनिश्चयाः ॥
दुर्जयाः सर्वसैन्यानां देवैरपि सवासवैः।
पताकिनश्च मातङ्गाः सध्वजाश्च महारथाः॥
विप्रकीर्णाः कृतोद्योगा वाजिनश्चित्रभूषिताः ।
तान् जेतुं समरे शूरान् दुर्बुद्धिरहमागतः॥)

मूलम्

(मत्ता इव महानागा युक्तध्वजपताकिनः।
नीतिमन्तो महेष्वासा सर्वास्त्रकृतनिश्चयाः ॥
दुर्जयाः सर्वसैन्यानां देवैरपि सवासवैः।
पताकिनश्च मातङ्गाः सध्वजाश्च महारथाः॥
विप्रकीर्णाः कृतोद्योगा वाजिनश्चित्रभूषिताः ।
तान् जेतुं समरे शूरान् दुर्बुद्धिरहमागतः॥)

अनुवाद (हिन्दी)

ये कौरववीर मदसे उन्मत्त हुए महान् गजराजोंके समान जान पड़ते हैं। ये सबके सब ध्वजा-पताकाओंसे युक्त, नीतिनिपुण, महाधनुर्धर तथा सम्पूर्ण अस्त्रविद्याका सुनिश्चित ज्ञान रखते हैं। इनपर विजय पाना सम्पूर्ण सेनाओंके लिये ही नहीं, इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओंके लिये भी अत्यन्त कठिन है। इनके हाथियोंपर भी पताकाएँ फहरा रही हैं। बड़े-बड़े रथ ध्वजाओंसे सुशोभित हो रहे हैं। विचित्र आभूषणोंसे आभूषित घोड़े चारों ओर फैलकर विजयके लिये उद्योगशील प्रतीत होते हैं। ऐसे शूरवीर कौरवोंको युद्धमें जीतनेके लिये मैं दुर्बुद्धि बालक कहाँ आ गया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वैव हि कुरूनेतान् व्यूढानीकान् प्रहारिणः।
हृषितानि च रोमाणि कश्मलं चागतं मम ॥ १५ ॥

मूलम्

दृष्ट्वैव हि कुरूनेतान् व्यूढानीकान् प्रहारिणः।
हृषितानि च रोमाणि कश्मलं चागतं मम ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सेनाकी व्यूहरचना करके प्रहारके लिये उद्यत खड़े हुए इन कौरवोंको देखकर ही मेरे रोंगटे खड़े हो गये हैं। मुझे मूर्च्छा-सी आ रही है॥१५॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अविजातो विजातस्य मौर्ख्याद् धूर्तस्थ पश्यतः।
परिदेवयते मन्दः सकाशे सव्यसाचिनः ॥ १६ ॥

मूलम्

अविजातो विजातस्य मौर्ख्याद् धूर्तस्थ पश्यतः।
परिदेवयते मन्दः सकाशे सव्यसाचिनः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! मूर्ख उत्तर एक साधारण कोटिका मनुष्य था और छद्मवेशधारी सव्यसाची अर्जुन असाधारण वीर थे। अतः उनके प्रभावको न जाननेके कारण वह मूर्खतावश उनके पास रहकर भी उन्हींके देखते-देखते यों विलाप करने लगा—॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिगर्तान् मे पिता यातः शून्ये सम्प्रणिधाय माम्।
सर्वां सेनामुपादाय न मे सन्तीह सैनिकाः ॥ १७ ॥
सोऽहमेको बहून् बालः कृतास्त्रानकृतश्रमः।
प्रतियोद्‌धुं न शक्ष्यामि निवर्तस्व बृहन्नले ॥ १८ ॥

मूलम्

त्रिगर्तान् मे पिता यातः शून्ये सम्प्रणिधाय माम्।
सर्वां सेनामुपादाय न मे सन्तीह सैनिकाः ॥ १७ ॥
सोऽहमेको बहून् बालः कृतास्त्रानकृतश्रमः।
प्रतियोद्‌धुं न शक्ष्यामि निवर्तस्व बृहन्नले ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बृहन्नले! मेरे पिता सूने नगरमें उसकी रक्षाके लिये मुझे अकेला रखकर स्वयं सारी सेना साथ ले त्रिगर्तोंसे युद्ध करनेके लिये गये हैं। मेरे पास यहाँ कोई सैनिक नहीं है। मैं अकेला बालक हूँ और मैंने अस्त्रविद्यामें अभी अधिक परिश्रम भी नहीं किया है। ऐसी दशामें अस्त्र-शस्त्रोंके ज्ञाता और प्रौढ़ अवस्थावाले इन बहुसंख्यक कौरवोंका सामना मैं नहीं कर सकूँगा। अतः तुम रथ लेकर लौट चलो’॥१७-१८॥

मूलम् (वचनम्)

बृहन्नलोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भयेन दीनरूपोऽसि द्विषतां हर्षवर्धनः।
न च तावत् कृतं कर्म परैः किंचिद् रणाजिरे॥१९॥

मूलम्

भयेन दीनरूपोऽसि द्विषतां हर्षवर्धनः।
न च तावत् कृतं कर्म परैः किंचिद् रणाजिरे॥१९॥

अनुवाद (हिन्दी)

बृहन्नलाने कहा— राजकुमार! तुम भयके कारण दीन होकर शत्रुओंका हर्ष बढ़ा रहे हो। अभी तो शत्रुओंने युद्धके मैदानमें कोई पराक्रम भी नहीं प्रकट किया है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वयमेव च मामात्थ वह मां कौरवान् प्रति।
सोऽहं त्वां तत्र नेष्यामि यत्रैते बहुला ध्वजाः ॥ २० ॥

मूलम्

स्वयमेव च मामात्थ वह मां कौरवान् प्रति।
सोऽहं त्वां तत्र नेष्यामि यत्रैते बहुला ध्वजाः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुमने स्वयं ही कहा था कि मुझे कौरवोंके पास ले चलो; अतः जहाँ ये बहुत-सी ध्वजाएँ फहरा रही हैं, वहीं तुम्हें ले चलूँगी॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मध्यमामिषगृध्राणां कुरूणामाततायिनाम् ।
नेष्यामि त्वां महाबाहो पृथिव्यामपि युध्यताम् ॥ २१ ॥

मूलम्

मध्यमामिषगृध्राणां कुरूणामाततायिनाम् ।
नेष्यामि त्वां महाबाहो पृथिव्यामपि युध्यताम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहो! जैसे गीध मांसपर टूट पड़ते हैं, उसी प्रकार जो गौओंको लूटनेके लिये यहाँ आये हैं, उन आततायी कौरवोंके बीच तुम्हें ले चलती हूँ। यदि ये पृथ्वीके लिये भी युद्ध ठानेंगे तो उसमें भी मैं तुम्हें ले चलूँगी॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा स्त्रीषु प्रतिश्रुत्य पौरुषं पुरुषेषु च।
कत्थमानोऽभिनिर्याय किमर्थं न युयुत्ससे ॥ २२ ॥

मूलम्

तथा स्त्रीषु प्रतिश्रुत्य पौरुषं पुरुषेषु च।
कत्थमानोऽभिनिर्याय किमर्थं न युयुत्ससे ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम स्त्रियों और पुरुषोंके बीच कौरवोंको हराकर अपने गोधनको वापस लानेकी प्रतिज्ञा करके पुरुषार्थके विषयमें अपनी श्लाघा करते हुए युद्धके लिये निकले थे; फिर अब क्यों युद्ध नहीं करना चाहते?॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चेद् विजित्य गास्तास्त्वं गृहान् वै प्रतियास्यसि।
प्रहसिष्यन्ति वीरास्त्वां नरा नार्यश्च संगताः ॥ २३ ॥

मूलम्

न चेद् विजित्य गास्तास्त्वं गृहान् वै प्रतियास्यसि।
प्रहसिष्यन्ति वीरास्त्वां नरा नार्यश्च संगताः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि उन गौओंको बिना जीते ही तुम घर लौटोगे, तो वीर पुरुष तुम्हारी हँसी उड़ायेंगे और यत्र-तत्र स्त्रियाँ और पुरुष एकत्र हो तुम्हारा उपहास करेंगे॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहमप्यत्र सैरन्ध्र्या ख्याता सारथ्यकर्मणि।
न च शक्ष्याम्यनिर्जित्य गाः प्रयातुं पुरं प्रति ॥ २४ ॥

मूलम्

अहमप्यत्र सैरन्ध्र्या ख्याता सारथ्यकर्मणि।
न च शक्ष्याम्यनिर्जित्य गाः प्रयातुं पुरं प्रति ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं भी सैरन्ध्रीके द्वारा सारथ्यके कार्यमें कुशल बतायी गयी हूँ, अतः अब गौओंको जीतकर वापस लिये बिना मैं नगरमें नहीं जा सकूँगी॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्तोत्रेण चैव सैरन्ध्र्यास्तव वाक्येन तेन च।
कथं न युध्येयमहं कुरून् सर्वान् स्थिरो भव ॥ २५ ॥

मूलम्

स्तोत्रेण चैव सैरन्ध्र्यास्तव वाक्येन तेन च।
कथं न युध्येयमहं कुरून् सर्वान् स्थिरो भव ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सैरन्ध्री और तुमने भी बड़ी-बड़ी बातें कहकर मेरी बहुत स्तुति-प्रशंसा की है, फिर सम्पूर्ण कौरवोंके साथ मैं ही क्यों न युद्ध करूँ? तुम दृढ़तापूर्वक डट जाओ॥

मूलम् (वचनम्)

उत्तर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामं हरन्तु मत्स्यानां भूयांसः कुरवो धनम्।
प्रहसन्तु च मां नार्यो नरा वापि बृहन्नले ॥ २६ ॥
संग्रामे न च कार्यं मे गावो गच्छन्तु चापि मे।
शून्यं मे नगरं चापि पितुश्चैव बिभेम्यहम् ॥ २७ ॥

मूलम्

कामं हरन्तु मत्स्यानां भूयांसः कुरवो धनम्।
प्रहसन्तु च मां नार्यो नरा वापि बृहन्नले ॥ २६ ॥
संग्रामे न च कार्यं मे गावो गच्छन्तु चापि मे।
शून्यं मे नगरं चापि पितुश्चैव बिभेम्यहम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तर बोला— बृहन्नले! भारी संख्यामें आये हुए कौरव भले ही मत्स्यदेशका सारा धन इच्छानुसार हर ले जायँ, स्त्रियाँ अथवा पुरुष जितना चाहें, मेरा उपहास करें तथा मेरी गौएँ भी चली जायँ; किंतु इस युद्धमें मेरा कोई काम नहीं है। मेरा नगर सूना पड़ा है। [पिताजी उसकी रक्षाका भार मुझे दे गये थे]। मैं पिताजीसे डरता हूँ [इसलिये यहाँ नहीं ठहर सकता]॥२६-२७॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा प्राद्रवद् भीतो रथात् प्रस्कन्द्य कुण्डली।
त्यक्त्वा मानं च दर्पं च विसृज्य सशरं धनुः॥२८॥

मूलम्

इत्युक्त्वा प्राद्रवद् भीतो रथात् प्रस्कन्द्य कुण्डली।
त्यक्त्वा मानं च दर्पं च विसृज्य सशरं धनुः॥२८॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! ऐसा कहकर मान और अभिमानको त्यागकर बाणसहित धनुषको वहीं छोड़कर कुण्डलधारी राजकुमार उत्तर रथसे कूद पड़ा और भयभीत होकर भाग चला॥२८॥

मूलम् (वचनम्)

बृहन्नलोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैष शूरैः स्मृतो धर्मः क्षत्रियस्य पलायनम्।
श्रेयस्तु मरणं युद्धे न भीतस्य पलायनम् ॥ २९ ॥

मूलम्

नैष शूरैः स्मृतो धर्मः क्षत्रियस्य पलायनम्।
श्रेयस्तु मरणं युद्धे न भीतस्य पलायनम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब बृहन्नलाने कहा— राजकुमार! क्षत्रियका युद्धसे भागना शूरवीरोंकी दृष्टिमें धर्म नहीं है। युद्ध करके मर जाना अच्छा है; किंतु भयभीत होकर भागना कदापि अच्छा नहीं है॥२९॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा तु कौन्तेयः सोऽवप्लुत्य रथोत्तमात्।
तमन्वधावद् धावन्तं राजपुत्रं धनंजयः ॥ ३० ॥
दीर्घां वेणीं विधुन्वानः साधु रक्ते च वाससी।
विधूय वेणीं धावन्तमजानन्तोऽर्जुनं तदा ॥ ३१ ॥
सैनिकाः प्राहसन् केचित् तथारूपमवेक्ष्य तम्।
तं शीघ्रमभिधावन्तं सम्प्रेक्ष्य कुरवोऽब्रुवन् ॥ ३२ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा तु कौन्तेयः सोऽवप्लुत्य रथोत्तमात्।
तमन्वधावद् धावन्तं राजपुत्रं धनंजयः ॥ ३० ॥
दीर्घां वेणीं विधुन्वानः साधु रक्ते च वाससी।
विधूय वेणीं धावन्तमजानन्तोऽर्जुनं तदा ॥ ३१ ॥
सैनिकाः प्राहसन् केचित् तथारूपमवेक्ष्य तम्।
तं शीघ्रमभिधावन्तं सम्प्रेक्ष्य कुरवोऽब्रुवन् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! ऐसा कहकर कुन्तीनन्दन धनंजय भी उस उत्तम रथसे कूद पड़े और भागते हुए राजकुमारको पकड़नेके लिये अपनी लंबी चोटी हिलाते और लाल रंगकी साड़ी एवं दुपट्टेको फहराते हुए उसके पीछे-पीछे दौड़े। उस समय चोटी हिला-हिलाकर दौड़ते हुए अर्जुनको उस रूपमें देखकर उन्हें न जाननेवाले कुछ सैनिक ठहाका मारकर हँसने लगे। उन्हें शीघ्र गतिसे दौड़ते देख कौरव आपसमें कहने लगे—॥३०—३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क एष वेषसंच्छन्नो भस्मन्येव हुताशनः।
किंचिदस्य यथा पुंसः किंचिदस्य यथा स्त्रियः ॥ ३३ ॥

मूलम्

क एष वेषसंच्छन्नो भस्मन्येव हुताशनः।
किंचिदस्य यथा पुंसः किंचिदस्य यथा स्त्रियः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह कौन है जो राखमें छिपी हुई अग्निकी भाँति नारीके वेशमें छिपा है? इसकी कुछ बातें तो पुरुषों-जैसी हैं और कुछ स्त्रियों-जैसी॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सारूप्यमर्जुनस्येव क्लीबरूपं बिभर्ति च।
तदेवैतच्छिरो ग्रीवं तौ बाहू परिघोपमौ।
तद्वदेवास्य विक्रान्तं नायमन्यो धनंजयात् ॥ ३४ ॥

मूलम्

सारूप्यमर्जुनस्येव क्लीबरूपं बिभर्ति च।
तदेवैतच्छिरो ग्रीवं तौ बाहू परिघोपमौ।
तद्वदेवास्य विक्रान्तं नायमन्यो धनंजयात् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसका स्वरूप तो अर्जुनसे मिलता-जुलता है; किंतु वेषभूषा इसने नपुंसकों-जैसी बना रखी है। देखो न, वही अर्जुन-जैसा सिर है, वैसी ही ग्रीवा है, वे ही परिघ-जैसी मोटी भुजाएँ हैं और उन्हींके समान इसकी चाल-ढाल है; अतः यह अर्जुनके सिवा दूसरा कोई नहीं है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमरेष्विव देवेन्द्रो मानुषेषु धनंजयः।
एकः कोऽस्मानुपायायादन्यो लोके धनंजयात् ॥ ३५ ॥

मूलम्

अमरेष्विव देवेन्द्रो मानुषेषु धनंजयः।
एकः कोऽस्मानुपायायादन्यो लोके धनंजयात् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मनुष्योंमें धनंजयका वही स्थान है, जो देवताओंमें इन्द्रका है। संसारमें अर्जुनके सिवा दूसरा कौन वीर है, जो अकेला हमलोगोंका सामना करनेके लिये चला आये?॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकः पुत्रो विराटस्य शून्ये संनिहितः पुरे।
स एष किल निर्यातो बालभावान्न पौरुषात् ॥ ३६ ॥

मूलम्

एकः पुत्रो विराटस्य शून्ये संनिहितः पुरे।
स एष किल निर्यातो बालभावान्न पौरुषात् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विराटके सूने नगरमें उनका एक ही पुत्र देख-रेखके लिये रह गया था; सो यह बचपन (मूर्खता) के कारण हमारा सामना करनेके लिये चला आया, अपने पुरुषार्थसे प्रेरित होकर नहीं॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्रेण नूनं छन्नं हि चरन्तं पार्थमर्जुनम्।
उत्तरः सारथिं कृत्वा निर्यातो नगराद् बहिः ॥ ३७ ॥

मूलम्

सत्रेण नूनं छन्नं हि चरन्तं पार्थमर्जुनम्।
उत्तरः सारथिं कृत्वा निर्यातो नगराद् बहिः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘निश्चय ही कपटवेशमें छिपे हुए कुन्तीपुत्र अर्जुनको अपना सारथि बनाकर उत्तर नगरसे बाहर निकला था॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स नो मन्यामहे दृष्ट्वा भीत एष पलायते।
तं नूनमेष धावन्तं जिघृक्षति धनंजयः ॥ ३८ ॥

मूलम्

स नो मन्यामहे दृष्ट्वा भीत एष पलायते।
तं नूनमेष धावन्तं जिघृक्षति धनंजयः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मालूम होता है, हमलोगोंको देखकर यह बहुत डर गया है; इसीलिये भागा जाता है और ये अर्जुन अवश्य ही उस भागते हुए राजकुमारको पकड़ लाना चाहते हैं’॥३८॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति स्म कुरवः सर्वे विमृशन्तः पृथक् पृथक्।
न च व्यवसितुं किंचिदुत्तरं शक्नुवन्ति ते ॥ ३९ ॥
छन्नं तथा तं सत्रेण पाण्डवं प्रेक्ष्य भारत।

मूलम्

इति स्म कुरवः सर्वे विमृशन्तः पृथक् पृथक्।
न च व्यवसितुं किंचिदुत्तरं शक्नुवन्ति ते ॥ ३९ ॥
छन्नं तथा तं सत्रेण पाण्डवं प्रेक्ष्य भारत।

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— भारत! इस प्रकार सभी कौरव अलग-अलग विचार-विमर्श करते थे, किंतु छद्मवेषमें छिपे हुए पाण्डुनन्दन अर्जुन तथा उत्तरको देखकर भी वे किसी निश्चयपर नहीं पहुँच पाते थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(दुर्योधन उवाचेदं सैनिकान् रथसत्तमान्॥
अर्जुनो वासुदेवो वा रामः प्रद्युम्न एव वा।
ते हि नः प्रतिसंयातुं संग्रामे न च शक्नुयुः॥
अन्यो वा क्लीबरूपेण यद्यागच्छेद् गवां पदम्।
अर्पयित्वा शरैस्तीक्ष्णैः पातयिष्यामि भूतले॥
कथमेकतरस्तेषां समस्तान् योधयेत् कुरून्।
अर्जुनो नेति चेत्येनं न व्यवस्यन्ति ते पुनः।
इति स्म कुरवः सर्वे मन्त्रयन्तो महारथाः॥
दृढवेधी महासत्त्वः शक्रतुल्यपराक्रमः ।
अद्यागच्छति ये योद्‌धुं सर्वं संशयितं बलम्॥
न चाप्यन्यं नरं तत्र व्यवस्यन्ति धनंजयात्।)

मूलम्

(दुर्योधन उवाचेदं सैनिकान् रथसत्तमान्॥
अर्जुनो वासुदेवो वा रामः प्रद्युम्न एव वा।
ते हि नः प्रतिसंयातुं संग्रामे न च शक्नुयुः॥
अन्यो वा क्लीबरूपेण यद्यागच्छेद् गवां पदम्।
अर्पयित्वा शरैस्तीक्ष्णैः पातयिष्यामि भूतले॥
कथमेकतरस्तेषां समस्तान् योधयेत् कुरून्।
अर्जुनो नेति चेत्येनं न व्यवस्यन्ति ते पुनः।
इति स्म कुरवः सर्वे मन्त्रयन्तो महारथाः॥
दृढवेधी महासत्त्वः शक्रतुल्यपराक्रमः ।
अद्यागच्छति ये योद्‌धुं सर्वं संशयितं बलम्॥
न चाप्यन्यं नरं तत्र व्यवस्यन्ति धनंजयात्।)

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय दुर्योधनने रथियोंमें श्रेष्ठ समस्त सैनिकोंसे इस प्रकार कहा—‘अर्जुन, श्रीकृष्ण, बलराम और प्रद्युम्न भी संग्रामभूमिमें हमलोगोंका सामना नहीं कर सकते। यदि कोई दूसरा मनुष्य ही हीजड़ेका रूप धारण करके इन गौओंके स्थानपर आयेगा, तो मैं उसे अपने तीखे बाणोंसे घायल करके धरतीपर सुला दूँगा। यह उपर्युक्त वीरोंमेंसे ही कोई एक हो, तो भी अकेला समस्त कौरवोंके साथ कैसे युद्ध कर सकता है?’ उधर ‘यह अर्जुन ही तो नहीं है? नहीं, वे नहीं जान पड़ते।’ इस प्रकार आपसमें मन्त्रणा करते हुए समस्त कौरव महारथी अर्जुनके विषयमें कोई निश्चय नहीं कर पाते थे। कई एक कहने लगे कि ‘अर्जुनकी शक्ति महान् है। उनका पराक्रम इन्द्रके समान है। वे दृढ़तापूर्वक शत्रुओंका वेधन करनेवाले हैं। यदि वे ही आज युद्ध करनेके लिये आ रहे हैं, तब तो समस्त सैनिकोंका जीवन संशयमें पड़ गया।’ वे इस मनुष्यको वहाँ अर्जुनसे भिन्न भी नहीं निश्चित कर पाते थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तरं तु प्रधावन्तमभिद्रुत्य धनंजयः।
गत्वा पदशतं तूर्णं केशपक्षे परामृशत् ॥ ४० ॥

मूलम्

उत्तरं तु प्रधावन्तमभिद्रुत्य धनंजयः।
गत्वा पदशतं तूर्णं केशपक्षे परामृशत् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उधर अर्जुनने भागते हुए उत्तरका पीछा करके सौ कदम दूर जाते-जाते उसके केश पकड़ लिये॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽर्जुनेन परामृष्टः पर्यदेवयदार्तवत् ।
बहुलं कृपणं चैव विराटस्य सुतस्तदा ॥ ४१ ॥

मूलम्

सोऽर्जुनेन परामृष्टः पर्यदेवयदार्तवत् ।
बहुलं कृपणं चैव विराटस्य सुतस्तदा ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनके द्वारा पकड़ लिये जानेपर विराटपुत्र उत्तर बड़ी दीनताके साथ आर्तकी भाँति विलाप करने लगा॥

मूलम् (वचनम्)

उत्तर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणुयास्त्वं हि कल्याणि बृहन्नले सुमध्यमे।
निवर्तय रथं क्षिप्रं जीवन् भद्राणि पश्यति ॥ ४२ ॥

मूलम्

शृणुयास्त्वं हि कल्याणि बृहन्नले सुमध्यमे।
निवर्तय रथं क्षिप्रं जीवन् भद्राणि पश्यति ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तर बोला— सुन्दर कटिवाली कल्याणमयी बृहन्नले! तुम मेरी बात सुनो। मेरे रथको शीघ्र लौटाओ; क्योंकि मनुष्य जीवित रहे, तो वह अनेक बार मंगल देखता है॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शातकुम्भस्य शुद्धस्य शतं निष्कान् ददामि ते।
मणीनष्टौ च वैदूर्यान् हेमबद्धान् महाप्रभान् ॥ ४३ ॥

मूलम्

शातकुम्भस्य शुद्धस्य शतं निष्कान् ददामि ते।
मणीनष्टौ च वैदूर्यान् हेमबद्धान् महाप्रभान् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं तुम्हें शुद्ध सुवर्णकी सौ मोहरें देता हूँ, साथ ही अत्यन्त प्रकाशमान स्वर्णजटित आठ वैदूर्यमणियाँ भेंट करता हूँ॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हेमदण्डप्रतिच्छन्नं रथं युक्तं च सुव्रतैः।
मत्तांश्च दश मातङ्गान् मुञ्च मां त्वं बृहन्नले ॥ ४४ ॥

मूलम्

हेमदण्डप्रतिच्छन्नं रथं युक्तं च सुव्रतैः।
मत्तांश्च दश मातङ्गान् मुञ्च मां त्वं बृहन्नले ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतना ही नहीं, उत्तम घोड़ोंसे जुते हुए तथा सुवर्णमय दण्डसे युक्त एक रथ और दस मतवाले हाथी भी दे रहा हूँ। बृहन्नले! यह सब ले लो, किंतु तुम मुझे छोड़ दो॥४४॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमादीनि वाक्यानि विलपन्तमचेतसम् ।
प्रहस्य पुरुषव्याघ्रो रथस्यान्तिकमानयत् ॥ ४५ ॥

मूलम्

एवमादीनि वाक्यानि विलपन्तमचेतसम् ।
प्रहस्य पुरुषव्याघ्रो रथस्यान्तिकमानयत् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! उत्तर इसी प्रकारकी बातें कहता और विलाप करता हुआ अचेत हो रहा था। पुरुषसिंह अर्जुन उसकी बातोंपर हँसते हुए उसे रथके समीप ले आये॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथैनमब्रवीत् पार्थो भयार्तं नष्टचेतसम्।
यदि नोत्सहसे योद्‌धुं शत्रुभिः शत्रुकर्षण।
एहि मे त्वं हयान् यच्छ युध्यमानस्य शत्रुभिः ॥ ४६ ॥

मूलम्

अथैनमब्रवीत् पार्थो भयार्तं नष्टचेतसम्।
यदि नोत्सहसे योद्‌धुं शत्रुभिः शत्रुकर्षण।
एहि मे त्वं हयान् यच्छ युध्यमानस्य शत्रुभिः ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब वह भयसे आतुर होकर अपनी सुध-बुध खोने लगा तब अर्जुनने उससे कहा—‘शत्रुनाशन! यदि तुम्हें शत्रुओंके साथ युद्ध करनेका उत्साह नहीं है तो चलो; मैं उनसे युद्ध करूँगा। तुम मेरे घोड़ोंकी बागडोर सँभालो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रयाह्येतद् रथानीकं मद्बाहुबलरक्षितः ।
अप्रधृष्यतमं घोरं गुप्तं वीरैर्महारथैः ॥ ४७ ॥

मूलम्

प्रयाह्येतद् रथानीकं मद्बाहुबलरक्षितः ।
अप्रधृष्यतमं घोरं गुप्तं वीरैर्महारथैः ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम मेरे बाहुबलसे सुरक्षित हो इस रथ-सेनाकी ओर चलो, जो महारथी वीरोंसे सुरक्षित, घोर एवं अत्यन्त दुर्धर्ष है॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मा भैस्त्वं राजपुत्राग्र्य क्षत्रियोऽसि परंतप।
कथं पुरुषशार्दूल शत्रुमध्ये विषीदसि ॥ ४८ ॥

मूलम्

मा भैस्त्वं राजपुत्राग्र्य क्षत्रियोऽसि परंतप।
कथं पुरुषशार्दूल शत्रुमध्ये विषीदसि ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजपुत्रशिरोमणे! भयभीत न होओ। शत्रुओंको संताप देनेवाले वीर! तुम क्षत्रिय हो, पुरुषसिंह! तुम शत्रुओंके बीचमें आकर विषाद कैसे कर रहे हो?’॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं वै कुरुभिर्योत्स्ये विजेष्यामि च ते पशून्।
प्रविश्यैतद् रथानीकमप्रधृष्यं दुरासदम् ॥ ४९ ॥

मूलम्

अहं वै कुरुभिर्योत्स्ये विजेष्यामि च ते पशून्।
प्रविश्यैतद् रथानीकमप्रधृष्यं दुरासदम् ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देखो, मैं इस अतीव दुर्धर्ष तथा दुर्गम रथसेनामें घुसकर कौरवोंके साथ युद्ध करूँगा और तुम्हारे पशुओंको जीत लाऊँगा॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यन्ता भव नरश्रेष्ठ योत्स्येऽहं कुरुभिः सह।

मूलम्

यन्ता भव नरश्रेष्ठ योत्स्येऽहं कुरुभिः सह।

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरश्रेष्ठ! तुम केवल मेरे सारथि बनकर बैठे रहो। इन कौरवोंके साथ युद्ध तो मैं करूँगा’॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं ब्रुवाणो बीभत्सुर्वैराटिमपराजितः ।
समाश्वास्य मुहुर्तं तमुत्तरं भरतर्षभ ॥ ५० ॥
तत एनं विचेष्टन्तमकामं भयपीडितम्।
रथमारोपयामास पार्थः प्रहरतां वरः ॥ ५१ ॥

मूलम्

एवं ब्रुवाणो बीभत्सुर्वैराटिमपराजितः ।
समाश्वास्य मुहुर्तं तमुत्तरं भरतर्षभ ॥ ५० ॥
तत एनं विचेष्टन्तमकामं भयपीडितम्।
रथमारोपयामास पार्थः प्रहरतां वरः ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ जनमेजय! प्रहार करनेवालोंमें श्रेष्ठ और कभी परास्त न होनेवाले कुन्तीपुत्र अर्जुनने उपर्युक्त बातें कहकर विराटकुमार उत्तरको दो घड़ीतक भलीभाँति समझाया-बुझाया। तत्पश्चात् युद्धकी कामनासे रहित, भयसे व्याकुल और भागनेके लिये छटपटाते हुए उत्तरको उन्होंने रथपर चढ़ाया॥५०-५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(गाण्डीवं पुनरादातुमुपायात् तां शमीं प्रति॥
उत्तरं स समाश्वास्य कृत्वा यन्तारमर्जुनः।)

मूलम्

(गाण्डीवं पुनरादातुमुपायात् तां शमीं प्रति॥
उत्तरं स समाश्वास्य कृत्वा यन्तारमर्जुनः।)

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन अपने गाण्डीव धनुषको लानेके लिये पुनः उस शमीवृक्षकी ओर गये। उन्होंने उत्तरको समझा-बुझाकार सारथि बननेके लिये राजी कर लिया था॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि गोहरणपर्वणि उत्तरगोग्रहे उत्तराश्वासने अष्टात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत गोहरणपर्वमें उत्तर दिशासे गौओंके अपहरणके प्रसंगमें उत्तरके आश्वासनसे सम्बन्ध रखनेवाला अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३८॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ९ श्लोक मिलाकर कुल ६० श्लोक हैं।)