०२८ भीष्मेण पाण्डवान्वेषणे सम्मतिः

भागसूचना

अष्टाविंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

युधिष्ठिरकी महिमा कहते हुए भीष्मकी पाण्डवोंके अन्वेषणके विषयमें सम्मति

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शान्तनवो भीष्मो भरतानां पितामहः।
श्रुतवान् देशकालज्ञस्तत्त्वज्ञः सर्वधर्मवित् ॥ १ ॥
आचार्यवाक्योपरमे तद्वाक्यमभिसंदधत् ।
हितार्थं समुवाचैनां भारतीं भारतान् प्रति ॥ २ ॥

मूलम्

ततः शान्तनवो भीष्मो भरतानां पितामहः।
श्रुतवान् देशकालज्ञस्तत्त्वज्ञः सर्वधर्मवित् ॥ १ ॥
आचार्यवाक्योपरमे तद्वाक्यमभिसंदधत् ।
हितार्थं समुवाचैनां भारतीं भारतान् प्रति ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! इसके पश्चात् भरतवंशियोंके पितामह, देशकालके ज्ञाता, वेद-शास्त्रोंके विद्वान्, तत्त्वज्ञानी और सम्पूर्ण धर्मोंको जाननेवाले शान्तनुनन्दन भीष्मजीने आचार्य द्रोणकी बात पूरी होनेपर कौरवोंके हितके लिये आचार्यके कथनसे मेल खाती हुई यह बात कौरवोंसे कही॥१-२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युधिष्ठिरे समासक्तां धर्मज्ञे धर्मसंवृताम्।
असत्सु दुर्लभां नित्यं सतां चाभिमतां सदा ॥ ३ ॥

मूलम्

युधिष्ठिरे समासक्तां धर्मज्ञे धर्मसंवृताम्।
असत्सु दुर्लभां नित्यं सतां चाभिमतां सदा ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनकी वह बात धर्मज्ञ युधिष्ठिरसे सम्बन्ध रखनेवाली तथा धर्मसे युक्त थी। वह दुष्ट पुरुषोंके लिये सदा दुर्लभ और सत्पुरुषोंको सदैव प्रिय लगने-वाली थी॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीष्मः समवदत् तत्र गिरं साधुभिरर्चिताम्।
यश्चैष ब्राह्मणः प्राह द्रोणः सर्वार्थतत्त्ववित् ॥ ४ ॥

मूलम्

भीष्मः समवदत् तत्र गिरं साधुभिरर्चिताम्।
यश्चैष ब्राह्मणः प्राह द्रोणः सर्वार्थतत्त्ववित् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार भीष्मजीने वहाँ सत्पुरुषोंद्वारा प्रशंसित सम्यक् वचन कहा—‘सब विषयोंके तत्त्वज्ञ तथा विप्रवर आचार्य द्रोणने जैसा कहा है, वह ठीक है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वलक्षणसम्पन्नाः साधुव्रतसमन्विताः ।
श्रुतव्रतोपपन्नाश्च नानाश्रुतिसमन्विताः ॥ ५ ॥
वृद्धानुशासने युक्ताः सत्यव्रतपरायणाः ।
समयं समयज्ञास्ते पालयन्तः शुचिव्रताः ॥ ६ ॥

मूलम्

सर्वलक्षणसम्पन्नाः साधुव्रतसमन्विताः ।
श्रुतव्रतोपपन्नाश्च नानाश्रुतिसमन्विताः ॥ ५ ॥
वृद्धानुशासने युक्ताः सत्यव्रतपरायणाः ।
समयं समयज्ञास्ते पालयन्तः शुचिव्रताः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वास्तवमें पाण्डव समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न, साधु-पुरुषोचित नियमों एवं व्रतके पालनमें तत्पर, वेदोक्त व्रतके पालक, नाना प्रकारकी श्रुतियोंके ज्ञाता, बड़े-बूढ़ोंके उपदेश और आदेशके पालनमें संलग्न, सत्यव्रतपरायण तथा शुद्ध व्रत धारण करनेवाले हैं। वे अज्ञातवासके नियत समयको जानते हैं, इसीलिये उसका पालन कर रहे हैं॥५-६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षत्रधर्मरता नित्यं केशवानुगताः सदा।
प्रवीरपुरुषास्ते वै महात्मानो महाबलाः।
नावसीदितुमर्हन्ति उद्वहन्तः सतां धरम् ॥ ७ ॥

मूलम्

क्षत्रधर्मरता नित्यं केशवानुगताः सदा।
प्रवीरपुरुषास्ते वै महात्मानो महाबलाः।
नावसीदितुमर्हन्ति उद्वहन्तः सतां धरम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पाण्डव क्षत्रिय-धर्ममें नित्य अनुरक्त रहकर सदा भगवान् श्रीकृष्णका अनुगमन करनेवाले हैं। वे उत्तम वीर पुरुष, महात्मा, महाबलवान् तथा साधु पुरुषोंके लिये उचित कर्तव्यका भार वहन कर रहे हैं; अतः वे कष्ट भोगने या नष्ट होने योग्य नहीं हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मतश्चैव गुप्तास्ते सुवीर्येण च पाण्डवाः।
न नाशमधिगच्छेयुरिति मे धीयते मतिः ॥ ८ ॥

मूलम्

धर्मतश्चैव गुप्तास्ते सुवीर्येण च पाण्डवाः।
न नाशमधिगच्छेयुरिति मे धीयते मतिः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पाण्डव अपने धर्म तथा उत्तम पराक्रमसे सुरक्षित हैं। अतः वे नष्ट नहीं हो सकते, यह मेरा निश्चित विचार है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र बुद्धिं प्रवक्ष्यामि पाण्डवान् प्रति भारत।
न तु नीतिः सुनीतस्य शक्यतेऽन्वेषितुं परैः ॥ ९ ॥

मूलम्

तत्र बुद्धिं प्रवक्ष्यामि पाण्डवान् प्रति भारत।
न तु नीतिः सुनीतस्य शक्यतेऽन्वेषितुं परैः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतनन्दन! पाण्डवोंके विषयमें मेरी बुद्धिका जो निश्चय है, उसे बताता हूँ। जो उत्तम नीतिसे सम्पन्न है, उसकी उस नीतिका अनुसंधान दूसरे (अनीतिपरायण) मनुष्य नहीं कर सकते॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्‌ तु शक्यमिहास्माभिस्तान्‌ वै संचिन्त्य पाण्डवान्।
बुद्ध्या प्रयुक्तं न द्रोहात् प्रवक्ष्यामि निबोध तत् ॥ १० ॥

मूलम्

यत्‌ तु शक्यमिहास्माभिस्तान्‌ वै संचिन्त्य पाण्डवान्।
बुद्ध्या प्रयुक्तं न द्रोहात् प्रवक्ष्यामि निबोध तत् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पाण्डवोंके सम्बन्धमें अपनी बुद्धिसे भलीभाँति सोच-विचारकर मुझे जो युक्तिसंगत जान पड़ा है, वही उपाय हम यहाँ कर सकते हैं। मैं उसे द्रोणके कारण नहीं, तुम्हारे भलेके लिये बताता हूँ; ध्यान देकर सुनो॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न त्वियं मादृशैर्नीतिस्तस्य वाच्या कथंचन।
सा त्वियं साधु वक्तव्या न त्वनीतिः कथंचन ॥ ११ ॥

मूलम्

न त्वियं मादृशैर्नीतिस्तस्य वाच्या कथंचन।
सा त्वियं साधु वक्तव्या न त्वनीतिः कथंचन ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘युधिष्ठिरकी जो नीति है, उसकी मेरे-जैसे पुरुषोंको कभी निन्दा नहीं करनी चाहिये। उसे अच्छी नीति ही कहनी चाहिये, अनीति कहना किसी प्रकार ठीक नहीं है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृद्धानुशासने तात तिष्ठता सत्यशीलिना।
अवश्यं त्विह धीरेण सतां मध्ये विवक्षता ॥ १२ ॥
यथार्हमिह वक्तव्यं सर्वथा धर्मलिप्सया।

मूलम्

वृद्धानुशासने तात तिष्ठता सत्यशीलिना।
अवश्यं त्विह धीरेण सतां मध्ये विवक्षता ॥ १२ ॥
यथार्हमिह वक्तव्यं सर्वथा धर्मलिप्सया।

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! जो वृद्धपुरुषोंके अनुशासनमें रहनेवाला और सत्यपालक है, वह धीर पुरुष यदि साधुपुरुषोंके समाजमें कुछ कहना चाहता है, तो उसे यहाँ सर्वथा धर्म प्राप्त करनेकी इच्छासे यथार्थ एवं उचित बात ही कहनी चाहिये॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र नाहं तथा मन्ये यथायमितरो जनः ॥ १३ ॥
निवासं धर्मराजस्य वर्षेऽस्मिन् वै त्रयोदशे।

मूलम्

तत्र नाहं तथा मन्ये यथायमितरो जनः ॥ १३ ॥
निवासं धर्मराजस्य वर्षेऽस्मिन् वै त्रयोदशे।

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतः इस तेरहवें वर्षमें धर्मराज युधिष्ठिरके निवासके सम्बन्धमें दूसरे लोग जैसी धारणा रखते हैं, वैसा मैं नहीं मानता॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र तात न तेषां हि राज्ञां भाव्यमसाम्प्रतम् ॥ १४ ॥
पुरे जनपदे चापि यत्र राजा युधिष्ठिरः।
दानशीलो वदान्यश्च निभृतो ह्रीनिषेवकः।
जनो जनपदे भाव्यो यत्र राजा युधिष्ठिरः ॥ १५ ॥

मूलम्

तत्र तात न तेषां हि राज्ञां भाव्यमसाम्प्रतम् ॥ १४ ॥
पुरे जनपदे चापि यत्र राजा युधिष्ठिरः।
दानशीलो वदान्यश्च निभृतो ह्रीनिषेवकः।
जनो जनपदे भाव्यो यत्र राजा युधिष्ठिरः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! जिस नगर या राष्ट्रमें राजा युधिष्ठिर निवास करते होंगे, वहाँके राजाओंका अकल्याण नहीं हो सकता। जहाँ राजा युधिष्ठिर होंगे, उस जनपदके लोगोंको दानशील, उदार, विनयी और लज्जाशील होना चाहिये॥१४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रियवादी सदा दान्तो भव्यः सत्यपरो जनः।
हृष्टः पुष्टः शुचिर्दक्षो यत्र राजा युधिष्ठिरः ॥ १६ ॥

मूलम्

प्रियवादी सदा दान्तो भव्यः सत्यपरो जनः।
हृष्टः पुष्टः शुचिर्दक्षो यत्र राजा युधिष्ठिरः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जहाँ राजा युधिष्ठिर होंगे, वहाँके मनुष्य सदा प्रिय वचन बोलनेवाले, जितेन्द्रिय, कल्याणभागी, सत्यपरायण, हृष्ट-पुष्ट, पवित्र और कार्यकुशल होंगे॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नासूयको न चापीर्षुर्नाभिमानी न मत्सरी।
भविष्यति जनस्तत्र स्वयं धर्ममनुव्रतः ॥ १७ ॥

मूलम्

नासूयको न चापीर्षुर्नाभिमानी न मत्सरी।
भविष्यति जनस्तत्र स्वयं धर्ममनुव्रतः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वहाँ कोई न तो दूसरेके दोष देखनेवाला होगा और न ईर्ष्यालु। न किसीमें अभिमान होगा और न मात्सर्य (द्वेष)। वहाँके सब लोग स्वयं ही धर्ममें तत्पर होंगे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मघोषाश्च भूयांसः पूर्णाहुत्यस्तथैव च।
क्रतवश्च भविष्यन्ति भूयांसो भूरिदक्षिणाः ॥ १८ ॥

मूलम्

ब्रह्मघोषाश्च भूयांसः पूर्णाहुत्यस्तथैव च।
क्रतवश्च भविष्यन्ति भूयांसो भूरिदक्षिणाः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उस देश या जनपदमें प्रचुररूपसे वेदध्वनि होती होगी, यज्ञोंमें पूर्णाहुतियाँ दी जाती होंगी और बड़ी-बड़ी दक्षिणाओंवाले बहुत-से यज्ञ हो रहे होंगे॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदा च तत्र पर्जन्यः सम्यग्वर्षी न संशयः।
सम्पन्नसस्या च मही निरातङ्‌का भविष्यति ॥ १९ ॥

मूलम्

सदा च तत्र पर्जन्यः सम्यग्वर्षी न संशयः।
सम्पन्नसस्या च मही निरातङ्‌का भविष्यति ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वहाँ मेघ सदा ठीक-ठीक वर्षा करता होगा, इसमें संशय नहीं है। वहाँकी भूमिपर खेती लहलहाती होगी और वहाँ निवास करनेवाली प्रजा सर्वथा निर्भय होगी॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुणवन्ति च धान्यानि रसवन्ति फलानि च।
गन्धवन्ति च माल्यानि शुभशब्दा च भारती ॥ २० ॥

मूलम्

गुणवन्ति च धान्यानि रसवन्ति फलानि च।
गन्धवन्ति च माल्यानि शुभशब्दा च भारती ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वहाँ गुणयुक्त धान्य, सरस फल, सुगन्धयुक्त माला और मांगलिक शब्दोंसे युक्त वाणी सुलभ होगी॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वायुश्च सुखसंस्पर्शो निष्प्रतीपं च दर्शनम्।
न भयं त्वाविशेत् तत्र यत्र राजा युधिष्ठिरः ॥ २१ ॥

मूलम्

वायुश्च सुखसंस्पर्शो निष्प्रतीपं च दर्शनम्।
न भयं त्वाविशेत् तत्र यत्र राजा युधिष्ठिरः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वहाँ जिसका स्पर्श सुखदायक हो, ऐसी शीतल एवं मन्द वायु चलती होगी। धर्म और ब्रह्मके स्वरूपका विचार पाखण्डशून्य होगा। जहाँ राजा युधिष्ठिर होंगे, वहाँ भयका प्रवेश नहीं हो सकता॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गावश्च बहुलास्तत्र न कृशा न च दुर्बलाः।
पयांसि दधिसर्पींषि रसवन्ति हितानि च ॥ २२ ॥

मूलम्

गावश्च बहुलास्तत्र न कृशा न च दुर्बलाः।
पयांसि दधिसर्पींषि रसवन्ति हितानि च ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उन जनपदमें गौओंकी अधिकता होगी और वे गौएँ कृश या दुर्बल न होकर खूब हृष्ट-पुष्ट होंगी। उनके दूध, दही और घी भी बड़े स्वादिष्ट तथा हितकारी होंगे॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुणवन्ति च पेयानि भोज्यानि रसवन्ति च।
तत्र देशे भविष्यन्ति यत्र राजा युधिष्ठिरः ॥ २३ ॥

मूलम्

गुणवन्ति च पेयानि भोज्यानि रसवन्ति च।
तत्र देशे भविष्यन्ति यत्र राजा युधिष्ठिरः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिस देशमें राजा युधिष्ठिर होंगे, वहाँ गुणकारी पेय और सरस भोज्य पदार्थ सुलभ होंगे॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रसाः स्पर्शाश्च गन्धाश्च शब्दाश्चापि गुणान्विताः।
दृश्यानि च प्रसन्नानि यत्र राजा युधिष्ठिरः ॥ २४ ॥

मूलम्

रसाः स्पर्शाश्च गन्धाश्च शब्दाश्चापि गुणान्विताः।
दृश्यानि च प्रसन्नानि यत्र राजा युधिष्ठिरः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जहाँ राजा युधिष्ठिर होंगे, वहाँ रस, स्पर्श, गन्ध और शब्द—सभी विषय गुणकारी होंगे और मनको प्रसन्न करनेवाले दृश्य देखनेको मिलेंगे॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्माश्च तत्र सर्वैस्तु सेविताश्च द्विजातिभिः।
स्वैः स्वैर्गुणैश्च संयुक्ता अस्मिन् वर्षे त्रयोदशे ॥ २५ ॥

मूलम्

धर्माश्च तत्र सर्वैस्तु सेविताश्च द्विजातिभिः।
स्वैः स्वैर्गुणैश्च संयुक्ता अस्मिन् वर्षे त्रयोदशे ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस तेरहवें वर्षमें राजा युधिष्ठिर जहाँ कहीं भी होंगे, वहाँके समस्त द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) अपने-अपने धर्मोंका पालन करते होंगे और धर्म भी अपने गुण तथा प्रभावसे सम्पन्न होंगे॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देशे तस्मिन् भविष्यन्ति तात पाण्डवसंयुते।
सम्प्रीतिमान् जनस्तत्र संतुष्टः शुचिरव्ययः ॥ २६ ॥

मूलम्

देशे तस्मिन् भविष्यन्ति तात पाण्डवसंयुते।
सम्प्रीतिमान् जनस्तत्र संतुष्टः शुचिरव्ययः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! पाण्डवोंसे संयुक्त देशमें ये सब विशेषताएँ होंगी। वहाँके लोग प्रसन्न, संतुष्ट, पवित्र और विकारशून्य होंगे॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवतातिथिपूजासु सर्वभावानुरागवान् ।
इष्टदानो महोत्साहः स्वस्वधर्मपरायणः ॥ २७ ॥

मूलम्

देवतातिथिपूजासु सर्वभावानुरागवान् ।
इष्टदानो महोत्साहः स्वस्वधर्मपरायणः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देवता और अतिथियोंकी पूजामें सबका सर्वतोभावेन अनुराग होगा। सभी लोग दानको प्रिय मानेंगे, सबमें भारी उत्साह भरा होगा और सभी अपने-अपने धर्मके पालनमें तत्पर होंगे॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अशुभाद्धि शुभप्रेप्सुरिष्टयज्ञः शुभव्रतः ।
भविष्यति जनस्तत्र यत्र राजा युधिष्ठिरः ॥ २८ ॥

मूलम्

अशुभाद्धि शुभप्रेप्सुरिष्टयज्ञः शुभव्रतः ।
भविष्यति जनस्तत्र यत्र राजा युधिष्ठिरः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जहाँ राजा युधिष्ठिर होंगे, वहाँके लोग अशुभको छोड़कर शुभके अभिलाषी होंगे। यज्ञोंका अनुष्ठान उनके लिये अभीष्ट कार्य होगा और वे श्रेष्ठ व्रतोंको धारण करनेवाले होंगे॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्यक्तवाक्यानृतस्तात शुभकल्याणमङ्गलः ।
शुभार्थेप्सुः शुभमतिर्यत्र राजा युधिष्ठिरः ॥ २९ ॥

मूलम्

त्यक्तवाक्यानृतस्तात शुभकल्याणमङ्गलः ।
शुभार्थेप्सुः शुभमतिर्यत्र राजा युधिष्ठिरः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! जहाँ राजा युधिष्ठिर रहते होंगे, वहाँके लोग असत्यभाषणका त्याग करनेवाले, शुभ, कल्याण एवं मंगलसे युक्त, शुभ वस्तुओंकी प्राप्तिके इच्छुक तथा शुभमें ही मन लगानेवाले होंगे॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भविष्यति जनस्तत्र नित्यं चेष्टप्रियव्रतः।
धर्मात्मा शक्यते ज्ञातुं नापि तात द्विजातिभिः ॥ ३० ॥
किं पुनः प्राकृतैस्तात पार्थो विज्ञायते क्वचित्।
यस्मिन् सत्यं धृतिर्दानं परा शान्तिर्ध्रुवा क्षमा ॥ ३१ ॥
ह्रीः श्रीः कीर्तिः परं तेज आनृशंस्यमथार्जवम्।

मूलम्

भविष्यति जनस्तत्र नित्यं चेष्टप्रियव्रतः।
धर्मात्मा शक्यते ज्ञातुं नापि तात द्विजातिभिः ॥ ३० ॥
किं पुनः प्राकृतैस्तात पार्थो विज्ञायते क्वचित्।
यस्मिन् सत्यं धृतिर्दानं परा शान्तिर्ध्रुवा क्षमा ॥ ३१ ॥
ह्रीः श्रीः कीर्तिः परं तेज आनृशंस्यमथार्जवम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘सदा इष्टजनोंका प्रिय करना ही उनका व्रत होगा। कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर धर्मात्मा हैं। उनमें सत्य, धैर्य, दान, परम शान्ति, अटल क्षमा, लज्जा, श्री, कीर्ति, उत्कृष्ट तेज, दयालुता और सरलता आदि गुण सदा रहते हैं। अतः अन्य साधारण मनुष्योंकी तो बात ही क्या, द्विजाति (ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य) भी उन्हें नहीं पहचान सकते॥३०-३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् तत्र निवासं तु छन्नं यत्नेन धीमतः।
गतिं च परमां तत्र नोत्सहे वक्तुमन्यथा ॥ ३२ ॥

मूलम्

तस्मात् तत्र निवासं तु छन्नं यत्नेन धीमतः।
गतिं च परमां तत्र नोत्सहे वक्तुमन्यथा ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसलिये जहाँ ऐसे लक्षण पाये जायँ, वहीं बुद्धिमान् युधिष्ठिरका यत्नपूर्वक छिपाया हुआ निवास-स्थान हो सकता है; वहीं उनका उत्कृष्ट आश्रय होना सम्भव है। इसके विपरीत मैं और कोई बात नहीं कह सकता॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेतत् तु संचिन्त्य यत्कृते मन्यसे हितम्।
तत् क्षिप्रं कुरु कौरव्य यद्येवं श्रद्दधासि मे ॥ ३३ ॥

मूलम्

एवमेतत् तु संचिन्त्य यत्कृते मन्यसे हितम्।
तत् क्षिप्रं कुरु कौरव्य यद्येवं श्रद्दधासि मे ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुरुनन्दन! यदि मेरी बातोंपर तुम्हें विश्वास हो, तो इसी प्रकार सोच-विचारकर जो काम करनेसे तुम्हें अपना हित जान पड़े, उसे शीघ्र करो’॥३३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि गोहरणपर्वणि चारप्रत्याचारे भीष्मवाक्ये अष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत गोहरणपर्वमें गुप्तचर भेजनेके विषयमें भीष्मवचनसम्बन्धी अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२८॥