भागसूचना
सप्तदशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
द्रौपदीका भीमसेनके समीप जाना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा हता सूतपुत्रेण राजपत्नी यशस्विनी।
वधं कृष्णा परीप्सन्ती सेनावाहस्य भामिनी ॥ १ ॥
मूलम्
सा हता सूतपुत्रेण राजपत्नी यशस्विनी।
वधं कृष्णा परीप्सन्ती सेनावाहस्य भामिनी ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं —राजन्! सूतपुत्र सेनापति कीचकने जबसे लात मारी थी, तभीसे यशस्विनी राजपत्नी भामिनी द्रौपदी उसके वधकी बात सोचने लगी॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जगामावासमेवाथ सा तदा द्रुपदात्मजा।
कृत्वा शौचं यथान्यायं कृष्णा सा तनुमध्यमा ॥ २ ॥
गात्राणि वाससी चैव प्रक्षाल्य सलिलेन सा।
चिन्तयामास रुदती तस्य दुःखस्य निर्णयम् ॥ ३ ॥
मूलम्
जगामावासमेवाथ सा तदा द्रुपदात्मजा।
कृत्वा शौचं यथान्यायं कृष्णा सा तनुमध्यमा ॥ २ ॥
गात्राणि वाससी चैव प्रक्षाल्य सलिलेन सा।
चिन्तयामास रुदती तस्य दुःखस्य निर्णयम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह अपने निवासस्थानपर गयी। उस समय सूक्ष्म कटिभागवाली द्रुपदकुमारी कृष्णाने वहाँ यथायोग्य शौच-स्नान करके जलसे अपने शरीर और वस्त्र धोये तथा वह रोती हुई उस दुःखके निवारणका उपाय सोचने लगी—॥२-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं करोमि क्व गच्छामि कथं कार्यं भवेन्मम।
इत्येवं चिन्तयित्वा सा भीमं वै मनसागमत् ॥ ४ ॥
मूलम्
किं करोमि क्व गच्छामि कथं कार्यं भवेन्मम।
इत्येवं चिन्तयित्वा सा भीमं वै मनसागमत् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘क्या करूँ, कहाँ जाऊँ? कैसे मेरा अभीष्ट कार्य होगा, इस प्रकार चिन्तन करके उसने मन-ही-मन भीमसेनका स्मरण किया॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नान्यः कर्ता ऋते भीमान्ममाद्य मनसः प्रियम्।
तत उत्थाय रात्रौ सा विहाय शयनं स्वकम् ॥ ५ ॥
प्राद्रवन्नाथमिच्छन्ती कृष्णा नाथवती सती।
भवनं भीमसेनस्य क्षिप्रमायतलोचना ॥ ६ ॥
दुःखेन महता युक्ता मानसेन मनस्विनी।
मूलम्
नान्यः कर्ता ऋते भीमान्ममाद्य मनसः प्रियम्।
तत उत्थाय रात्रौ सा विहाय शयनं स्वकम् ॥ ५ ॥
प्राद्रवन्नाथमिच्छन्ती कृष्णा नाथवती सती।
भवनं भीमसेनस्य क्षिप्रमायतलोचना ॥ ६ ॥
दुःखेन महता युक्ता मानसेन मनस्विनी।
अनुवाद (हिन्दी)
‘भीमसेनके सिवा दूसरा कोई आज मेरे मनको प्रिय लगनेवाला कार्य नहीं कर सकता’—ऐसा निश्चय करके वह विशाल नेत्रोंवाली सती-साध्वी सनाथा कृष्णा रातको अपनी शय्या छोड़कर उठी और अपने नाथ (रक्षक)-से मिलनेकी इच्छा रखकर शीघ्रतापूर्वक भीमसेनके भवनमें गयी। उस समय मनस्विनी द्रौपदी महान् मानसिक दुःखसे पीड़ित थी॥५-६॥
मूलम् (वचनम्)
सैरन्ध्र्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिञ्जीवति पापिष्ठे सेनावाहे मम द्विषि ॥ ७ ॥
तत् कर्म कृतवानद्य कथं निद्रां निषेवसे।
मूलम्
तस्मिञ्जीवति पापिष्ठे सेनावाहे मम द्विषि ॥ ७ ॥
तत् कर्म कृतवानद्य कथं निद्रां निषेवसे।
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ पहुँचते ही सैरन्ध्री बोली —आर्यपुत्र! मुझसे द्वेष रखनेवाले उस महापापी सेनापतिके, जिसने मेरे साथ वैसा अपमानजनक बर्ताव किया था, जीते-जी तुम आज नींद कैसे ले रहे हो?॥७॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वाथ तां शालां प्रविवेश मनस्विनी ॥ ८ ॥
यस्यां भीमस्तथा शेते मृगराज इव श्वसन्।
मूलम्
एवमुक्त्वाथ तां शालां प्रविवेश मनस्विनी ॥ ८ ॥
यस्यां भीमस्तथा शेते मृगराज इव श्वसन्।
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! ऐसा कहती हुई मनस्विनी द्रौपदीने उस भवनमें प्रवेश किया, जिसमें सिंहकी भाँति साँसें खींचते हुए भीमसेन सो रहे थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्या रूपेण सा शाला भीमस्य च महात्मनः ॥ ९ ॥
सम्मूर्छितेव कौरव्य प्रजज्वाल च तेजसा।
सा वै महानसं प्राप्य भीमसेनं शुचिस्मिता ॥ १० ॥
सर्वश्वेतेव माहेयी वने जाता त्रिहायणी।
उपातिष्ठत पाञ्चाली वासितेव नरर्षभम् ॥ ११ ॥
मूलम्
तस्या रूपेण सा शाला भीमस्य च महात्मनः ॥ ९ ॥
सम्मूर्छितेव कौरव्य प्रजज्वाल च तेजसा।
सा वै महानसं प्राप्य भीमसेनं शुचिस्मिता ॥ १० ॥
सर्वश्वेतेव माहेयी वने जाता त्रिहायणी।
उपातिष्ठत पाञ्चाली वासितेव नरर्षभम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुनन्दन! द्रौपदीके दिव्य रूपसे महात्मा भीमकी वह पाकशाला शोभा-समृद्धिको प्राप्त होकर तेजसे प्रकाशित हो उठी। पवित्र मुसकानवाली द्रौपदी पाक-शालामें पहुँचकर क्रमशः [बक, साँड़ और गजराजके पास जानेवाली] जलमें उत्पन्न हुई बकी, तीन सालकी पार्थिव गौ तथा हथिनीके समान श्रेष्ठ पुरुष भीमसेनके समीप गयीं॥९—११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा लतेव महाशालं फुल्लं गोमतितीरजम्।
परिष्वजत पाञ्चाली मध्यमं पाण्डुनन्दनम् ॥ १२ ॥
मूलम्
सा लतेव महाशालं फुल्लं गोमतितीरजम्।
परिष्वजत पाञ्चाली मध्यमं पाण्डुनन्दनम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे लता गोमतीके तटपर उत्पन्न एवं खिले हुए ऊँचे शालवृक्षमें लिपट जाती है, उसी प्रकार सती-साध्वी पांचालीने मध्यम1 पाण्डव भीमसेनका आलिंगन किया॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाहुभ्यां परिरभ्यैनं प्राबोधयदनिन्दिता ।
सिंहं सुप्तं वने दुर्गे मृगराजवधूरिव ॥ १३ ॥
मूलम्
बाहुभ्यां परिरभ्यैनं प्राबोधयदनिन्दिता ।
सिंहं सुप्तं वने दुर्गे मृगराजवधूरिव ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने उन्हें दोनों भुजाओंसे कसकर जगाया; ठीक वैसे ही, जैसे दुर्गम वनमें सोये हुए सिंहको सिंहिनी जगाती है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमसेनमुपाश्लिष्यद्धस्तिनीव महागजम् ।
वीणेव मधुरालापा गान्धारं साधु मूर्छती।
अभ्यभाषत पाञ्चाली भीमसेनमनिन्दिता ॥ १४ ॥
मूलम्
भीमसेनमुपाश्लिष्यद्धस्तिनीव महागजम् ।
वीणेव मधुरालापा गान्धारं साधु मूर्छती।
अभ्यभाषत पाञ्चाली भीमसेनमनिन्दिता ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे हथिनी महान् गजराजका आलिंगन करती है, उसी प्रकार निर्दोष पाञ्चालराजकुमारी भीमसेनसे सटकर गान्धार स्वरमें मधुर ध्वनि फैलाती हुई वीणाकी भाँति मीठे वचनोंमें बोली—॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ किं शेषे भीमसेन यथा मृतः।
नामृतस्य हि पापीयान् भार्यामालभ्य जीवति ॥ १५ ॥
मूलम्
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ किं शेषे भीमसेन यथा मृतः।
नामृतस्य हि पापीयान् भार्यामालभ्य जीवति ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भीमसेन! उठो, उठो, क्यों मुर्देकी तरह सो रहे हो?; क्योंकि (तुम्हारे-जैसे वीर) पुरुषके जीवित रहते हुए उसकी पत्नीका स्पर्श करके कोई महापापी मनुष्य जीवित नहीं रह सकता’॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स सम्प्रहाय शयनं राजपुत्र्या प्रबोधितः।
उपातिष्ठत मेघाभः पर्यङ्के सोपसंग्रहे ॥ १६ ॥
अथाब्रवीद् राजपुत्रीं कौरव्यो महिषीं प्रियाम्।
केनास्यर्थेन सम्प्राप्ता त्वरितेव ममान्तिकम् ॥ १७ ॥
न ते प्रकृतिमान् वर्णः कृशा पाण्डुश्च लक्ष्यसे।
आचक्ष्व परिशेषेण सर्वं विद्यामहं यथा ॥ १८ ॥
मूलम्
स सम्प्रहाय शयनं राजपुत्र्या प्रबोधितः।
उपातिष्ठत मेघाभः पर्यङ्के सोपसंग्रहे ॥ १६ ॥
अथाब्रवीद् राजपुत्रीं कौरव्यो महिषीं प्रियाम्।
केनास्यर्थेन सम्प्राप्ता त्वरितेव ममान्तिकम् ॥ १७ ॥
न ते प्रकृतिमान् वर्णः कृशा पाण्डुश्च लक्ष्यसे।
आचक्ष्व परिशेषेण सर्वं विद्यामहं यथा ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजकुमारी द्रौपदीके जगानेपर मेघके समान श्याम वर्णवाले कुरुनन्दन भीमसेन तोशक बिछे हुए पलंगपर शयन छोड़कर उठ बैठे और अपनी प्यारी रानीसे बोले—‘देवि! किस कार्यसे तुम इतनी उतावली-सी होकर मेरे पास आयी हो? तुम्हारे शरीरकी कान्ति स्वाभाविक नहीं रह गयी है। तुमपर उदासी छायी है। तुम दुबली और पीली दिखायी देती हो। पूरी बात बताओ, जिससे मैं सब कुछ जान सकूँ॥१६—१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखं वा यदि वा दुःखं द्वेष्यं वा यदि वा प्रियम्।
यथावत् सर्वमाचक्ष्व श्रुत्वा ज्ञास्यामि यत् क्षमम् ॥ १९ ॥
मूलम्
सुखं वा यदि वा दुःखं द्वेष्यं वा यदि वा प्रियम्।
यथावत् सर्वमाचक्ष्व श्रुत्वा ज्ञास्यामि यत् क्षमम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम्हें सुख हो या दुःख, बुरा हुआ हो या भला, सब बातें ठीक-ठीक कह जाओ। वह सब सुनकर मैं उसके निवारणके लिये उचित उपाय सोचूँगा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहमेव हि ते कृष्णे विश्वास्यः सर्वकर्मसु।
अहमापत्सु चापि त्वां मोक्षयामि पुनः पुनः ॥ २० ॥
मूलम्
अहमेव हि ते कृष्णे विश्वास्यः सर्वकर्मसु।
अहमापत्सु चापि त्वां मोक्षयामि पुनः पुनः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कृष्णे! सब कार्योंके लिये मैं ही तुम्हारा विश्वासपात्र हूँ। मैं ही सब प्रकारकी विपत्तियोंमें बार-बार सहायता करके तुम्हें संकटसे मुक्त करता हूँ॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शीघ्रमुक्त्वा यथाकामं यत् ते कार्यं विवक्षितम्।
गच्छ वै शयनायैव पुरा नान्येन बुध्यते ॥ २१ ॥
मूलम्
शीघ्रमुक्त्वा यथाकामं यत् ते कार्यं विवक्षितम्।
गच्छ वै शयनायैव पुरा नान्येन बुध्यते ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः जैसी तुम्हारी रुचि हो और जिस कार्यके लिये कुछ कहना चाहती हो, उसे शीघ्र कहकर पहले ही अपने शयनगृहमें चली जाओ, जिससे दूसरे किसीको इसका पता न चल सके’॥२१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि कीचकवधपर्वणि द्रौपदीभीमसंवादे सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत कीचकवधपर्वमें द्रौपदी-भीम-संवादविषयक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१७॥
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नकुल-सहदेव जुड़वें पैदा हुए थे; अतः वे दोनों कनिष्ठ (छोटे) भाई हैं। युधिष्ठिर बड़े हैं। भीमसेन और अर्जुन मध्यम हैं। विराटपर्वके प्रसंगमें अर्जुन पुरुष नहीं रह गये हैं। अतः भीमसेन ही यहाँ प्रधानरूपसे मध्यम पाण्डव कहे गये हैं। ↩︎