भागसूचना
(गोहरणपर्व)
पञ्चविंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
दुर्योधनके पास उसके गुप्तचरोंका आना और उनका पाण्डवोंके विषयमें कुछ पता न लगा, यह बताकर कीचकवधका वृत्तान्त सुनाना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
(कीचके तु हते राजा विराटः परवीरहा।
शोकमाहारयत् तीव्रं सामात्यः सपुरोहितः॥)
मूलम्
(कीचके तु हते राजा विराटः परवीरहा।
शोकमाहारयत् तीव्रं सामात्यः सपुरोहितः॥)
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! कीचकके मारे जानेपर शत्रुवीरोंका वध करनेवाले राजा विराट पुरोहित और मन्त्रियोंसहित बहुत दुःखी हुए।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीचकस्य तु घातेन सानुजस्य विशाम्पते।
अत्याहितं चिन्तयित्वा व्यस्मयन्त पृथग् जनाः ॥ १ ॥
मूलम्
कीचकस्य तु घातेन सानुजस्य विशाम्पते।
अत्याहितं चिन्तयित्वा व्यस्मयन्त पृथग् जनाः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! भाइयोंसहित कीचकका वध होनेसे सब लोग इसको बड़ी भारी दुर्घटना या दुःसाहसका काम मानकर अलग-अलग आश्चर्यमें पड़े रहे॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् पुरे जनपदे संजल्पोऽभूच्च सङ्घशः।
शौर्याद्धि वल्लभो राज्ञो महासत्त्वः स कीचकः ॥ २ ॥
मूलम्
तस्मिन् पुरे जनपदे संजल्पोऽभूच्च सङ्घशः।
शौर्याद्धि वल्लभो राज्ञो महासत्त्वः स कीचकः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस नगर तथा राष्ट्रमें झुंड-के-झुंड मनुष्य एकत्र हो जाते और उनमें इस तरहकी बातें होने लगती थीं—‘महाबली कीचक अपनी शूरवीरताके कारण राजा विराटको बहुत प्रिय था॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसीत् प्रहर्ता सैन्यानां दारामर्शी च दुर्मतिः।
स हतः खलु पापात्मा गन्धर्वैर्दुष्टपूरुषः ॥ ३ ॥
मूलम्
आसीत् प्रहर्ता सैन्यानां दारामर्शी च दुर्मतिः।
स हतः खलु पापात्मा गन्धर्वैर्दुष्टपूरुषः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उसने विपक्षी दलोंकी बहुत-सी सेनाओंका संहार किया था, किंतु उसकी बुद्धि बड़ी खोटी थी। वह परायी स्त्रियोंपर बलात्कार करनेवाला पापात्मा और दुष्ट था; इसीलिये गन्धर्वोंद्वारा मारा गया है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्यजल्पन् महाराज परानीकविनाशनम् ।
देशे देशे मनुष्याश्च कीचकं दुष्प्रधर्षणम् ॥ ४ ॥
मूलम्
इत्यजल्पन् महाराज परानीकविनाशनम् ।
देशे देशे मनुष्याश्च कीचकं दुष्प्रधर्षणम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज जनमेजय! शत्रुओंकी सेनाका संहार करनेवाले उस दुर्धर्ष वीर कीचकके विषयमें देश-देशके लोग ऐसी ही बातें किया करते थे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ वै धार्तराष्ट्रेण प्रयुक्ता ये बहिश्चराः।
मृगयित्वा बहून् ग्रामान् राष्ट्राणि नगराणि च ॥ ५ ॥
संविधाय यथादृष्टं यथादेशप्रदर्शनम् ।
कृतकृत्या न्यवर्तन्त ते चरा नगरं प्रति ॥ ६ ॥
मूलम्
अथ वै धार्तराष्ट्रेण प्रयुक्ता ये बहिश्चराः।
मृगयित्वा बहून् ग्रामान् राष्ट्राणि नगराणि च ॥ ५ ॥
संविधाय यथादृष्टं यथादेशप्रदर्शनम् ।
कृतकृत्या न्यवर्तन्त ते चरा नगरं प्रति ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इधर अज्ञातवासकी अवस्थामें पाण्डवोंका पता लगानेके लिये दुर्योधनने जो बाहरके देशोंमें घूमनेवाले गुप्तचर लगा रखे थे, वे अनेक ग्राम, राष्ट्र और नगरोंमें उन्हें ढूँढ़कर, जैसा वे देख सकते या पता लगा सकते थे अथवा जिन-जिन देशोंमें छान-बीन कर सकते थे, उन सबमें उसी प्रकार देखभाल करके अपना काम पूरा करके पुनः हस्तिनापुरमें लौट आये॥५-६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र दृष्ट्वा तु राजानं कौरव्यं धृतराष्ट्रजम्।
द्रोणकर्णकृपैः सार्धं भीष्मेण च महात्मना ॥ ७ ॥
संगतं भ्रातृभिश्चापि त्रिगर्तैश्च महारथैः।
दुर्योधनं सभामध्ये आसीनमिदमब्रुवन् ॥ ८ ॥
मूलम्
तत्र दृष्ट्वा तु राजानं कौरव्यं धृतराष्ट्रजम्।
द्रोणकर्णकृपैः सार्धं भीष्मेण च महात्मना ॥ ७ ॥
संगतं भ्रातृभिश्चापि त्रिगर्तैश्च महारथैः।
दुर्योधनं सभामध्ये आसीनमिदमब्रुवन् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ वे धृतराष्ट्रपुत्र कुरुनन्दन दुर्योधनसे मिले, जो द्रोण, कर्ण, कृपाचार्य, महात्मा भीष्म, अपने सम्पूर्ण भाई तथा महारथी त्रिगर्तोंके साथ राजसभामें बैठा था। उससे मिलकर उन गुप्तचरोंने यों कहा॥७-८॥
मूलम् (वचनम्)
चरा ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतोऽस्माभिः परो यत्नस्तेषामन्वेषणे सदा।
पाण्डवानां मनुष्येन्द्र तस्मिन् महति कानने ॥ ९ ॥
मूलम्
कृतोऽस्माभिः परो यत्नस्तेषामन्वेषणे सदा।
पाण्डवानां मनुष्येन्द्र तस्मिन् महति कानने ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गुप्तचर बोले— नरेन्द्र! हमने उस विशाल वनमें पाण्डवोंकी खोजके लिये सदा महान् प्रयत्न जारी रखा है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्जने मृगसंकीर्णे नानाद्रुमलताकुले ।
लताप्रतानबहुले नानागुल्मसमावृते ॥ १० ॥
न च विद्मो गता येन पार्थाः सुदृढविक्रमाः।
मार्गमाणाः पदन्यासं तेषु तेषु तथा तथा ॥ ११ ॥
मूलम्
निर्जने मृगसंकीर्णे नानाद्रुमलताकुले ।
लताप्रतानबहुले नानागुल्मसमावृते ॥ १० ॥
न च विद्मो गता येन पार्थाः सुदृढविक्रमाः।
मार्गमाणाः पदन्यासं तेषु तेषु तथा तथा ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मृगोंसे भरे हुए निर्जन वनमें, जो अनेकानेक वृक्षों और लताओंसे व्याप्त, विविध लताओंकी बहुलता एवं विस्तारसे विलसित तथा नाना गुल्मोंसे समावृत है, घूमकर वहाँके विभिन्न स्थानोंमें अनेक प्रकारसे उनके पदचिह्न हम ढूँढ़ते रहे हैं तथापि वे सुदृढ़ पराक्रमी कुन्तीकुमार किस मार्गसे कहाँ गये? यह नहीं जान सके॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गिरिकूटेषु तुङ्गेषु नानाजनपदेषु च।
जनाकीर्णेषु देशेषु खर्वटेषु पुरेषु च ॥ १२ ॥
नरेन्द्र बहुशोऽन्विष्टा नैव विद्मश्च पाण्डवान्।
अत्यन्तं वा विनष्टास्ते भद्रं तुभ्यं नरर्षभ ॥ १३ ॥
मूलम्
गिरिकूटेषु तुङ्गेषु नानाजनपदेषु च।
जनाकीर्णेषु देशेषु खर्वटेषु पुरेषु च ॥ १२ ॥
नरेन्द्र बहुशोऽन्विष्टा नैव विद्मश्च पाण्डवान्।
अत्यन्तं वा विनष्टास्ते भद्रं तुभ्यं नरर्षभ ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! हमने पर्वतोंके ऊँचे-ऊँचे शिखरोंपर, भिन्न-भिन्न देशोंमें, जनसमूहसे भरे हुए स्थानोंमें तथा तराईके गाँवों, बाजारों और नगरोंमें भी उनकी बहुत खोज की, परंतु कहीं भी पाण्डवोंका पता नहीं लगा। नरश्रेष्ठ! आपका कल्याण हो। सम्भव है, वे सर्वथा नष्ट हो गये हों॥१२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्त्मन्यन्वेष्यमाणा वै रथिनां रथिसत्तम।
न हि विद्मो गतिं तेषां वासं हि नरसत्तम॥१४॥
मूलम्
वर्त्मन्यन्वेष्यमाणा वै रथिनां रथिसत्तम।
न हि विद्मो गतिं तेषां वासं हि नरसत्तम॥१४॥
अनुवाद (हिन्दी)
रथियोंमें श्रेष्ठ नरोत्तम! हमने रथियोंके मार्गपर भी उनका अन्वेषण किया है, किंतु वे कहाँ गये और कहाँ रहते हैं? इसका पता हमें नहीं लगा॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किंचित्काले मनुष्येन्द्र सूतानामनुगा वयम्।
मृगयित्वा यथान्यायं वेदितार्थाः स्म तत्त्वतः ॥ १५ ॥
मूलम्
किंचित्काले मनुष्येन्द्र सूतानामनुगा वयम्।
मृगयित्वा यथान्यायं वेदितार्थाः स्म तत्त्वतः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मानवेन्द्र! कुछ कालतक हमलोग उनके सारथियोंके पीछे लगे रहे और अच्छी तरह खोज करके हमने एक यथार्थ बातका ठीक-ठीक पता लगा लिया है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राप्ता द्वारवतीं सूता विना पार्थैः परंतप।
न तत्र कृष्णा राजेन्द्र पाण्डवाश्च महाव्रताः ॥ १६ ॥
मूलम्
प्राप्ता द्वारवतीं सूता विना पार्थैः परंतप।
न तत्र कृष्णा राजेन्द्र पाण्डवाश्च महाव्रताः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुओंको संताप देनेवाले राजेश्वर! पाण्डवोंके इन्द्रसेन आदि सारथि उनके बिना ही द्वारकापुरीमें पहुँच गये हैं। वहाँ न तो द्रौपदी है और न महान् व्रतधारी पाण्डव ही हैं॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वथा विप्रणष्टास्ते नमस्ते भरतर्षभ।
न हि विद्मो गतिं तेषां वासं वापि महात्मनाम्॥१७॥
पाण्डवानां प्रवृत्तिं च विद्मः कर्मापि वा कृतम्।
स नः शाधि मनुष्येन्द्र अत ऊर्ध्वं विशाम्पते ॥ १८ ॥
मूलम्
सर्वथा विप्रणष्टास्ते नमस्ते भरतर्षभ।
न हि विद्मो गतिं तेषां वासं वापि महात्मनाम्॥१७॥
पाण्डवानां प्रवृत्तिं च विद्मः कर्मापि वा कृतम्।
स नः शाधि मनुष्येन्द्र अत ऊर्ध्वं विशाम्पते ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जान पड़ता है; वे बिल्कुल नष्ट हो गये। भरतश्रेष्ठ! आपको नमस्कार है। हम महात्मा पाण्डवोंके मार्ग, निवासस्थान, प्रवृत्ति अथवा उनके द्वारा किये हुए कार्यके विषयमें कुछ भी जानकारी नहीं प्राप्त कर सके। प्रजापालक नरेश! इसके बाद हमारे लिये क्या आज्ञा है?॥१७-१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्वेषणे पाण्डवानां भूयः किं करवामहे।
इमां च नः प्रियां वीर वाचं भद्रवतीं शृणु॥१९॥
मूलम्
अन्वेषणे पाण्डवानां भूयः किं करवामहे।
इमां च नः प्रियां वीर वाचं भद्रवतीं शृणु॥१९॥
अनुवाद (हिन्दी)
बताइये, पाण्डवोंको ढूँढ़नेके लिये हम पुनः क्या करें? वीर! हमारी एक बात और सुनिये, यह आपको प्रिय लगेगी। इसमें आपके लिये मंगलजनक समाचार है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येन त्रिगर्ता निहता बलेन महता नृप।
सूतेन राज्ञो मत्स्यस्य कीचकेन बलीयसा ॥ २० ॥
स हतः पतितः शेते गन्धर्वैर्निशि भारत।
अदृश्यमानैर्दुष्टात्मा भ्रातृभिः सह सोदरैः ॥ २१ ॥
मूलम्
येन त्रिगर्ता निहता बलेन महता नृप।
सूतेन राज्ञो मत्स्यस्य कीचकेन बलीयसा ॥ २० ॥
स हतः पतितः शेते गन्धर्वैर्निशि भारत।
अदृश्यमानैर्दुष्टात्मा भ्रातृभिः सह सोदरैः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! मत्स्यराज विराटके जिस महाबली सेनापति सूतपुत्र कीचकने बहुत बड़ी सेनाके द्वारा त्रिगर्तदेश और वहाँके निवासियोंको तहस-नहस कर दिया था, भारत! गन्धर्वोंने उस दुष्टात्माको उसके सहोदर भाइयोंसहित रात्रिमें गुप्तरूपसे मार डाला है। अब वह श्मशानभूमिमें पड़ा सो रहा है॥२०-२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(श्यालो राज्ञो विराटस्य सेनापतिरुदारधीः।
सुदेष्णायाः स वै ज्येष्ठः शूरो वीरो गतव्यथः॥
उत्साहवान् महावीर्यो नीतिमान् बलवानपि।
युद्धज्ञो रिपुवीरघ्नः सिंहतुल्यपराक्रमः ॥
प्रजारक्षणदक्षश्च शत्रुग्रहणशक्तिमान् ।
विजितारिर्महायुद्धे प्रचण्डो मानवत् परः॥
नरनारीमनोह्लादी धीरो वाग्मी रणप्रियः।
मूलम्
(श्यालो राज्ञो विराटस्य सेनापतिरुदारधीः।
सुदेष्णायाः स वै ज्येष्ठः शूरो वीरो गतव्यथः॥
उत्साहवान् महावीर्यो नीतिमान् बलवानपि।
युद्धज्ञो रिपुवीरघ्नः सिंहतुल्यपराक्रमः ॥
प्रजारक्षणदक्षश्च शत्रुग्रहणशक्तिमान् ।
विजितारिर्महायुद्धे प्रचण्डो मानवत् परः॥
नरनारीमनोह्लादी धीरो वाग्मी रणप्रियः।
अनुवाद (हिन्दी)
उदारचित्त कीचक राजा विराटका साला और सेनापति था। रानी सुदेष्णाका वह बड़ा भाई लगता था। कीचक शूरवीर, व्यथारहित, उत्साही, महापराक्रमी, नीतिमान्, बलवान्, युद्धकी कलाको जाननेवाला, शत्रु-वीरोंका संहार करनेमें समर्थ, सिंहके समान पराक्रम-सम्पन्न, प्रजारक्षणमें कुशल, शत्रुओंको काबूमें लानेकी शक्ति रखनेवाला, बड़े-बड़े युद्धोंमें वैरियोंपर विजय पानेवाला, अत्यन्त क्रोधी, अभिमानी, नर-नारियोंके मनको आह्लादित करनेवाला, रणप्रिय धीर और बोलनेमें चतुर था।
विश्वास-प्रस्तुतिः
स हतो निशि गन्धर्वैः स्त्रीनिमित्तं नराधिप।
अमृष्यमाणो दुष्टात्मा निशीथे सह सोदरैः॥
सुहृदश्चास्य निहता योधाश्च प्रवरा हताः।)
मूलम्
स हतो निशि गन्धर्वैः स्त्रीनिमित्तं नराधिप।
अमृष्यमाणो दुष्टात्मा निशीथे सह सोदरैः॥
सुहृदश्चास्य निहता योधाश्च प्रवरा हताः।)
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! वह अमर्षशील दुष्टात्मा कीचक एक स्त्रीके कारण गन्धर्वोंद्वारा आधीरातमें अपने भाइयोंसहित मार डाला गया है। उसके प्रिय सुहृद् और श्रेष्ठ सैनिक भी मारे गये हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रियमेतदुपश्रुत्य शत्रूणां च पराभवम्।
कृतकृत्यश्च कौरव्य विधत्स्व यदनन्तरम् ॥ २२ ॥
मूलम्
प्रियमेतदुपश्रुत्य शत्रूणां च पराभवम्।
कृतकृत्यश्च कौरव्य विधत्स्व यदनन्तरम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुनन्दन! शत्रुओंके पराभवका यह प्रिय संवाद सुनकर आप कृतकृत्य हों और इसके बाद जो कुछ करना हो, वह करें॥२२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि गोहरणपर्वणि चारप्रत्यागमने पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत गोहरणपर्वमें गुप्तचरोंके लौटकर आनेसे सम्बन्ध रखनेवाला पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२५॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ६ श्लोक मिलाकर कुल २८ श्लोक हैं।)