भागसूचना
त्रयोविंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
उपकीचकोंका सैरन्ध्रीको बाँधकर श्मशानभूमिमें ले जाना और भीमसेनका उन सबको मारकर सैरन्ध्रीको छुड़ाना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् काले समागम्य सर्वे तत्रास्य बान्धवाः।
रुरुदुः कीचकं दृष्ट्वा परिवार्य समन्ततः ॥ १ ॥
मूलम्
तस्मिन् काले समागम्य सर्वे तत्रास्य बान्धवाः।
रुरुदुः कीचकं दृष्ट्वा परिवार्य समन्ततः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! उसी समय यह समाचार पाकर कीचकके सब बन्धु-बान्धव वहाँ आ गये। वे कीचककी यह दशा देख उसे चारों ओरसे घेरकर विलाप करने लगे॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वे संहृष्टरोमाणः संत्रस्ताः प्रेक्ष्य कीचकम्।
तथा सम्भिन्नसर्वाङ्गं कूर्मं स्थल इवोद्धृतम् ॥ २ ॥
मूलम्
सर्वे संहृष्टरोमाणः संत्रस्ताः प्रेक्ष्य कीचकम्।
तथा सम्भिन्नसर्वाङ्गं कूर्मं स्थल इवोद्धृतम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके सारे अवयव शरीरमें घुस गये थे, इसलिये वह जलसे निकालकर स्थलमें रखे हुए कछुएके समान जान पड़ता था। कीचकके शवकी वह दुर्गति देखकर वे सब थर्रा उठे, उन सबके रोंगटे खड़े हो गये॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पोथितं भीमसेनेन तमिन्द्रेणेव दानवम्।
संस्कारयितुमिच्छन्तो बहिर्नेतुं प्रचक्रमुः ॥ ३ ॥
मूलम्
पोथितं भीमसेनेन तमिन्द्रेणेव दानवम्।
संस्कारयितुमिच्छन्तो बहिर्नेतुं प्रचक्रमुः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे इन्द्रने दानव वृत्रासुरका वध किया था, उसी प्रकार भीमसेनके हाथसे मारे गये उस कीचकका दाह-संस्कार करनेकी इच्छासे उसके बान्धवगण उसे बाहर (श्मशानभूमिमें) ले जानेकी तैयारी करने लगे॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ददृशुस्ते ततः कृष्णां सूतपुत्राः समागताः।
अदूराच्चानवद्याङ्गीं स्तम्भमालिङ्ग्य तिष्ठतीम् ॥ ४ ॥
मूलम्
ददृशुस्ते ततः कृष्णां सूतपुत्राः समागताः।
अदूराच्चानवद्याङ्गीं स्तम्भमालिङ्ग्य तिष्ठतीम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय वहाँ आये हुए सूतपुत्रोंने देखा, निर्दोष अंगोंवाली द्रौपदी थोड़ी ही दूरपर एक खंभेका सहारा लिये खड़ी है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समवेतेषु सर्वेषु तामूचुरुपकीचकाः ।
हन्यतां शीघ्रमसती यत्कृते कीचको हतः ॥ ५ ॥
मूलम्
समवेतेषु सर्वेषु तामूचुरुपकीचकाः ।
हन्यतां शीघ्रमसती यत्कृते कीचको हतः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब सब लोग जुट गये, तब उन उपकीचकों (कीचकके भाइयों)-ने द्रौपदीको लक्ष्य करके कहा—‘इस दुष्टाको शीघ्र मार डाला जाय, क्योंकि इसीके लिये कीचककी जान गयी है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवा नैव हन्तव्या दह्यतां कामिना सह।
मृतस्यापि प्रियं कार्यं सूतपुत्रस्य सर्वथा ॥ ६ ॥
मूलम्
अथवा नैव हन्तव्या दह्यतां कामिना सह।
मृतस्यापि प्रियं कार्यं सूतपुत्रस्य सर्वथा ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अथवा मारा न जाय। कामी कीचककी लाशके साथ ही इसे भी जला दिया जाय। मर जानेपर भी सूतपुत्रका जो प्रिय हो; जिससे उसकी आत्मा प्रसन्न हो, वह कार्य हमें सर्वथा करना चाहिये’॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो विराटमूचुस्ते कीचकोऽस्याः कृते हतः।
सहानेनाद्य दह्येम तदनुज्ञातुमर्हसि ॥ ७ ॥
मूलम्
ततो विराटमूचुस्ते कीचकोऽस्याः कृते हतः।
सहानेनाद्य दह्येम तदनुज्ञातुमर्हसि ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर उन्होंने विराटसे कहा—‘इस सैरन्ध्रीके लिये ही कीचक मारा गया है, अतः आज हम कीचककी लाशके साथ इसे भी जला देना चाहते हैं, आप इसके लिये आज्ञा दें’॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पराक्रमं तु सूतानां मत्वा राजान्वमोदत।
सैरन्ध्य्राः सूतपुत्रेण सह दाहं विशाम्पतिः ॥ ८ ॥
मूलम्
पराक्रमं तु सूतानां मत्वा राजान्वमोदत।
सैरन्ध्य्राः सूतपुत्रेण सह दाहं विशाम्पतिः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाने सूतपुत्रोंके पराक्रमका विचार करके सैरन्ध्रीको कीचकके साथ जला डालनेकी अनुमति दे दी॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां समासाद्य वित्रस्तां कृष्णां कमललोचनाम्।
मोमुह्यमानां ते तत्र जगृहुः कीचका भृशम् ॥ ९ ॥
मूलम्
तां समासाद्य वित्रस्तां कृष्णां कमललोचनाम्।
मोमुह्यमानां ते तत्र जगृहुः कीचका भृशम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर क्या था, उपकीचकोंने उसके पास जाकर भयभीत एवं मूर्च्छित हुई कमललोचना कृष्णाको बलपूर्वक पकड़ लिया॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तु तां समारोप्य निबध्य च सुमध्यमाम्।
जग्मुरुद्यम्य ते सर्वे श्मशानाभिमुखास्तदा ॥ १० ॥
मूलम्
ततस्तु तां समारोप्य निबध्य च सुमध्यमाम्।
जग्मुरुद्यम्य ते सर्वे श्मशानाभिमुखास्तदा ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर उन्होंने सुन्दर कटिभागवाली उस देवीको टिकटीपर चढ़ाकर लाशके साथ ही बाँध दिया। इसके बाद वे सब लोग मृतकको उठाकर श्मशानभूमिकी ओर ले चले॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ह्रियमाणा तु सा राजन् सूतपुत्रैरनिन्दिता।
प्राक्रोशन्नाथमिच्छन्ती कृष्णा नाथवती सती ॥ ११ ॥
मूलम्
ह्रियमाणा तु सा राजन् सूतपुत्रैरनिन्दिता।
प्राक्रोशन्नाथमिच्छन्ती कृष्णा नाथवती सती ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! सूतपुत्रोंद्वारा इस प्रकार ले जायी जाती हुई सती द्रौपदी सनाथा होकर भी [अनाथा-सी हो रही थी, वह] नाथ (रक्षक)-की इच्छा करती हुई जोर-जोरसे पुकारने लगी॥११॥
मूलम् (वचनम्)
द्रौपद्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
जयो जयन्तो विजयो जयत्सेनो जयद्बलः।
ते मे वाचं विजानन्तु सूतपुत्रा नयन्ति माम् ॥ १२ ॥
मूलम्
जयो जयन्तो विजयो जयत्सेनो जयद्बलः।
ते मे वाचं विजानन्तु सूतपुत्रा नयन्ति माम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रौपदी बोली— मेरे पति जय, जयन्त, विजय, जयत्सेन और जयद्बल जहाँ भी हों, मेरी यह आर्त वाणी सुनें और समझें। ये सूतपुत्र मुझे श्मशानमें लिये जा रहे हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येषां ज्यातलनिर्घोषो विस्फूर्जितमिवाशनेः ।
व्यश्रूयत महायुद्धे भीमघोषस्तरस्विनाम् ॥ १३ ॥
रथघोषश्च बलवान् गन्धर्वाणां तरस्विनाम्।
ते मे वाचं विजानन्तु सूतपुत्रा नयन्ति माम् ॥ १४ ॥
मूलम्
येषां ज्यातलनिर्घोषो विस्फूर्जितमिवाशनेः ।
व्यश्रूयत महायुद्धे भीमघोषस्तरस्विनाम् ॥ १३ ॥
रथघोषश्च बलवान् गन्धर्वाणां तरस्विनाम्।
ते मे वाचं विजानन्तु सूतपुत्रा नयन्ति माम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन वेगवान् गन्धर्वोंके धनुषोंकी प्रत्यंचाका भीषण शब्द वज्राघातके समान सुनायी देता है तथा जिनके रथोंकी घर्घराहटकी आवाज भी बड़े जोरसे उठती और दूरतक फैलती है, वे मेरी आर्त वाणी सुनें और समझें। ये सुतपुत्र मुझे श्मशानमें ले जा रहे हैं॥१३-१४॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यास्ताः कृपणा वाचः कृष्णायाः परिदेवितम्।
श्रुत्वैवाभ्यापतद् भीमः शयनादविचारयन् ॥ १५ ॥
मूलम्
तस्यास्ताः कृपणा वाचः कृष्णायाः परिदेवितम्।
श्रुत्वैवाभ्यापतद् भीमः शयनादविचारयन् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! द्रौपदीकी वह दीन वाणी और करुण विलाप सुनते ही भीमसेन बिना कोई विचार किये शय्यासे कूद पड़े॥१५॥
मूलम् (वचनम्)
भीमसेन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं शृणोमि ते वाचं त्वया सैरन्ध्रि भाषिताम्।
तस्मात् ते सूतपुत्रेभ्यो भयं भीरु न विद्यते ॥ १६ ॥
मूलम्
अहं शृणोमि ते वाचं त्वया सैरन्ध्रि भाषिताम्।
तस्मात् ते सूतपुत्रेभ्यो भयं भीरु न विद्यते ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेन बोले— सैरन्ध्री! तुम जो कुछ कह रही हो, तुम्हारी वह वाणी मैं सुनता हूँ। इसलिये भीरु! अब इन सूतपुत्रोंसे तेरे लिये कोई भय नहीं है॥१६॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा स महाबाहुर्विजजृम्भे जिघांसया।
ततः स व्यायतं कृत्वा वेषं विपरिवर्त्य च ॥ १७ ॥
अद्वारेणाभ्यवस्कन्द्य निर्जगाम बहिस्तदा ।
स भीमसेनः प्राकारादारुह्य तरसा द्रुमम् ॥ १८ ॥
मूलम्
इत्युक्त्वा स महाबाहुर्विजजृम्भे जिघांसया।
ततः स व्यायतं कृत्वा वेषं विपरिवर्त्य च ॥ १७ ॥
अद्वारेणाभ्यवस्कन्द्य निर्जगाम बहिस्तदा ।
स भीमसेनः प्राकारादारुह्य तरसा द्रुमम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! ऐसा कहकर महाबाहु भीमसेनने उपकीचकोंका वध करनेके लिये अँगड़ाई लेते हुए अपने शरीरको बढ़ा लिया और प्रयत्नपूर्वक वेष बदलकर बिना दरवाजेके ही दीवार फाँदकर पाकशालासे बाहर निकल गये। फिर वे नगरका परकोटा लाँघकर बड़े वेगसे एक वृक्षपर चढ़ गये (और वहींसे यह देखने लगे कि उपकीचक द्रौपदीको किधर ले जा रहे हैं)॥१७-१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्मशानाभिमुखः प्रायाद् यत्र ते कीचका गताः।
स लङ्घयित्वा प्राकारं निःसृत्य च पुरोत्तमात्।
जवेन पतितो भीमः सूतानामग्रतस्तदा ॥ १९ ॥
मूलम्
श्मशानाभिमुखः प्रायाद् यत्र ते कीचका गताः।
स लङ्घयित्वा प्राकारं निःसृत्य च पुरोत्तमात्।
जवेन पतितो भीमः सूतानामग्रतस्तदा ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् वे उपकीचक जिधर गये थे, उसी ओर भीमसेन भी श्मशानभूमिकी दिशामें चल दिये। चहारदीवारी लाँघनेके पश्चात् उस श्रेष्ठ नगरसे निकलकर भीमसेन इतने वेगसे चले कि सूतपुत्रोंसे पहले ही वहाँ पहुँच गये॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चितासमीपे गत्वा स तत्रापश्यद् वनस्पतिम्।
तालमात्रं महास्कन्धं मूर्धशुष्कं विशाम्पते ॥ २० ॥
मूलम्
चितासमीपे गत्वा स तत्रापश्यद् वनस्पतिम्।
तालमात्रं महास्कन्धं मूर्धशुष्कं विशाम्पते ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! चिताके समीप जाकर उन्होंने वहाँ ताड़के बराबर एक वृक्ष देखा, जिसकी शाखाएँ बहुत बड़ी थीं और जो ऊपरसे सूख गया था॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं नागवदुपक्रम्य बाहुभ्यां परिरभ्य च।
स्कन्धमारोपयामास दशव्यामं परंतपः ॥ २१ ॥
मूलम्
तं नागवदुपक्रम्य बाहुभ्यां परिरभ्य च।
स्कन्धमारोपयामास दशव्यामं परंतपः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस वृक्षकी ऊँचाई दस व्याम1 थी। उसे शत्रुतापन भीमसेनने दोनों भुजाओंमें भरकर हाथीके समान जोर लगाकर उखाड़ा और अपने कंधेपर रख लिया॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तं वृक्षं दशव्यामं सस्कन्धविटपं बली।
प्रगृह्याभ्यद्रवत् सूतान् दण्डपाणिरिवान्तकः ॥ २२ ॥
मूलम्
स तं वृक्षं दशव्यामं सस्कन्धविटपं बली।
प्रगृह्याभ्यद्रवत् सूतान् दण्डपाणिरिवान्तकः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शाखा-प्रशाखाओंसहित उस दस व्याम ऊँचे वृक्षको लेकर बलवान् भीम दण्डपाणि यमराजके समान उन सूतपुत्रोंकी ओर दौड़े॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊरुवेगेन तस्याथ न्यग्रोधाश्वत्थकिंशुकाः ।
भूमौ निपतिता वृक्षाः सङ्घशस्तत्र शेरते ॥ २३ ॥
मूलम्
ऊरुवेगेन तस्याथ न्यग्रोधाश्वत्थकिंशुकाः ।
भूमौ निपतिता वृक्षाः सङ्घशस्तत्र शेरते ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय उनकी जंघाओंके वेगसे टकराकर बहुतेरे बरगद, पीपल और ढाकके वृक्ष पृथ्वीपर गिरकर ढेर-के-ढेर बिखर गये॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं सिंहमिव संक्रुद्धं दृष्ट्वा गन्धर्वमागतम्।
वित्रेसुः सर्वशः सूता विषादभयकम्पिताः ॥ २४ ॥
मूलम्
तं सिंहमिव संक्रुद्धं दृष्ट्वा गन्धर्वमागतम्।
वित्रेसुः सर्वशः सूता विषादभयकम्पिताः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सिंहके समान क्रोधमें भरे हुए गन्धर्वरूपी भीमको अपनी ओर आते देखकर सभी सूतपुत्र डर गये और विषाद एवं भयसे काँपते हुए कहने लगे—॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गन्धर्वो बलवानेति क्रुद्ध उद्यम्य पादपम्।
सैरन्ध्री मुच्यतां शीघ्रं यतो नो भयमागतम् ॥ २५ ॥
मूलम्
गन्धर्वो बलवानेति क्रुद्ध उद्यम्य पादपम्।
सैरन्ध्री मुच्यतां शीघ्रं यतो नो भयमागतम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अरे! देखो, यह बलवान् गन्धर्व वृक्ष उठाये कुपित हो हमारी ओर आ रहा है। सैरन्ध्रीको शीघ्र छोड़ दो, क्योंकि उसीके कारण हमें यह भय उपस्थित हुआ है’॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते तु दृष्ट्वा तदाऽऽविद्धं भीमसेनेन पादपम्।
विमुच्य द्रौपदीं तत्र प्राद्रवन्नगरं प्रति ॥ २६ ॥
मूलम्
ते तु दृष्ट्वा तदाऽऽविद्धं भीमसेनेन पादपम्।
विमुच्य द्रौपदीं तत्र प्राद्रवन्नगरं प्रति ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतनेमें ही भीमसेनके द्वारा घुमाये जाते हुए उस वृक्षको देखकर वे द्रौपदीको वहीं छोड़ नगरकी ओर भागने लगे॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रवतस्तांस्तु सम्प्रेक्ष्य स वज्री दानवानिव।
शतं पञ्चाधिकं भीमः प्राहिणोद् यमसादनम् ॥ २७ ॥
वृक्षेणैतेन राजेन्द्र प्रभञ्जनसुतो बली।
मूलम्
द्रवतस्तांस्तु सम्प्रेक्ष्य स वज्री दानवानिव।
शतं पञ्चाधिकं भीमः प्राहिणोद् यमसादनम् ॥ २७ ॥
वृक्षेणैतेन राजेन्द्र प्रभञ्जनसुतो बली।
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! उन्हें भागते देख वायुपुत्र बलवान् भीमने, वज्रधारी इन्द्र जैसे दानवोंका वध करते हैं, उसी प्रकार उस वृक्षसे एक सौ पाँच उपकीचकोंको यमराजके घर भेज दिया॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत आश्वासयत् कृष्णां स विमुच्य विशाम्पते ॥ २८ ॥
मूलम्
तत आश्वासयत् कृष्णां स विमुच्य विशाम्पते ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! तदनन्तर उन्होंने द्रौपदीको बन्धनसे मुक्त करके आश्वासन दिया॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उवाच च महाबाहुः पाञ्चालीं तत्र द्रौपदीम्।
अश्रुपूर्णमुखीं दीनां दुर्धर्षः स वृकोदरः ॥ २९ ॥
मूलम्
उवाच च महाबाहुः पाञ्चालीं तत्र द्रौपदीम्।
अश्रुपूर्णमुखीं दीनां दुर्धर्षः स वृकोदरः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय पांचालराजकुमारी द्रौपदी बड़ी दीन एवं दयनीय हो गयी थी। उसके मुखपर आँसुओंकी धारा बह रही थी। दुर्धर्ष वीर महाबाहु वृकोदरने उसे धीरज बँधाते हुए कहा—॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं ते भीरु वध्यन्ते ये त्वां क्लिश्यन्त्यनागसम्।
प्रैहि त्वं नगरं कृष्णे न भयं विद्यते तव॥३०॥
अन्येनाहं गमिष्यामि विराटस्य महानसम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
एवं ते भीरु वध्यन्ते ये त्वां क्लिश्यन्त्यनागसम्।
प्रैहि त्वं नगरं कृष्णे न भयं विद्यते तव॥३०॥
अन्येनाहं गमिष्यामि विराटस्य महानसम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भीरु! जो तुझ निरपराध अबलाको सतायेंगे, वे इसी तरह मारे जायँगे। कृष्णे! नगरको जाओ। अब तुम्हारे लिये कोई भय नहीं है। मैं दूसरे मार्गसे विराटकी पाकशालामें चला जाऊँगा’॥३०-३१॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चाधिकं शतं तच्च निहतं तेन भारत।
महावनमिवच्छिन्नं शिश्ये विगलितद्रुमम् ॥ ३२ ॥
मूलम्
पञ्चाधिकं शतं तच्च निहतं तेन भारत।
महावनमिवच्छिन्नं शिश्ये विगलितद्रुमम् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— भारत! भीमसेनके द्वारा मारे गये वे एक सौ पाँच उपकीचक वहाँ श्मशानभूमिमें इस प्रकार सो रहे थे, मानो काटा हुआ महान् जंगल गिरे हुए पेड़ोंसे भरा हो॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं ते निहता राजञ्छतं पञ्च च कीचकाः।
स च सेनापतिः पूर्वमित्येतत् सूतषट्शतम् ॥ ३३ ॥
मूलम्
एवं ते निहता राजञ्छतं पञ्च च कीचकाः।
स च सेनापतिः पूर्वमित्येतत् सूतषट्शतम् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इस प्रकार वे एक सौ पाँच उपकीचक और पहले मरा हुआ सेनापति कीचक सब मिलकर एक सौ छः सूतपुत्र मारे गये॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् दृष्ट्वा महदाश्चर्यं नरा नार्यश्च संगताः।
विस्मयं परमं गत्वा नोचुः किञ्चन भारत ॥ ३४ ॥
मूलम्
तद् दृष्ट्वा महदाश्चर्यं नरा नार्यश्च संगताः।
विस्मयं परमं गत्वा नोचुः किञ्चन भारत ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! उस समय श्मशानभूमिमें बहुत-से पुरुष और स्त्रियाँ एकत्र हो गयी थीं। उन सबने यह महान् आश्चर्यजनक काण्ड देखा, किंतु भारी विस्मयमें पड़कर किसीने कुछ कहा नहीं॥३४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि कीचकवधपर्वणि त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत कीचकवधपर्वमें तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२३॥
-
दोनों हाथोंको फैलानेपर जितनी लंबाई होती है, उसे एक व्याम कहते हैं। ↩︎