०३४ विराटराज्ञा पाण्डवसन्मानम्

भागसूचना

चतुस्त्रिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

राजा विराटद्वारा पाण्डवोंका सम्मान, युधिष्ठिरद्वारा राजाका अभिनन्दन तथा विराटनगरमें राजाकी विजयघोषणा

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्ते तु सव्रीडः सुशर्माऽऽसीदधोमुखः।
स मुक्तोऽभ्येत्य राजानमभिवाद्य प्रतस्थिवान् ॥ १ ॥

मूलम्

एवमुक्ते तु सव्रीडः सुशर्माऽऽसीदधोमुखः।
स मुक्तोऽभ्येत्य राजानमभिवाद्य प्रतस्थिवान् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! युधिष्ठिरके ऐसा कहनेपर सुशर्माने लज्जित होकर अपना मुँह नीचे कर लिया और बन्धनसे मुक्त हो राजा विराटके पास जा उन्हें प्रणाम करके अपने देशको प्रस्थान किया॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विसृज्य तु सुशर्माणं पाण्डवास्ते हतद्विषः।
स्वबाहुबलसम्पन्ना ह्रीनिषेवा यतव्रताः ॥ २ ॥
संग्रामशिरसो मध्ये तां रात्रिं सुखिनोऽवसन्।

मूलम्

विसृज्य तु सुशर्माणं पाण्डवास्ते हतद्विषः।
स्वबाहुबलसम्पन्ना ह्रीनिषेवा यतव्रताः ॥ २ ॥
संग्रामशिरसो मध्ये तां रात्रिं सुखिनोऽवसन्।

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार सुशर्माको मुक्त करके शत्रुओंका संहार करनेवाले, अपने बाहुबलसे सम्पन्न, लज्जाशील और संयमपूर्वक व्रतपालनमें तत्पर रहनेवाले वे पाण्डव उस युद्धके मुहानेपर ही रातभर सुखसे रहे॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो विराटः कौन्तेयानतिमानुषविक्रमान् ।
अर्चयामास वित्तेन मानेन च महारथान् ॥ ३ ॥

मूलम्

ततो विराटः कौन्तेयानतिमानुषविक्रमान् ।
अर्चयामास वित्तेन मानेन च महारथान् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर राजा विराटने अतिमानुष (मानवीय शक्तिसे परे) पराक्रम करनेवाले महारथी कुन्तीपुत्रोंका धन और मानदानद्वारा सत्कार किया॥३॥

मूलम् (वचनम्)

विराट उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथैव मम रत्नानि युष्माकं तानि वै तथा।
कार्यं कुरुत वै सर्वे यथाकामं यथासुखम् ॥ ४ ॥
ददाम्यलंकृताः कन्या वसूनि विविधानि च।
मनसश्चाप्यभिप्रेतं युद्धे शत्रुनिबर्हणाः ॥ ५ ॥

मूलम्

यथैव मम रत्नानि युष्माकं तानि वै तथा।
कार्यं कुरुत वै सर्वे यथाकामं यथासुखम् ॥ ४ ॥
ददाम्यलंकृताः कन्या वसूनि विविधानि च।
मनसश्चाप्यभिप्रेतं युद्धे शत्रुनिबर्हणाः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विराटने कहा— युद्धमें शत्रुओंका संहार करनेवाले वीरो! ये रत्न और धन जैसे मेरे हैं, वैसे ही तुमलोगोंके भी। तुम सब लोग यहाँ सुखपूर्वक रहो और जिस कार्यमें तुमलोगोंकी रुचि हो, वही करो। मैं तुम सबको वस्त्राभूषणोंसे विभूषित कन्याएँ, नाना प्रकारके रत्न, धन तथा और भी मनोवांछित पदार्थ देता हूँ॥४-५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युष्माकं विक्रमादद्य मुक्तोऽहं स्वस्तिमानिह।
तस्माद् भवन्तो मत्स्यानामीश्वराः सर्व एव हि ॥ ६ ॥

मूलम्

युष्माकं विक्रमादद्य मुक्तोऽहं स्वस्तिमानिह।
तस्माद् भवन्तो मत्स्यानामीश्वराः सर्व एव हि ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आज मैं तुमलोगोंके ही पराक्रमसे यहाँ शत्रुके पंजेसे कुशलपूर्वक छूटकर आया हूँ। अतः तुमलोग मत्स्यदेशके स्वामी ही हो॥६॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथेतिवादिनं मत्स्यं कौरवेयाः पृथक् पृथक्।
ऊचुः प्राञ्जलयः सर्वे युधिष्ठिरपुरोगमाः ॥ ७ ॥

मूलम्

तथेतिवादिनं मत्स्यं कौरवेयाः पृथक् पृथक्।
ऊचुः प्राञ्जलयः सर्वे युधिष्ठिरपुरोगमाः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— इस प्रकार कहनेवाले मत्स्यराजसे युधिष्ठिर आदि सभी कुरुवंशी पृथक्-पृथक् हाथ जोड़कर बोले—॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिनन्दाम ते वाक्यं सर्वं चैव विशाम्पते।
एतेनैव प्रतीताः स्म यत् त्वं मुक्तोऽद्य शत्रुभिः ॥ ८ ॥

मूलम्

प्रतिनन्दाम ते वाक्यं सर्वं चैव विशाम्पते।
एतेनैव प्रतीताः स्म यत् त्वं मुक्तोऽद्य शत्रुभिः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! आपका कहना ठीक है। हम आपके सम्पूर्ण वचनोंका अभिनन्दन करते हैं, किंतु हमलोग इतनेसे ही संतुष्ट हैं कि आप आज शत्रुओंसे मुक्त हो गये’॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽब्रवीत् प्रीतमना मत्स्यराजो युधिष्ठिरम्।
पुनरेव महाबाहुर्विराटो राजसत्तमः ॥ ९ ॥
एहि त्वामभिषेक्ष्यामि मत्स्यराजस्तु नो भवान् ॥ १० ॥

मूलम्

ततोऽब्रवीत् प्रीतमना मत्स्यराजो युधिष्ठिरम्।
पुनरेव महाबाहुर्विराटो राजसत्तमः ॥ ९ ॥
एहि त्वामभिषेक्ष्यामि मत्स्यराजस्तु नो भवान् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब राजाओंमें श्रेष्ठ मत्स्यनरेश महाबाहु विराटने मन-ही-मन अत्यन्त प्रसन्न होकर पुनः युधिष्ठिरसे कहा—‘कंकजी! आइये, मैं आपका अभिषेक करूँगा। आप ही हमारे मत्स्यदेशके राजा बनें॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनसश्चाप्यभिप्रेतं यथेष्टं भुवि दुर्लभम्।
तत् तेऽहं सम्प्रदास्यामि सर्वमर्हति नो भवान् ॥ ११ ॥

मूलम्

मनसश्चाप्यभिप्रेतं यथेष्टं भुवि दुर्लभम्।
तत् तेऽहं सम्प्रदास्यामि सर्वमर्हति नो भवान् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस पृथ्वीपर दुर्लभ जो और भी प्रिय तथा मनोवांछित पदार्थ होगा, वह भी मैं आपको दूँगा। आप तो हमारा सब कुछ पानेके अधिकारी हैं॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रत्नानि गाः सुवर्णं च मणिमुक्तमथापि च।
वैयाघ्रपद्य विप्रेन्द्र सर्वथैव नमोऽस्तु ते ॥ १२ ॥

मूलम्

रत्नानि गाः सुवर्णं च मणिमुक्तमथापि च।
वैयाघ्रपद्य विप्रेन्द्र सर्वथैव नमोऽस्तु ते ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘व्याघ्रपदगोत्रमें उत्पन्न विप्रवर! मेरे रत्न, गौएँ, सुवर्ण, मणि तथा मोती भी आपके अर्पण हैं। आपको हमारा सब प्रकारसे नमस्कार है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वत्कृते ह्यद्य पश्यामि राज्यं संतानमेव च।
यतश्च जातसंरम्भो न च शत्रुवशं गतः ॥ १३ ॥

मूलम्

त्वत्कृते ह्यद्य पश्यामि राज्यं संतानमेव च।
यतश्च जातसंरम्भो न च शत्रुवशं गतः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपके कारण ही आज मैं अपने राज्य और संतानका मुख देख पाऊँगा; क्योंकि पकड़े जानेपर मैं भयभीत हो गया था, किंतु आपके पराक्रमसे शत्रुके अधीन नहीं रहा’॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो युधिष्ठिरो मत्स्यं पुनरेवाभ्यभाषत।
प्रतिनन्दामि ते वाक्यं मनोज्ञं मत्स्य भाषसे ॥ १४ ॥
आनृशंस्यपरो नित्यं सुसुखी सततं भव।

मूलम्

ततो युधिष्ठिरो मत्स्यं पुनरेवाभ्यभाषत।
प्रतिनन्दामि ते वाक्यं मनोज्ञं मत्स्य भाषसे ॥ १४ ॥
आनृशंस्यपरो नित्यं सुसुखी सततं भव।

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर राजा युधिष्ठिरने मत्स्यराजसे पुनः कहा—‘राजन्! आप बड़ी मनोहर बात कह रहे हैं। मैं आपके इस वचनका अभिनन्दन करता हूँ आप निरन्तर दयाभाव रखते हुए सर्वदा परम सुखी हों॥१४॥

मूलम् (वचनम्)

(वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनरेव विराटश्च राजा कङ्कमभाषत।
अहो सूदस्य कर्माणि बल्लवस्य द्विजोत्तम।
सोऽहं सूदेन संग्रामे बल्लवेनाभिरक्षितः॥
त्वत्कृते सर्वमेवैतदुपपन्नं ममानघ ।
वरं वृणीष्य भद्रं ते ब्रूहि किं करवाणि ते॥
ददामि ते महाप्रीत्या रत्नान्युच्चावचानि च।
शयनासनयानानि कन्याश्च समलंकृताः ॥
हस्त्यश्वरथसङ्घाश्च राष्ट्राणि विविधानि च।
एतानि च मम प्रीत्या प्रतिगृह्णीष्व सुव्रत॥

मूलम्

पुनरेव विराटश्च राजा कङ्कमभाषत।
अहो सूदस्य कर्माणि बल्लवस्य द्विजोत्तम।
सोऽहं सूदेन संग्रामे बल्लवेनाभिरक्षितः॥
त्वत्कृते सर्वमेवैतदुपपन्नं ममानघ ।
वरं वृणीष्य भद्रं ते ब्रूहि किं करवाणि ते॥
ददामि ते महाप्रीत्या रत्नान्युच्चावचानि च।
शयनासनयानानि कन्याश्च समलंकृताः ॥
हस्त्यश्वरथसङ्घाश्च राष्ट्राणि विविधानि च।
एतानि च मम प्रीत्या प्रतिगृह्णीष्व सुव्रत॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! कंकनामधारी युधिष्ठिरके यों कहनेपर राजा विराट पुनः उनसे इस प्रकार बोले—‘द्विजश्रेष्ठ! बल्लव नामक रसोइयेका कर्म भी अद्‌भुत है। इस युद्धमें बल्लवने ही मेरी रक्षा की है। निष्पाप विप्रवर! आपके ही करनेसे यह सब कुछ सम्भव हुआ है। आपका कल्याण हो। आप मुझसे वर माँगिये और बताइये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ? मैं बड़ी प्रसन्नताके साथ आपको नाना प्रकारके उत्तमोत्तम रत्न, शय्या, आसन, वाहन, वस्त्राभूषणोंसे विभूषित सुन्दरी कन्याएँ, हाथी, घोड़े और रथोंके समूह तथा भाँति-भाँतिके जनपद भेंट करता हूँ। सुव्रत! आप मेरी प्रसन्नताके लिये इन सब वस्तुओंको ग्रहण करें।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं तथावादिनं तत्र कौरव्यः प्रत्यभाषत।
एकैव तु मम प्रीतिर्यत् त्वं मुक्तोऽसि शत्रुभिः।
प्रतीतश्च पुरं तुष्टः प्रवेक्ष्यसि तदानघ॥
दारैः पुत्रैश्च संश्लिष्य सा हि प्रीतिर्ममातुला।)

मूलम्

तं तथावादिनं तत्र कौरव्यः प्रत्यभाषत।
एकैव तु मम प्रीतिर्यत् त्वं मुक्तोऽसि शत्रुभिः।
प्रतीतश्च पुरं तुष्टः प्रवेक्ष्यसि तदानघ॥
दारैः पुत्रैश्च संश्लिष्य सा हि प्रीतिर्ममातुला।)

अनुवाद (हिन्दी)

तब वहाँ ऐसी बातें कहनेवाले राजा विराटको कुरुकुलनन्दन युधिष्ठिरने इस प्रकार उत्तर दिया—‘महाराज! आप शत्रुओंके हाथसे छूट गये, यही मेरे लिये बड़ी प्रसन्नताकी बात है। अनघ! आप निर्भय होकर संतोषपूर्वक अपने नगरमें प्रवेश करेंगे और अपने स्त्री-पुत्रोंसे मिलकर सुखी होंगे; यही मेरे लिये अनुपम प्रसन्नताकी बात होगी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गच्छन्तु दूतास्त्वरितं नगरं तव पार्थिव ॥ १५ ॥
सुहृदां प्रियमाख्यातुं घोषयन्तु च ते जयम्।
ततस्तद्वचनान्मत्स्यो दूतान् राजा समादिशत् ॥ १६ ॥

मूलम्

गच्छन्तु दूतास्त्वरितं नगरं तव पार्थिव ॥ १५ ॥
सुहृदां प्रियमाख्यातुं घोषयन्तु च ते जयम्।
ततस्तद्वचनान्मत्स्यो दूतान् राजा समादिशत् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! अब आपके नगरमें सुहृदोंसे यह प्रिय समाचार बतानेके लिये तुरंत ही दूतोंको जाना चाहिये। वे दूत वहाँ आपकी विजय घोषित करें।’ तब उनके कथनानुसार राजा विराटने दूतोंको आदेश दिया—॥१५-१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आचक्षध्वं पुरं गत्वा संग्रामविजयं मम।
कुमार्यः समलंकृत्य पर्यागच्छन्तु मे पुरात् ॥ १७ ॥

मूलम्

आचक्षध्वं पुरं गत्वा संग्रामविजयं मम।
कुमार्यः समलंकृत्य पर्यागच्छन्तु मे पुरात् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दूतो! तुमलोग नगरमें जाकर सूचना दो कि युद्धमें मेरी विजय हुई है। कुमारी कन्याएँ शृंगार करके स्वागतके लिये नगरसे बाहर आ जायँ॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वादित्राणि च सर्वाणि गणिकाश्च स्वलंकृताः।
एतां चाज्ञां ततः श्रुत्वा राज्ञा मत्स्येन नोदिताः।
तामाज्ञां शिरसा कृत्वा प्रस्थिता हृष्टमानसाः ॥ १८ ॥

मूलम्

वादित्राणि च सर्वाणि गणिकाश्च स्वलंकृताः।
एतां चाज्ञां ततः श्रुत्वा राज्ञा मत्स्येन नोदिताः।
तामाज्ञां शिरसा कृत्वा प्रस्थिता हृष्टमानसाः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सब प्रकारके बाजे बजाये जायँ और वेश्याएँ भी सज-धजकर तैयार रहें।’ मत्स्यराजकी इस आज्ञाको सुनकर उसे शिरोधार्य करके दूत प्रसन्नचित्त होकर चले॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते गत्वा तत्र तां रात्रिमथ सूर्योदयं प्रति।
विराटस्य पुराभ्याशे दूता जयमघोषयन् ॥ १९ ॥

मूलम्

ते गत्वा तत्र तां रात्रिमथ सूर्योदयं प्रति।
विराटस्य पुराभ्याशे दूता जयमघोषयन् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रातमें ही वहाँसे प्रस्थान करके सूर्योदय होते-होते दूत विराटकी राजधानीमें जा पहुँचे और वहाँ उन्होंने सब ओर मत्स्यराजकी विजय घोषित कर दी॥१९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि गोहरणपर्वणि दक्षिणगोग्रहे विराटजयघोषे चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत गोहरणपर्वमें दक्षिण दिशाकी ओरसे गौओंके अपहरणके प्रसंगमें विराटके जयघोषसम्बन्धी चौंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३४॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ६ श्लोक मिलाकर कुल २५ श्लोक हैं।)