भागसूचना
त्रिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
सुशर्माके प्रस्तावके अनुसार त्रिगर्तों और कौरवोंका मत्स्यदेशपर धावा
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ राजा त्रिगर्तानां सुशर्मा रथयूथपः।
प्राप्तकालमिदं वाक्यमुवाच त्वरितो बली ॥ १ ॥
मूलम्
अथ राजा त्रिगर्तानां सुशर्मा रथयूथपः।
प्राप्तकालमिदं वाक्यमुवाच त्वरितो बली ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर त्रिगर्तदेशके राजा महाबली सुशर्माने, जो रथियोंके समूहका अधिपति था, बड़ी उतावलीके साथ अपना यह समयोचित प्रस्ताव उपस्थित किया॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असकृन्निकृताः पूर्वं मत्स्यशाल्वेयकैः प्रभो।
सूतेनैव च मत्स्यस्य कीचकेन पुनः पुनः ॥ २ ॥
बाधितो बन्धुभिः सार्धं बलाद् बलवता विभो।
स कर्णमभ्युदीक्ष्याथ दुर्योधनमभाषत ॥ ३ ॥
मूलम्
असकृन्निकृताः पूर्वं मत्स्यशाल्वेयकैः प्रभो।
सूतेनैव च मत्स्यस्य कीचकेन पुनः पुनः ॥ २ ॥
बाधितो बन्धुभिः सार्धं बलाद् बलवता विभो।
स कर्णमभ्युदीक्ष्याथ दुर्योधनमभाषत ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने कर्णकी ओर देखकर दुर्योधनसे कहा—‘प्रभो! पहले मत्स्य तथा शाल्वदेशके सैनिकोंने अनेक बार चढ़ाई करके हमें कष्ट दिया है। मत्स्यराजके सेनापति महाबली सूतपुत्र कीचकने अपने बन्धुओंके साथ बार-बार आक्रमण करके मुझे बलपूर्वक सताया है॥२-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असकृन्मत्स्यराज्ञा मे राष्ट्रं बाधितमोजसा।
प्रणेता कीचकस्तस्य बलवानभवत् पुरा ॥ ४ ॥
मूलम्
असकृन्मत्स्यराज्ञा मे राष्ट्रं बाधितमोजसा।
प्रणेता कीचकस्तस्य बलवानभवत् पुरा ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मत्स्यनरेशने बहुत बार अपने बल-पराक्रमसे धावा करके मेरे समूचे राष्ट्रको क्लेश पहुँचाया है। पहले बलवान् कीचक ही उनका सेनानायक था॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रूरोऽमर्षी स दुष्टात्मा भुवि प्रख्यातविक्रमः।
निहतः स तु गन्धर्वैः पापकर्मा नृशंसवान् ॥ ५ ॥
मूलम्
क्रूरोऽमर्षी स दुष्टात्मा भुवि प्रख्यातविक्रमः।
निहतः स तु गन्धर्वैः पापकर्मा नृशंसवान् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वह दुष्टात्मा बहुत ही क्रूर और क्रोधी था। इस भूतलपर अपने पराक्रमके लिये उसकी सर्वत्र ख्याति थी। अब वह निर्दयी और पापाचारी कीचक गन्धर्वोंद्वारा मार डाला गया है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् विनिहते राजा हतदर्पो निराश्रयः।
भविष्यति निरुत्साहो विराट इति मे मतिः ॥ ६ ॥
मूलम्
तस्मिन् विनिहते राजा हतदर्पो निराश्रयः।
भविष्यति निरुत्साहो विराट इति मे मतिः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उसके मारे जानेसे राजा विराटका घमण्ड चूर-चूर हो गया होगा। अब वे निराधार एवं निरुत्साह हो गये होंगे, ऐसा मेरा विश्वास है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र यात्रा मम मता यदि ते रोचतेऽनघ।
कौरवाणां च सर्वेषां कर्णस्य च महात्मनः ॥ ७ ॥
मूलम्
तत्र यात्रा मम मता यदि ते रोचतेऽनघ।
कौरवाणां च सर्वेषां कर्णस्य च महात्मनः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अनघ! यदि आपको जचे, तो मेरी राय यह है कि समस्त कौरव वीरों और महामना कर्णका भी उस देशपर आक्रमण हो॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् प्राप्तमहं मन्ये कार्यमात्ययिकं हि नः।
राष्ट्रं तस्याभियास्यामो बहुधान्यसमाकुलम् ॥ ८ ॥
मूलम्
एतत् प्राप्तमहं मन्ये कार्यमात्ययिकं हि नः।
राष्ट्रं तस्याभियास्यामो बहुधान्यसमाकुलम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं समझता हूँ; इसके लिये उपयुक्त अवसर प्राप्त हुआ है। यह हमारे लिये अत्यन्त आवश्यक कार्य है। हम प्रचुर धन-धान्यसे सम्पन्न मत्स्यराष्ट्रपर चढ़ाई करें॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आददामोऽस्य रत्नानि विविधानि वसूनि च।
ग्रामान् राष्ट्राणि वा तस्य हरिष्यामो विभागशः ॥ ९ ॥
मूलम्
आददामोऽस्य रत्नानि विविधानि वसूनि च।
ग्रामान् राष्ट्राणि वा तस्य हरिष्यामो विभागशः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजा विराटके यहाँ नाना प्रकारके रत्न और धन हैं। हम वे सब ले लेंगे और उनके गाँव तथा सम्पूर्ण राष्ट्रको जीतकर आपसमें बाँट लेंगे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवा गोसहस्राणि शुभानि च बहूनि च।
विविधानि हरिष्यामः प्रतिपीड्य पुरं बलात् ॥ १० ॥
मूलम्
अथवा गोसहस्राणि शुभानि च बहूनि च।
विविधानि हरिष्यामः प्रतिपीड्य पुरं बलात् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अथवा उनके यहाँ सहस्रों सुन्दर गौओंके बहुत-से समुदाय हैं; अतः बलपूर्वक उनके नगरमें उत्पात मचाकर उन समस्त गौओंका अपहरण कर लेंगे॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कौरवैः सह संगत्य त्रिगर्तैश्च विशाम्पते।
गास्तस्यापहरामोऽद्य सर्वैश्चैव सुसंहताः ॥ ११ ॥
मूलम्
कौरवैः सह संगत्य त्रिगर्तैश्च विशाम्पते।
गास्तस्यापहरामोऽद्य सर्वैश्चैव सुसंहताः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज! कौरवोंके साथ संगठित त्रिगर्तदेशीय सैनिकोंकी सहायतासे हम सब मिलकर विराटकी गौओंको हर लेंगे॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संविभागेन कृत्वा तु निबध्नीमोऽस्य पौरुषम्।
हत्वा चास्य चमूं कृत्स्नां वशमेवानयामहे ॥ १२ ॥
मूलम्
संविभागेन कृत्वा तु निबध्नीमोऽस्य पौरुषम्।
हत्वा चास्य चमूं कृत्स्नां वशमेवानयामहे ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘और हम आपसमें विभाजन करके उन्हें अपने यहाँ बाँध लेंगे। साथ ही मत्स्यराजके सामर्थ्यको नष्ट करके उसकी सारी सेनाको अपने अधीन कर लेंगे॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं वशे न्यायतः कृत्वा सुखं वत्स्यामहे वयम्।
भवतां बलवृद्धिश्च भविष्यति न संशयः ॥ १३ ॥
मूलम्
तं वशे न्यायतः कृत्वा सुखं वत्स्यामहे वयम्।
भवतां बलवृद्धिश्च भविष्यति न संशयः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘विराटको नीतिसे वशमें करके हम सुखसे रहेंगे। इससे आपलोगोंकी सेना और शक्तिकी वृद्धि भी होगी; इसमें संशय नहीं है’॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य कर्णो राजानमब्रवीत्।
सूक्तं सुशर्मणा वाक्यं प्राप्तकालं हितं च नः ॥ १४ ॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य कर्णो राजानमब्रवीत्।
सूक्तं सुशर्मणा वाक्यं प्राप्तकालं हितं च नः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
त्रिगर्तराजका यह कथन सुनकर कर्णने राजा दुर्योधनसे कहा—‘सुशर्माने ठीक कहा है; यह समयोचित होनेके साथ ही हमारे लिये हितकर भी है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् क्षिप्रं विनिर्यामो योजयित्वा वरूथिनीम्।
विभज्य चाप्यनीकानि यथा वा मन्यसेऽनघ ॥ १५ ॥
मूलम्
तस्मात् क्षिप्रं विनिर्यामो योजयित्वा वरूथिनीम्।
विभज्य चाप्यनीकानि यथा वा मन्यसेऽनघ ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इसलिये सेनाको सुसज्जित करके उसे कई टुकड़ियोंमें बाँटकर हमलोग शीघ्र यहाँसे कूच कर देंगे। अथवा अनघ! आपको जैसा ठीक लगे, वैसा करें॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राज्ञो वा कुरुवृद्धोऽयं सर्वेषां नः पितामहः॥
आचार्यश्च यथा द्रोणः कृपः शारद्वतस्तथा।
मन्यन्ते ते यथा सर्वे तथा यात्रा विधीयताम् ॥ १६ ॥
मूलम्
प्राज्ञो वा कुरुवृद्धोऽयं सर्वेषां नः पितामहः॥
आचार्यश्च यथा द्रोणः कृपः शारद्वतस्तथा।
मन्यन्ते ते यथा सर्वे तथा यात्रा विधीयताम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अथवा कुरुकुलमें सबसे वृद्ध हमारे पितामह परम बुद्धिमान् भीष्म, आचार्य द्रोण तथा शरद्वान्के पुत्र कृपाचार्य—ये लोग जैसे ठीक समझें, वैसे ही यात्रा करनी चाहिये॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्मन्त्र्य चाशु गच्छामः साधनार्थं महीपतेः।
किं च नः पाण्डवैः कार्यं हीनार्थबलपौरुषैः ॥ १७ ॥
मूलम्
सम्मन्त्र्य चाशु गच्छामः साधनार्थं महीपतेः।
किं च नः पाण्डवैः कार्यं हीनार्थबलपौरुषैः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आपसमें अच्छी तरह सलाह करके हमें राजा विराटको वशमें करनेके लिये शीघ्र प्रस्थान कर देना चाहिये। पाण्डवलोग धन, बल तथा पौरुष तीनोंसे हीन हैं, अतः उनसे हमें क्या काम है?॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्यन्तं वा प्रणष्टास्ते प्राप्ता वापि यमक्षयम्।
यामो राजन् निरुद्विग्ना विराटनगरं वयम्।
आदास्यामो हि गास्तस्य विविधानि वसूनि च ॥ १८ ॥
मूलम्
अत्यन्तं वा प्रणष्टास्ते प्राप्ता वापि यमक्षयम्।
यामो राजन् निरुद्विग्ना विराटनगरं वयम्।
आदास्यामो हि गास्तस्य विविधानि वसूनि च ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! वे अत्यन्त अदृश्य (छिपे हुए) हों या यमराज-के घर पहुँच गये हों, हमें तो उद्वेगशून्य होकर विराटनगरकी यात्रा करनी चाहिये। वहाँ हमलोग विराटकी गौओंको तथा उनके विविध धन-रत्नोंको हस्तगत कर लेंगे’॥१८॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दुर्योधनो राजा वाक्यमादाय तस्य तत्।
वैकर्तनस्य कर्णस्य क्षिप्रमाज्ञापयत् स्वयम् ॥ १९ ॥
शासने नित्यसंयुक्तं दुःशासनमनन्तरम् ।
सह वृद्धैस्तु सम्मन्त्र्य क्षिप्रं योजय वाहिनीम् ॥ २० ॥
मूलम्
ततो दुर्योधनो राजा वाक्यमादाय तस्य तत्।
वैकर्तनस्य कर्णस्य क्षिप्रमाज्ञापयत् स्वयम् ॥ १९ ॥
शासने नित्यसंयुक्तं दुःशासनमनन्तरम् ।
सह वृद्धैस्तु सम्मन्त्र्य क्षिप्रं योजय वाहिनीम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! राजा दुर्योधनने सूर्यपुत्र कर्णकी बात मानकर अपनी आज्ञाका पालन करनेके लिये सदा संनद्ध रहनेवाले छोटे भाई दुःशासनको स्वयं ही तुरंत आदेश दे दिया—‘वृद्धजनोंकी सम्मति लेकर शीघ्र अपनी सेनाको प्रस्थानके लिये तैयार करो॥१९-२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथोद्देशं च गच्छामः सहितास्तत्र कौरवैः।
सुशर्मा च यथोद्दिष्टं देशं यातु महारथः।
त्रिगर्तैः सहितो राजा समग्रबलवाहनः ॥ २१ ॥
मूलम्
यथोद्देशं च गच्छामः सहितास्तत्र कौरवैः।
सुशर्मा च यथोद्दिष्टं देशं यातु महारथः।
त्रिगर्तैः सहितो राजा समग्रबलवाहनः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिधरसे आक्रमणका निश्चय हो, उसी ओर हम कौरव-सैनिकोंके साथ चलें। महारथी सुशर्मा भी त्रिगर्तोंके साथ निश्चित दिशाकी ओर जायँ और अपने समस्त बल (सेना) एवं वाहनोंको साथ ले लें॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रागेव हि सुसंवीतो मत्स्यस्य विषयं प्रति।
जघन्यतो वयं तत्र यास्यामो दिवसान्तरे।
विषयं मत्स्यराजस्य सुसमृद्धं सुसंहताः ॥ २२ ॥
मूलम्
प्रागेव हि सुसंवीतो मत्स्यस्य विषयं प्रति।
जघन्यतो वयं तत्र यास्यामो दिवसान्तरे।
विषयं मत्स्यराजस्य सुसमृद्धं सुसंहताः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सब साधनोंसे सम्पन्न हो सुशर्मा पहले मत्स्यदेशपर आक्रमण करें। फिर पीछेसे एक दिन बाद हमलोग भी पूर्णतः संगठित हो मत्स्यनरेशके समृद्धिशाली राज्यपर धावा बोल देंगे॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये यान्तु सहितास्तत्र विराटनगरं प्रति।
क्षिप्रं गोपान् समासाद्य गृह्णन्तु विपुलं धनम् ॥ २३ ॥
मूलम्
ये यान्तु सहितास्तत्र विराटनगरं प्रति।
क्षिप्रं गोपान् समासाद्य गृह्णन्तु विपुलं धनम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘त्रिगर्त-सैनिक एक साथ मिलकर तुरंत विराट-नगरपर चढ़ाई करें और पहले ग्वालोंके पास पहुँचकर वहाँके बढ़े हुए गोधनपर अधिकार कर लें॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गवां शतसहस्राणि श्रीमन्ति गुणवन्ति च।
वयमप्यनुगृह्णीमो द्विधा कृत्वा वरूथिनीम् ॥ २४ ॥
मूलम्
गवां शतसहस्राणि श्रीमन्ति गुणवन्ति च।
वयमप्यनुगृह्णीमो द्विधा कृत्वा वरूथिनीम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘फिर हमलोग अपनी सेनाको दो टुकड़ोंमें बाँटकर उनकी लाखों सुन्दर तथा गुणवती गौओंका अपहरण करेंगे’॥२४॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते स्म गत्वा यथोद्दिष्टां दिशं वह्नेर्महीपते।
संनद्धा रथिनः सर्वे सपदाता बलोत्कटाः ॥ २५ ॥
प्रति वैरं चिकीर्षन्तो गोषु गृद्धा महाबलाः।
आदातुं गाः सुशर्माथ कृष्णपक्षस्य सप्तमीम् ॥ २६ ॥
मूलम्
ते स्म गत्वा यथोद्दिष्टां दिशं वह्नेर्महीपते।
संनद्धा रथिनः सर्वे सपदाता बलोत्कटाः ॥ २५ ॥
प्रति वैरं चिकीर्षन्तो गोषु गृद्धा महाबलाः।
आदातुं गाः सुशर्माथ कृष्णपक्षस्य सप्तमीम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— महाराज! तदनन्तर पूर्व वैरका बदला लेनेकी इच्छावाले त्रिगर्तदेशीय रथी और पैदल सैनिक कवच आदि धारण करके तैयार हो गये। वे सभी महान् बलवान् और प्रचण्ड पराक्रमी थे। सुशर्माने विराटकी गौओंका अपहरण करनेके लिये पूर्वनिश्चित योजनाके अनुसार कृष्णपक्षकी सप्तमीको अग्निकोणकी ओरसे विराटनगरपर चढ़ाई की॥२५-२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपरे दिवसे सर्वे राजन् सम्भूय कौरवाः।
अष्टम्यां ते न्यगृह्णन्त गोकुलानि सहस्रशः ॥ २७ ॥
मूलम्
अपरे दिवसे सर्वे राजन् सम्भूय कौरवाः।
अष्टम्यां ते न्यगृह्णन्त गोकुलानि सहस्रशः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! फिर दूसरे दिन अष्टमीको दूसरी ओरसे सब कौरवोंने मिलकर धावा किया और गौओंके सहस्रों झुंडोंपर अधिकार जमा लिया॥२७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि गोहरणपर्वणि दक्षिणगोग्रहे सुशर्माभियाने त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत गोहरणपर्वमें दक्षिणदिशाकी गौओंको ग्रहण करनेके लिये सुशर्मा आदिकी मत्स्यदेशपर चढ़ाईसे सम्बन्ध रखनेवाला तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३०॥