०२० द्रौपद्या भीमसेनान्तिके दुःखनिवेदनम्

भागसूचना

विंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

द्रौपदीद्वारा भीमसेनसे अपना दुःख निवेदन करना

मूलम् (वचनम्)

द्रौपद्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं सैरन्ध्रिवेषेण चरन्ती राजवेश्मनि।
शौचदास्मि सुदेष्णाया अक्षधूर्तस्य कारणात् ॥ १ ॥

मूलम्

अहं सैरन्ध्रिवेषेण चरन्ती राजवेश्मनि।
शौचदास्मि सुदेष्णाया अक्षधूर्तस्य कारणात् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रौपदी कहती है— परंतप! तुम्हारे जूएमें चतुर चालाक भाईके कारण आज मैं राजमहलमें सैरन्ध्रीका वेश धारण करके टहल बजाती और रानी सुदेष्णाको स्नानकी वस्तुएँ जुटाकर देती हूँ॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विक्रियां पश्य मे तीव्रां राजपुत्र्याः परंतप।
आत्मकालमुदीक्षन्ती सर्वं दुःखं किलान्तवत् ॥ २ ॥

मूलम्

विक्रियां पश्य मे तीव्रां राजपुत्र्याः परंतप।
आत्मकालमुदीक्षन्ती सर्वं दुःखं किलान्तवत् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजपुत्री होकर भी मुझे कैसा भारी हीन कार्य करना पड़ता है, यह अपनी आँखों देख लो; परंतु सब लोग अपने अभ्युदयका अवसर देखते रहते हैं; क्योंकि यदि दुःख आता है तो उसका अन्त भी होता ही है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनित्या किल मर्त्यानामर्थसिद्धिर्जयाजयौ ।
इति कृत्वा प्रतीक्षामि भर्तॄणामुदयं पुनः ॥ ३ ॥

मूलम्

अनित्या किल मर्त्यानामर्थसिद्धिर्जयाजयौ ।
इति कृत्वा प्रतीक्षामि भर्तॄणामुदयं पुनः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्योंकी अर्थ-सिद्धि या जय-पराजय अनित्य हैं। वे सदा स्थिर नहीं रहते। यही सोचकर मैं अपने पतियोंके पुनः अभ्युदयकी प्रतीक्षा करती हूँ॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चक्रवत्परिवर्तन्ते ह्यर्थाश्च व्यसनानि च।
इति कृत्वा प्रतीक्षामि भर्तॄणामुदयं पुनः ॥ ४ ॥

मूलम्

चक्रवत्परिवर्तन्ते ह्यर्थाश्च व्यसनानि च।
इति कृत्वा प्रतीक्षामि भर्तॄणामुदयं पुनः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धन और व्यसन (सम्पत्ति और विपत्ति) सदा गाड़ीके पहियेकी तरह घूमा करते हैं; ऐसा विचारकर मैं पतियोंके पुनः अभ्युदयकालकी प्रतीक्षा करती हूँ॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

य एव हेतुर्भवति पुरुषस्य जयावहः।
पराजये च हेतुश्च स इति प्रतिपालये।
किं मां न प्रतिजानीषे भीमसेन मृतामिव ॥ ५ ॥

मूलम्

य एव हेतुर्भवति पुरुषस्य जयावहः।
पराजये च हेतुश्च स इति प्रतिपालये।
किं मां न प्रतिजानीषे भीमसेन मृतामिव ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो काल मनुष्यके लिये विजयदायक होता है, वही उसकी पराजयका भी कारण बन जाता है। ऐसा विचारकर मैं अपने पक्षकी विजयके अवसरकी राह देखती हूँ। भीमसेन! क्या तुम नहीं जानते कि इन दुःखोंके आघातसे मैं मरी हुई-सी हो गयी हूँ॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दत्त्वा याचन्ति पुरुषा हत्वा वध्यन्ति चापरे।
पातयित्वा च पात्यन्ते परैरिति च मे श्रुतम् ॥ ६ ॥

मूलम्

दत्त्वा याचन्ति पुरुषा हत्वा वध्यन्ति चापरे।
पातयित्वा च पात्यन्ते परैरिति च मे श्रुतम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने सुना है, जो मनुष्य दान करते हैं, वे ही कभी याचनाके लिये विवश हो जाते हैं। दूसरे बहुत-से मनुष्य ऐसे हैं, जो दूसरोंको मारकर स्वयं भी दूसरोंके द्वारा मारे जाते हैं तथा जो दूसरोंको नीचे गिराते हैं, वे स्वयं भी दूसरे प्रतिपक्षियोंद्वारा नीचे गिराये जाते हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न दैवस्यातिभारोऽस्ति न चैवास्यातिवर्तनम्।
इति चाप्यागमं भूयो दैवस्य प्रतिपालये ॥ ७ ॥

मूलम्

न दैवस्यातिभारोऽस्ति न चैवास्यातिवर्तनम्।
इति चाप्यागमं भूयो दैवस्य प्रतिपालये ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः दैवके लिये कुछ भी दुष्कर नहीं है। दैवके विधानको लाँघ जाना भी असम्भव है। इसलिये मैं दैवकी प्रधानता बतानेवाले शास्त्र-वचनोंका पालन करती—उन्हें आदर देती हूँ॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्थितं पूर्वं जलं यत्र पुनस्तत्रैव गच्छति।
इति पर्यायमिच्छन्ती प्रतीक्षे उदयं पुनः ॥ ८ ॥

मूलम्

स्थितं पूर्वं जलं यत्र पुनस्तत्रैव गच्छति।
इति पर्यायमिच्छन्ती प्रतीक्षे उदयं पुनः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पानी जहाँ पहले स्थिर होता है, वह फिर भी वहीं ठहरता है। इस क्रमको चाहती हुई मैं पुनः अभ्युदयकालकी प्रतीक्षा करती हूँ॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दैवेन किल यस्यार्थः सुनीतोऽपि विपद्यते।
दैवस्य चागमे यत्नस्तेन कार्यो विजानता ॥ ९ ॥

मूलम्

दैवेन किल यस्यार्थः सुनीतोऽपि विपद्यते।
दैवस्य चागमे यत्नस्तेन कार्यो विजानता ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तम नीतिद्वारा सुरक्षित पदार्थ भी यदि दैव प्रतिकूल हो तो उसके द्वारा नष्ट हो जाता है; अतः विज्ञ पुरुषको दैवको अनुकूल बनानेका ही प्रयत्न करना चाहिये॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् तु मे वचनस्यास्य कथितस्य प्रयोजनम्।
पृच्छ मां दुःखितां तत्त्वं पृष्टा चात्र ब्रवीमि ते॥१०॥

मूलम्

यत् तु मे वचनस्यास्य कथितस्य प्रयोजनम्।
पृच्छ मां दुःखितां तत्त्वं पृष्टा चात्र ब्रवीमि ते॥१०॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने इस समय जो ये बातें कही हैं, इनका क्या प्रयोजन है? यह मुझ दुखियासे पूछो। तुम्हारे पूछनेपर यहाँ मैं यथार्थ बात बताती हूँ, सुनो॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महिषी पाण्डुपुत्राणां दुहिता द्रुपदस्य च।
इमामवस्थां सम्प्राप्ता मदन्या का जिजीविषेत् ॥ ११ ॥

मूलम्

महिषी पाण्डुपुत्राणां दुहिता द्रुपदस्य च।
इमामवस्थां सम्प्राप्ता मदन्या का जिजीविषेत् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं पाण्डवोंकी पटरानी और द्रुपदकी पुत्री होकर भी ऐसी दुर्दशामें पड़ी हूँ। मेरे सिवा दूसरी कौन स्त्री ऐसी अवस्थामें जीना चाहेगी?॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुरून् परिभवेत् सर्वान् पञ्चालानपि भारत।
पाण्डवेयांश्च सम्प्राप्तो मम क्लेशो ह्यरिंदम ॥ १२ ॥

मूलम्

कुरून् परिभवेत् सर्वान् पञ्चालानपि भारत।
पाण्डवेयांश्च सम्प्राप्तो मम क्लेशो ह्यरिंदम ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! शत्रुदमन! मुझपर पड़ा हुआ यह क्लेश समस्त कौरवों, पाञ्चालों और पाण्डवोंके लिये अपमानकी बात है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रातृभिः श्वशुरैः पुत्रैर्बहुभिः परिवारिता।
एवं समुदिता नारी का त्वन्या दुःखिता भवेत् ॥ १३ ॥

मूलम्

भ्रातृभिः श्वशुरैः पुत्रैर्बहुभिः परिवारिता।
एवं समुदिता नारी का त्वन्या दुःखिता भवेत् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके बहुत-से भाई, श्वशुर और पुत्र हों, जो इन सबसे घिरी हुई हो तथा भलीभाँति अभ्युदयशील हो, ऐसी परिस्थितिमें मेरे सिवा दूसरी कौन स्त्री दुःख भोगनेके लिये विवश हुई होगी?॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नूनं हि बालया धातुर्मया वै विप्रियं कृतम्।
यस्य प्रसादाद् दुर्नीतं प्राप्तास्मि भरतर्षभ ॥ १४ ॥

मूलम्

नूनं हि बालया धातुर्मया वै विप्रियं कृतम्।
यस्य प्रसादाद् दुर्नीतं प्राप्तास्मि भरतर्षभ ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! जान पड़ता है, बचपनमें मैंने विधाताका निश्चय ही महान् अपराध किया है, जिसके फलस्वरूप मैं आज इस दुर्दशामें पड़ गयी हूँ॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्णावकाशमपि मे पश्य पाण्डव यादृशम्।
तादृशो मे न तत्रासीद् दुःखे परमके तदा ॥ १५ ॥

मूलम्

वर्णावकाशमपि मे पश्य पाण्डव यादृशम्।
तादृशो मे न तत्रासीद् दुःखे परमके तदा ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुनन्दन! देखो, मेरे शरीरकी कान्ति कैसी फीकी पड़ गयी है! यहाँ नगरमें मेरी जो अवस्था है, वह उन दिनों अत्यन्त दुःखपूर्ण वनवासके समय भी नहीं थी॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वमेव भीम जानीषे यन्मे पार्थ सुखं पुरा।
साहं दासीत्वमापन्ना न शान्तिमवशा लभे ॥ १६ ॥
नादैविकमहं मन्ये यत्र पार्थो धनंजयः।
भीमधन्वा महाबाहुरास्ते छन्न इवानलः ॥ १७ ॥

मूलम्

त्वमेव भीम जानीषे यन्मे पार्थ सुखं पुरा।
साहं दासीत्वमापन्ना न शान्तिमवशा लभे ॥ १६ ॥
नादैविकमहं मन्ये यत्र पार्थो धनंजयः।
भीमधन्वा महाबाहुरास्ते छन्न इवानलः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेन! तुम्हीं जानते हो, पहले मुझे कितना सुख था। यहाँ आकर जबसे मैं दासीभावको प्राप्त हुई हूँ, तभीसे परतन्त्र होनेके कारण मुझे तनिक भी शान्ति नहीं मिलती है। इसे मैं दैवकी ही लीला मानती हूँ। जहाँ प्रचण्ड धनुष धारण करनेवाले महाबाहु अर्जुन भी राखसे ढकी हुई अग्निकी भाँति रनिवासमें छिपकर रहते हैं॥१६-१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अशक्या वेदितुं पार्थ प्राणिनां वै गतिर्नरैः।
विनिपातमिमं मन्ये युष्माकं ह्यविचिन्तितम् ॥ १८ ॥

मूलम्

अशक्या वेदितुं पार्थ प्राणिनां वै गतिर्नरैः।
विनिपातमिमं मन्ये युष्माकं ह्यविचिन्तितम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन! दैवाधीन प्राणियोंकी कब क्या गति होगी, इसे जानना मनुष्योंके लिये सर्वथा असम्भव है। मैं तो समझती हूँ, तुमलोगोंकी जो यह अवनति हुई है, इसकी किसीके मनमें कल्पनातक नहीं थी॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्या मम मुखप्रेक्षा यूयमिन्द्रसमाः सदा।
सा प्रेक्षे मुखमन्यासामवराणां वरा सती ॥ १९ ॥

मूलम्

यस्या मम मुखप्रेक्षा यूयमिन्द्रसमाः सदा।
सा प्रेक्षे मुखमन्यासामवराणां वरा सती ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक दिन वह था कि इन्द्रके समान पराक्रमी तुम सब भाई सदा मेरा मुँह निहारा करते थे। आज वही मैं श्रेष्ठ होकर भी अपनेसे निकृष्ट दूसरी स्त्रियोंका मुँह जोहती रहती हूँ॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्य पाण्डव मेऽवस्थां यथा नार्हामि वै तथा।
युष्मासु ध्रियमाणेषु पश्य कालस्य पर्ययम् ॥ २० ॥
यस्याः सागरपर्यन्ता पृथिवी वशवर्तिनी।
आसीत् साद्य सुदेष्णाया भीताहं वशवर्तिनी ॥ २१ ॥

मूलम्

पश्य पाण्डव मेऽवस्थां यथा नार्हामि वै तथा।
युष्मासु ध्रियमाणेषु पश्य कालस्य पर्ययम् ॥ २० ॥
यस्याः सागरपर्यन्ता पृथिवी वशवर्तिनी।
आसीत् साद्य सुदेष्णाया भीताहं वशवर्तिनी ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुनन्दन! देखो, तुम सबके जीते-जी मैं ऐसी बुरी हालतमें पड़ी हूँ, जो मेरे लिये कदापि उचित नहीं है। समयके इस उलट-फेरको तो देखो; एक दिन समुद्रके पासतककी सारी पृथ्वी जिसके अधीन थी, वही मैं आज सुदेष्णाके वशमें होकर उससे डरती रहती हूँ॥२०-२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्याः पुरःसरा आसन् पृष्ठतश्चानुगामिनः।
साहमद्य सुदेष्णायाः पुरः पश्चाच्च गामिनी ॥ २२ ॥

मूलम्

यस्याः पुरःसरा आसन् पृष्ठतश्चानुगामिनः।
साहमद्य सुदेष्णायाः पुरः पश्चाच्च गामिनी ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके आगे और पीछे बहुत-से सेवक रहा करते थे, वही मैं अब रानी सुदेष्णाके आगे और पीछे चलती हूँ॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं तु दुःखं कौन्तेय ममासह्यं निबोध तत्।
या न जातु स्वयं पिंषे गात्रोद्वर्तनमात्मनः।
अन्यत्र कुन्त्या भद्रं ते सा पिनष्म्यद्य चन्दनम् ॥ २३ ॥
पश्य कौन्तेय पाणी मे नैवाभूतां हि यौ पुरा।

मूलम्

इदं तु दुःखं कौन्तेय ममासह्यं निबोध तत्।
या न जातु स्वयं पिंषे गात्रोद्वर्तनमात्मनः।
अन्यत्र कुन्त्या भद्रं ते सा पिनष्म्यद्य चन्दनम् ॥ २३ ॥
पश्य कौन्तेय पाणी मे नैवाभूतां हि यौ पुरा।

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीकुमार! इसके सिवा मेरे एक और असह्य दुःखको तो देखो। पहले मैं माता कुन्तीको छोड़कर (और किसीके लिये तो क्या) स्वयं अपने लिये भी कभी उबटन नहीं पीसती थी; किंतु वही मैं आज दूसरोंके लिये चन्दन घिसती हूँ। पार्थ! देखो, ये मेरे दोनों हाथ, जिनमें घट्ठे पड़ गये हैं, पहले ये ऐसे नहीं थे॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्यस्य दर्शयामास किणवन्तौ करावुभौ ॥ २४ ॥

मूलम्

इत्यस्य दर्शयामास किणवन्तौ करावुभौ ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर द्रौपदीने भीमसेनको अपने दोनों हाथ दिखाये, जिनमें चन्दन रगड़नेसे काले दाग पड़ गये थे॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिभेमि कुन्त्या या नाहं युष्माकं वा कदाचन।
साद्याग्रतो विराटस्य भीता तिष्ठामि किङ्करी ॥ २५ ॥

मूलम्

बिभेमि कुन्त्या या नाहं युष्माकं वा कदाचन।
साद्याग्रतो विराटस्य भीता तिष्ठामि किङ्करी ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(फिर वह सिसकती हुई बोली—) ‘नाथ! जो पहले कभी आर्या कुन्तीसे अथवा तुमलोगोंसे भी नहीं डरती थी, वही द्रौपदी आज दासी होकर राजा विराटके आगे भयभीत-सी खड़ी रहती है’॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं नु वक्ष्यति सम्राण्मां वर्णकः सुकृतो न वा।
नान्यपिष्टं हि मन्स्यस्य चन्दनं किल रोचते ॥ २६ ॥

मूलम्

किं नु वक्ष्यति सम्राण्मां वर्णकः सुकृतो न वा।
नान्यपिष्टं हि मन्स्यस्य चन्दनं किल रोचते ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय मैं सोचती हूँ, ‘न जाने सम्राट् मुझे क्या कहेंगे? यह उबटन अच्छा बना है या नहीं।’ मेरे सिवा दूसरेका पीसा हुआ चन्दन मत्स्यराजको अच्छा ही नहीं लगता॥२६॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा कीर्तयन्ती दुःखानि भीमसेनस्य भामिनी।
रुरोद शनकैः कृष्णा भीमसेनमुदीक्षती ॥ २७ ॥

मूलम्

सा कीर्तयन्ती दुःखानि भीमसेनस्य भामिनी।
रुरोद शनकैः कृष्णा भीमसेनमुदीक्षती ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! भामिनी द्रौपदी इस प्रकार भीमसेनसे अपने दुःख बताकर उनके मुखकी ओर देखती हुई धीरे-धीरे रोने लगी॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा बाष्पकलया वाचा निःश्वसन्ती पुनः पुनः।
हृदयं भीमसेनस्य घट्टयन्तीदमब्रवीत् ॥ २८ ॥

मूलम्

सा बाष्पकलया वाचा निःश्वसन्ती पुनः पुनः।
हृदयं भीमसेनस्य घट्टयन्तीदमब्रवीत् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह बार-बार लंबी साँसें लेती हुई आँसुओंसे गद्‌गद वाणीमें भीमसेनके हृदयको कम्पित करती हुई इस प्रकार बोली—॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाल्पं कृतं मया भीम देवानां किल्बिषं पुरा।
अभाग्या यत्र जीवामि कर्तव्ये सति पाण्डव ॥ २९ ॥

मूलम्

नाल्पं कृतं मया भीम देवानां किल्बिषं पुरा।
अभाग्या यत्र जीवामि कर्तव्ये सति पाण्डव ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पाण्डुनन्दन भीमसेन! मैंने पूर्वकालमें देवताओंका थोड़ा अपराध नहीं किया है, तभी तो मुझ अभागिनीको जहाँ मर जाना चाहिये, उस दशामें भी मैं जी रही हूँ’॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तस्याः करौ सूक्ष्मौ किणबद्धौ वृकोदरः।
मुखमानीय वै पत्न्या रुरोद परवीरहा ॥ ३० ॥

मूलम्

ततस्तस्याः करौ सूक्ष्मौ किणबद्धौ वृकोदरः।
मुखमानीय वै पत्न्या रुरोद परवीरहा ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर शत्रुहन्ता भीमसेन अपनी पत्नी द्रौपदीके दुबले-पतले हाथोंको, जिनमें घट्ठे पड़ गये थे, अपने मुखपर लगाकर रो पड़े॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तौ गृहीत्वा च कौन्तेयो बाष्पमुत्सृज्य वीर्यवान्।
ततः परमदुःखार्त इदं वचनमब्रवीत् ॥ ३१ ॥

मूलम्

तौ गृहीत्वा च कौन्तेयो बाष्पमुत्सृज्य वीर्यवान्।
ततः परमदुःखार्त इदं वचनमब्रवीत् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर पराक्रमी भीमने उन हाथोंको पकड़कर आँसू बहाते हुए अत्यन्त दुःखसे पीड़ित हो इस प्रकार कहा॥३१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि कीचकवधपर्वणि द्रौपदीभीमसंवादे विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत कीचकवधपर्वमें द्रौपदी-भीम-संवादविषयक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२०॥