०३२ मत्स्य - त्रिगर्तसेनानां युद्धः

भागसूचना

द्वात्रिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

मत्स्य तथा त्रिगर्तदेशीय सेनाओंका परस्पर युद्ध

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्याय नगराच्छूरा व्यूढानीकाः प्रहारिणः।
त्रिगर्तानस्पृशन् मत्स्याः सूर्ये परिणते सति ॥ १ ॥

मूलम्

निर्याय नगराच्छूरा व्यूढानीकाः प्रहारिणः।
त्रिगर्तानस्पृशन् मत्स्याः सूर्ये परिणते सति ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! नगरसे निकलकर प्रहार करनेमें कुशल वे मत्स्यदेशीय वीर योद्धा अपनी सेनाका व्यूह बनाकर चले और सूर्यके ढलते-ढलते उन्होंने त्रिगर्तोंको पकड़ लिया॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते त्रिगर्ताश्च मत्स्याश्च संरब्धा युद्धदुर्मदाः।
अन्योन्यमभिगर्जन्तो गोषु गृद्धा महाबलाः ॥ २ ॥

मूलम्

ते त्रिगर्ताश्च मत्स्याश्च संरब्धा युद्धदुर्मदाः।
अन्योन्यमभिगर्जन्तो गोषु गृद्धा महाबलाः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर तो क्रोधमें भरकर युद्धके लिये उन्मत्त हुए वे त्रिगर्त और मत्स्यदेशके महाबली वीर गौओंको ले जानेकी इच्छासे एक-दूसरेको लक्ष्य करके गर्जना करने लगे॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमाश्च मत्तमातङ्गास्तोमराङ्‌कुशनोदिताः ।
ग्रामणीयैः समारूढाः कुशलैर्हस्तिसादिभिः ॥ ३ ॥
तेषां समागमो घोरस्तुमुलो लोमहर्षणः।
घ्नतां परस्परं राजन् यमराष्ट्रविवर्धनः ॥ ४ ॥

मूलम्

भीमाश्च मत्तमातङ्गास्तोमराङ्‌कुशनोदिताः ।
ग्रामणीयैः समारूढाः कुशलैर्हस्तिसादिभिः ॥ ३ ॥
तेषां समागमो घोरस्तुमुलो लोमहर्षणः।
घ्नतां परस्परं राजन् यमराष्ट्रविवर्धनः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हाथियोंपर चढ़कर उन्हें चलानेमें कुशल श्रेष्ठ महावतोंद्वारा तोमरों और अंकुशोंकी मारसे आगे बढ़ाये हुए भयंकर और मतवाले गजराज दोनों ओरसे एक-दूसरेपर टूट पड़े। परस्पर शस्त्रोंका प्रहार करनेवाले हाथीसवारोंका वह कोलाहलपूर्ण भयंकर युद्ध रोंगटे खड़े कर देनेवाला एवं महासंहारकारी था॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवासुरसमो राजन्नासीत् सूर्येऽवलम्बति ।
पदातिरथनागेन्द्रहयारोहबलौघवान् ॥ ५ ॥

मूलम्

देवासुरसमो राजन्नासीत् सूर्येऽवलम्बति ।
पदातिरथनागेन्द्रहयारोहबलौघवान् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! सूर्य पश्चिमकी ओर ढल रहे थे। उस समय पैदल, रथी, हाथीसवार तथा घुड़सवारोंके समूहसे भरा हुआ वह युद्ध देवासुरसंग्रामके समान हो रहा था॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्योन्यमभ्यापततां निघ्नतां चेतरेतरम् ।
उदतिष्ठद् रजो भौमं न प्राज्ञायत किंचन ॥ ६ ॥

मूलम्

अन्योन्यमभ्यापततां निघ्नतां चेतरेतरम् ।
उदतिष्ठद् रजो भौमं न प्राज्ञायत किंचन ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक-दूसरेपर धावा बोलकर आपसमें मार-काट मचानेवाले उन सैनिकोंके पदाघातसे इतनी धूल उड़ी कि कुछ भी सूझ-बूझ नहीं पड़ता था॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पक्षिणश्चापतन् भूमौ सैन्येन रजसाऽऽवृताः।
इषुभिर्व्यतिसर्पद्‌भिरादित्योऽन्तरधीयत ॥ ७ ॥

मूलम्

पक्षिणश्चापतन् भूमौ सैन्येन रजसाऽऽवृताः।
इषुभिर्व्यतिसर्पद्‌भिरादित्योऽन्तरधीयत ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सेनाकी धूलसे आच्छादित होकर उड़ते हुए पक्षी भी भूमिपर गिर जाते थे। दोनों ओरसे छूटे हुए बाणोंद्वारा (आकाश खचाखच भर जानेके कारण) सूर्यदेवका दीखना बंद हो गया॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

खद्योतैरिव संयुक्तमन्तरिक्षं व्यराजत ।
रुक्मपृष्ठानि चापानि व्यतिषिक्तानि धन्विनाम् ॥ ८ ॥
पततां लोकवीराणां सव्यदक्षिणमस्यताम् ।
रथा रथैः समाजग्मुः पादातैश्च पदातयः ॥ ९ ॥

मूलम्

खद्योतैरिव संयुक्तमन्तरिक्षं व्यराजत ।
रुक्मपृष्ठानि चापानि व्यतिषिक्तानि धन्विनाम् ॥ ८ ॥
पततां लोकवीराणां सव्यदक्षिणमस्यताम् ।
रथा रथैः समाजग्मुः पादातैश्च पदातयः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बाणोंके कारण अन्तरिक्ष मानो जुगनुओंसे भर गया हो, इस प्रकार चकमक हो रहा था। दाँयें-बाँयें बाण मारनेवाले वे विश्वविख्यात धनुर्धर वीर जब घायल होकर गिरते थे, उस समय उनके सुवर्णकी पीठवाले धनुष दूसरोंके हाथमें चले जाते थे। रथी रथियोंसे और पैदल पैदलोंसे भिड़े हुए थे॥८-९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सादिनः सादिभिश्चैव गजैश्चापि महागजाः।
असिभिः पट्टिशैः प्रासैः शक्तिभिस्तोमरैरपि ॥ १० ॥
संरब्धाः समरे राजन् निजघ्नुरितरेतरम्।
निघ्नन्तः समरेऽन्योन्यं शूराः परिघबाहवः ॥ ११ ॥
न शेकुरभिसंरब्धाः शूरान् कर्तुं पराङ्‌मुखान्।

मूलम्

सादिनः सादिभिश्चैव गजैश्चापि महागजाः।
असिभिः पट्टिशैः प्रासैः शक्तिभिस्तोमरैरपि ॥ १० ॥
संरब्धाः समरे राजन् निजघ्नुरितरेतरम्।
निघ्नन्तः समरेऽन्योन्यं शूराः परिघबाहवः ॥ ११ ॥
न शेकुरभिसंरब्धाः शूरान् कर्तुं पराङ्‌मुखान्।

अनुवाद (हिन्दी)

घुड़सवार घुड़सवारोंसे और गजारोही गजारोहियोंसे लड़ रहे थे। राजन्! वे सब क्रोधमें भरकर उस युद्धमें एक-दूसरेपर तलवार, पट्टिश, प्रास, शक्ति और तोमर आदि अस्त्र-शस्त्रोंसे प्रहार कर रहे थे; किंतु परिघके समान प्रचण्ड भुजदण्डवाले वे शूरवीर परस्पर क्रोधपूर्वक प्रहार करनेपर भी सामना करनेवाले वीरोंको पीछे नहीं हटा पाते थे॥१०-११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृत्तोत्तरोष्ठं सुनसं कृत्तकेशमलंकृतम् ॥ १२ ॥
अदृश्यत शिरश्छिन्नं रजोध्वस्तं सकुण्डलम्।

मूलम्

कृत्तोत्तरोष्ठं सुनसं कृत्तकेशमलंकृतम् ॥ १२ ॥
अदृश्यत शिरश्छिन्नं रजोध्वस्तं सकुण्डलम्।

अनुवाद (हिन्दी)

बातकी बातमें, कुण्डलोंसहित कटे हुए कितने ही मस्तक धूलमें लोटने लगे। किसीकी नाक बड़ी सुन्दर थी, परन्तु ऊपरका ओठ कट गया था। कोई अलंकारोंसे अलंकृत था, किंतु उसका केशभाग कटकर उड़ गया था॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अदृश्यंस्तत्र गात्राणि शरैश्छिन्नानि भागशः ॥ १३ ॥
शालस्कन्धनिकाशानि क्षत्रियाणां महामृधे ।

मूलम्

अदृश्यंस्तत्र गात्राणि शरैश्छिन्नानि भागशः ॥ १३ ॥
शालस्कन्धनिकाशानि क्षत्रियाणां महामृधे ।

अनुवाद (हिन्दी)

उस महासंग्राममें बहुत-से क्षत्रिय वीरोंके शरीर, जो शालवृक्षकी शाखाओंके समान विशाल एवं हृष्ट-पुष्ट थे, छिन्न-भिन्न होकर टुकड़े-टुकड़े दिखायी देने लगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नागभोगनिकाशैश्च बाहुभिश्चन्दनोक्षितैः ॥ १४ ॥
आस्तीर्णा वसुधा भाति शिरोभिश्च सकुण्डलैः।

मूलम्

नागभोगनिकाशैश्च बाहुभिश्चन्दनोक्षितैः ॥ १४ ॥
आस्तीर्णा वसुधा भाति शिरोभिश्च सकुण्डलैः।

अनुवाद (हिन्दी)

सर्पोंके शरीरकी भाँति सुशोभित चन्दनचर्चित भुजाओं तथा कुण्डलमण्डित मस्तकोंसे पटी हुई रणभूमि अपूर्व शोभा धारण कर रही थी॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथिनां रथिभिश्चात्र सम्प्रहारोऽभ्यवर्तत ॥ १५ ॥
सादिभिः सादिनां चापि पदातीनां पदातिभिः।
उपाशाम्यद् रजो भौमं रुधिरेण प्रसर्पता ॥ १६ ॥

मूलम्

रथिनां रथिभिश्चात्र सम्प्रहारोऽभ्यवर्तत ॥ १५ ॥
सादिभिः सादिनां चापि पदातीनां पदातिभिः।
उपाशाम्यद् रजो भौमं रुधिरेण प्रसर्पता ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ रथियोंका रथियोंसे, घुड़सवारोंका घुड़सवारोंसे और पैदल योद्धाओंका पैदलोंसे घमासान युद्ध होने लगा। सब ओर रक्तकी धारा बह चली और उसमें सनकर धरतीकी धूल शान्त हो गयी॥१५-१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कश्मलं चाविशद् घोरं निर्मर्यादमवर्तत।

मूलम्

कश्मलं चाविशद् घोरं निर्मर्यादमवर्तत।

अनुवाद (हिन्दी)

युद्ध करनेवाले वीरोंको मूर्च्छा आने लगी। उनमें मर्यादाशून्य भयंकर युद्ध छिड़ गया॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(युधिष्ठिरोऽपि धर्मात्मा भ्रातृभिः सहितस्तदा।
व्यूहं कृत्वा विराटस्य अन्वयुध्यत पाण्डवः॥
आत्मानं श्येनवत्‌ कृत्वा तुण्डमासीद्‌ युधिष्ठिरः।
पक्षौ यमौ च भवतः पुच्छमासीद् वृकोदरः॥
सहस्रं न्यहनत् तत्र कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
भीमसेनः सुसंक्रुद्धः सर्वशस्त्रभृतां वरः॥
द्विसहस्रं रथान् वीरः परलोकं प्रवेशयत्।
नकुलस्त्रिशतं जघ्ने सहदेवश्चतुःशतम् ॥)

मूलम्

(युधिष्ठिरोऽपि धर्मात्मा भ्रातृभिः सहितस्तदा।
व्यूहं कृत्वा विराटस्य अन्वयुध्यत पाण्डवः॥
आत्मानं श्येनवत्‌ कृत्वा तुण्डमासीद्‌ युधिष्ठिरः।
पक्षौ यमौ च भवतः पुच्छमासीद् वृकोदरः॥
सहस्रं न्यहनत् तत्र कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
भीमसेनः सुसंक्रुद्धः सर्वशस्त्रभृतां वरः॥
द्विसहस्रं रथान् वीरः परलोकं प्रवेशयत्।
नकुलस्त्रिशतं जघ्ने सहदेवश्चतुःशतम् ॥)

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुनन्दन धर्मात्मा युधिष्ठिरने भी भाइयों-सहित व्यूह-रचना करके राजा विराटके लिये त्रिगर्तोंके साथ युद्ध आरम्भ किया। उन्होंने अपने-आपको श्येन (बाज) पक्षीके रूपमें उपस्थित करके उसकी चोंचका स्थान ग्रहण किया। नकुल और सहदेव दोनों पंखोंके रूपमें हो गये। भीमसेन पूँछके स्थानमें हुए। कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरने शत्रुओंके एक सहस्र सैनिकोंका संहार कर डाला। सम्पूर्ण शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ वीर भीमसेनने अत्यन्त कुपित हो दो हजार रथियोंको परलोक पहुँचा दिया। नकुलने तीन सौ और सहदेवने चार सौ सैनिकोंको मार डाला।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपाविशन् गरुत्मन्तः शरैर्गाढं प्रवेजिताः।
अन्तरिक्षे गतिर्येषां दर्शनं चाप्यरुध्यत ॥ १७ ॥

मूलम्

उपाविशन् गरुत्मन्तः शरैर्गाढं प्रवेजिताः।
अन्तरिक्षे गतिर्येषां दर्शनं चाप्यरुध्यत ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आकाशचारी पक्षी भी बाणसमूहोंसे अत्यन्त उद्विग्न होकर इधर-उधर बैठ गये। उनका आकाशमें उड़ना और दूरतक देखना भी बंद हो गया॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते घ्नन्तः समरेऽन्योन्यं शूराः परिघबाहवः।
न शेकुरभिसंरब्धाः शूरान् कर्तुं पराङ्‌मुखान् ॥ १८ ॥

मूलम्

ते घ्नन्तः समरेऽन्योन्यं शूराः परिघबाहवः।
न शेकुरभिसंरब्धाः शूरान् कर्तुं पराङ्‌मुखान् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परिघकी-सी मोटी बाँहोंवाले शूरमा कुपित हो एक-दूसरेपर घातक प्रहार करते हुए भी सच्चे शूरवीरोंको युद्धसे विमुख नहीं कर पाते थे॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शतानीकः शतं हत्वा विशालाक्षश्चतुःशतम्।
प्रविष्टौ महतीं सेनां त्रिगर्तानां महारथौ ॥ १९ ॥

मूलम्

शतानीकः शतं हत्वा विशालाक्षश्चतुःशतम्।
प्रविष्टौ महतीं सेनां त्रिगर्तानां महारथौ ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार युद्ध करते-करते शतानीक सौ तथा विशालाक्ष (मदिराक्ष) चार सौ त्रिगर्त योद्धाओंको मारकर उनकी भारी सेनामें घुस गये। वे दोनों महारथी थे॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तौ प्रविष्टौ महासेनां बलवन्तौ मनस्विनौ।
आर्च्छेतां बहुसंरब्धौ केशाकेशि रथारथिः ॥ २० ॥

मूलम्

तौ प्रविष्टौ महासेनां बलवन्तौ मनस्विनौ।
आर्च्छेतां बहुसंरब्धौ केशाकेशि रथारथिः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस विशाल सेनामें घुसे हुए और अत्यन्त क्रुद्ध हुए उन बलवान् एवं मनस्वी वीरोंने उस सारी सेनाको मोहित कर दिया। वे दोनों उन त्रिगर्त सैनिकोंसे एक दूसरेके केश पकड़-पकड़कर तथा रथोंपर बैठे हुए रथियोंको गिरा-गिराकर युद्ध करने लगे॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लक्षयित्वा त्रिगर्तानां तौ प्रविष्टौ रथव्रजम्।
अग्रतः सूर्यदत्तश्च मदिराक्षश्च पृष्ठतः ॥ २१ ॥

मूलम्

लक्षयित्वा त्रिगर्तानां तौ प्रविष्टौ रथव्रजम्।
अग्रतः सूर्यदत्तश्च मदिराक्षश्च पृष्ठतः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उन दोनोंने त्रिगर्तोंकी रथसेनाको लक्ष्य बनाकर उसमें प्रवेश किया। सूर्यदत्तने आगेकी ओरसे आक्रमण किया और मदिराक्षने पीछेकी ओरसे॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विराटस्तत्र संग्रामे हत्वा पञ्चशतान् रथान्।
हयानां च शतान्यष्टौ हत्वा पञ्च महारथान् ॥ २२ ॥
चरन् स विविधान् मार्गान् रथेन रथसत्तमः।
त्रिगर्तानां सुशर्माणमार्च्छद् रुक्मरथं रणे ॥ २३ ॥

मूलम्

विराटस्तत्र संग्रामे हत्वा पञ्चशतान् रथान्।
हयानां च शतान्यष्टौ हत्वा पञ्च महारथान् ॥ २२ ॥
चरन् स विविधान् मार्गान् रथेन रथसत्तमः।
त्रिगर्तानां सुशर्माणमार्च्छद् रुक्मरथं रणे ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रथियोंमें श्रेष्ठ राजा विराटने रथके द्वारा विविध मार्गोंसे चलते—अनेक प्रकारके रणकौशल दिखाते हुए उस युद्धमें त्रिगर्तोंके पाँच सौ रथी, आठ सौ घुड़सवार तथा पाँच महारथियोंको मार गिरानेके पश्चात् स्वर्णभूषित रथपर बैठे हुए सुशर्मापर धावा किया॥२२-२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तौ व्यवाहरतां तत्र महात्मानौ महाबलौ।
अन्योन्यमभिगर्जन्तौ गोष्ठेषु वृषभाविव ॥ २४ ॥

मूलम्

तौ व्यवाहरतां तत्र महात्मानौ महाबलौ।
अन्योन्यमभिगर्जन्तौ गोष्ठेषु वृषभाविव ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे दोनों महान् बलवान् और महामनस्वी वीर गर्जते हुए एक-दूसरेसे इस प्रकार जा भिड़े, मानो गोशालामें दो साँड़ लड़ रहे हों॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो राजा त्रिगर्तानां सुशर्मा युद्धदुर्मदः।
मत्स्यं समायाद् राजानं द्वैरथेन नरर्षभः ॥ २५ ॥

मूलम्

ततो राजा त्रिगर्तानां सुशर्मा युद्धदुर्मदः।
मत्स्यं समायाद् राजानं द्वैरथेन नरर्षभः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

त्रिगर्तराज सुशर्मापर युद्धका घोर उन्माद छाया हुआ था। उस नरश्रेष्ठ वीरने राजा विराटका द्वैरथयुद्धके द्वारा सामना किया॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो रथाभ्यां रथिनौ व्यतीयतुरमर्षणौ।
शरान् व्यसृजतां शीघ्रं तोयधारा घना इव ॥ २६ ॥

मूलम्

ततो रथाभ्यां रथिनौ व्यतीयतुरमर्षणौ।
शरान् व्यसृजतां शीघ्रं तोयधारा घना इव ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्रोधमें भरे हुए वे दोनों रथी अपना-अपना रथ बढ़ाकर निकट आ गये और शीघ्रतापूर्वक एक दूसरेपर बाणोंकी झड़ी लगाने लगे, मानो दो मेघ जलकी धाराएँ बरसा रहे हों॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्योन्यं चापि संरब्धौ विचेरतुरमर्षणौ।
कृतास्त्रौ निशितैर्बाणैरसिशक्तिगदाभृतौ ॥ २७ ॥

मूलम्

अन्योन्यं चापि संरब्धौ विचेरतुरमर्षणौ।
कृतास्त्रौ निशितैर्बाणैरसिशक्तिगदाभृतौ ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनोंका एक दूसरेके प्रति क्रोध और अमर्ष बढ़ा हुआ था। दोनों ही अस्त्रविद्यामें निपुण थे और दोनोंने ही तलवार, शक्ति तथा गदा भी ले रखी थी। उस समय दोनों तीखे बाणोंसे परस्पर प्रहार करते हुए रणभूमिमें विचरने लगे॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो राजा सुशर्माणं विव्याध दशभिः शरैः।
पञ्चभिः पञ्चभिश्चास्य विव्याध चतुरो हयान् ॥ २८ ॥

मूलम्

ततो राजा सुशर्माणं विव्याध दशभिः शरैः।
पञ्चभिः पञ्चभिश्चास्य विव्याध चतुरो हयान् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी समय राजा विराटने सुशर्माको दस बाणोंसे बींध डाला और पाँच-पाँच बाणोंसे उसके चारों घोड़ोंको भी घायल कर दिया॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव मत्स्यराजानं सुशर्मा युद्धदुर्मदः।
पञ्चाशता शितैर्बाणैर्विव्याध परमास्त्रवित् ॥ २९ ॥

मूलम्

तथैव मत्स्यराजानं सुशर्मा युद्धदुर्मदः।
पञ्चाशता शितैर्बाणैर्विव्याध परमास्त्रवित् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार महान् अस्त्रवेत्ता सुशर्माने भी रणोन्मत्त होकर पचास तीखे बाणोंसे मत्स्यराज विराटको बींध डाला॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सैन्यं महाराज मत्स्यराजसुशर्मणोः।
नाभ्यजानात् तदान्योन्यं सैन्येन रजसाऽऽवृतम् ॥ ३० ॥

मूलम्

ततः सैन्यं महाराज मत्स्यराजसुशर्मणोः।
नाभ्यजानात् तदान्योन्यं सैन्येन रजसाऽऽवृतम् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! तदनन्तर सैनिकोंके पैरोंसे इतनी धूल उड़ी कि मत्स्यनरेश तथा सुशर्मा दोनोंकी सेनाएँ उससे आच्छादित हो गयीं और एक-दूसरेके विषयमें यह भी न जान सकीं कि कौन कहाँ क्या कर रहा है?॥३०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि गोहरणपर्वणि दक्षिणगोग्रहे विराटसुशर्मयुद्धे द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत गोहरणपर्वमें दक्षिणदिशाकी गौओंके अपहरणके समय होनेवाले विराट और सुशर्माके युद्धके विषयमें बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३२॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ४ श्लोक मिलाकर कुल ३४ श्लोक हैं।)