०१८ द्रौपदीदुःखोद्गारः

भागसूचना

अष्टादशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

द्रौपदीका भीमसेनके प्रति अपने दुःखके उद्गार प्रकट करना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

(सा लज्जमाना भीता च अधोमुखमुखी ततः।
नोवाच किंचिद् वचनं बाष्पदूषितलोचना॥

मूलम्

(सा लज्जमाना भीता च अधोमुखमुखी ततः।
नोवाच किंचिद् वचनं बाष्पदूषितलोचना॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं —जनमेजय! उस समय लज्जित और भयभीत हुई द्रौपदीके नेत्रोंमें आँसू भर आये थे। वह मुँह नीचा किये मौन बैठी रही; कुछ भी बोल न सकी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथाब्रवीद् भीमपराक्रमो बली
वृकोदरः पाण्डवमुख्यसम्मतः ।
प्रब्रूहि किं ते करवाणि सुन्दरि

मूलम्

अथाब्रवीद् भीमपराक्रमो बली
वृकोदरः पाण्डवमुख्यसम्मतः ।
प्रब्रूहि किं ते करवाणि सुन्दरि

Misc Detail

प्रियं प्रिये वारणखेलगामिनि ॥ )

अनुवाद (हिन्दी)

तब पाण्डवप्रवर युधिष्ठिरके परम प्रिय भयंकर पराक्रमी महाबली भीम इस प्रकार बोले—‘सुन्दरि! गजराजकी भाँति लीला-विलासपूर्वक मन्द-गतिसे चलनेवाली प्रिये! बताओ; मैं तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूँ?’।

मूलम् (वचनम्)

द्रौपद्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अशोच्यत्वं कुतस्तस्य यस्या भर्ता युधिष्ठिरः।
जानन् सर्वाणि दुःखानि किं मां त्वं परिपृच्छसि ॥ १ ॥

मूलम्

अशोच्यत्वं कुतस्तस्य यस्या भर्ता युधिष्ठिरः।
जानन् सर्वाणि दुःखानि किं मां त्वं परिपृच्छसि ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रौपदी बोली —जिस स्त्रीके पति राजा युधिष्ठिर हों, वह बिना शोकके रहे, यह कैसे सम्भव हो सकता है? तुम मेरे सारे दुःखोंको जानते हुए भी मुझसे कैसे पूछते हो?॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यन्मां दासीप्रवादेन प्रातिकामी तदानयत्।
सभापरिषदो मध्ये तन्मां दहति भारत ॥ २ ॥

मूलम्

यन्मां दासीप्रवादेन प्रातिकामी तदानयत्।
सभापरिषदो मध्ये तन्मां दहति भारत ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधनके सेवकके रूपमें दुःशासन मुझे दासी कहकर जो उस समय कौरवोंके सभाभवनमें जनसमाजके भीतर घसीट ले गया, वह अपमानकी आग मुझे आजतक जला रही है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(क्षत्रियैस्तत्र कर्णाद्यैर्दृष्टा दुर्योधनेन च।
श्वशुराभ्यां च भीष्मेण विदुरेण च धीमता॥
द्रोणेन च महाबाहो कृपेण च परंतप।

मूलम्

(क्षत्रियैस्तत्र कर्णाद्यैर्दृष्टा दुर्योधनेन च।
श्वशुराभ्यां च भीष्मेण विदुरेण च धीमता॥
द्रोणेन च महाबाहो कृपेण च परंतप।

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंको संताप देनेवाले महाबाहु भीम! उस समय वहाँ बैठे हुए कर्ण आदि क्षत्रियोंने, दुर्योधनने, मेरे दोनों ससुर भीष्म और बुद्धिमान् विदुरने तथा द्रोणाचार्य और कृपाचार्यने भी मुझे उस दुरवस्थामें देखा था।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साहं श्वशुरयोर्मध्ये भ्रातृमध्ये च पाण्डव॥

मूलम्

साहं श्वशुरयोर्मध्ये भ्रातृमध्ये च पाण्डव॥

Misc Detail

केशे गृहीत्वैव सभां नीता जीवति वै त्वयि। )

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुनन्दन! इस प्रकार तुम्हारे जीते-जी मेरे केश पकड़कर मुझे दोनों श्वशुरों तथा दुर्योधन आदि भ्राताओंके बीच राजसभामें लाया गया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पार्थिवस्य सुता नाम का नु जीवति मादृशी।
अनुभूयेदृशं दुःखमन्यत्र द्रौपदीं प्रभो ॥ ३ ॥

मूलम्

पार्थिवस्य सुता नाम का नु जीवति मादृशी।
अनुभूयेदृशं दुःखमन्यत्र द्रौपदीं प्रभो ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वामिन्! मुझ द्रुपदकन्याको छोड़कर दूसरी मेरी-जैसी कौन राजकुमारी होगी, जो ऐसा दुःख भोगकर जी रही हो॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वनवासगतायाश्च सैन्धवेन दुरात्मना ।
परामर्शो द्वितीयो वै सोढुमुत्सहते तु का ॥ ४ ॥

मूलम्

वनवासगतायाश्च सैन्धवेन दुरात्मना ।
परामर्शो द्वितीयो वै सोढुमुत्सहते तु का ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वनवासमें जानेपर दुरात्मा सिन्धुराज जयद्रथने जो मेरा स्पर्श कर लिया, यह दूसरा अपमान था। उसे भी कौन सह सकती है?॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(पद्भ्यां पर्यचरं चाहं देशान् विषमसंस्थितान्।
दुर्गाञ्छ्‌वापदसंकीर्णांस्त्वयि जीवति पाण्डव ॥

मूलम्

(पद्भ्यां पर्यचरं चाहं देशान् विषमसंस्थितान्।
दुर्गाञ्छ्‌वापदसंकीर्णांस्त्वयि जीवति पाण्डव ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुकुमार! तुम्हारे जीते-जी मुझे हिंसक जन्तुओंसे भरे हुए विषम एवं दुर्गम प्रदेशोंमें पैदल विचरना पड़ा।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽहं द्वादशे वर्षे वन्यमूलफलाशना।
इदं पुरमनुप्राप्ता सुदेष्णापरिचारिका ॥
परस्त्रियमुपातिष्ठे सत्यधर्मपथस्थिता ।

मूलम्

ततोऽहं द्वादशे वर्षे वन्यमूलफलाशना।
इदं पुरमनुप्राप्ता सुदेष्णापरिचारिका ॥
परस्त्रियमुपातिष्ठे सत्यधर्मपथस्थिता ।

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर बारहवें वर्षके अन्तमें मैं जंगली फल-मूलोंका आहार करती हुई इस विराटनगरमें आयी और सुदेष्णाकी सेविका बन गयी। मैं सत्यधर्मके मार्गमें स्थित होकर आज दूसरी स्त्रीकी सेवा करती हूँ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोशीर्षकं पद्मकं च हरिश्यामं च चन्दनम्॥
नित्यं पिंषे विराटस्य त्वयि जीवति पाण्डव॥
साहं बहूनि दुःखानि गणयामि न ते कृते।
द्रुपदस्य सुता चाहं धृष्टद्युम्नस्य चानुजा।
अग्निकुण्डात्‌ समुद्‌भूता नोर्व्यां जातु चरामि भोः॥)

मूलम्

गोशीर्षकं पद्मकं च हरिश्यामं च चन्दनम्॥
नित्यं पिंषे विराटस्य त्वयि जीवति पाण्डव॥
साहं बहूनि दुःखानि गणयामि न ते कृते।
द्रुपदस्य सुता चाहं धृष्टद्युम्नस्य चानुजा।
अग्निकुण्डात्‌ समुद्‌भूता नोर्व्यां जातु चरामि भोः॥)

अनुवाद (हिन्दी)

‘पाण्डुपुत्र! तुम्हारे जीते-जी मैं प्रतिदिन राजा विराटके लिये गोशीर्ष, पद्मकाष्ठ और हरिश्याम आदि चन्दन पीसती हूँ। फिर भी तुम्हारे संतोषके लिये मैं ऐसे बहुत-से दुःखोंको कुछ भी नहीं गिनती। मैं द्रुपदकी पुत्री और धृष्टद्युम्नकी बहिन हूँ। अग्निकुण्डसे मेरी उत्पत्ति हुई है। मैं कभी धरतीपर पैदल नहीं चलती थी (परंतु अब यहाँ यह दुर्दशा भोग रही हूँ)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मत्स्यराजसमक्षं तु तस्य धूर्तस्य पश्यतः।
कीचकेन परामृष्टा का नु जीवति मादृशी ॥ ५ ॥

मूलम्

मत्स्यराजसमक्षं तु तस्य धूर्तस्य पश्यतः।
कीचकेन परामृष्टा का नु जीवति मादृशी ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मत्स्यदेशके राजा विराटके सामने उस जुआरीके देखते-देखते कीचकने जो लात मारकर मेरा अपमान किया है, उसको सहकर मेरी-जैसी कौन राजकुमारी जीवित रह सकती है?॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं बहुविधैः क्लेशैः क्लिश्यमानां च भारत।
न मां जानासि कौन्तेय किं फलं जीवितेन मे॥६॥

मूलम्

एवं बहुविधैः क्लेशैः क्लिश्यमानां च भारत।
न मां जानासि कौन्तेय किं फलं जीवितेन मे॥६॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतकुलभूषण कुन्तीनन्दन! ऐसे बहुत-से क्लेशोंद्वारा मैं निरन्तर पीड़ित रहती हूँ; क्या तुम यह नहीं जानते? फिर मेरे जीनेका ही क्या प्रयोजन है?॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽयं राज्ञो विराटस्य कीचको नाम भारत।
सेनानीः पुरुषव्याघ्र श्यालः परमदुर्मतिः ॥ ७ ॥
स मां सैरन्ध्रिवेषेण वसन्तीं राजवेश्मनि।
नित्यमेवाह दुष्टात्मा भार्या मम भवेति वै ॥ ८ ॥

मूलम्

योऽयं राज्ञो विराटस्य कीचको नाम भारत।
सेनानीः पुरुषव्याघ्र श्यालः परमदुर्मतिः ॥ ७ ॥
स मां सैरन्ध्रिवेषेण वसन्तीं राजवेश्मनि।
नित्यमेवाह दुष्टात्मा भार्या मम भवेति वै ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! पुरुषसिंह! राजा विराटका जो यह कीचक नामक सेनापति है, वह उनका साला लगता है। उसकी बुद्धि बड़ी खोटी है। राजमहलमें सैरन्ध्रीके वेशमें निवास करती हुई मुझे देखकर वह दुष्टात्मा प्रतिदिन ही आकर मुझसे कहता है—‘मेरी ही पत्नी हो जाओ’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेनोपमन्त्र्यमाणाया वधार्हेण सपत्नहन् ।
कालेनेव फलं पक्वं हृदयं मे विदीर्यते ॥ ९ ॥

मूलम्

तेनोपमन्त्र्यमाणाया वधार्हेण सपत्नहन् ।
कालेनेव फलं पक्वं हृदयं मे विदीर्यते ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुदमन! उस मार डालने योग्य पापीके द्वारा रोज-रोज यह घृणित प्रस्ताव सुनते-सुनते समयसे पके हुए फलकी भाँति मेरा हृदय विदीर्ण हो रहा है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(विजानामि तवामर्षं बलं वीर्यं च पाण्डव।
ततोऽहं परिदेवामि चाग्रतस्ते महाबल॥

मूलम्

(विजानामि तवामर्षं बलं वीर्यं च पाण्डव।
ततोऽहं परिदेवामि चाग्रतस्ते महाबल॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबली पाण्डुनन्दन! मैं तुम्हारे अमर्ष, बल और पराक्रमको जानती हूँ; इसीलिये मैं तुम्हारे आगे रोती-बिलखती हूँ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा यूथपतिर्मत्तः कुञ्जरः षष्टिहायनः।
भूमौ निपतितं बिल्वं पद्भ्यामाक्रम्य पीडयेत्॥
तथैव च शिरस्तस्य निपात्य धरणीतले।
वामेन पुरुषव्याघ्र मर्द पादेन पाण्डव॥

मूलम्

यथा यूथपतिर्मत्तः कुञ्जरः षष्टिहायनः।
भूमौ निपतितं बिल्वं पद्भ्यामाक्रम्य पीडयेत्॥
तथैव च शिरस्तस्य निपात्य धरणीतले।
वामेन पुरुषव्याघ्र मर्द पादेन पाण्डव॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषसिंह पाण्डुपुत्र! जैसे साठ वर्षका मतवाला यूथपति गजराज धरतीपर गिरे हुए बेलके फलको पैरोंसे दबाकर कुचल डाले, उसी प्रकार कीचकके मस्तकको पृथ्वीपर गिराकर बाँयें पैरसे मसल डालो।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स चेदुद्यन्तमादित्यं प्रातरुत्थाय पश्यति।
कीचकः शर्वरीं व्युष्टां नाहं जीवितुमुत्सहे॥)

मूलम्

स चेदुद्यन्तमादित्यं प्रातरुत्थाय पश्यति।
कीचकः शर्वरीं व्युष्टां नाहं जीवितुमुत्सहे॥)

अनुवाद (हिन्दी)

यदि कीचक इस रात्रिके बीतनेपर प्रातःकाल उठकर उगते हुए सूर्यका दर्शन कर लेगा, तो मैं जीवित नहीं रह सकूँगी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रातरं च विगर्हस्व ज्येष्ठं दुर्द्यूतदेविनम्।
यस्यास्मि कर्मणा प्राप्ता दुःखमेतदनन्तकम् ॥ १० ॥

मूलम्

भ्रातरं च विगर्हस्व ज्येष्ठं दुर्द्यूतदेविनम्।
यस्यास्मि कर्मणा प्राप्ता दुःखमेतदनन्तकम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूषित द्यूतक्रीड़ामें लगे रहनेवाले अपने उस बड़े भाईकी निन्दा करो, जिसकी करतूतसे मैं इस अनन्त दुःखमें पड़ गयी हूँ॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

को हि राज्यं परित्यज्य सर्वस्वं चात्मना सह।
प्रव्रज्यायैव दीव्येत विना दुर्द्यूतदेविनम् ॥ ११ ॥

मूलम्

को हि राज्यं परित्यज्य सर्वस्वं चात्मना सह।
प्रव्रज्यायैव दीव्येत विना दुर्द्यूतदेविनम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निन्दनीय जूएमें आसक्त रहनेवाले उस जुआरीको छोड़कर दूसरा कौन ऐसा पुरुष होगा, जो अपने साथ ही राज्य तथा सर्वस्वका परित्याग करके वनवास लेनेकी शर्तपर जूआ खेल सकता हो?॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि निष्कसहस्रेण यच्चान्यत् सारवद् धनम्।
सायम्प्रातरदेविष्यदपि संवत्सरान् बहून् ॥ १२ ॥
रुक्मं हिरण्यं वासांसि यानं युग्यमजाविकम्।
अश्वाश्वतरसङ्घांश्च न जातु क्षयमावहेत् ॥ १३ ॥

मूलम्

यदि निष्कसहस्रेण यच्चान्यत् सारवद् धनम्।
सायम्प्रातरदेविष्यदपि संवत्सरान् बहून् ॥ १२ ॥
रुक्मं हिरण्यं वासांसि यानं युग्यमजाविकम्।
अश्वाश्वतरसङ्घांश्च न जातु क्षयमावहेत् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि वे प्रतिदिन शाम-सबेरे एक सहस्र स्वर्ण-मुद्राओंसे जूआ खेलते तथा जो दूसरे बहुमूल्य धन थे, उनको—सोने, चाँदी, वस्त्र, सवारी, रथ, बकरी, भेड़, घोड़े और खच्चरों आदिके समूहको बहुत वर्षोंतक भी दाँवपर लगाते रहते, तो भी हमारा राज्य-वैभव कभी क्षीण नहीं होता॥१२-१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽयं द्यूतप्रवादेन श्रियः प्रत्यवरोपितः।
तूष्णीमास्ते यथा मूढः स्वानि कर्माणि चिन्तयन् ॥ १४ ॥

मूलम्

सोऽयं द्यूतप्रवादेन श्रियः प्रत्यवरोपितः।
तूष्णीमास्ते यथा मूढः स्वानि कर्माणि चिन्तयन् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जूएकी आसक्तिने इन्हें राजलक्ष्मीके सिंहासनसे नीचे उतार दिया है और अब ये अपने उन कर्मोंका चिन्तन करते हुए अज्ञकी भाँति चुपचाप बैठे रहते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दश नागसहस्राणि हयानां हेममालिनाम्।
यं यान्तमनुयान्तीह सोऽयं द्यूतेन जीवति ॥ १५ ॥

मूलम्

दश नागसहस्राणि हयानां हेममालिनाम्।
यं यान्तमनुयान्तीह सोऽयं द्यूतेन जीवति ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके कहीं यात्रा करते समय दस हजार हाथी और सोनेकी मालाएँ पहने हुए सहस्रों घोड़े पीछे-पीछे चलते थे, वे ही महाराज यहाँ जूएसे जीविका चलाते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथाः शतसहस्राणि नृपाणाममितौजसाम् ।
उपासन्त महाराजमिन्द्रप्रस्थे युधिष्ठिरम् ॥ १६ ॥
शतं दासीसहस्राणां यस्य नित्यं महानसे।
पात्रीहस्तं दिवारात्रमतिथीन् भोजयन्त्युत ॥ १७ ॥
एष निष्कसहस्राणि प्रदाय ददतां वरः।
द्यूतजेन ह्यनर्थेन महता समुपाश्रितः ॥ १८ ॥

मूलम्

रथाः शतसहस्राणि नृपाणाममितौजसाम् ।
उपासन्त महाराजमिन्द्रप्रस्थे युधिष्ठिरम् ॥ १६ ॥
शतं दासीसहस्राणां यस्य नित्यं महानसे।
पात्रीहस्तं दिवारात्रमतिथीन् भोजयन्त्युत ॥ १७ ॥
एष निष्कसहस्राणि प्रदाय ददतां वरः।
द्यूतजेन ह्यनर्थेन महता समुपाश्रितः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रप्रस्थमें जिनकी सवारीके लिये एक लाख रथ प्रस्तुत रहते थे और जिन महाराज युधिष्ठिरकी सेवामें सहस्रों महापराक्रमी राजा बैठा करते थे, जिनके भोजनालयमें नित्य एक लाख दासियाँ सोनेके पात्र हाथमें लिये दिन-रात अतिथियोंको भोजन कराया करती थीं तथा जो दाताओंमें श्रेष्ठ युधिष्ठिर रोज सहस्रों स्वर्णमुद्राएँ दानमें बाँटा करते थे, वे ही धर्मराज यहाँ जूएमें कमाये हुए महान् अनर्थकारी धनसे जीवन-निर्वाह कर रहे हैं॥१६—१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एनं हि स्वरसम्पन्ना बहवः सूतमागधा।
सायम्प्रातरुपातिष्ठन् सुमृष्टमणिकुण्डलाः ॥ १९ ॥

मूलम्

एनं हि स्वरसम्पन्ना बहवः सूतमागधा।
सायम्प्रातरुपातिष्ठन् सुमृष्टमणिकुण्डलाः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रप्रस्थमें विशुद्ध मणिमय कुण्डल धारण करनेवाले बहुत-से सूत और मागध मधुर स्वरसे संयुक्त वाणीद्वारा सायंकाल और प्रातःकाल इन महाराजकी स्तुति किया करते थे॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहस्रमृषयो यस्य नित्यमासन् सभासदः।
तपःश्रुतोपसम्पन्नाः सर्वकामैरुपस्थिताः ॥ २० ॥

मूलम्

सहस्रमृषयो यस्य नित्यमासन् सभासदः।
तपःश्रुतोपसम्पन्नाः सर्वकामैरुपस्थिताः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तपस्या और वेदज्ञानसे सम्पन्न सहस्रों पूर्णकाम ऋषि-महर्षि प्रतिदिन इनकी राजसभामें बैठा करते थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अष्टाशीतिसहस्राणि स्नातका गृहमेधिनः ।
त्रिंशद्दासीक एकैको यान् बिभर्ति युधिष्ठिरः ॥ २१ ॥

मूलम्

अष्टाशीतिसहस्राणि स्नातका गृहमेधिनः ।
त्रिंशद्दासीक एकैको यान् बिभर्ति युधिष्ठिरः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अट्ठासी हजार स्नातक गृहस्थ ब्राह्मणोंका, जिनमेंसे एक-एककी सेवाके लिये तीस-तीस दासियाँ थीं, राजा युधिष्ठिर अपने यहाँ पालन करते थे॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्रतिग्राहिणां चैव यतीनामूर्ध्वरेतसाम् ।
दश चापि सहस्राणि सोऽयमास्ते नरेश्वरः ॥ २२ ॥

मूलम्

अप्रतिग्राहिणां चैव यतीनामूर्ध्वरेतसाम् ।
दश चापि सहस्राणि सोऽयमास्ते नरेश्वरः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

साथ ही ये महाराज दान न लेनेवाले दस हजार ऊर्ध्वरेता संन्यासियोंका भी स्वयं ही भरण-पोषण करते थे। आज वे ही इस अवस्थामें रह रहे हैं॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आनृशंस्यमनुक्रोशं संविभागस्तथैव च ।
यस्मिन्नेतानि सर्वाणि सोऽयमास्ते नरेश्वरः ॥ २३ ॥

मूलम्

आनृशंस्यमनुक्रोशं संविभागस्तथैव च ।
यस्मिन्नेतानि सर्वाणि सोऽयमास्ते नरेश्वरः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनमें कोमलता, दया और सबको अन्न-वस्त्र देना आदि समस्त सद्‌गुण विद्यमान थे, वे ही ये महाराज आज इस दुरवस्थामें पड़े हैं॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्धान्‌ वृद्धांस्तथानाथान् बालान् राष्ट्रेषु दुर्गतान्।
बिभर्ति विविधान् राजा धृतिमान् सत्यविक्रमः।
संविभागमना नित्यमानृशंस्याद् युधिष्ठिरः ॥ २४ ॥

मूलम्

अन्धान्‌ वृद्धांस्तथानाथान् बालान् राष्ट्रेषु दुर्गतान्।
बिभर्ति विविधान् राजा धृतिमान् सत्यविक्रमः।
संविभागमना नित्यमानृशंस्याद् युधिष्ठिरः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धैर्यवान् तथा सत्यपराक्रमी राजा युधिष्ठिर अपने कोमल स्वभावके कारण सदा सबको भोजन आदि देनेमें ही मन लगाते थे और अपने राज्यके अनेक अंधों, बूढ़ों, अनाथों, बालकों तथा दुर्गतिमें पड़े हुए लोगोंका भरण-पोषण करते रहते थे॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स एष निरयं प्राप्तो मत्स्यस्य परिचारकः।
सभायां देविता राज्ञः कङ्को ब्रूते युधिष्ठिरः ॥ २५ ॥

मूलम्

स एष निरयं प्राप्तो मत्स्यस्य परिचारकः।
सभायां देविता राज्ञः कङ्को ब्रूते युधिष्ठिरः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे ही ये युधिष्ठिर आज मत्स्यराजके सेवक होकर परतन्त्रतारूपी नरकमें पड़े हुए हैं। ये सभामें राजाको जूआ खेलाते और कंक कहकर अपना परिचय देते हैं॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रप्रस्थे निवसतः समये यस्य पार्थिवाः।
आसन् बलिभृतः सर्वे सोऽद्यान्यैर्भृतिमिच्छति ॥ २६ ॥

मूलम्

इन्द्रप्रस्थे निवसतः समये यस्य पार्थिवाः।
आसन् बलिभृतः सर्वे सोऽद्यान्यैर्भृतिमिच्छति ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रप्रस्थमें रहते समय जिन्हें सब राजा भेंट देते थे, वे ही आज दूसरोंसे अपने भरण-पोषणके लिये धन पानेकी इच्छा रखते हैं॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पार्थिवाः पृथिवीपाला यस्यासन् वशवर्तिनः।
स वशे विवशो राजा परेषामद्य वर्तते ॥ २७ ॥

मूलम्

पार्थिवाः पृथिवीपाला यस्यासन् वशवर्तिनः।
स वशे विवशो राजा परेषामद्य वर्तते ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस पृथ्वीका पालन करनेवाले बहुत-से भूपाल जिनकी आज्ञाके अधीन थे, वे ही महाराज आज विवश होकर दूसरोंके वशमें रहते हैं॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रताप्य पृथिवीं सर्वां रश्मिमानिव तेजसा।
सोऽयं राज्ञो विराटस्य सभास्तारो युधिष्ठिरः ॥ २८ ॥

मूलम्

प्रताप्य पृथिवीं सर्वां रश्मिमानिव तेजसा।
सोऽयं राज्ञो विराटस्य सभास्तारो युधिष्ठिरः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूर्यकी भाँति अपने तेजसे सम्पूर्ण भूमण्डलको प्रकाशित कर अब ये धर्मराज युधिष्ठिर राजा विराटकी सभाके एक साधारण सदस्य बने हुए हैं॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यमुपासन्त राजानः सभायामृषिभिः सह।
तमुपासीनमद्यान्यं पश्य पाण्डव पाण्डवम् ॥ २९ ॥

मूलम्

यमुपासन्त राजानः सभायामृषिभिः सह।
तमुपासीनमद्यान्यं पश्य पाण्डव पाण्डवम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुनन्दन! देखो, राजसभामें ऋषियोंके साथ अनेक राजा जिनकी उपासना करते थे, वे ही पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर आज दूसरेकी उपासना कर रहे हैं॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदस्यं यमुपासीनं परस्य प्रियवादिनम्।
दृष्ट्वा युधिष्ठिरं कोपो वर्धते मामसंशयम् ॥ ३० ॥

मूलम्

सदस्यं यमुपासीनं परस्य प्रियवादिनम्।
दृष्ट्वा युधिष्ठिरं कोपो वर्धते मामसंशयम् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक सामान्य सदस्यकी हैसियतसे दूसरेकी सेवामें बैठे हुए वे विराटके मनको प्रिय लगनेवाली बातें करते हैं। महाराज युधिष्ठिरको इस दशामें देखकर निश्चय ही मेरा क्रोध बढ़ जाता है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतदर्हं महाप्राज्ञं जीवितार्थेऽभिसंस्थितम् ।
दृष्ट्वा कस्य न दुःखं स्याद् धर्मात्मानं युधिष्ठिरम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

अतदर्हं महाप्राज्ञं जीवितार्थेऽभिसंस्थितम् ।
दृष्ट्वा कस्य न दुःखं स्याद् धर्मात्मानं युधिष्ठिरम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो धर्मात्मा और परम बुद्धिमान् हैं, जिनका कभी इस दुरवस्थामें पड़ना उचित नहीं है, वे ही जीविकाके लिये आज दूसरेके घरमें पड़े हैं। महाराज युधिष्ठिरको इस दशामें देखकर किसे दुःख न होगा?॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपास्ते स्म सभायां यं कृत्स्ना वीर वसुन्धरा।
तमुपासीनमप्यन्यं पश्य भारत भारतम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

उपास्ते स्म सभायां यं कृत्स्ना वीर वसुन्धरा।
तमुपासीनमप्यन्यं पश्य भारत भारतम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वीर! पहले राजसभामें समस्त भूमण्डलके लोग जिनकी सब ओरसे उपासना करते थे, भारत! अब उन्हीं भूरतवंशशिरोमणिको आज दूसरे राजाकी सभामें बैठे देख लो॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं बहुविधैर्दुःखैः पीड्यमानामनाथवत् ।
शोकसागरमध्यस्थां कि मां भीम न पश्यसि ॥ ३३ ॥

मूलम्

एवं बहुविधैर्दुःखैः पीड्यमानामनाथवत् ।
शोकसागरमध्यस्थां कि मां भीम न पश्यसि ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेन! इस प्रकार अनेक दुःखोंसे अनाथकी भाँति पीड़ित होती हुई मैं शोकके महासागरमें डूब रही हूँ, क्या तुम मेरी यह दुर्दशा नहीं देखते?॥३३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि कीचकवधपर्वणि द्रौपदीभीमसंवादे अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत कीचकवधपर्वमें द्रौपदीभीमसंवादविषयक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१८॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १३ श्लोक मिलाकर कुल ४६ श्लोक हैं।)