भागसूचना
चतुर्विंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
द्रौपदीका राजमहलमें लौटकर आना और बृहन्नला एवं सुदेष्णासे उसकी बातचीत
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते दृष्ट्वा निहतान् सूतान् राज्ञे गत्वा न्यवेदयन्।
गन्धर्वैर्निहता राजन् सूतपुत्रा महाबलाः ॥ १ ॥
मूलम्
ते दृष्ट्वा निहतान् सूतान् राज्ञे गत्वा न्यवेदयन्।
गन्धर्वैर्निहता राजन् सूतपुत्रा महाबलाः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! नगरवासियोंने सूतपुत्रोंका यह संहार देख राजा विराटके पास जाकर निवेदन किया—‘महाराज! गन्धर्वोंने महाबली सूतपुत्रोंको मार डाला॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा वज्रेण वै दीर्णं पर्वतस्य महच्छिरः।
व्यतिकीर्णाः प्रदृश्यन्ते तथा सूता महीतले ॥ २ ॥
मूलम्
यथा वज्रेण वै दीर्णं पर्वतस्य महच्छिरः।
व्यतिकीर्णाः प्रदृश्यन्ते तथा सूता महीतले ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे पर्वतका महान् शिखर वज्रसे विदीर्ण हो गया हो, उसी प्रकार वे सूतपुत्र पृथ्वीपर बिखरे दिखायी देते हैं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सैरन्ध्री च विमुक्तासौ पुनरायाति ते गृहम्।
सर्वं संशयितं राजन् नगरं ते भविष्यति ॥ ३ ॥
मूलम्
सैरन्ध्री च विमुक्तासौ पुनरायाति ते गृहम्।
सर्वं संशयितं राजन् नगरं ते भविष्यति ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सैरन्ध्री बन्धनमुक्त हो गयी है, अब वह पुनः आपके महलकी ओर आ रही है। उसके रहनेसे आपके सम्पूर्ण नगरका जीवन संकटमें पड़ जायगा॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथारूपा च सैरन्ध्री गन्धर्वाश्च महाबलाः।
पुंसामिष्टश्च विषयो मैथुनाय न संशयः ॥ ४ ॥
मूलम्
यथारूपा च सैरन्ध्री गन्धर्वाश्च महाबलाः।
पुंसामिष्टश्च विषयो मैथुनाय न संशयः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सैरन्ध्रीका जैसा अप्रतिम रूप-सौन्दर्य है, वह सबको विदित ही है। उसके पति गन्धर्व भी बड़े बलवान् हैं। पुरुषोंको मैथुनके लिये विषयभोग अभीष्ट है ही; इसमें संशय नहीं है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा सैरन्ध्रिदोषेण न ते राजन्निदं पुरम्।
विनाशमेति वै क्षिप्रं तथा नीतिर्विधीयताम् ॥ ५ ॥
मूलम्
यथा सैरन्ध्रिदोषेण न ते राजन्निदं पुरम्।
विनाशमेति वै क्षिप्रं तथा नीतिर्विधीयताम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः राजन्! आप शीघ्र ही कोई ऐसी नीति अपनावें, जिससे सैरन्ध्रीके दोषसे आपका यह नगर नष्ट न हो जाय’॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां तद् वचनं श्रुत्वा विराटो वाहिनीपतिः।
अब्रवीत् क्रियतामेषां सूतानां परमक्रिया ॥ ६ ॥
मूलम्
तेषां तद् वचनं श्रुत्वा विराटो वाहिनीपतिः।
अब्रवीत् क्रियतामेषां सूतानां परमक्रिया ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनकी वह बात सुनकर सेनाओंके स्वामी राजा विराटने कहा—‘इन सूतपुत्रोंका अन्त्येष्टि-संस्कार किया जाय॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकस्मिन्नेव ते सर्वे सुसमिद्धे हुताशने।
दह्यन्तां कीचकाः शीघ्रं रत्नैर्गन्धैश्च सर्वशः ॥ ७ ॥
मूलम्
एकस्मिन्नेव ते सर्वे सुसमिद्धे हुताशने।
दह्यन्तां कीचकाः शीघ्रं रत्नैर्गन्धैश्च सर्वशः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘एक ही चितामें अग्नि प्रज्वलित करके रत्न और सुगन्धित पदार्थोंके साथ सम्पूर्ण कीचकोंका दाह करना चाहिये’॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुदेष्णामब्रवीद् राजा महिषीं जातसाध्वसः।
सैरन्ध्रीमागतां ब्रूया ममैव वचनादिदम् ॥ ८ ॥
मूलम्
सुदेष्णामब्रवीद् राजा महिषीं जातसाध्वसः।
सैरन्ध्रीमागतां ब्रूया ममैव वचनादिदम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर राजाने भयभीत होकर रानी सुदेष्णाके पास जाकर कहा—‘देवि! जब सैरन्ध्री यहाँ आ जाय, तो मेरी ही ओरसे उससे यों कहो—॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छ सैरन्ध्रि भद्रं ते यथाकामं वरानने।
बिभेति राजा सुश्रोणि गन्धर्वेभ्यः पराभवात् ॥ ९ ॥
मूलम्
गच्छ सैरन्ध्रि भद्रं ते यथाकामं वरानने।
बिभेति राजा सुश्रोणि गन्धर्वेभ्यः पराभवात् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सैरन्ध्री! तुम्हारा कल्याण हो। वरानने! तुम्हारी जहाँ रुचि हो, चली जाओ। सुश्रोणि! गन्धर्वोंके तिरस्कारसे राजा डरते हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि त्वामुत्सहे वक्तुं स्वयं गन्धर्वरक्षिताम्।
स्त्रियास्त्वदोषस्तां वक्तुमतस्त्वां प्रब्रवीम्यहम् ॥ १० ॥
मूलम्
न हि त्वामुत्सहे वक्तुं स्वयं गन्धर्वरक्षिताम्।
स्त्रियास्त्वदोषस्तां वक्तुमतस्त्वां प्रब्रवीम्यहम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम गन्धर्वोंसे सुरक्षित हो। मैं पुरुष होनेके कारण स्वयं तुमसे कोई बात नहीं कह सकता। किंतु स्त्रीके मुखसे तुम्हारे प्रति यह सब कहलानेमें दोष नहीं है; अतः अपनी पत्नीके द्वारा स्वयं ही तुमसे यह बात कह रहा हूँ’॥१०॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ मुक्ता भयात् कृष्णा सूतपुत्रान् निरस्य च।
मोक्षिता भीमसेनेन जगाम नगरं प्रति ॥ ११ ॥
त्रासितेव मृगी बाला शार्दूलेन मनस्विनी।
गात्राणि वाससी चैव प्रक्षाल्य सलिलेन सा ॥ १२ ॥
मूलम्
अथ मुक्ता भयात् कृष्णा सूतपुत्रान् निरस्य च।
मोक्षिता भीमसेनेन जगाम नगरं प्रति ॥ ११ ॥
त्रासितेव मृगी बाला शार्दूलेन मनस्विनी।
गात्राणि वाससी चैव प्रक्षाल्य सलिलेन सा ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! जब सूतपुत्रोंको मारकर भीमसेनने द्रौपदीका बन्धन खोल दिया और वह भयसे मुक्त हो गयी, तब जलसे स्नान करके अपने शरीर और वस्त्रोंको धोकर सिंहसे डरायी हुई हरिणीकी भाँति वह मनस्विनी बाला नगरकी ओर चली॥११-१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां दृष्ट्वा पुरुषा राजन् प्राद्रवन्त दिशो दश।
गन्धर्वाणां भयत्रस्ताः केचिद् दृष्ट्वा न्यमीलयन् ॥ १३ ॥
मूलम्
तां दृष्ट्वा पुरुषा राजन् प्राद्रवन्त दिशो दश।
गन्धर्वाणां भयत्रस्ताः केचिद् दृष्ट्वा न्यमीलयन् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजय! उस समय द्रौपदीको देखकर गन्धर्वोंके भयसे डरे हुए पुरुष दसों दिशाओंकी ओर भाग जाते थे और कोई-कोई उसे देखकर आँख मूँद लेते थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो महानसद्वारि भीमसेनमवस्थितम् ।
ददर्श राजन् पाञ्चाली यथा मत्तं महाद्विपम् ॥ १४ ॥
मूलम्
ततो महानसद्वारि भीमसेनमवस्थितम् ।
ददर्श राजन् पाञ्चाली यथा मत्तं महाद्विपम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर पाकशालाके द्वारपर पहुँचकर पांचालीने वहाँ मतवाले गजराजके समान भीमसेनको खड़ा देखा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं विस्मयन्ती शनकैः संज्ञाभिरिदमब्रवीत्।
गन्धर्वराजाय नमो येनास्मि परिमोचिता ॥ १५ ॥
मूलम्
तं विस्मयन्ती शनकैः संज्ञाभिरिदमब्रवीत्।
गन्धर्वराजाय नमो येनास्मि परिमोचिता ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
और विस्मयविमुग्ध होकर उसने धीरेसे संकेतपूर्वक इस प्रकार कहा—‘उन गन्धर्वराजको नमस्कार है, जिन्होंने मुझे भारी संकटसे मुक्त किया है’॥१५॥
मूलम् (वचनम्)
भीमसेन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये पुरा विचरन्तीह पुरुषा वशवर्तिनः।
तस्यास्ते वचनं श्रुत्वा ह्यनृणा विहरन्त्वतः ॥ १६ ॥
मूलम्
ये पुरा विचरन्तीह पुरुषा वशवर्तिनः।
तस्यास्ते वचनं श्रुत्वा ह्यनृणा विहरन्त्वतः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेन बोले— देवि! जो पुरुष तुम्हारी आज्ञाके अधीन होकर यहाँ पहलेसे विचर रहे हैं, वे तुम्हारी यह बात सुनकर प्रतिज्ञासे उऋण हो इच्छानुसार विहार करें॥१६॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सा नर्तनागारे धनंजयमपश्यत।
राज्ञः कन्या विराटस्य नर्तयानं महाभुजम् ॥ १७ ॥
मूलम्
ततः सा नर्तनागारे धनंजयमपश्यत।
राज्ञः कन्या विराटस्य नर्तयानं महाभुजम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! तत्पश्चात् द्रौपदीने नृत्यशालामें पहुँचकर महाबाहु अर्जुनको देखा, जो राजा विराटकी कन्याओंको नृत्य सिखा रहे थे॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ता नर्तनागाराद् विनिष्क्रम्य सहार्जुनाः।
कन्या ददृशुरायान्तीं क्लिष्टां कृष्णामनागसम् ॥ १८ ॥
मूलम्
ततस्ता नर्तनागाराद् विनिष्क्रम्य सहार्जुनाः।
कन्या ददृशुरायान्तीं क्लिष्टां कृष्णामनागसम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके आनेका समाचार पाकर अर्जुनसहित वे सब कन्याएँ नृत्यगृहसे बाहर निकल आयीं और वहाँ आती हुई निरपराध सतायी गयी कृष्णाको देखने लगीं॥१८॥
मूलम् (वचनम्)
कन्या ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिष्ट्या सैरन्ध्रि मुक्तासि दिष्ट्यासि पुनरागता।
दिष्ट्या विनिहताः सूता ये त्वां क्लिश्यन्त्यनागसम् ॥ १९ ॥
मूलम्
दिष्ट्या सैरन्ध्रि मुक्तासि दिष्ट्यासि पुनरागता।
दिष्ट्या विनिहताः सूता ये त्वां क्लिश्यन्त्यनागसम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे देखकर कन्याओंने कहा— सैरन्ध्री! सौभाग्य-की बात है कि तुम संकटसे मुक्त हो गयीं और सौभाग्यसे यहाँ पुनः लौट आयीं। वे सूतपुत्र जो तुम्हें बिना किसी अपराधके ही कष्ट दे रहे थे, मार दिये गये, यह भी भाग्यवश अच्छा ही हुआ॥१९॥
मूलम् (वचनम्)
बृहन्नलोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं सैरन्ध्रि मुक्तासि कथं पापाश्च ते हताः।
इच्छामि वै तव श्रोतुं सर्वमेव यथातथम् ॥ २० ॥
मूलम्
कथं सैरन्ध्रि मुक्तासि कथं पापाश्च ते हताः।
इच्छामि वै तव श्रोतुं सर्वमेव यथातथम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बृहन्नलाने पूछा— सैरन्ध्री! तू उन पापियोंके हाथसे कैसे छूटी? और वे पापी कैसे मारे गये? मैं ये सब बातें तेरे मुखसे ज्यों-की-त्यों सुनना चाहती हूँ॥२०॥
मूलम् (वचनम्)
सैरन्ध्र्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
बृहन्नले किं नु तव सैरन्ध्र्या कार्यमद्य वै।
या त्वं वससि कल्याणि सदा कन्यापुरे सुखम् ॥ २१ ॥
मूलम्
बृहन्नले किं नु तव सैरन्ध्र्या कार्यमद्य वै।
या त्वं वससि कल्याणि सदा कन्यापुरे सुखम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सैरन्ध्री बोली— बृहन्नले! अब तुम्हें सैरन्ध्रीसे क्या काम है? कल्याणी! तुम तो मौजसे इन कन्याओंके अन्तःपुरमें रहती हो॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि दुःखं समाप्नोषि सैरन्ध्री यदुपाश्नुते।
तेन मां दुःखितामेवं पृच्छसे प्रहसन्निव ॥ २२ ॥
मूलम्
न हि दुःखं समाप्नोषि सैरन्ध्री यदुपाश्नुते।
तेन मां दुःखितामेवं पृच्छसे प्रहसन्निव ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सैरन्ध्री जो दुःख भोग रही है, उसे दूर तो करोगी नहीं या उसका अनुभव तो तुम्हें होता नहीं; इसीलिये मुझ दुखियाकी केवल हँसी उड़ानेके लिये ऐसा प्रश्न कर रही हो?॥२२॥
मूलम् (वचनम्)
बृहन्नलोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
बृहन्नलापि कल्याणि दुःखमाप्नोत्यनुत्तमम् ।
तिर्यग्योनिगता बाले न चैनामवबुध्यसे ॥ २३ ॥
मूलम्
बृहन्नलापि कल्याणि दुःखमाप्नोत्यनुत्तमम् ।
तिर्यग्योनिगता बाले न चैनामवबुध्यसे ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बृहन्नलाने कहा— कल्याणी! पशुओंकी-सी नीच या नपुंसक योनिमें पड़कर बृहन्नला भी महान् दुःख भोग रही है, तू अभी भोली-भाली है; इसीलिये बृहन्नलाको नहीं समझ पाती॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वया सहोषिता चास्मि त्वं च सर्वैः सहोषिता।
क्लिश्यन्त्यां त्वयि सुश्रोणि को नु दुःखं न चिन्तयेत्॥२४॥
मूलम्
त्वया सहोषिता चास्मि त्वं च सर्वैः सहोषिता।
क्लिश्यन्त्यां त्वयि सुश्रोणि को नु दुःखं न चिन्तयेत्॥२४॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुश्रोणि! तेरे साथ तो मैं रह चुकी हूँ और तू भी हम सबके साथ रही है; फिर तेरे ऊपर कष्ट पड़नेपर किसको दुःख न होगा?॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तु केनचिदत्यन्तं कस्यचिद्धृदयं क्वचित्।
वेदितुं शक्यते नूनं तेन मां नावबुध्यसे ॥ २५ ॥
मूलम्
न तु केनचिदत्यन्तं कस्यचिद्धृदयं क्वचित्।
वेदितुं शक्यते नूनं तेन मां नावबुध्यसे ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निश्चय ही, कोई अन्य व्यक्ति किसी दूसरेके हृदयको कभी पूर्णरूपसे नहीं समझ सकता, यही कारण है कि तुम मुझे नहीं समझ पाती; मेरे कष्टका अनुभव नहीं कर पाती॥२५॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सहैव कन्याभिर्द्रौपदी राजवेश्म तत्।
प्रविवेश सुदेष्णायाः समीपमुपगामिनी ॥ २६ ॥
मूलम्
ततः सहैव कन्याभिर्द्रौपदी राजवेश्म तत्।
प्रविवेश सुदेष्णायाः समीपमुपगामिनी ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर उन कन्याओंके साथ ही द्रौपदी राजभवनमें गयी और रानी सुदेष्णाके पास जाकर खड़ी हो गयी॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामब्रवीद् राजपुत्री विराटवचनादिदम् ।
सैरन्ध्रि गम्यतां शीघ्रं यत्र कामयसे गतिम् ॥ २७ ॥
मूलम्
तामब्रवीद् राजपुत्री विराटवचनादिदम् ।
सैरन्ध्रि गम्यतां शीघ्रं यत्र कामयसे गतिम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब राजपुत्री सुदेष्णाने विराटके कथनानुसार उससे कहा—‘सैरन्ध्री! तुम जहाँ जाना चाहो, शीघ्र चली जाओ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजा बिभेति ते भद्रे गन्धर्वेभ्यः पराभवात्।
त्वं चापि तरुणी सुभ्रु रूपेणाप्रतिमा भुवि।
पुंसामिष्टश्च विषयो गन्धर्वाश्चातिकोपनाः ॥ २८ ॥
मूलम्
राजा बिभेति ते भद्रे गन्धर्वेभ्यः पराभवात्।
त्वं चापि तरुणी सुभ्रु रूपेणाप्रतिमा भुवि।
पुंसामिष्टश्च विषयो गन्धर्वाश्चातिकोपनाः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भद्रे! तुम्हारे गन्धर्वोंद्वारा प्राप्त होनेवाले पराभवसे महाराजको भय हो रहा है। सुभ्रु! तुम अभी तरुणी हो, रूप-सौन्दर्यमें भी तुम्हारी समानता कर सके, ऐसी कोई स्त्री इस भूमण्डलमें नहीं है। पुरुषोंको विषयभोग प्रिय होता ही है; (अतः उनसे प्रमाद होनेकी सम्भावना है।) इधर तुम्हारे गन्धर्व बड़े क्रोधी हैं (वे न जाने कब क्या कर बैठें?)’॥२८॥
मूलम् (वचनम्)
सैरन्ध्र्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रयोदशाहमात्रं मे राजा क्षाम्यतु भामिनि।
कृतकृत्या भविष्यन्ति गन्धर्वास्ते न संशयः ॥ २९ ॥
मूलम्
त्रयोदशाहमात्रं मे राजा क्षाम्यतु भामिनि।
कृतकृत्या भविष्यन्ति गन्धर्वास्ते न संशयः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सैरन्ध्रीने कहा— भामिनि! मेरे लिये तेरह दिन और महाराज क्षमा करें। निःसंदेह तबतक गन्धर्वों-का अभीष्ट कार्य पूर्ण हो जायगा—वे कृतकृत्य हो जायँगे॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो मामुपनेष्यन्ति करिष्यन्ति च ते प्रियम्।
ध्रुवं च श्रेयसा राजा योक्ष्यते सह बान्धवैः ॥ ३० ॥
मूलम्
ततो मामुपनेष्यन्ति करिष्यन्ति च ते प्रियम्।
ध्रुवं च श्रेयसा राजा योक्ष्यते सह बान्धवैः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद वे मुझे तो ले ही जायँगे, आपका भी प्रिय करेंगे। (गन्धर्वोंकी प्रसन्नतासे) अवश्य ही राजा विराट अपने भाई-बन्धुओंसहित कल्याणके भागी होंगे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(राज्ञा कृतोपकाराश्च कृतज्ञाश्च सदा शुभे।
साधवश्च बलोत्सिक्ताः कृतप्रतिकृतेप्सवः ॥
अर्थिनी प्रब्रवीम्येषा यद् वा तद् वेति चिन्तय।
भरस्व तदहर्मात्रं ततः श्रेयो भविष्यति॥
मूलम्
(राज्ञा कृतोपकाराश्च कृतज्ञाश्च सदा शुभे।
साधवश्च बलोत्सिक्ताः कृतप्रतिकृतेप्सवः ॥
अर्थिनी प्रब्रवीम्येषा यद् वा तद् वेति चिन्तय।
भरस्व तदहर्मात्रं ततः श्रेयो भविष्यति॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुभे! राजा विराटने गन्धर्वोंका बड़ा उपकार किया है; अतः वे सदा उनके प्रति कृतज्ञ बने रहते हैं। गन्धर्वलोग बलके अभिमानी होते हुए भी साधु स्वभावके पुरुष हैं और अपने प्रति किये हुए उपकारका बदला चुकानेकी इच्छा रखते हैं। मैं एक प्रयोजनसे यहाँ रहती हूँ; इसीलिये तुमसे अभी कुछ दिन और यहाँ ठहरने देनेके लिये अनुरोध करती हूँ। तुम अपने मनमें जो कुछ भी सोच-विचार करो, किंतु कुछ गिने गिनाये दिनोंतक अभी और मेरा भरण-पोषण करती चलो; इससे तुम्हारा कल्याण होगा।
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यास्तद् वचनं श्रुत्वा कैकेयी दुःखमोहिता।
उवाच द्रौपदीमार्ता भ्रातृव्यसनकर्शिता ॥
वस भद्रे यथेष्टं त्वं त्वामहं शरणं गता।
त्रायस्व मम भर्तारं पुत्रांश्चैव विशेषतः॥)
मूलम्
तस्यास्तद् वचनं श्रुत्वा कैकेयी दुःखमोहिता।
उवाच द्रौपदीमार्ता भ्रातृव्यसनकर्शिता ॥
वस भद्रे यथेष्टं त्वं त्वामहं शरणं गता।
त्रायस्व मम भर्तारं पुत्रांश्चैव विशेषतः॥)
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! सैरन्ध्रीकी यह बात सुनकर केकयराजकुमारी सुदेष्णा भाईके शोकसे पीड़ित और दुःखसे मोहित हो आर्त होकर द्रौपदीसे बोली—‘भद्रे! तुम्हारी जबतक इच्छा हो, यहाँ रहो; परंतु मेरे पति और पुत्रोंकी विशेषरूपसे रक्षा करो। इसके लिये मैं तुम्हारी शरणमें आयी हूँ’।
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि कीचकवधपर्वणि कीचकदाहे चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत कीचकवधपर्वमें कीचकोंके दाह-संस्कारविषयक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२४॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ४ श्लोक मिलाकर कुल ३४ श्लोक हैं।)