०३३ भीमसेनेन सुशर्मनिग्रहः

भागसूचना

त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

सुशर्माका विराटको पकड़कर ले जाना, पाण्डवोंके प्रयत्नसे उनका छुटकारा, भीमद्वारा सुशर्माका निग्रह और युधिष्ठिरका अनुग्रह करके उसे छोड़ देना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमसाभिप्लुते लोके रजसा चैव भारत।
अतिष्ठन् वै मुहूर्तं तु व्यूढानीकाः प्रहारिणः ॥ १ ॥

मूलम्

तमसाभिप्लुते लोके रजसा चैव भारत।
अतिष्ठन् वै मुहूर्तं तु व्यूढानीकाः प्रहारिणः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— भारत! उस समय [सूर्यास्त हो चुका था एवं रात्रि आ गयी थी, अतः] सब लोग धूलसे तो आवृत थे ही, अन्धकारसे भी आच्छादित हो गये; अतः प्रहार करनेवाले सैनिक सेनाका व्यूह बनाकर कुछ देरतक युद्ध बंद करके खड़े रहे॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽन्धकारं प्रणुदन्नुदतिष्ठत चन्द्रमाः ।
कुर्वाणो विमलां रात्रिं नन्दयन् क्षत्रियान् युधि ॥ २ ॥

मूलम्

ततोऽन्धकारं प्रणुदन्नुदतिष्ठत चन्द्रमाः ।
कुर्वाणो विमलां रात्रिं नन्दयन् क्षत्रियान् युधि ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतनेमें ही अन्धकारका निवारण करते हुए चन्द्रदेवका उदय हुआ। उन्होंने उस रणक्षेत्रमें क्षत्रियोंको आनन्द प्रदान करते हुए उस रात्रिको निर्मल (अन्धकार-शून्य) बना दिया॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रकाशमासाद्य पुनर्युद्धमवर्तत ।
घोररूपं ततस्ते स्म नावैक्षन्त परस्परम् ॥ ३ ॥

मूलम्

ततः प्रकाशमासाद्य पुनर्युद्धमवर्तत ।
घोररूपं ततस्ते स्म नावैक्षन्त परस्परम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः उजाला हो जानेसे पुनः घोर युद्ध प्रारम्भ हो गया। उस समय (युद्धके आवेशमें) योद्धा एक दूसरेको देख नहीं रहे थे॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सुशर्मा त्रैगर्तः सह भ्रात्रा यवीयसा।
अभ्यद्रवन्मत्स्यराजं रथव्रातेन सर्वशः ॥ ४ ॥

मूलम्

ततः सुशर्मा त्रैगर्तः सह भ्रात्रा यवीयसा।
अभ्यद्रवन्मत्स्यराजं रथव्रातेन सर्वशः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर त्रिगर्तराज सुशर्माने अपने छोटे भाईके साथ रथियोंका समूह लेकर चारों ओरसे मत्स्यराज विराटपर धावा बोल दिया॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो रथाभ्यां प्रस्कन्द्य भ्रातरौ क्षत्रियर्षभौ।
गदापाणी सुसंरब्धौ समभ्यद्रवतां रथान् ॥ ५ ॥

मूलम्

ततो रथाभ्यां प्रस्कन्द्य भ्रातरौ क्षत्रियर्षभौ।
गदापाणी सुसंरब्धौ समभ्यद्रवतां रथान् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर वे क्षत्रियशिरोमणि दोनों बन्धु रथोंसे कूद पड़े और हाथमें गदा ले क्रोधमें भरकर शत्रुसेनाके रथोंकी ओर दौड़े॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(मत्ताविव वृषावेतौ गजाविव मदोद्धतौ।
सिंहाविव गजग्राहौ शक्रवृत्राविवोत्थितौ ॥
उभौ तुल्यबलोत्साहावुभौ तुल्यपराक्रमौ ।
उभौ तुल्यास्त्रविदुषावुभौ युद्धविशारदौ ॥)

मूलम्

(मत्ताविव वृषावेतौ गजाविव मदोद्धतौ।
सिंहाविव गजग्राहौ शक्रवृत्राविवोत्थितौ ॥
उभौ तुल्यबलोत्साहावुभौ तुल्यपराक्रमौ ।
उभौ तुल्यास्त्रविदुषावुभौ युद्धविशारदौ ॥)

अनुवाद (हिन्दी)

वे दोनों मतवाले साँड़ों, मदोन्मत्त गजराजों, एक ही हाथीपर आक्रमण करनेवाले दो सिंहों तथा युद्धके लिये उद्यत वृत्रासुर एवं इन्द्रके समान जान पड़ते थे। दोनोंके बल और उत्साह समान थे। दोनों ही एक-जैसे पराक्रमी और एक-से ही अस्त्र-शस्त्रोंके ज्ञाता थे। युद्ध करनेकी कलामें वे दोनों ही वीर अत्यन्त निपुण थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव तेषां तु बलानि तानि
क्रुद्धान्यथान्योन्यमभिद्रवन्ति ।
गदासिखड्‌गैश्च परश्वधैश्च
प्रासैश्च तीक्ष्णाग्रसुपीतधारैः ॥ ६ ॥

मूलम्

तथैव तेषां तु बलानि तानि
क्रुद्धान्यथान्योन्यमभिद्रवन्ति ।
गदासिखड्‌गैश्च परश्वधैश्च
प्रासैश्च तीक्ष्णाग्रसुपीतधारैः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार उन सबकी वे सेनाएँ भी कुपित हो गदा, तलवार, खड्‌ग, फरसे और भलीभाँति तेज किये हुए तीखी धारवाले प्रासों (भालों) से प्रहार करती हुई एक-दूसरीपर टूट पड़ीं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलं तु मत्स्यस्य बलेन राजा
सर्वं त्रिगर्ताधिपतिः सुशर्मा ।
प्रमथ्य जित्वा च प्रसह्य मत्स्यं
विराटमोजस्विनमभ्यधावत् ॥ ७ ॥
तौ निहत्य पृथग् धुर्यावुभौ तौ पार्ष्णिसारथी।
विरथं मत्स्यराजानं जीवग्राहमगृह्णताम् ॥ ८ ॥

मूलम्

बलं तु मत्स्यस्य बलेन राजा
सर्वं त्रिगर्ताधिपतिः सुशर्मा ।
प्रमथ्य जित्वा च प्रसह्य मत्स्यं
विराटमोजस्विनमभ्यधावत् ॥ ७ ॥
तौ निहत्य पृथग् धुर्यावुभौ तौ पार्ष्णिसारथी।
विरथं मत्स्यराजानं जीवग्राहमगृह्णताम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

त्रिगर्तदेशके स्वामी राजा सुशर्माने अपनी सेनाके द्वारा मत्स्यराजकी सेनाको मथ डाला और बलपूर्वक उसे परास्त करके महापराक्रमी मत्स्यनरेश विराटपर चढ़ाई कर दी। उन दोनों भाइयोंने पृथक्-पृथक् विराटके दोनों घोड़ोंको मारकर उनके पार्श्वभागकी रक्षा करनेवाले सिपाहियों तथा सारथिको भी मार डाला और उन्हें रथहीन करके जीते-जी ही पकड़ लिया॥७-८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमुन्मथ्य सुशर्माथ युवतीमिव कामुकः।
स्यन्दनं स्वं समारोप्य प्रययौ शीघ्रवाहनः ॥ ९ ॥

मूलम्

तमुन्मथ्य सुशर्माथ युवतीमिव कामुकः।
स्यन्दनं स्वं समारोप्य प्रययौ शीघ्रवाहनः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे कामी पुरुष किसी युवतीको बलपूर्वक पकड़ ले, वैसे ही सुशर्माने राजा विराटको पीड़ित करके पकड़ लिया और उनको शीघ्रगामी वाहनोंसे युक्त अपने रथपर चढ़ाकर वह चल दिया॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् गृहीते विरथे विराटे बलवत्तरे।
प्राद्रवन्त भयान्मत्स्यास्त्रिगर्तैरर्दिता भृशम् ॥ १० ॥

मूलम्

तस्मिन् गृहीते विरथे विराटे बलवत्तरे।
प्राद्रवन्त भयान्मत्स्यास्त्रिगर्तैरर्दिता भृशम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतिशय बलवान् राजा विराट जब रथहीन होकर पकड़ लिये गये, तब त्रिगर्तोंद्वारा अत्यन्त पीड़ित हुए मत्स्यदेशीय सैनिक भयभीत होकर भागने लगे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषु संत्रस्यमानेषु कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
प्रत्यभाषन्महाबाहुं भीमसेनमरिंदमम् ॥ ११ ॥

मूलम्

तेषु संत्रस्यमानेषु कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
प्रत्यभाषन्महाबाहुं भीमसेनमरिंदमम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके इस प्रकार अत्यन्त भयभीत होनेपर कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरने शत्रुओंका दमन करनेवाले महाबाहु भीमसेनसे कहा—॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मत्स्यराजः परामृष्टस्त्रिगर्तेन सुशर्मणा ।
तं मोचय महाबाहो न गच्छेद् द्विषतां वशम् ॥ १२ ॥

मूलम्

मत्स्यराजः परामृष्टस्त्रिगर्तेन सुशर्मणा ।
तं मोचय महाबाहो न गच्छेद् द्विषतां वशम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबाहो! त्रिगर्तराज सुशर्माने मत्स्यराजको पकड़ लिया है। उन्हें शीघ्र छुड़ाओ; जिससे वे शत्रुओंके वशमें न पड़ जायँ॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उषिताः स्म सुखं सर्वे सर्वकामैः सुपूजिताः।
भीमसेन त्वया कार्या तस्य वासस्य निष्कृतिः ॥ १३ ॥

मूलम्

उषिताः स्म सुखं सर्वे सर्वकामैः सुपूजिताः।
भीमसेन त्वया कार्या तस्य वासस्य निष्कृतिः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हम सब लोग उनके यहाँ सुखपूर्वक रहे हैं और उन्होंने हमें सब प्रकारकी अभीष्ट वस्तुएँ देकर हमारा भलीभाँति सत्कार किया है। अतः भीमसेन! तुम्हें उनके घरमें रहनेके उपकारका बदला चुकाना चाहिये’॥१३॥

मूलम् (वचनम्)

भीमसेन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहमेनं परित्रास्ये शासनात् तव पार्थिव।
पश्य मे सुमहत् कर्म युध्यतः सह शत्रुभिः ॥ १४ ॥

मूलम्

अहमेनं परित्रास्ये शासनात् तव पार्थिव।
पश्य मे सुमहत् कर्म युध्यतः सह शत्रुभिः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेन बोले— महाराज! आपकी आज्ञासे मैं इन्हें सुशर्माके हाथोंसे छुड़ा लूँगा। आज आप शत्रुओंके साथ युद्ध करते समय मेरे महान् पराक्रमको देखें॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वबाहुबलमाश्रित्य तिष्ठ त्वं भ्रातृभिः सह।
एकान्तमाश्रितो राजन् पश्य मेऽद्य पराक्रमम् ॥ १५ ॥

मूलम्

स्वबाहुबलमाश्रित्य तिष्ठ त्वं भ्रातृभिः सह।
एकान्तमाश्रितो राजन् पश्य मेऽद्य पराक्रमम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं अपने बाहुबलका भरोसा करके लड़ूँगा। राजन्! आज आप भाइयोंसहित एकान्तमें खड़े होकर अब मेरा पराक्रम देखें॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुस्कन्धोऽयं महावृक्षो गदारूप इव स्थितः।
अहमेनमपारुज्य द्रावयिष्यामि शात्रवान् ॥ १६ ॥

मूलम्

सुस्कन्धोऽयं महावृक्षो गदारूप इव स्थितः।
अहमेनमपारुज्य द्रावयिष्यामि शात्रवान् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सामने जो महान् वृक्ष है, इसकी शाखाएँ बड़ी सुन्दर हैं। यह तो मानो गदाके ही रूपमें खड़ा है। अतः मैं इसीको उखाड़कर इसके द्वारा शत्रुदलको मार भगाऊँगा॥१६॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं मत्तमिव मातङ्गं वीक्षमाणं वनस्पतिम्।
अब्रवीद् भ्रातरं वीरं धर्मराजो युधिष्ठिरः ॥ १७ ॥

मूलम्

तं मत्तमिव मातङ्गं वीक्षमाणं वनस्पतिम्।
अब्रवीद् भ्रातरं वीरं धर्मराजो युधिष्ठिरः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! यह कहकर भीमसेन मदोन्मत्त गजराजकी भाँति उस वृक्षकी ओर देखने लगे। तब धर्मराज युधिष्ठिरने अपने वीर भ्रातासे कहा—॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मा भीम साहसं कार्षीस्तिष्ठत्वेष वनस्पतिः।
मा त्वां वृक्षेण कर्माणि कुर्वाणमतिमानुषम् ॥ १८ ॥
जनाः समवबुध्येरन् भीमोऽयमिति भारत।
अन्यदेवायुधं किंचित् प्रतिपद्यस्व मानुषम् ॥ १९ ॥

मूलम्

मा भीम साहसं कार्षीस्तिष्ठत्वेष वनस्पतिः।
मा त्वां वृक्षेण कर्माणि कुर्वाणमतिमानुषम् ॥ १८ ॥
जनाः समवबुध्येरन् भीमोऽयमिति भारत।
अन्यदेवायुधं किंचित् प्रतिपद्यस्व मानुषम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भीमसेन! ऐसा दुःसाहस न करो, इस वृक्षको खड़ा रहने दो। यदि तुम इस महावृक्षको उखाड़नेका अतिमानुष (मानवोंके लिये असाध्य) कर्म करोगे, तो सब लोग पहचान लेंगे कि यह तो भीम है। अतः भारत! तुम किसी दूसरे मानवोचित आयुधको ही ग्रहण करो॥१८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चापं वा यदि वा शक्तिं निस्त्रिंशं वा परश्वधम्।
यदेव मानुषं भीम भवेदन्यैरलक्षितम् ॥ २० ॥
तदेवायुधमादाय मोक्षयाशु महीपतिम् ।
यमौ च चक्ररक्षौ ते भवितारौ महाबलौ ॥ २१ ॥
सहिताः समरे तत्र मत्स्यराजं परीप्सत।

मूलम्

चापं वा यदि वा शक्तिं निस्त्रिंशं वा परश्वधम्।
यदेव मानुषं भीम भवेदन्यैरलक्षितम् ॥ २० ॥
तदेवायुधमादाय मोक्षयाशु महीपतिम् ।
यमौ च चक्ररक्षौ ते भवितारौ महाबलौ ॥ २१ ॥
सहिताः समरे तत्र मत्स्यराजं परीप्सत।

अनुवाद (हिन्दी)

‘धनुष, शक्ति, खड्‌ग अथवा कुठार, जो भी मनुष्योचित अस्त्र-शस्त्र तुम्हें ठीक लगे; जिससे तुम दूसरोंद्वारा पहचाने न जा सको, वही लेकर राजाको शीघ्र छुड़ाओ। ये महाबली नकुल और सहदेव तुम्हारे रथके पहियोंकी रक्षा करेंगे। तुम तीनों भाई युद्धमें एक साथ मिलकर महाराज विराटको छुड़ाओ’॥२०-२१॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तु वेगेन भीमसेनो महाबलः ॥ २२ ॥
गृहीत्वा तु धनुः श्रेष्ठं जवेन सुमहाजवः।
व्यमुञ्चच्छरवर्षाणि सतोय इव तोयदः ॥ २३ ॥

मूलम्

एवमुक्तस्तु वेगेन भीमसेनो महाबलः ॥ २२ ॥
गृहीत्वा तु धनुः श्रेष्ठं जवेन सुमहाजवः।
व्यमुञ्चच्छरवर्षाणि सतोय इव तोयदः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! युधिष्ठिरके उक्त आदेश देनेपर महान् वेगशाली महाबली भीमसेनने शीघ्रतापूर्वक एक उत्तम धनुष हाथमें ले लिया। फिर तो जैसे मेघ जलकी धारा बरसाता हो, उसी प्रकार वे वेगपूर्वक बाणोंकी वर्षा करने लगे॥२२-२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं भीमो भीमकर्माणं सुशर्माणमथाद्रवत्।
विराटं समवीक्ष्यैनं तिष्ठ तिष्ठेति चावदत् ॥ २४ ॥

मूलम्

तं भीमो भीमकर्माणं सुशर्माणमथाद्रवत्।
विराटं समवीक्ष्यैनं तिष्ठ तिष्ठेति चावदत् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर भीमसेन भयंकर कर्म करनेवाले सुशर्माकी ओर दौड़े और विराटकी ओर देखते हुए सुशर्मासे बोले—‘अरे! खड़ा रह, खड़ा रह’॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुशर्मा चिन्तयामास कालान्तकयमोपमम् ।
तिष्ठ तिष्ठेति भाषन्तं पृष्ठतो रथपुङ्गवः।
पश्यतां सुमहत् कर्म महद् युद्धमुपस्थितम् ॥ २५ ॥

मूलम्

सुशर्मा चिन्तयामास कालान्तकयमोपमम् ।
तिष्ठ तिष्ठेति भाषन्तं पृष्ठतो रथपुङ्गवः।
पश्यतां सुमहत् कर्म महद् युद्धमुपस्थितम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रथियोंमें श्रेष्ठ सुशर्मा पीछेकी ओरसे आते और ‘खड़ा रह, खड़ा रह’ कहते हुए काल, अन्तक एवं यमराजके समान भयंकर वीर पुरुषको देखकर चिन्तामें पड़ गया और अपने साथियोंसे बोला—‘देखो, फिर बड़ा भारी युद्ध उपस्थित हुआ है। इसमें महान् पराक्रम दिखाओ’॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परावृत्तो धनुर्गृह्य सुशर्मा भ्रातृभिः सह।
निमेषान्तरमात्रेण भीमसेनेन ते रथाः ॥ २६ ॥
रथानां च गजानां च वाजिनां च ससादिनाम्।
सहस्रशतसङ्घाताः शूराणामुग्रधन्विनाम् ॥ २७ ॥
पातिता भीमसेनेन विराटस्य समीपतः।
पत्तयो निहतास्तेषां गदां गृह्य महात्मना ॥ २८ ॥

मूलम्

परावृत्तो धनुर्गृह्य सुशर्मा भ्रातृभिः सह।
निमेषान्तरमात्रेण भीमसेनेन ते रथाः ॥ २६ ॥
रथानां च गजानां च वाजिनां च ससादिनाम्।
सहस्रशतसङ्घाताः शूराणामुग्रधन्विनाम् ॥ २७ ॥
पातिता भीमसेनेन विराटस्य समीपतः।
पत्तयो निहतास्तेषां गदां गृह्य महात्मना ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर सुशर्मा भाइयोंसहित धनुष उठाये लौट पड़ा। इधर महात्मा भीमसेनने निमेषमात्रमें ही गदा लेकर शत्रुओंके भयंकर धनुष धारण करनेवाले रथी, हाथीसवार और घुड़सवार वीरोंके एक लाख सैनिकोंके समूहोंको राजा विराटके समीप मार गिराया और बहुत-से पैदल सिपाहियोंका भी संहार कर डाला॥२६—२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् दृष्ट्वा तादृशं युद्धं सुशर्मा युद्धदुर्मदः।
चिन्तयामास मनसा किं शेषं हि बलस्य मे।
अपरो दृश्यते सैन्ये पुरा मग्नो महाबले ॥ २९ ॥

मूलम्

तद् दृष्ट्वा तादृशं युद्धं सुशर्मा युद्धदुर्मदः।
चिन्तयामास मनसा किं शेषं हि बलस्य मे।
अपरो दृश्यते सैन्ये पुरा मग्नो महाबले ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा भयानक युद्ध देख रणोन्मत्त सुशर्मा मन-ही-मन सोचने लगा, ‘जान पड़ता है, मेरी सेना बुरी तरह मारी जायगी; क्योंकि मेरा दूसरा भाई भी पहलेसे ही इस विशाल सैन्य-समुद्रमें डूबा हुआ दिखायी देता है’॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आकर्णपूर्णेन तदा धनुषा प्रत्यदृश्यत।
सुशर्मा सायकांस्तीक्ष्णान् क्षिपते च पुनः पुनः ॥ ३० ॥
ततः समस्तास्ते सर्वे तुरगानभ्यचोदयन्।
दिव्यमस्त्रं विकुर्वाणास्त्रिगर्तान् प्रत्यमर्षणाः ॥ ३१ ॥

मूलम्

आकर्णपूर्णेन तदा धनुषा प्रत्यदृश्यत।
सुशर्मा सायकांस्तीक्ष्णान् क्षिपते च पुनः पुनः ॥ ३० ॥
ततः समस्तास्ते सर्वे तुरगानभ्यचोदयन्।
दिव्यमस्त्रं विकुर्वाणास्त्रिगर्तान् प्रत्यमर्षणाः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा विचारकर वह कानतक खींचे हुए धनुषके द्वारा युद्धके लिये उद्यत दिखायी देने लगा। सुशर्मा बारंबार तीखे बाणोंकी झड़ी लगा रहा है, यह देख सम्पूर्ण मत्स्यदेशीय योद्धा त्रिगर्तोंके प्रति कुपित हो दिव्यास्त्र प्रकट करते हुए अपने रथोंके घोड़ोंको आगे बढ़ाने लगे॥३०-३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान्‌ निवृत्तरथान्‌ दृष्ट्वा पाण्डवान् सा महाचमूः।
वैराटिः परमक्रुद्धो युयुधे परमाद्भुतम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

तान्‌ निवृत्तरथान्‌ दृष्ट्वा पाण्डवान् सा महाचमूः।
वैराटिः परमक्रुद्धो युयुधे परमाद्भुतम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डवोंको त्रिगर्तोंकी ओर रथ लौटाते देख मत्स्यवीरोंकी वह विशालवाहिनी भी लौट पड़ी। विराटके पुत्र श्वेत अत्यन्त क्रोधमें भरकर बड़ा अद्‌भुत युद्ध करने लगे॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहस्रमवधीत् तत्र कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
भीमः सप्त सहस्राणि यमलोकमदर्शयत् ॥ ३३ ॥

मूलम्

सहस्रमवधीत् तत्र कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
भीमः सप्त सहस्राणि यमलोकमदर्शयत् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरने एक हजार त्रिगर्तोंको मार गिराया। भीमसेनने सात हजार योद्धाओंको यमलोकका दर्शन कराया॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नकुलश्चापि सप्तैव शतानि प्राहिणोच्छरैः।
शतानि त्रीणि शूराणां सहदेवः प्रतापवान् ॥ ३४ ॥
युधिष्ठिरसमादिष्टो निजघ्ने पुरुषर्षभः ।

मूलम्

नकुलश्चापि सप्तैव शतानि प्राहिणोच्छरैः।
शतानि त्रीणि शूराणां सहदेवः प्रतापवान् ॥ ३४ ॥
युधिष्ठिरसमादिष्टो निजघ्ने पुरुषर्षभः ।

अनुवाद (हिन्दी)

नकुलने अपने बाणोंसे सात सौ सैनिकोंको यमराजके घर भेज दिया तथा पुरुषोंमें श्रेष्ठ प्रतापी वीर सहदेवने युधिष्ठिरकी आज्ञासे तीन सौ शूरवीरोंका संहार कर डाला॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽभ्यपतदत्युग्रः सुशर्माणमुदायुधः ॥ ३५ ॥
हत्वा तां महतीं सेनां त्रिगर्तानां महारथः।

मूलम्

ततोऽभ्यपतदत्युग्रः सुशर्माणमुदायुधः ॥ ३५ ॥
हत्वा तां महतीं सेनां त्रिगर्तानां महारथः।

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर महारथी सहदेव त्रिगर्तोंकी उस महासेनाका संहार करके अत्यन्त उग्र रूप धारण किये हाथमें धनुष ले सुशर्मापर चढ़ आये॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो युधिष्ठिरो राजा त्वरमाणो महारथः ॥ ३६ ॥
अभिपत्य सुशर्माणं शरैरभ्याहनद् भृशम्।

मूलम्

ततो युधिष्ठिरो राजा त्वरमाणो महारथः ॥ ३६ ॥
अभिपत्य सुशर्माणं शरैरभ्याहनद् भृशम्।

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् महारथी राजा युधिष्ठिर भी बड़ी उतावलीके साथ सुशर्मापर धावा बोलकर उसे बाणोंद्वारा बारंबार बींधने लगे॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुशर्मापि सुसंरब्धस्त्वरमाणो युधिष्ठिरम् ॥ ३७ ॥
अविध्यन्नवभिर्बाणैश्चतुर्भिश्चतुरो हयान् ।

मूलम्

सुशर्मापि सुसंरब्धस्त्वरमाणो युधिष्ठिरम् ॥ ३७ ॥
अविध्यन्नवभिर्बाणैश्चतुर्भिश्चतुरो हयान् ।

अनुवाद (हिन्दी)

तब सुशर्माने भी अत्यन्त कुपित हो बड़ी फुर्तीके साथ नौ बाणोंसे राजा युधिष्ठिरको और चार बाणोंसे उनके चारों घोड़ोंको बींध डाला॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो राजन्नाशुकारी कुन्तीपुत्रो वृकोदरः ॥ ३८ ॥
समासाद्य सुशर्माणमश्वानस्य व्यपोथयत् ।
पृष्ठगोपांश्च तस्याथ हत्वा परमसायकैः ॥ ३९ ॥
अथास्य सारथिं क्रुद्धो रथोपस्थादपातयत्।

मूलम्

ततो राजन्नाशुकारी कुन्तीपुत्रो वृकोदरः ॥ ३८ ॥
समासाद्य सुशर्माणमश्वानस्य व्यपोथयत् ।
पृष्ठगोपांश्च तस्याथ हत्वा परमसायकैः ॥ ३९ ॥
अथास्य सारथिं क्रुद्धो रथोपस्थादपातयत्।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! फिर तो शीघ्रता करनेवाले कुन्तीपुत्र भीमने सुशर्माके पास पहुँचकर उत्तम बाणोंसे उसके घोड़ोंको मार डाला। साथ ही उसके पृष्ठरक्षकोंको भी मारकर कुपित हो उसके सारथिको भी रथसे नीचे गिरा दिया॥३८-३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चक्ररक्षश्च शूरो वै मदिराक्षोऽतिविश्रुतः ॥ ४० ॥
समायाद् विरथं दृष्ट्‌वा त्रिगर्तं प्राहरत् तदा।

मूलम्

चक्ररक्षश्च शूरो वै मदिराक्षोऽतिविश्रुतः ॥ ४० ॥
समायाद् विरथं दृष्ट्‌वा त्रिगर्तं प्राहरत् तदा।

अनुवाद (हिन्दी)

सुशर्माको रथहीन हुआ देखकर राजा विराटके चक्ररक्षक सुप्रसिद्ध वीर मदिराक्ष भी वहाँ आ पहुँचे और त्रिगर्तनरेशपर बाणोंसे प्रहार करने लगे॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो विराटः प्रस्कन्द्य रथादथ सुशर्मणः ॥ ४१ ॥
गदां तस्य परामृश्य तमेवाभ्यद्रवद् बली।
स चचार गदापाणिर्वृद्धोऽपि तरुणो यथा ॥ ४२ ॥

मूलम्

ततो विराटः प्रस्कन्द्य रथादथ सुशर्मणः ॥ ४१ ॥
गदां तस्य परामृश्य तमेवाभ्यद्रवद् बली।
स चचार गदापाणिर्वृद्धोऽपि तरुणो यथा ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी बीचमें बलवान् राजा विराट सुशर्माके रथसे कूद पड़े और उसकी गदा लेकर उसीकी ओर दौड़े। उस समय हाथमें गदा लिये राजा विराट बूढ़े होनेपर भी तरुणके समान रणभूमिमें विचर रहे थे॥४१-४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पलायमानं त्रैगर्तं दृष्ट्‌वा भीमोऽभ्याभाषत।
राजपुत्र निवर्तस्व न ते युक्तं पलायनम् ॥ ४३ ॥

मूलम्

पलायमानं त्रैगर्तं दृष्ट्‌वा भीमोऽभ्याभाषत।
राजपुत्र निवर्तस्व न ते युक्तं पलायनम् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी बीचमें मौका पाकर त्रिगर्तराज भागने लगा। उसे पलायन करते देख भीमसेन बोले—‘राजकुमार! लौट आओ। तुम्हारा युद्धसे पीठ दिखाकर भागना उचित नहीं है॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनेन वीर्येण कथं गास्त्वं प्रार्थयसे बलात्।
कथं चानुचरांस्त्यक्त्वा शत्रुमध्ये विषीदसि ॥ ४४ ॥

मूलम्

अनेन वीर्येण कथं गास्त्वं प्रार्थयसे बलात्।
कथं चानुचरांस्त्यक्त्वा शत्रुमध्ये विषीदसि ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसी पराक्रमके भरोसे तुम विराटकी गौओंको बलपूर्वक कैसे ले जाना चाहते थे? अपने सेवकोंको शत्रुओंके बीचमें छोड़कर क्यों भागते और विषाद करते हो?’॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तः स तु पार्थेन सुशर्मा रथयूथपः।
तिष्ठ तिष्ठेति भीमं स सहसाऽभ्यद्रवद् बली ॥ ४५ ॥
भीमस्तु भीमसंकाशो रथात् प्रस्कन्द्य पाण्डवः।
प्राद्रवत् तूर्णमव्यग्रो जीवितेप्सुः सुशर्मणः ॥ ४६ ॥

मूलम्

इत्युक्तः स तु पार्थेन सुशर्मा रथयूथपः।
तिष्ठ तिष्ठेति भीमं स सहसाऽभ्यद्रवद् बली ॥ ४५ ॥
भीमस्तु भीमसंकाशो रथात् प्रस्कन्द्य पाण्डवः।
प्राद्रवत् तूर्णमव्यग्रो जीवितेप्सुः सुशर्मणः ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेनके ऐसा कहनेपर रथियोंके यूथका अधिपति बलवान् सुशर्मा ‘खड़ा रह, खड़ा रह’, ऐसा कहते हुए सहसा भीमसेनपर टूट पड़ा। परंतु पाण्डुनन्दन भीम तो भीम-जैसे ही थे; वे तनिक भी व्यग्र नहीं हुए; अपितु रथसे कूदकर सुशर्माके प्राण लेनेके लिये बड़े वेगसे उसकी ओर दौड़े॥४५-४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं भीमसेनो धावन्तमभ्यधावत वीर्यवान्।
त्रिगर्तराजमादातुं सिंहः क्षुद्रमृगं यथा ॥ ४७ ॥

मूलम्

तं भीमसेनो धावन्तमभ्यधावत वीर्यवान्।
त्रिगर्तराजमादातुं सिंहः क्षुद्रमृगं यथा ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब सुशर्मा फिर भाग चला और पराक्रमी भीमसेन त्रिगर्तराजको पकड़नेके लिये उसी प्रकार उसका पीछा करने लगे, जैसे सिंह छोटे मृगोंको पकड़नेके लिये जाता है॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिद्रुत्य सुशर्माणं केशपक्षे परामृशत्।
समुद्यम्य तु रोषात् तं निष्पिपेष महीतले ॥ ४८ ॥

मूलम्

अभिद्रुत्य सुशर्माणं केशपक्षे परामृशत्।
समुद्यम्य तु रोषात् तं निष्पिपेष महीतले ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुशर्माके पास पहुँचकर भीमने उसके केश पकड़ लिये और क्रोधपूर्वक उसे उठाकर पृथ्वीपर दे मारा। तत्पश्चात् उसे वहीं रगड़ने लगे॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पदा मूर्ध्नि महाबाहुः प्राहरद् विलपिष्यतः।
तस्य जानुं ददौ भीमो जघ्ने चैनमरत्निना।
स मोहमगमद् राजा प्रहारवरपीडितः ॥ ४९ ॥

मूलम्

पदा मूर्ध्नि महाबाहुः प्राहरद् विलपिष्यतः।
तस्य जानुं ददौ भीमो जघ्ने चैनमरत्निना।
स मोहमगमद् राजा प्रहारवरपीडितः ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इससे सुशर्मा विलाप करने लगा। उस समय भीमने उसके मस्तकपर लात मारी और उसके पेटको घुटनोंसे दबाकर ऐसा घूँसा मारा कि उसके भारी आघातसे पीड़ित होकर राजा सुशर्मा मूर्च्छित हो गया॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् गृहीते विरथे त्रिगर्तानां महारथे।
अभज्यत बलं सर्वं त्रैगर्तं तद् भयातुरम् ॥ ५० ॥

मूलम्

तस्मिन् गृहीते विरथे त्रिगर्तानां महारथे।
अभज्यत बलं सर्वं त्रैगर्तं तद् भयातुरम् ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

त्रिगर्तोंका महारथी वीर सुशर्मा जब रथहीन होकर कैद कर लिया गया, तब वह सारी त्रिगर्तसेना भयसे व्याकुल हो तितर-बितर हो गयी॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवर्त्य गास्ततः सर्वाः पाण्डुपुत्रा महारथाः।
अवजित्य सुशर्माणं धनं चादाय सर्वशः ॥ ५१ ॥

मूलम्

निवर्त्य गास्ततः सर्वाः पाण्डुपुत्रा महारथाः।
अवजित्य सुशर्माणं धनं चादाय सर्वशः ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर पाण्डुके महारथी पुत्र सुशर्माको परास्त करनेके पश्चात् सब गौओंको लौटाकर और लूटका सारा धन वापस लेकर चले॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वबाहुबलसम्पन्ना ह्रीनिषेवा यतव्रताः ।
विराटस्य महात्मानः परिक्लेशविनाशनाः ॥ ५२ ॥

मूलम्

स्वबाहुबलसम्पन्ना ह्रीनिषेवा यतव्रताः ।
विराटस्य महात्मानः परिक्लेशविनाशनाः ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सभी अपने बाहुबलसे सम्पन्न, लज्जाशील, संयमपूर्वक व्रतपालनमें तत्पर, महात्मा तथा विराटका सारा क्लेश दूर करनेवाले थे॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्थिताः समक्षं ते सर्वे त्वथ भीमोऽभ्यभाषत ॥ ५३ ॥
नायं पापसमाचारो मत्तो जीवितुमर्हति।
किं तु शक्यं मया कर्तुं यद् राजा सततं घृणी॥५४॥

मूलम्

स्थिताः समक्षं ते सर्वे त्वथ भीमोऽभ्यभाषत ॥ ५३ ॥
नायं पापसमाचारो मत्तो जीवितुमर्हति।
किं तु शक्यं मया कर्तुं यद् राजा सततं घृणी॥५४॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब वे सब राजाके सामने आकर खड़े हुए, तब भीमसेन बोले—‘यह पापाचारी सुशर्मा मेरे हाथसे छूटकर जीवित रहनेयोग्य तो नहीं है; परंतु मैं कर ही क्या सकता हूँ? हमारे महाराज सदाके दयालु हैं’॥५३-५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गले गृहीत्वा राजानमानीय विवशं वशम्।
तत एनं विचेष्टन्तं बद्‌ध्वा पार्थो वृकोदरः ॥ ५५ ॥
रथमारोपयामास विसंज्ञं पांसुगुण्ठितम् ।

मूलम्

गले गृहीत्वा राजानमानीय विवशं वशम्।
तत एनं विचेष्टन्तं बद्‌ध्वा पार्थो वृकोदरः ॥ ५५ ॥
रथमारोपयामास विसंज्ञं पांसुगुण्ठितम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद भीम राजा सुशर्माका गला पकड़कर ले आये। उस समय वह लाचार होकर उनके वशमें पड़ा था और छूटनेके लिये छटपटा रहा था। कुन्तीपुत्र भीमने सुशर्माको रस्सियोंसे बाँधकर रथपर रख दिया। उसके सारे अंग धूलमें सने थे और चेतना लुप्त-सी हो रही थी॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभ्येत्य रणमध्यस्थमभ्यगच्छद् युधिष्ठिरम् ॥ ५६ ॥
दर्शयामास भीमस्तु सुशर्माणं नराधिपम्।

मूलम्

अभ्येत्य रणमध्यस्थमभ्यगच्छद् युधिष्ठिरम् ॥ ५६ ॥
दर्शयामास भीमस्तु सुशर्माणं नराधिपम्।

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद भीमने रणभूमिमें स्थित राजा युधिष्ठिरके पास जाकर उन्हें राजा सुशर्माको दिखलाया॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रोवाच पुरुषव्याघ्रो भीममाहवशोभिनम् ॥ ५७ ॥
तं राजा प्राहसद् दृष्ट्‌वा मुच्यतां वै नराधमः।
एवमुक्तोऽब्रवीद् भीमः सुशर्माणं महाबलम् ॥ ५८ ॥

मूलम्

प्रोवाच पुरुषव्याघ्रो भीममाहवशोभिनम् ॥ ५७ ॥
तं राजा प्राहसद् दृष्ट्‌वा मुच्यतां वै नराधमः।
एवमुक्तोऽब्रवीद् भीमः सुशर्माणं महाबलम् ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीम युद्धमें अत्यन्त सुशोभित होते थे। पुरुष-श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर सुशर्माको उस दशामें देखकर हँसे और भीमसेनसे बोले—‘इस नराधमको छोड़ दो।’ उनके ऐसा कहनेपर भीम महाबली सुशर्मासे बोले॥५७-५८॥

मूलम् (वचनम्)

भीम उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीवितुं चेच्छसे मूढ हेतुं मे गदतः शृणु।
दासोऽस्मीति त्वया वाच्यं संसत्सु च सभासु च ॥ ५९ ॥

मूलम्

जीवितुं चेच्छसे मूढ हेतुं मे गदतः शृणु।
दासोऽस्मीति त्वया वाच्यं संसत्सु च सभासु च ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेनने कहा— मूर्ख! यदि तू जीवित रहना चाहता है, तो उसका उपाय बताता हूँ; मेरी बात सुन। तुझे संसदों और सभाओंमें जाकर सदा यही कहना होगा कि ‘मैं राजा विराटका दास हूँ’॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं ते जीवितं दद्यामेष युद्धजितो विधिः।
तमुवाच ततो ज्येष्ठो भ्राता सप्रणयं वचः ॥ ६० ॥

मूलम्

एवं ते जीवितं दद्यामेष युद्धजितो विधिः।
तमुवाच ततो ज्येष्ठो भ्राता सप्रणयं वचः ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा स्वीकार हो तो तुझे जीवन-दान दूँगा। युद्धमें जीतनेवाले पुरुषोंका यही नियम है। तब बड़े भ्राता युधिष्ठिरने भीमसे प्रेमपूर्वक कहा॥६०॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुञ्च मुञ्चाधमाचारं प्रमाणं यदि ते वयम्।
दासभावं गतो ह्येष विराटस्य महीपतेः।
अदासो गच्छ मुक्तोऽसि मैवं कार्षीः कदाचन ॥ ६१ ॥

मूलम्

मुञ्च मुञ्चाधमाचारं प्रमाणं यदि ते वयम्।
दासभावं गतो ह्येष विराटस्य महीपतेः।
अदासो गच्छ मुक्तोऽसि मैवं कार्षीः कदाचन ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब युधिष्ठिर बोले— भैया! यदि तुम मेरी बात मानते हो, तो इस पापाचारीको ‘छोड़ दो, छोड़ दो’। यह महाराज विराटका दास तो हो ही चुका है। (इसके बाद वे सुशर्मासे बोले—) ‘तुम दास नहीं रहे, जाओ, छोड़ दिये गये। फिर कभी ‘ऐसा काम न करना’॥६१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि गोहरणपर्वणि दक्षिणगोग्रहे त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत गोहरणपर्वमें दक्षिणदिशाकी गौओंका अपहरण करते समय सुशर्माके निग्रहसे सम्बन्ध रखनेवाला तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३३॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ६३ श्लोक हैं।)