भागसूचना
एकोनविंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
पाण्डवोंके दुःखसे दुःखित द्रौपदीका भीमसेनके सम्मुख विलाप
मूलम् (वचनम्)
द्रौपद्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं तु ते महद् दुःखं यत् प्रवक्ष्यामि भारत।
न मेऽभ्यसूया कर्तव्या दुःखादेतद् ब्रवीम्यहम् ॥ १ ॥
मूलम्
इदं तु ते महद् दुःखं यत् प्रवक्ष्यामि भारत।
न मेऽभ्यसूया कर्तव्या दुःखादेतद् ब्रवीम्यहम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रौपदी बोली— भारत! अब जो दुःख मैं तुमसे निवेदन करनेवाली हूँ, वह तो मेरे लिये और भी महान् है। तुम इसके लिये मुझे दोष न देना। मैं दुःखसे व्यथित होनेके कारण ही यह सब कह रही हूँ॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूदकर्मणि हीने त्वमसमे भरतर्षभ।
ब्रुवन् बल्लवजातीयः कस्य शोकं न वर्धयेः ॥ २ ॥
मूलम्
सूदकर्मणि हीने त्वमसमे भरतर्षभ।
ब्रुवन् बल्लवजातीयः कस्य शोकं न वर्धयेः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतर्षभ! जो तुम्हारे लिये सर्वथा अयोग्य है, ऐसे रसोइयेके नीच काममें लगे हो और अपनेको ‘बल्लव’ जातिका मनुष्य बताते हो। इस अवस्थामें तुम्हें देखकर किसका शोक न बढ़ेगा?॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूपकारं विराटस्य बल्लवं त्वां विदुर्जनाः।
प्रेष्यत्वं समनुप्राप्तं ततो दुःखतरं नु किम् ॥ ३ ॥
मूलम्
सूपकारं विराटस्य बल्लवं त्वां विदुर्जनाः।
प्रेष्यत्वं समनुप्राप्तं ततो दुःखतरं नु किम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोग तुम्हें राजा विराटके रसोइये बल्लवके नामसे जानते हैं। तुम स्वामी होकर भी आज सेवककी दशामें पड़े हो। इससे बढ़कर महान् कष्ट मेरे लिये और क्या हो सकता है?॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा महानसे सिद्धे विराटमुपतिष्ठसि।
ब्रुवाणो बल्लवः सूदस्तदा सीदति मे मनः ॥ ४ ॥
मूलम्
यदा महानसे सिद्धे विराटमुपतिष्ठसि।
ब्रुवाणो बल्लवः सूदस्तदा सीदति मे मनः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब पाकशालामें भोजन बना लेनेपर तुम विराटकी सेवामें उपस्थित होते हो और कहते हो—‘महाराज! बल्लव रसोइया आपको भोजनके लिये बुलाने आया है’, तब यह सब सुनकर मेरा मन दुःखित हो जाता है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा प्रहृष्टः सम्राट् त्वां संयोधयति कुञ्जरैः।
हसन्त्यन्तःपुरे नार्यो मम तूद्विजते मनः ॥ ५ ॥
मूलम्
यदा प्रहृष्टः सम्राट् त्वां संयोधयति कुञ्जरैः।
हसन्त्यन्तःपुरे नार्यो मम तूद्विजते मनः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब विराटनरेश प्रसन्न होकर तुम्हें हाथियोंसे लड़ाते हैं, उस समय रनिवासकी दूसरी स्त्रियाँ तो हँसती हैं और मेरा हृदय शोकसे व्याकुल हो उठता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शार्दूलैर्महिषैः सिंहैरागारे योध्यसे यदा।
कैकेय्याः प्रेक्षमाणायास्तदा मे कश्मलं भवेत् ॥ ६ ॥
मूलम्
शार्दूलैर्महिषैः सिंहैरागारे योध्यसे यदा।
कैकेय्याः प्रेक्षमाणायास्तदा मे कश्मलं भवेत् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब रानी सुदेष्णा दर्शक बनकर बैठती हैं और तुम महलके आँगनमें व्याघ्रों, सिंहों तथा भैंसोंसे लड़ते हो, उस समय मुझे बड़ी व्यथा होती है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत उत्थाय कैकेयी सर्वास्ताः प्रत्यभाषत।
प्रेष्याः समुत्थिताश्चापि कैकेयीं ताः स्त्रियोऽब्रुवन् ॥ ७ ॥
प्रेक्ष्य मामनवद्याङ्गीं कश्मलोपहतामिव ।
मूलम्
तत उत्थाय कैकेयी सर्वास्ताः प्रत्यभाषत।
प्रेष्याः समुत्थिताश्चापि कैकेयीं ताः स्त्रियोऽब्रुवन् ॥ ७ ॥
प्रेक्ष्य मामनवद्याङ्गीं कश्मलोपहतामिव ।
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन उक्त पशुओंसे तुम्हारा युद्ध देखकर उठनेके बाद मुझ निर्दोष अंगोंवाली अबलाको इसी कारण शोकपीड़ित-सी देख केकयराजकुमारी सुदेष्णा अपने साथ आयी हुई सम्पूर्ण दासियोंसे और वे खड़ी हुई दासियाँ रानी कैकेयीसे इस प्रकार कहने लगीं—॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्नेहात् संवासजाद् धर्मात् सूदमेषा शुचिस्मिता ॥ ८ ॥
योद्ध्यमानं महावीर्यमियं समनुशोचति ।
कल्याणरूपा सैरन्ध्री बल्लवश्चापि सुन्दरः ॥ ९ ॥
मूलम्
स्नेहात् संवासजाद् धर्मात् सूदमेषा शुचिस्मिता ॥ ८ ॥
योद्ध्यमानं महावीर्यमियं समनुशोचति ।
कल्याणरूपा सैरन्ध्री बल्लवश्चापि सुन्दरः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह पवित्र मुसकानवाली सैरन्ध्री पहले (युधिष्ठिरके यहाँ) एक स्थानमें साथ-साथ रहनेके कारण पैदा होनेवाले स्नेहसे अथवा धर्मसे प्रेरित होकर उस महापराक्रमी रसोइयेको पशुओंसे लड़ते देख उसके लिये बार-बार शोक करने लगती है। सैरन्ध्रीका रूप तो मंगलमय है ही, बल्लव भी बड़ा सुन्दर है॥८-९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्त्रीणां चित्तं च दुर्ज्ञेयं युक्तरूपौ च मे मतौ।
सैरन्ध्री प्रियसंवासान्नित्यं करुणवादिनी ॥ १० ॥
मूलम्
स्त्रीणां चित्तं च दुर्ज्ञेयं युक्तरूपौ च मे मतौ।
सैरन्ध्री प्रियसंवासान्नित्यं करुणवादिनी ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘स्त्रियोंके हृदयको समझ लेना बहुत कठिन है, हमें तो यह जोड़ी अच्छी जान पड़ती है। सैरन्ध्री अपने प्रिय सम्बन्धके कारण जब रसोइयेको हाथी आदिसे लड़ानेकी बात की जाती है, तब (अत्यन्त दीन-सी होकर) सदा करुणायुक्त वचन बोलने लगती है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्मिन् राजकुले चेमौ तुल्यकालनिवासिनौ।
इति ब्रुवाणा वाक्यानि सा मां नित्यमतर्जयत् ॥ ११ ॥
मूलम्
अस्मिन् राजकुले चेमौ तुल्यकालनिवासिनौ।
इति ब्रुवाणा वाक्यानि सा मां नित्यमतर्जयत् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘क्यों न हो, इस राजपरिवारमें भी तो ये दोनों एक ही समयसे निवास करते हैं?’ इस तरहकी बातें कहकर रानी सुदेष्णा प्रायः नित्य मुझे झिड़का करती हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रुध्यन्तीं मां च सम्प्रेक्ष्य समशङ्कत मां त्वयि।
तस्यां तथा ब्रुवत्यां तु दुःखं मां महदाविशत् ॥ १२ ॥
मूलम्
क्रुध्यन्तीं मां च सम्प्रेक्ष्य समशङ्कत मां त्वयि।
तस्यां तथा ब्रुवत्यां तु दुःखं मां महदाविशत् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
और मुझे क्रोध करती देख तुम्हारे प्रति मेरे गुप्त प्रेमकी आशंका कर बैठती हैं। जब-जब वे वैसी बातें कहती हैं, उस समय मुझे बहुत दुःख होता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वय्येवं निरयं प्राप्ते भीमे भीमपराक्रमे।
शोके यौधिष्ठिरे मग्ना नाहं जीवितुमुत्सहे ॥ १३ ॥
मूलम्
त्वय्येवं निरयं प्राप्ते भीमे भीमपराक्रमे।
शोके यौधिष्ठिरे मग्ना नाहं जीवितुमुत्सहे ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीम! भयंकर पराक्रम दिखानेवाले होकर भी तुम ऐसे नरकतुल्य कष्ट भोग रहे हो और उधर महाराज युधिष्ठिरको भी भारी शोक सहन करना पड़ता है। इस प्रकार मैं दुःखके समुद्रमें डूबी हुई हूँ। अब मुझे जीवित रहनेका तनिक भी उत्साह नहीं है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः सदेवान् मनुष्यांश्च सर्वांश्चैकरथोऽजयत्।
सोऽयं राज्ञो विराटस्य कन्यानां नर्तको युवा ॥ १४ ॥
मूलम्
यः सदेवान् मनुष्यांश्च सर्वांश्चैकरथोऽजयत्।
सोऽयं राज्ञो विराटस्य कन्यानां नर्तको युवा ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह तरुण वीर अर्जुन, जो अकेले ही रथमें बैठकर सम्पूर्ण मनुष्यों तथा देवताओंपर भी विजय पा चुका है, आज राजा विराटकी कन्याओंको नाचना सिखाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽतर्पयदमेयात्मा खाण्डवे जातवेदसम् ।
सोऽन्तःपुरगतः पार्थ कूपेऽग्निरिव संवृतः ॥ १५ ॥
मूलम्
योऽतर्पयदमेयात्मा खाण्डवे जातवेदसम् ।
सोऽन्तःपुरगतः पार्थ कूपेऽग्निरिव संवृतः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! जो असीम आत्मबलसे सम्पन्न है, जिसने खाण्डववनमें साक्षात् अग्निदेवको तृप्त किया था, वही वीर अर्जुन आज कुएँमें पड़ी हुई अग्निकी तरह अन्तःपुरमें छिपा हुआ है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्माद् भयममित्राणां सदैव पुरुषर्षभात्।
स लोकपरिभूतेन वेषेणास्ते धनंजयः ॥ १६ ॥
मूलम्
यस्माद् भयममित्राणां सदैव पुरुषर्षभात्।
स लोकपरिभूतेन वेषेणास्ते धनंजयः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुषोंमें श्रेष्ठ है, जिससे शत्रुओंको सदा ही भय प्राप्त होता आया है, वही धनंजय आज लोकनिन्दित नपुंसकवेषमें रह रहा है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य ज्याक्षेपकठिनौ बाहू परिघसंनिभौ।
स शङ्खपरिपूर्णाभ्यां शोचन्नास्ते धनंजयः ॥ १७ ॥
मूलम्
यस्य ज्याक्षेपकठिनौ बाहू परिघसंनिभौ।
स शङ्खपरिपूर्णाभ्यां शोचन्नास्ते धनंजयः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसकी परिघ (लोहदण्ड)-के समान मोटी भुजाएँ प्रत्यञ्जा खींचते-खींचते कठोर हो गयी थीं, वही धनंजय आज हाथोंमें शंखकी चूड़ियाँ पहनकर दुःख भोग रहा है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य ज्यातलनिर्घोषात् समकम्पन्त शत्रवः।
स्त्रियो गीतस्वनं तस्य मुदिताः पर्युपासते ॥ १८ ॥
मूलम्
यस्य ज्यातलनिर्घोषात् समकम्पन्त शत्रवः।
स्त्रियो गीतस्वनं तस्य मुदिताः पर्युपासते ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके धनुषकी टंकारसे समस्त शुत्र थर्रा उठते थे, आज अन्तःपुरकी स्त्रियाँ उसीके गीतोंकी ध्वनि सुनती और प्रसन्न होती हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किरीटं सूर्यसंकाशं यस्य मूर्द्धन्यशोभत।
वेणीविकृतकेशान्तः सोऽयमद्य धनंजयः ॥ १९ ॥
मूलम्
किरीटं सूर्यसंकाशं यस्य मूर्द्धन्यशोभत।
वेणीविकृतकेशान्तः सोऽयमद्य धनंजयः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके मस्तकपर सूर्यके समान तेजस्वी किरीट शोभा पाता था, सिरपर चोटी धारण करनेके कारण उसी अर्जुनके केशोंकी शोभा बिगड़ गयी है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं वेणीकृतकेशान्तं भीमधन्वानमर्जुनम् ।
कन्यापरिवृतं दृष्ट्वा भीम सीदति मे मनः ॥ २० ॥
मूलम्
तं वेणीकृतकेशान्तं भीमधन्वानमर्जुनम् ।
कन्यापरिवृतं दृष्ट्वा भीम सीदति मे मनः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीम! भयंकर गाण्डीव धनुष धारण करनेवाले वीर अर्जुनको अपने सिरपर केशोंकी चोटी धारण किये कन्याओंसे घिरा देख मेरा हृदय विषादसे भर जाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्मिन्नस्त्राणि दिव्यानि समस्तानि महात्मनि।
आधारः सर्वविद्यानां स धारयति कुण्डले ॥ २१ ॥
मूलम्
यस्मिन्नस्त्राणि दिव्यानि समस्तानि महात्मनि।
आधारः सर्वविद्यानां स धारयति कुण्डले ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस महात्मामें सम्पूर्ण दिव्यास्त्र प्रतिष्ठित हैं तथा जो समस्त विद्याओंका आधार है, वह आज कानोंमें (स्त्रियोंकी भाँति) कुण्डल धारण करता है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्प्रष्टुं राजसहस्राणि तेजसाप्रतिमानि वै।
समरे नाभ्यवर्तन्त वेलामिव महार्णवः ॥ २२ ॥
सोऽयं राज्ञो विराटस्य कन्यानां नर्तको युवा।
आस्ते वेषप्रतिच्छन्नः कन्यानां परिचारकः ॥ २३ ॥
मूलम्
स्प्रष्टुं राजसहस्राणि तेजसाप्रतिमानि वै।
समरे नाभ्यवर्तन्त वेलामिव महार्णवः ॥ २२ ॥
सोऽयं राज्ञो विराटस्य कन्यानां नर्तको युवा।
आस्ते वेषप्रतिच्छन्नः कन्यानां परिचारकः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे महासागर तट सीमाको नहीं लाँघ पाता, उसी प्रकार सहस्रों अप्रतिम तेजवाले राजा जिस वीरको वशीभूत करनेके लिये आगे न बढ़ सके, वही तरुण अर्जुन इस समय राजा विराटकी कन्याओंको नाचना सिखा रहा है और हीजड़ेके वेषमें छिपकर उन कन्याओंकी सेवा करता है॥२२-२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य स्म रथघोषेण समकम्पत मेदिनी।
सपर्वतवना भीम सहस्थावरजङ्गमा ॥ २४ ॥
यस्मिन् जाते महाभागे कुन्त्याः शोको व्यनश्यत।
स शोचयति मामद्य भीमसेन तवानुजः ॥ २५ ॥
मूलम्
यस्य स्म रथघोषेण समकम्पत मेदिनी।
सपर्वतवना भीम सहस्थावरजङ्गमा ॥ २४ ॥
यस्मिन् जाते महाभागे कुन्त्याः शोको व्यनश्यत।
स शोचयति मामद्य भीमसेन तवानुजः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेन! जिसके रथकी घर्घराहटसे पर्वत, वन और चराचर प्राणियोंसहित सम्पूर्ण पृथ्वी काँप उठती थी, जिस महान् भाग्यशाली पुत्रके उत्पन्न होनेपर माता कुन्तीका सारा शोक नष्ट हो गया था, वही तुम्हारा छोटा भाई अर्जुन आज अपनी दुरवस्थाके कारण मुझे शोकमग्न किये देता है॥२४-२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूषितं तमलंकारैः कुण्डलैः परिहाटकैः।
कम्बुपाणिनमायान्तं दृष्ट्वा सीदति मे मनः ॥ २६ ॥
मूलम्
भूषितं तमलंकारैः कुण्डलैः परिहाटकैः।
कम्बुपाणिनमायान्तं दृष्ट्वा सीदति मे मनः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनको स्त्रीजनोचित आभूषणों तथा सुवर्णमय कुण्डलोंसे विभूषित हो हाथोंमें शंखकी चूड़ियाँ धारण किये आते देख मेरा हृदय दुःखित हो जाता है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य नास्ति समो वीर्ये कश्चिदुर्व्यां धनुर्धरः।
सोऽद्य कन्यापरिवृतो गायन्नास्ते धनंजयः ॥ २७ ॥
मूलम्
यस्य नास्ति समो वीर्ये कश्चिदुर्व्यां धनुर्धरः।
सोऽद्य कन्यापरिवृतो गायन्नास्ते धनंजयः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस भूतलपर जिसके बल-पराक्रमकी समानता करनेवाला कोई धनुर्धर वीर नहीं है, वही धनंजय आज राजकन्याओंके बीचमें बैठकर गीत गाया करता है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मे शौर्ये च सत्ये च जीवलोकस्य सम्मतम्।
स्त्रीवेषविकृतं पार्थं दृष्ट्वा सीदति मे मनः ॥ २८ ॥
मूलम्
धर्मे शौर्ये च सत्ये च जीवलोकस्य सम्मतम्।
स्त्रीवेषविकृतं पार्थं दृष्ट्वा सीदति मे मनः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्म, शूरवीरता और सत्यभाषणमें जो सम्पूर्ण जीव-जगत्के लिये एक आदर्श था, उसी अर्जुनको अब स्त्रीवेषमें विकृत हुआ देखकर मेरा हृदय शोकमें डूब जाता है॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा ह्येनं परिवृतं कन्याभिर्देवरूपिणम्।
प्रभिन्नमिव मातङ्गं परिकीर्णं करेणुभिः ॥ २९ ॥
मत्स्यमर्थपतिं पार्थं विराटं समुपस्थितम्।
पश्यामि तूर्यमध्यस्थं दिशो नश्यन्ति मे तदा ॥ ३० ॥
मूलम्
यदा ह्येनं परिवृतं कन्याभिर्देवरूपिणम्।
प्रभिन्नमिव मातङ्गं परिकीर्णं करेणुभिः ॥ २९ ॥
मत्स्यमर्थपतिं पार्थं विराटं समुपस्थितम्।
पश्यामि तूर्यमध्यस्थं दिशो नश्यन्ति मे तदा ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हथिनियोंसे घिरे हुए गण्डस्थलसे मधुकी धारा बहानेवाले गजराजकी भाँति जब वाद्ययन्त्रोंके बीचमें बैठे हुए देवरूपधारी कुन्तीनन्दन अर्जुनको (नृत्यशालामें) कन्याओंसे घिरकर धनपति मत्स्यराज विराटकी सेवामें उपस्थित देखती हूँ, उस समय मेरी आँखोंमें अँधेरा छा जाता है; मुझे दिशाएँ नहीं सूझती हैं॥२९-३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नूनमार्या न जानाति कृच्छ्रं प्राप्तं धनंजयम्।
अजातशत्रुं कौरव्यं मग्नं दुर्द्यूतदेविनम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
नूनमार्या न जानाति कृच्छ्रं प्राप्तं धनंजयम्।
अजातशत्रुं कौरव्यं मग्नं दुर्द्यूतदेविनम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निश्चय ही मेरी सास कुन्ती नहीं जानती होंगी कि मेरा पुत्र धनंजय ऐसे संकटमें पड़ा है और खोटे जूएके खेलमें आसक्त कुरुवंशशिरोमणि अजातशत्रु युधिष्ठिर भी शोकमें डूबे हुए हैं॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(ऐन्द्रवारुणवायव्यब्राह्माग्नेयैश्च वैष्णवैः ।
अग्नीन् संतर्पयन् पार्थः सर्वांश्चैकरथोऽजयत्॥
दिव्यैरस्त्रैरचिन्त्यात्मा सर्वशत्रुनिबर्हणः ॥
दिव्यं गान्धर्वमस्त्रं च वायव्यमथ वैष्णवम्।
ब्राह्मं पाशुपतं चैव स्थूणाकर्णं च दर्शयन्॥
पौलोमान् कालकेयांश्च इन्द्रशत्रून् महासुरान्।
निवातकवचैः सार्धं घोरानेकरथोऽजयत् ।
सोऽन्तःपुरगतः पार्थः कूपेऽग्निरिव संवृतः॥
मूलम्
(ऐन्द्रवारुणवायव्यब्राह्माग्नेयैश्च वैष्णवैः ।
अग्नीन् संतर्पयन् पार्थः सर्वांश्चैकरथोऽजयत्॥
दिव्यैरस्त्रैरचिन्त्यात्मा सर्वशत्रुनिबर्हणः ॥
दिव्यं गान्धर्वमस्त्रं च वायव्यमथ वैष्णवम्।
ब्राह्मं पाशुपतं चैव स्थूणाकर्णं च दर्शयन्॥
पौलोमान् कालकेयांश्च इन्द्रशत्रून् महासुरान्।
निवातकवचैः सार्धं घोरानेकरथोऽजयत् ।
सोऽन्तःपुरगतः पार्थः कूपेऽग्निरिव संवृतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन कुन्तीकुमार अर्जुनने ऐन्द्र, वारुण, वायव्य, ब्राह्म, आग्नेय और वैष्णव अस्त्रोंद्वारा अग्निदेवको तृप्त करते हुए एकमात्र रथकी सहायतासे सब देवताओंको जीत लिया, जिनका आत्मबल अचिन्त्य है, जो अपने दिव्यास्त्रोंद्वारा समस्त शत्रुओंका नाश करनेमें समर्थ हैं, जिन्होंने एकमात्र रथपर आरूढ़ हो दिव्य गान्धर्व, वायव्य, वैष्णव, ब्राह्म, पाशुपत तथा स्थूणाकर्ण नामक अस्त्रोंका प्रदर्शन करते हुए युद्धमें निवातकवचोंसहित भयंकर पौलोम और कालकेय आदि महान् असुरोंको, जो इन्द्रसे शत्रुता रखनेवाले थे, परास्त कर दिया था, वे ही अर्जुन आज अन्तःपुरमें उसी प्रकार छिपे बैठे हैं, जैसे प्रज्वलित अग्नि कुएँमें ढक दी गयी हो।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कन्यापुरगतं दृष्ट्वा गोष्ठेष्विव महर्षभम्।
स्त्रीवेषविकृतं पार्थं कुन्तीं गच्छति मे मनः॥)
मूलम्
कन्यापुरगतं दृष्ट्वा गोष्ठेष्विव महर्षभम्।
स्त्रीवेषविकृतं पार्थं कुन्तीं गच्छति मे मनः॥)
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे बड़ा भारी साँड़ गोशालाओंमें आबद्ध हो, उसी प्रकार स्त्रियोंके वेषसे विकृत अर्जुनको कन्याओंके अन्तःपुरमें देखकर मेरा मन बार-बार कुन्तीदेवीकी याद करता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा दृष्ट्वा यवीयांसं सहदेवं गवां पतिम्।
गोषु गोवेषमायान्तं पाण्डुभूतास्मि भारत ॥ ३२ ॥
मूलम्
तथा दृष्ट्वा यवीयांसं सहदेवं गवां पतिम्।
गोषु गोवेषमायान्तं पाण्डुभूतास्मि भारत ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! इसी प्रकार तुम्हारे छोटे भाई सहदेवको, जो गौओंका पालक बनाया गया है, जब मैं गौओंके बीच ग्वालेके वेशमें आते देखती हूँ, तो मेरा रक्त सूख जाता है और सारा शरीर पीला पड़ जाता है॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहदेवस्य वृत्तानि चिन्तयन्ती पुनः पुनः।
न निद्रामभिगच्छामि भीमसेन कुतो रतिम् ॥ ३३ ॥
मूलम्
सहदेवस्य वृत्तानि चिन्तयन्ती पुनः पुनः।
न निद्रामभिगच्छामि भीमसेन कुतो रतिम् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेन! सहदेवकी दुर्दशाका बार-बार चिन्तन करनेके कारण मुझे कभी नींदतक नहीं आती; फिर सुख कहाँसे मिल सकता है?॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न विन्दामि महाबाहो सहदेवस्य दुष्कृतम्।
यस्मिन्नेवंविधं दुःखं प्राप्नुयात् सत्यविक्रमः ॥ ३४ ॥
मूलम्
न विन्दामि महाबाहो सहदेवस्य दुष्कृतम्।
यस्मिन्नेवंविधं दुःखं प्राप्नुयात् सत्यविक्रमः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहो! जहाँतक मैं जानती हूँ, सहदेवने कभी कोई पाप नहीं किया है, जिससे इस सत्यपराक्रमी वीरको ऐसा दुःख उठाना पड़े॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दूयामि भरतश्रेष्ठ दृष्ट्वा ते भ्रातरं प्रियम्।
गोषु गोवृषसंकाशं मत्स्येनाभिनिवेशितम् ॥ ३५ ॥
मूलम्
दूयामि भरतश्रेष्ठ दृष्ट्वा ते भ्रातरं प्रियम्।
गोषु गोवृषसंकाशं मत्स्येनाभिनिवेशितम् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! साँड़के समान हृष्ट-पुष्ट तुम्हारे प्रिय भ्राता सहदेवको राजा विराटके द्वारा गौओंकी सेवामें लगाया गया देख मुझे बड़ा दुःख होता है॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संरब्धं रक्तनेपथ्यं गोपालानां पुरोगमम्।
विराटमभिनन्दन्तमथ मे भवति ज्वरः ॥ ३६ ॥
मूलम्
संरब्धं रक्तनेपथ्यं गोपालानां पुरोगमम्।
विराटमभिनन्दन्तमथ मे भवति ज्वरः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गेरू आदिसे लाल रंगका शृंगार धारण किये ग्वालोंके अगुआ बने हुए सहदेवको उद्विग्न होनेपर भी जब मैं राजा विराटका अभिनन्दन करते देखती हूँ, तब मुझे बुखार चढ़ आता है॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहदेवं हि मे वीर नित्यमार्या प्रशंसति।
महाभिजनसम्पन्नः शीलवान् वृत्तवानिति ॥ ३७ ॥
मूलम्
सहदेवं हि मे वीर नित्यमार्या प्रशंसति।
महाभिजनसम्पन्नः शीलवान् वृत्तवानिति ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीर! आर्या कुन्ती मुझसे सहदेवकी सदा प्रशंसा किया करती थीं कि यह महान् कुलमें उत्पन्न, शीलवान् और सदाचारी है॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ह्रीनिषेवो मधुरवाग्धार्मिकश्च प्रियश्च मे।
स तेऽरण्येषु वोढव्यो याज्ञसेनि क्षपास्वपि ॥ ३८ ॥
सुकुमारश्च शूरश्च राजानं चाप्यनुव्रतः।
ज्येष्ठापचायिनं वीरं स्वयं पाञ्चालि भोजयेः ॥ ३९ ॥
इत्युवाच हि मां कुन्ती रुदती पुत्रगृद्धिनी।
प्रव्रजन्तं महारण्यं तं परिष्वज्य तिष्ठती ॥ ४० ॥
मूलम्
ह्रीनिषेवो मधुरवाग्धार्मिकश्च प्रियश्च मे।
स तेऽरण्येषु वोढव्यो याज्ञसेनि क्षपास्वपि ॥ ३८ ॥
सुकुमारश्च शूरश्च राजानं चाप्यनुव्रतः।
ज्येष्ठापचायिनं वीरं स्वयं पाञ्चालि भोजयेः ॥ ३९ ॥
इत्युवाच हि मां कुन्ती रुदती पुत्रगृद्धिनी।
प्रव्रजन्तं महारण्यं तं परिष्वज्य तिष्ठती ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझे स्मरण है, जब सहदेव महान् वनमें आने लगे, उस समय पुत्रवत्सला माता कुन्ती उन्हें हृदयसे लगाकर खड़ी हो गयीं और रोती हुई मुझसे यों कहने लगीं—‘याज्ञसेनी! सहदेव बड़ा लज्जाशील, मधुरभाषी और धार्मिक है। यह मुझे अत्यन्त प्रिय है। इसे वनमें रात्रिके समय तुम स्वयं सँभालकर (हाथ पकड़कर) ले जाना, क्योंकि यह सुकुमार है (सम्भव है, थकावटके कारण चल न सके)। मेरा सहदेव शूरवीर, राजा युधिष्ठिरका भक्त, अपने बड़े भाईका पुजारी और वीर है। पाञ्चालराजकुमारी! तुम इसे अपने हाथों भोजन कराना॥३८—४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं दृष्ट्वा व्यापृतं गोषु वत्सचर्मक्षपाशयम्।
सहदेवं युधां श्रेष्ठं किं नु जीवामि पाण्डव ॥ ४१ ॥
मूलम्
तं दृष्ट्वा व्यापृतं गोषु वत्सचर्मक्षपाशयम्।
सहदेवं युधां श्रेष्ठं किं नु जीवामि पाण्डव ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डुनन्दन! योद्धाओंमें श्रेष्ठ उसी सहदेवको जब मैं गौओंकी सेवामें तत्पर और बछड़ोंके चमड़ेपर रातमें सोते देखती हूँ, तब किसलिये जीवन धारण करूँ’?॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्त्रिभिर्नित्यसम्पन्नो रूपेणास्त्रेण मेधया ।
सोऽश्वबन्धो विराटस्य पश्य कालस्य पर्ययम् ॥ ४२ ॥
मूलम्
यस्त्रिभिर्नित्यसम्पन्नो रूपेणास्त्रेण मेधया ।
सोऽश्वबन्धो विराटस्य पश्य कालस्य पर्ययम् ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार जो सुन्दर रूप, अस्त्रबल और मेधाशक्ति—इन तीनोंसे सदा सम्पन्न रहता है, वह वीरवर नकुल आज विराटके यहाँ घोड़े बाँधता है। देखो, कालकी कैसी विपरीत गति है?॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभ्यकीर्यन्त वृन्दानि दामग्रन्थिमुदीक्ष्य तम्।
विनयन्तं जवेनाश्वान् महाराजस्य पश्यतः ॥ ४३ ॥
मूलम्
अभ्यकीर्यन्त वृन्दानि दामग्रन्थिमुदीक्ष्य तम्।
विनयन्तं जवेनाश्वान् महाराजस्य पश्यतः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसे देखकर शत्रुओंके समुदाय बिखर जाते—भाग खड़े होते हैं, वही अब ग्रन्थिक बनकर घोड़ोंकी रास खोलता और बाँधता है तथा महाराजके सामने अश्वोंको वेगसे चलनेकी शिक्षा देता है॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपश्यमेनं श्रीमन्तं मत्स्यं भ्राजिष्णुमुत्तमम्।
विराटमुपतिष्ठन्तं दर्शयन्तं च वाजिनः ॥ ४४ ॥
मूलम्
अपश्यमेनं श्रीमन्तं मत्स्यं भ्राजिष्णुमुत्तमम्।
विराटमुपतिष्ठन्तं दर्शयन्तं च वाजिनः ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने शोभासम्पन्न, तेजस्वी तथा उत्तम रूपवाले नकुलको अपनी आँखों देखा है। वह मत्स्यनरेश विराटको भाँति-भाँतिके घोड़े दिखाता और उनकी सेवामें खड़ा रहता है॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं नु मां मन्यसे पार्थ सुखिनीति परंतप।
एवं दुःखशताविष्टा युधिष्ठिरनिमित्ततः ॥ ४५ ॥
मूलम्
किं नु मां मन्यसे पार्थ सुखिनीति परंतप।
एवं दुःखशताविष्टा युधिष्ठिरनिमित्ततः ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! शत्रुदमन! क्या तुम समझते हो, यह सब देखकर मैं सुखी हूँ। राजा युधिष्ठिरके कारण ऐसे सैकड़ों दुःख मुझे सदा घेरे रहते हैं॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतः प्रतिविशिष्टानि दुःखान्यन्यानि भारत।
वर्तन्ते मयि कौन्तेय वक्ष्यामि शृणु तान्यपि ॥ ४६ ॥
मूलम्
अतः प्रतिविशिष्टानि दुःखान्यन्यानि भारत।
वर्तन्ते मयि कौन्तेय वक्ष्यामि शृणु तान्यपि ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! कुन्तीकुमार! इनसे भी भारी दूसरे दुःख मुझपर आ पड़े हैं, उनका भी वर्णन करती हूँ, सुनो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युष्मासु ध्रियमाणेषु दुःखानि विविधान्युत।
शोषयन्ति शरीरं मे किं नु दुःखमतः परम् ॥ ४७ ॥
मूलम्
युष्मासु ध्रियमाणेषु दुःखानि विविधान्युत।
शोषयन्ति शरीरं मे किं नु दुःखमतः परम् ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम सबके जीते-जी नाना प्रकारके कष्ट मेरे शरीरको सुखा रहे हैं, इससे बढ़कर दुःख और क्या हो सकता है?॥४७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि कीचकवधपर्वणि द्रौपदीभीमसंवादे एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत कीचकवधपर्वमें द्रौपदीभीमसेनसंवादविषयक उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१९॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ५ श्लोक मिलाकर कुल ५२ श्लोक हैं।)