०२१ द्रौपदी-भीमसेनसंवादः

भागसूचना

एकविंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

भीमसेन और द्रौपदीका संवाद

मूलम् (वचनम्)

भीमसेन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

धिगस्तु मे बाहुबलं गाण्डीवं फाल्गुनस्य च।
यत् ते रक्तौ पुरा भूत्वा पाणी कृतकिणाविमौ ॥ १ ॥

मूलम्

धिगस्तु मे बाहुबलं गाण्डीवं फाल्गुनस्य च।
यत् ते रक्तौ पुरा भूत्वा पाणी कृतकिणाविमौ ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेन बोले— देवि! मेरे बाहुबलको तथा अर्जुनके गाण्डीव धनुषको भी धिक्कार है; क्योंकि तुम्हारे ये दोनों कोमल हाथ, जो पहले लाल थे, अब घट्ठे पड़नेसे काले हो गये हैं॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभायां तु विराटस्य करोमि कदनं महत्।
तत्र मे कारणं भाति कौन्तेयो यत् प्रतीक्षते ॥ २ ॥

मूलम्

सभायां तु विराटस्य करोमि कदनं महत्।
तत्र मे कारणं भाति कौन्तेयो यत् प्रतीक्षते ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं तो उसी दिन विराटकी सभामें ही भारी संहार मचा देता, किंतु ऐसा न करनेमें कारण बन गये कुन्तीनन्दन महाराज युधिष्ठिर। वे प्रकट हो जानेका भय सूचित करते हुए मेरी ओर देखने लगे॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथवा कीचकस्याहं पोथयामि पदा शिरः।
ऐश्वर्यमदमत्तस्य क्रीडन्निव महाद्विपः ॥ ३ ॥

मूलम्

अथवा कीचकस्याहं पोथयामि पदा शिरः।
ऐश्वर्यमदमत्तस्य क्रीडन्निव महाद्विपः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा ऐश्वर्यके मदसे उन्मत्त हुए उस कीचकका मस्तक मैं उसी प्रकार पैरोंसे रौंद डालता जैसे क्रीडा करता हुआ महान् गजराज कीचक (बाँस)-के वृक्षको मसल डालता है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपश्यं त्वां यदा कृष्णे कीचकेन पदा हताम्।
तदैवाहं चिकीर्षामि मत्स्यानां कदनं महत् ॥ ४ ॥

मूलम्

अपश्यं त्वां यदा कृष्णे कीचकेन पदा हताम्।
तदैवाहं चिकीर्षामि मत्स्यानां कदनं महत् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृष्णे! जब कीचकने तुम्हें लातसे मारा था, उस समय मैं वहीं था और अपनी आँखों यह घटना मैंने देखी थी। उसी क्षण मेरी इच्छा हुई कि आज इन मत्स्यदेशवासियोंका महासंहार कर डालूँ॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र मां धर्मराजस्तु कटाक्षेण न्यवारयत्।
तदहं तस्य विज्ञाय स्थित एवास्मि भामिनि ॥ ५ ॥

मूलम्

तत्र मां धर्मराजस्तु कटाक्षेण न्यवारयत्।
तदहं तस्य विज्ञाय स्थित एवास्मि भामिनि ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किंतु धर्मराजने वहाँ नेत्रोंसे संकेत करके मुझे ऐसा करनेसे रोक दिया। भामिनि! उनके उस इशारेको समझकर ही मैं चुप रह गया॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्च राष्ट्रात् प्रच्यवनं कुरूणामवधश्च यः।
सुयोधनस्य कर्णस्य शकुनेः सौबलस्य च ॥ ६ ॥
दुःशासनस्य पापस्य यन्मया नाहृतं शिरः।
तन्मे दहति गात्राणि हृदि शल्यमिवार्पितम्।
मा धर्मं जहि सुश्रोणि क्रोधं जहि महामते ॥ ७ ॥

मूलम्

यच्च राष्ट्रात् प्रच्यवनं कुरूणामवधश्च यः।
सुयोधनस्य कर्णस्य शकुनेः सौबलस्य च ॥ ६ ॥
दुःशासनस्य पापस्य यन्मया नाहृतं शिरः।
तन्मे दहति गात्राणि हृदि शल्यमिवार्पितम्।
मा धर्मं जहि सुश्रोणि क्रोधं जहि महामते ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस दिन हमें राज्यसे वञ्चित किया गया, उसी दिन जो कौरवोंका वध नहीं हुआ, दुर्योधन, कर्ण, सुबलपुत्र शकुनि तथा पापी दुःशासनके मस्तक मैंने नहीं काट डाले, यह सब सोचकर मेरे हृदयमें काँटा-सा चुभ जाता है और शरीरमें आग लग जाती है। सुश्रोणि! तुम बड़ी बुद्धिमती हो, धर्मको न छोड़ो; क्रोधका त्याग करो॥६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमं तु समुपालम्भं त्वत्तो राजा युधिष्ठिरः।
शृणुयाद् वापि कल्याणि कृत्स्नं जह्यात् स जीवितम् ॥ ८ ॥

मूलम्

इमं तु समुपालम्भं त्वत्तो राजा युधिष्ठिरः।
शृणुयाद् वापि कल्याणि कृत्स्नं जह्यात् स जीवितम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कल्याणी! यदि राजा युधिष्ठिर तुम्हारे मुखसे यह सारा उपालम्भ सुन लेंगे तो प्राण त्याग देंगे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनंजयो वा सुश्रोणि यमौ वा तनुमध्यमे।
लोकान्तरगतेष्वेषु नाहं शक्ष्यामि जीवितुम् ॥ ९ ॥

मूलम्

धनंजयो वा सुश्रोणि यमौ वा तनुमध्यमे।
लोकान्तरगतेष्वेषु नाहं शक्ष्यामि जीवितुम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुश्रोणि! तनुमध्यमे! धनंजय अथवा नकुल-सहदेव भी इसे सुनकर जीवित नहीं रह सकते। इन सबके परलोकवासी हो जानेपर मैं भी नहीं जी सकूँगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरा सुकन्या भार्या च भार्गवं च्यवनं वने।
वल्मीकभूतं शाम्यन्तमन्वपद्यत भामिनी ॥ १० ॥
नारायणी चेन्द्रसेना रूपेण यदि ते श्रुता।
पतिमन्वचरद् वृद्धं पुरा वर्षसहस्रिणम् ॥ ११ ॥

मूलम्

पुरा सुकन्या भार्या च भार्गवं च्यवनं वने।
वल्मीकभूतं शाम्यन्तमन्वपद्यत भामिनी ॥ १० ॥
नारायणी चेन्द्रसेना रूपेण यदि ते श्रुता।
पतिमन्वचरद् वृद्धं पुरा वर्षसहस्रिणम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्राचीन कालकी बात है, भृगुनन्दन महर्षि च्यवन तपस्या करते-करते बाँबीके समान हो गये थे, मानो अब उनका जीवनदीप बुझ जायगा; ऐसी दशा हो गयी थी, तो भी उनकी कल्याणमयी पत्नी सुकन्याने उन्हींका अनुसरण किया—वह उन्हींकी सेवा-शुश्रूषामें लगी रही। नारायणी इन्द्रसेना भी अपने रूप-सौन्दर्यके कारण विख्यात थी। तुमने भी उसका नाम सुना होगा। पूर्वकालमें उसने अपने हजार वर्षके बूढ़े पति मुद्‌गल ऋषिकी निरन्तर सेवा की थी॥१०-११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुहिता जनकस्यापि वैदेही यदि ते श्रुता।
पतिमन्वचरत् सीता महारण्यनिवासिनम् ॥ १२ ॥

मूलम्

दुहिता जनकस्यापि वैदेही यदि ते श्रुता।
पतिमन्वचरत् सीता महारण्यनिवासिनम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनकनन्दिनी वैदेही सीताका नाम तो तुम्हारे कानोंमें पड़ा ही होगा। उन्होंने अत्यन्त घोर वनमें निवास करनेवाले अपने पति श्रीरामचन्द्रजीका अनुगमन किया था॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रक्षसा निग्रहं प्राप्य रामस्य महिषी प्रिया।
क्लिश्यमानापि सुश्रोणि राममेवान्वपद्यत ॥ १३ ॥

मूलम्

रक्षसा निग्रहं प्राप्य रामस्य महिषी प्रिया।
क्लिश्यमानापि सुश्रोणि राममेवान्वपद्यत ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुश्रोणि! जानकी श्रीरामकी प्यारी रानी थीं। वे राक्षसकी कैदमें पड़कर दीर्घकालतक क्लेश उठाती रहीं, तो भी उन्होंने श्रीरामको ही अपनाये रखा; अपना धर्म नहीं छोड़ा॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोपामुद्रा तथा भीरु वयोरूपसमन्विता।
अगस्तिमन्वयाद्धित्वा कामान् सर्वानमानुषान् ॥ १४ ॥

मूलम्

लोपामुद्रा तथा भीरु वयोरूपसमन्विता।
अगस्तिमन्वयाद्धित्वा कामान् सर्वानमानुषान् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीरु! नयी अवस्था और अनुपम रूप-सौन्दर्यसे सम्पन्न राजकुमारी लोपामुद्राने सम्पूर्ण अलौकिक सुख-भोगोंपर लात मारकर अपने पति महर्षि अगस्त्यका ही अनुसरण किया था॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्युमत्सेनसुतं वीरं सत्यवन्तमनिन्दिता ।
सावित्र्यनुचचारैका यमलोकं मनस्विनी ॥ १५ ॥

मूलम्

द्युमत्सेनसुतं वीरं सत्यवन्तमनिन्दिता ।
सावित्र्यनुचचारैका यमलोकं मनस्विनी ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सती-साध्वी मनस्विनी सावित्री द्युमत्सेनके पुत्र वीरवर सत्यवान्‌के मर जानेपर उनके पीछे-पीछे अकेली ही यमलोककी ओर गयी थी॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथैताः कीर्तिता नार्यो रूपवत्यः पतिव्रताः।
तथा त्वमपि कल्याणि सर्वैः समुदिता गुणैः ॥ १६ ॥

मूलम्

यथैताः कीर्तिता नार्यो रूपवत्यः पतिव्रताः।
तथा त्वमपि कल्याणि सर्वैः समुदिता गुणैः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कल्याणि! इन रूपवती पतिव्रता नारियोंका जैसा आदर्श बताया गया है, उसी प्रकार तुम भी समस्त सद्‌गुणोंसे सम्पन्न हो॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मादीर्घं क्षम कालं त्वं मासमर्धं च सम्मितम्।
पूर्णे त्रयोदशे वर्षे राज्ञां राज्ञी भविष्यसि ॥ १७ ॥

मूलम्

मादीर्घं क्षम कालं त्वं मासमर्धं च सम्मितम्।
पूर्णे त्रयोदशे वर्षे राज्ञां राज्ञी भविष्यसि ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब तुम थोड़े दिनोंतक और ठहर जाओ। वर्ष पूरा होनेमें महीना—आध-महीना और रह गया है। तेरहवाँ वर्ष पूर्ण होते ही तुम राजरानी बनोगी॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(सत्येन ते शपे चाहं भविता नान्यथेति ह।
सर्वासां परमस्त्रीणां प्रामाण्यं कर्तुमर्हसि।

मूलम्

(सत्येन ते शपे चाहं भविता नान्यथेति ह।
सर्वासां परमस्त्रीणां प्रामाण्यं कर्तुमर्हसि।

अनुवाद (हिन्दी)

देवि! मैं सत्यकी शपथ खाकर कहता हूँ, ऐसा ही होगा; यह टल नहीं सकता। तुम्हें सभी श्रेष्ठ स्त्रियोंके समक्ष अपना आदर्श उपस्थित करना चाहिये।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वेषां च नरेन्द्राणां मूर्ध्नि स्थास्यसि भामिनि॥
भर्तृभक्त्या च वृत्तेन भोगान् प्राप्स्यसि दुर्लभान्॥)

मूलम्

सर्वेषां च नरेन्द्राणां मूर्ध्नि स्थास्यसि भामिनि॥
भर्तृभक्त्या च वृत्तेन भोगान् प्राप्स्यसि दुर्लभान्॥)

अनुवाद (हिन्दी)

भामिनि! तुम अपनी पतिभक्ति तथा सदाचारसे सम्पूर्ण नरेशोंके मस्तकपर स्थान प्राप्त करोगी और तुम्हें दुर्लभ भोग सुलभ होंगे।

मूलम् (वचनम्)

द्रौपद्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आर्तयैतन्मया भीम कृतं बाष्पप्रमोचनम्।
अपारयन्त्या दुःखानि न राजानमुपालभे ॥ १८ ॥

मूलम्

आर्तयैतन्मया भीम कृतं बाष्पप्रमोचनम्।
अपारयन्त्या दुःखानि न राजानमुपालभे ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रौपदीने कहा— प्राणनाथ भीम! इधर अनेक प्रकारके दुःखोंको सहन करनेमें असमर्थ एवं आर्त होकर ही मैंने ये आँसू बहाये हैं। मैं राजा युधिष्ठिरको उलाहना नहीं दूँगी॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमुक्तेन व्यतीतेन भीमसेन महाबल।
प्रत्युपस्थितकालस्य कार्यस्यानन्तरो भव ॥ १९ ॥

मूलम्

किमुक्तेन व्यतीतेन भीमसेन महाबल।
प्रत्युपस्थितकालस्य कार्यस्यानन्तरो भव ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबली भीमसेन! अब बीती बातोंको दुहरानेसे क्या लाभ? इस समय जिसका अवसर उपस्थित है, उस कार्यके लिये तैयार हो जाओ॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ममेह भीम कैकेयी रूपाभिभवशङ्कया।
नित्यमुद्विजते राजा कथं नेयादिमामिति ॥ २० ॥

मूलम्

ममेह भीम कैकेयी रूपाभिभवशङ्कया।
नित्यमुद्विजते राजा कथं नेयादिमामिति ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीम! केकयकुमारी सुदेष्णा यहाँ मेरे रूपसे पराजित होनेके कारण सदा इस शंकासे उद्विग्न रहती है कि राजा विराट किसी प्रकार इसपर आसक्त न हो जायँ॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्या विदित्वा तं भावं स्वयं चानृतदर्शनः।
कीचकोऽयं सुदुष्टात्मा सदा प्रार्थयते हि माम् ॥ २१ ॥

मूलम्

तस्या विदित्वा तं भावं स्वयं चानृतदर्शनः।
कीचकोऽयं सुदुष्टात्मा सदा प्रार्थयते हि माम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसका देखना भी अनृत (पापमय) है, वही यह परम दुष्टात्मा कीचक रानी सुदेष्णाके उक्त मनोभाव-को जानकर सदा स्वयं आकर मेरे आगे प्रार्थना किया करता है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमहं कुपिता भीम पुनः कोपं नियम्य च।
अब्रुवं कामसम्मूढमात्मानं रक्ष कीचक ॥ २२ ॥

मूलम्

तमहं कुपिता भीम पुनः कोपं नियम्य च।
अब्रुवं कामसम्मूढमात्मानं रक्ष कीचक ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीम! पहले-पहल उसके ऐसा कहनेपर मैं कुपित हो उठी; किंतु पुनः क्रोधके वेगको रोककर बोली—‘कीचक! तू कामसे मोहित हो रहा है। अरे! तू अपने-आपकी रक्षा कर॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गन्धर्वाणामहं भार्या पञ्चानां महिषी प्रिया।
ते त्वां निहन्युः कुपिताः शूराः साहसकारिणः ॥ २३ ॥

मूलम्

गन्धर्वाणामहं भार्या पञ्चानां महिषी प्रिया।
ते त्वां निहन्युः कुपिताः शूराः साहसकारिणः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं पाँच गन्धर्वोंकी पत्नी तथा प्यारी रानी हूँ। वे साहसी तथा शूरवीर गन्धर्व तुम्हें कुपित होकर मार डालेंगे’॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तः सुदुष्टात्मा कीचकः प्रत्युवाच ह।
नाहं बिभेमि सैरन्ध्रि गन्धर्वाणां शुचिस्मिते ॥ २४ ॥

मूलम्

एवमुक्तः सुदुष्टात्मा कीचकः प्रत्युवाच ह।
नाहं बिभेमि सैरन्ध्रि गन्धर्वाणां शुचिस्मिते ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे ऐसा कहनेपर महा दुष्टात्मा कीचकने उत्तर दिया—‘पवित्र मुसकानवाली सैरन्ध्री! मैं गन्धर्वोंसे नहीं डरता॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शतं शतसहस्राणि गन्धर्वाणामहं रणे।
समागतं हनिष्यामि त्वं भीरु कुरु मे क्षणम् ॥ २५ ॥

मूलम्

शतं शतसहस्राणि गन्धर्वाणामहं रणे।
समागतं हनिष्यामि त्वं भीरु कुरु मे क्षणम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भीरु! यदि युद्धमें मेरे सामने एक करोड़ गन्धर्व भी आ जायँ, तो मैं उन्हें मार डालूँगा; परंतु तुम मुझे स्वीकार कर लो’॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्ते चाब्रुवं मत्तं कामातुरमहं पुनः।
न त्वं प्रतिबलश्चैषां गन्धर्वाणां यशस्विनाम् ॥ २६ ॥

मूलम्

इत्युक्ते चाब्रुवं मत्तं कामातुरमहं पुनः।
न त्वं प्रतिबलश्चैषां गन्धर्वाणां यशस्विनाम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके इस प्रकार उत्तर देनेपर मैंने पुनः उस कामातुर और मतवाले कीचकसे कहा—‘कीचक! तू मेरे यशस्वी पति गन्धर्वोंके समान बलवान् नहीं है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मे स्थितास्मि सततं कुलशीलसमन्विता।
नेच्छामि कंचिद् वध्यन्तं तेन जीवसि कीचक ॥ २७ ॥

मूलम्

धर्मे स्थितास्मि सततं कुलशीलसमन्विता।
नेच्छामि कंचिद् वध्यन्तं तेन जीवसि कीचक ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं सदा पातिव्रत्य-धर्ममें स्थित रहती हूँ एवं अपने उत्तम कुलकी मर्यादा और सदाचारसे सम्पन्न हूँ। मैं नहीं चाहती कि मेरे कारण किसीका वध हो, इसीलिये तू अबतक जीवित है’॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तः स दुष्टात्मा प्राहसत् स्वनवत् तदा।
अथ मां तत्र कैकेयी प्रैषयत् प्रणयेन तु ॥ २८ ॥
तेनैव देशिता पूर्वं भ्रातृप्रियचिकीर्षया।
सुरामानय कल्याणि कीचकस्य निवेशनात् ॥ २९ ॥

मूलम्

एवमुक्तः स दुष्टात्मा प्राहसत् स्वनवत् तदा।
अथ मां तत्र कैकेयी प्रैषयत् प्रणयेन तु ॥ २८ ॥
तेनैव देशिता पूर्वं भ्रातृप्रियचिकीर्षया।
सुरामानय कल्याणि कीचकस्य निवेशनात् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरी यह बात सुनकर वह दुष्टात्मा ठहाका मारकर हँसने लगा। तदनन्तर केकयराजकुमारी सुदेष्णा, जैसा कीचकने पहले उसे सिखा रखा था, उसी योजनाके अनुसार अपने भाईका प्रिय करनेकी इच्छासे मुझे प्रेमपूर्वक कीचकके यहाँ भेजने लगी और बोली—‘कल्याणि! तुम कीचकके महलसे मेरे लिये मदिरा ले आओ’॥२८-२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूतपुत्रस्तु मां दृष्ट्वा महत् सान्त्वमवर्तयत्।
सान्त्वे प्रतिहते क्रुद्धः परामर्शमनाभवत् ॥ ३० ॥

मूलम्

सूतपुत्रस्तु मां दृष्ट्वा महत् सान्त्वमवर्तयत्।
सान्त्वे प्रतिहते क्रुद्धः परामर्शमनाभवत् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं वहाँ गयी। सूतपुत्रने मुझे देखकर पहले तो अपनी बात मान लेनेके लिये बड़े-बड़े आश्वासनोंके साथ समझाना आरम्भ किया; किंतु जब मैंने उसकी प्रार्थना ठुकरा दी, तब उसने क्रोधपूर्वक मेरे साथ बलात्कार करनेका विचार किया॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विदित्वा तस्य संकल्पं कीचकस्य दुरात्मनः।
तथाहं राजशरणं जवेनैव प्रधाविता ॥ ३१ ॥

मूलम्

विदित्वा तस्य संकल्पं कीचकस्य दुरात्मनः।
तथाहं राजशरणं जवेनैव प्रधाविता ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुरात्मा कीचकके उस संकल्पको मैं जान गयी और राजाकी शरणमें पहुँचनेके लिये बड़े वेगसे भागी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संदर्शने तु मां राज्ञः सूतपुत्रः परामृशत्।
पातयित्वा तु दुष्टात्मा पदाहं तेन ताडिता ॥ ३२ ॥

मूलम्

संदर्शने तु मां राज्ञः सूतपुत्रः परामृशत्।
पातयित्वा तु दुष्टात्मा पदाहं तेन ताडिता ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किंतु वहाँ भी दुष्टात्मा सूतपुत्रने राजाके सामने मुझे पकड़ लिया और पृथ्वीपर गिराकर लातसे मारा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रेक्षते स्म विराटस्तु कङ्कस्तु बहवो जनाः।
रथिनः पीठमर्दाश्च हस्त्यारोहाश्च नैगमाः ॥ ३३ ॥

मूलम्

प्रेक्षते स्म विराटस्तु कङ्कस्तु बहवो जनाः।
रथिनः पीठमर्दाश्च हस्त्यारोहाश्च नैगमाः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा विराट देखते रह गये। कंक तथा अन्य लोगोंने भी यह सब देखा। रथी, पीठमर्द (राजाके प्रियव्यक्ति), महावत, वैदिक विद्वान् तथा नागरिक—सबकी दृष्टिमें यह बात आयी थी॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपालब्धो मया राजा कङ्कश्चापि पुनः पुनः।
ततो न वारितो राज्ञा न तस्याविनयः कृतः ॥ ३४ ॥

मूलम्

उपालब्धो मया राजा कङ्कश्चापि पुनः पुनः।
ततो न वारितो राज्ञा न तस्याविनयः कृतः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने राजा विराट और कंकको बार-बार फटकारा, तो भी राजाने न तो उसे मना किया और न उसकी उद्दण्डताका दमन ही किया॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽयं राज्ञो विराटस्थ कीचको नाम सारथिः।
त्यक्तधर्मा नृशंसश्च नरस्त्रीसम्मतः प्रियः ॥ ३५ ॥

मूलम्

योऽयं राज्ञो विराटस्थ कीचको नाम सारथिः।
त्यक्तधर्मा नृशंसश्च नरस्त्रीसम्मतः प्रियः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा विराटका यह जो कीचक नामवाला सारथि है, इसने धर्मको त्याग दिया है। यह अत्यन्त क्रूर है, तो भी विराट और सुदेष्णा दोनों पति-पत्नी उसे बहुत मानते हैं। यह उनका प्रिय सेनापति है॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शूरोऽभिमानी पापात्मा सर्वार्थेषु च मुग्धवान्।
दारामर्शी महाभाग लभतेऽर्थान् बहूनपि ॥ ३६ ॥

मूलम्

शूरोऽभिमानी पापात्मा सर्वार्थेषु च मुग्धवान्।
दारामर्शी महाभाग लभतेऽर्थान् बहूनपि ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसे अपनी शूरवीरताका बड़ा अभिमान है। यह पापात्मा सब बातोंमें मूर्ख है। महाभाग! यह परायी स्त्रियोंपर बलात्कार करता और लोगोंसे बहुत धन हड़पता रहता है॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आहरेदपि वित्तानि परेषां क्रोशतामपि।
न तिष्ठति स्म सन्मार्गें न च धर्मं बुभूषति॥३७॥

मूलम्

आहरेदपि वित्तानि परेषां क्रोशतामपि।
न तिष्ठति स्म सन्मार्गें न च धर्मं बुभूषति॥३७॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोग रोते-चिल्लाते रह जाते हैं; किंतु यह उनका सारा धन हड़प लेता है। यह सन्मार्गमें स्थिर नहीं रहता तथा धर्मोपार्जन भी नहीं करना चाहता है॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पापात्मा पापभावश्च कामबाणवशानुगः ।
अविनीतश्च दुष्टात्मा प्रत्याख्यातः पुनः पुनः ॥ ३८ ॥

मूलम्

पापात्मा पापभावश्च कामबाणवशानुगः ।
अविनीतश्च दुष्टात्मा प्रत्याख्यातः पुनः पुनः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह पापात्मा है; इसके मनमें पापकी ही वासना है। यह कामदेवके बाणोंसे विवश हो रहा है। उद्दण्ड और दुष्टात्मा तो है ही। मैंने बार-बार इसकी प्रार्थना ठुकरायी है॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दर्शने दर्शने हन्याद् यदि जह्यां च जीवितम्।
तद् धर्मे यतमानानां महान् धर्मो नशिष्यति ॥ ३९ ॥

मूलम्

दर्शने दर्शने हन्याद् यदि जह्यां च जीवितम्।
तद् धर्मे यतमानानां महान् धर्मो नशिष्यति ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः यह जब-जब सामने आयेगा, मुझे मारेगा। सम्भव है, किसी दिन मुझे जीवनसे भी हाथ धोना पड़े। उस दशामें धर्मके लिये प्रयत्न करनेवाले तुम सब लोगोंका सबसे महान् धर्म नष्ट हो जायगा॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समयं रक्षमाणानां भार्या वो न भविष्यति।
भार्यायां रक्ष्यमाणायां प्रजा भवति रक्षिता ॥ ४० ॥

मूलम्

समयं रक्षमाणानां भार्या वो न भविष्यति।
भार्यायां रक्ष्यमाणायां प्रजा भवति रक्षिता ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि तुमलोग प्रतिज्ञाके अनुसार तेरह वर्षकी अवधिका पालन करते रहोगे, तो तुम्हारी यह भार्या जीवित न रहेगी। भार्याकी रक्षा करनेपर संतानकी रक्षा होती है॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रजायां रक्ष्यमाणायामात्मा भवति रक्षितः।
आत्मा हि जायते तस्यां तेन जायां विदुर्बुधाः ॥ ४१ ॥

मूलम्

प्रजायां रक्ष्यमाणायामात्मा भवति रक्षितः।
आत्मा हि जायते तस्यां तेन जायां विदुर्बुधाः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संतानकी रक्षा होनेपर अपना आत्मा सुरक्षित होता है। आत्मा ही पत्नीके गर्भसे पुत्ररूपमें जन्म लेता है। इसीलिये विद्वान् पुरुष पत्नीको ‘जाया’ कहते हैं॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भर्ता तु भार्यया रक्ष्यः कथं जायान्ममोदरे।
वदतां वर्णधर्मांश्च ब्राह्मणानामिति श्रुतः ॥ ४२ ॥

मूलम्

भर्ता तु भार्यया रक्ष्यः कथं जायान्ममोदरे।
वदतां वर्णधर्मांश्च ब्राह्मणानामिति श्रुतः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने वर्णधर्मका उपदेश देनेवाले ब्राह्मणोंके मुँहसे सुना है, पत्नीको पतिकी रक्षा इसलिये करनी चाहिये कि यह किसी दिन मेरे पेटसे पुत्ररूपमें जन्म लेगा॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षत्रियस्य सदा धर्मो नान्यः शत्रुनिबर्हणात्।
पश्यतो धर्मराजस्य कीचको मां पदावधीत् ॥ ४३ ॥
तव चैव समक्षे वै भीमसेन महाबल।
त्वया ह्यहं परित्राता तस्माद् घोराज्जटासुरात् ॥ ४४ ॥

मूलम्

क्षत्रियस्य सदा धर्मो नान्यः शत्रुनिबर्हणात्।
पश्यतो धर्मराजस्य कीचको मां पदावधीत् ॥ ४३ ॥
तव चैव समक्षे वै भीमसेन महाबल।
त्वया ह्यहं परित्राता तस्माद् घोराज्जटासुरात् ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबली भीमसेन! क्षत्रियके लिये सदा शत्रुओंका संहार करनेके सिवा और कोई धर्म नहीं है। कीचकने धर्मराज युधिष्ठिरके देखते-देखते और तुम्हारी आँखोंके सामने मुझे लात मारी है। तुमने उस भयंकर राक्षस जटासुरसे मेरी रक्षा की है॥४३-४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जयद्रथं तथैव त्वमजैषीर्भ्रातृभिः सह।
जहीममपि पापिष्ठं योऽयं मामवमन्यते ॥ ४५ ॥

मूलम्

जयद्रथं तथैव त्वमजैषीर्भ्रातृभिः सह।
जहीममपि पापिष्ठं योऽयं मामवमन्यते ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भाइयोंसहित तुमने जयद्रथको भी परास्त किया है। अतः अब इस महापापी कीचकको भी मार डालो, जो मेरा अपमान कर रहा है॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कीचको राजवाल्लभ्याच्छोककृन्मम भारत ।
तमेवं कामसम्मत्तं भिन्धि कुम्भमिवाश्मनि ॥ ४६ ॥

मूलम्

कीचको राजवाल्लभ्याच्छोककृन्मम भारत ।
तमेवं कामसम्मत्तं भिन्धि कुम्भमिवाश्मनि ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! राजाका प्रिय होनेके कारण ही कीचक मेरे लिये शोककारक हो रहा है। अतः ऐसे कामोन्मत्त पापीको तुम उसी तरह विदीर्ण कर डालो, जैसे पत्थर-पर पटककर घड़ेको फोड़ दिया जाता है॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो निमित्तमनर्थानां बहूनां मम भारत।
तं चेज्जीवन्तमादित्यः प्रातरभ्युदयिष्यति ॥ ४७ ॥
विषमालोड्य पास्यामि मा कीचकवशं गमम्।
श्रेयो हि मरणं मह्यं भीमसेन तवाग्रतः ॥ ४८ ॥

मूलम्

यो निमित्तमनर्थानां बहूनां मम भारत।
तं चेज्जीवन्तमादित्यः प्रातरभ्युदयिष्यति ॥ ४७ ॥
विषमालोड्य पास्यामि मा कीचकवशं गमम्।
श्रेयो हि मरणं मह्यं भीमसेन तवाग्रतः ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! जो मेरे लिये बहुत-से अनर्थोंका कारण बना हुआ है, उसके जीते-जी यदि कल सूर्योदय हो जायगा, तो मैं विष घोलकर पी लूँगी; किंतु कीचकके अधीन नहीं होऊँगी। भीमसेन! कीचकके वशमें पड़नेकी अपेक्षा तुम्हारे सामने प्राण त्याग देना मेरे लिये कल्याणकारी होगा॥४७-४८॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा प्रारुदत् कृष्णा भीमस्योरःसमाश्रिता।
भीमश्च तां परिष्वज्य महत् सान्त्वं प्रयुज्य च ॥ ४९ ॥

मूलम्

इत्युक्त्वा प्रारुदत् कृष्णा भीमस्योरःसमाश्रिता।
भीमश्च तां परिष्वज्य महत् सान्त्वं प्रयुज्य च ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! ऐसा कहकर द्रौपदी भीमके वक्षःस्थलपर माथा टेककर फूट-फूटकर रोने लगी। भीमसेनने उसको हृदयसे लगाकर बहुत सान्त्वना दी॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आश्वासयित्वा बहुशो भृशमार्तां सुमध्यमाम्।
हेतुतत्त्वार्थसंयुक्तैर्वचोभिर्द्रुपदात्मजाम् ॥ ५० ॥
प्रमृज्य वदनं तस्याः पाणिनाश्रुसमाकुलम्।
कीचकं मनसागच्छत् सृक्किणी परिसंलिहन्।
उवाच चैनां दुःखार्तां भीमः क्रोधसमन्वितः ॥ ५१ ॥

मूलम्

आश्वासयित्वा बहुशो भृशमार्तां सुमध्यमाम्।
हेतुतत्त्वार्थसंयुक्तैर्वचोभिर्द्रुपदात्मजाम् ॥ ५० ॥
प्रमृज्य वदनं तस्याः पाणिनाश्रुसमाकुलम्।
कीचकं मनसागच्छत् सृक्किणी परिसंलिहन्।
उवाच चैनां दुःखार्तां भीमः क्रोधसमन्वितः ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह बहुत आर्त हो रही थी, अतः उन्होंने सुन्दर कटिभागवाली द्रुपदकुमारीको युक्तियुक्त तात्त्विक वचनोंसे अनेक बार आश्वासन देकर अपने हाथसे उसके आँसूभरे मुँहको पोंछा और क्रोधसे जबड़े चाटते हुए मन-ही-मन कीचकका स्मरण किया। तदनन्तर भीमने दुःखपीड़ित द्रौपदीसे इस प्रकार कहा॥५०-५१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि कीचकवधपर्वणि द्रौपदीसान्त्वने एकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत कीचकवधपर्वमें द्रौपदीको आश्वासनविषयक इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२१॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ५३ श्लोक हैं।)