भागसूचना
षोडशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
कीचकद्वारा द्रौपदीका अपमान
मूलम् (वचनम्)
कीचक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वागतं ते सुकेशान्ते सुव्युष्टा रजनी मम।
स्वामिनी त्वमनुप्राप्ता प्रकुरुष्व मम प्रियम् ॥ १ ॥
मूलम्
स्वागतं ते सुकेशान्ते सुव्युष्टा रजनी मम।
स्वामिनी त्वमनुप्राप्ता प्रकुरुष्व मम प्रियम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कीचकने कहा— सुन्दर अलकोंवाली सैरन्ध्री! तुम्हारा स्वागत है। आजकी रातका प्रभात मेरे लिये बड़ा मंगलमय है। अब तुम मेरी स्वामिनी होकर मेरा प्रिय कार्य करो॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुवर्णमालाः कम्बूश्च कुण्डले परिहाटके।
नानापत्तनजे शुभ्रे मणिरत्नं च शोभनम् ॥ २ ॥
आहरन्तु च वस्त्राणि कौशिकान्यजिनानि च।
मूलम्
सुवर्णमालाः कम्बूश्च कुण्डले परिहाटके।
नानापत्तनजे शुभ्रे मणिरत्नं च शोभनम् ॥ २ ॥
आहरन्तु च वस्त्राणि कौशिकान्यजिनानि च।
अनुवाद (हिन्दी)
मैं दासियोंको आज्ञा देता हूँ; वे तुम्हारे लिये सोनेके हार, शंखकी चूड़ियाँ, विभिन्न नगरोंमें बने हुए शुभ्र सुवर्णमय कर्णफूलके जोड़े, सुन्दर मणि-रत्नमय आभूषण, रेशमी साड़ियाँ तथा मृगचर्म आदि ले आवें॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्ति मे शयनं दिव्यं त्वदर्थमुपकल्पितम्।
एहि तत्र मया सार्धं पिबस्व मधुमाधवीम् ॥ ३ ॥
मूलम्
अस्ति मे शयनं दिव्यं त्वदर्थमुपकल्पितम्।
एहि तत्र मया सार्धं पिबस्व मधुमाधवीम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने तुम्हारे लिये पहलेसे ही यह दिव्य शय्या बिछा रखी है। आओ, यहाँ मेरे साथ बैठकर मधुर माध्वीरसका पान करो॥३॥
मूलम् (वचनम्)
द्रौपद्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
(नाहं शक्या त्वया स्प्रष्टुं निषादेनेव ब्राह्मणी।
मा गमिष्यसि दुर्बुद्धे गतिं दुर्गान्तरान्तराम्॥
मूलम्
(नाहं शक्या त्वया स्प्रष्टुं निषादेनेव ब्राह्मणी।
मा गमिष्यसि दुर्बुद्धे गतिं दुर्गान्तरान्तराम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रौपदी बोली— दुर्बुद्धे! जैसे निषाद ब्राह्मणीका स्पर्श नहीं कर सकता, उसी प्रकार तुम भी मुझे छू नहीं सकते। तुम मेरा तिरस्कार करके भारी-से-भारी दुर्गतिमें न पड़ो।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र गच्छन्ति बहवः परदाराभिमर्शकाः।
नराः सम्भिन्नमर्यादाः कीटवच्च गुहाशयाः॥)
मूलम्
यत्र गच्छन्ति बहवः परदाराभिमर्शकाः।
नराः सम्भिन्नमर्यादाः कीटवच्च गुहाशयाः॥)
अनुवाद (हिन्दी)
उस दुरवस्थामें न जाओ, जहाँ धर्ममर्यादाका छेदन करनेवाले बहुत-से परस्त्रीगामी मनुष्य बिलमें सोनेवाले कीड़ोंकी भाँति जाया करते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अप्रैषीद् राजपुत्री मां सुराहारीं तवान्तिकम्।
पानमाहर मे क्षिप्रं पिपासा मेऽति चाब्रवीत् ॥ ४ ॥
मूलम्
अप्रैषीद् राजपुत्री मां सुराहारीं तवान्तिकम्।
पानमाहर मे क्षिप्रं पिपासा मेऽति चाब्रवीत् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजकुमारी सुदेष्णाने मुझे मदिरा लानेके लिये तुम्हारे पास भेजा है। उनका कहना है—‘मुझे बड़े जोरकी प्यास लगी है; अतः शीघ्र मेरे लिये पीने योग्य रस ले आओ’॥४॥
मूलम् (वचनम्)
कीचक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्या भद्रे नयिष्यन्ति राजपुत्र्याः प्रतिश्रुतम्।
इत्येतां दक्षिणे पाणौ सूतपुत्रः परामृशत् ॥ ५ ॥
मूलम्
अन्या भद्रे नयिष्यन्ति राजपुत्र्याः प्रतिश्रुतम्।
इत्येतां दक्षिणे पाणौ सूतपुत्रः परामृशत् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कीचकने कहा— कल्याणी! राजपुत्री सुदेष्णाकी मँगायी हुई वस्तु दूसरी दासियाँ पहुँचा देंगी। ऐसा कहकर सूतपुत्रने द्रौपदीका दाहिना हाथ पकड़ लिया॥५॥
मूलम् (वचनम्)
द्रौपद्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथैवाहं नाभिचरे कदाचित्
पतीन् मदाद् वै मनसापि जातु।
तेनैव सत्येन वशीकृतं त्वां
द्रष्टास्मि पापं परिकृष्यमाणम् ॥ ६ ॥
मूलम्
यथैवाहं नाभिचरे कदाचित्
पतीन् मदाद् वै मनसापि जातु।
तेनैव सत्येन वशीकृतं त्वां
द्रष्टास्मि पापं परिकृष्यमाणम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रौपदी बोली— ओ पापी! यदि मैंने आजतक कभी मनसे भी अभिमानवश अपने पतियोंके विरुद्ध आचरण न किया हो तो इस सत्यके प्रभावसे मैं देखूँगी कि तू शत्रुके अधीन होकर पृथ्वीपर घसीटा जा रहा है॥६॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तामभिप्रेक्ष्य विशालनेत्रां
जिघृक्षमाणः परिभर्त्सयन्तीम् ।
जग्राह तामुत्तरवस्त्रदेशे
स कीचकस्तां सहसाऽऽक्षिपन्तीम् ॥ ७ ॥
मूलम्
स तामभिप्रेक्ष्य विशालनेत्रां
जिघृक्षमाणः परिभर्त्सयन्तीम् ।
जग्राह तामुत्तरवस्त्रदेशे
स कीचकस्तां सहसाऽऽक्षिपन्तीम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! बड़े-बड़े नेत्रोंवाली द्रौपदीको इस प्रकार फटकारती देख कीचकने उसे पकड़ लेनेकी इच्छा की; किंतु वह सहसा झटका देकर पीछेकी ओर हटने लगी; इतनेमें ही झपटकर कीचकने उसके दुपट्टेका छोर पकड़ लिया॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रगृह्यमाणा तु महाजवेन
मुहुर्विनिःश्वस्य च राजपुत्री ।
तया समाक्षिप्ततनुः स पापः
पपात शाखीव निकृत्तमूलः ॥ ८ ॥
मूलम्
प्रगृह्यमाणा तु महाजवेन
मुहुर्विनिःश्वस्य च राजपुत्री ।
तया समाक्षिप्ततनुः स पापः
पपात शाखीव निकृत्तमूलः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब वह बड़े वेगसे उसे काबूमें लानेका प्रयत्न करने लगा। इधर राजकुमारी द्रौपदी बारंबार लंबी साँसें भरती हुई उससे छूटनेका प्रयत्न करने लगी। उसने सँभलकर दोनों हाथोंसे कीचकको बड़े जोरका धक्का दिया; जिससे वह पापी जड़—मूलसे कटे वृक्षकी भाँति (धम्मसे) जमीनपर जा गिरा॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा गृहीता विधुन्वाना भूमावाक्षिप्य कीचकम्।
सभां शरणमागच्छद् यत्र राजा युधिष्ठिरः ॥ ९ ॥
मूलम्
सा गृहीता विधुन्वाना भूमावाक्षिप्य कीचकम्।
सभां शरणमागच्छद् यत्र राजा युधिष्ठिरः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार पकड़में आनेपर कीचकको धरतीपर गिराकर भयसे काँपती हुई द्रौपदीने भागकर उस राज-सभाकी शरण ली, जहाँ राजा युधिष्ठिर विद्यमान थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां कीचकः प्रधावन्तीं केशपाशे परामृशत्।
अथैनां पश्यतो राज्ञः पातयित्वा पदावधीत् ॥ १० ॥
मूलम्
तां कीचकः प्रधावन्तीं केशपाशे परामृशत्।
अथैनां पश्यतो राज्ञः पातयित्वा पदावधीत् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कीचकने भी उठकर भागती हुई द्रौपदीका पीछा किया और उसका केशपाश पकड़ लिया। फिर उसने राजाके देखते-देखते उसे पृथ्वीपर गिराकर लात मारी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य योऽसौ तदार्केण राक्षसः संनियोजितः।
स कीचकमपोवाह वातवेगेन भारत ॥ ११ ॥
मूलम्
तस्य योऽसौ तदार्केण राक्षसः संनियोजितः।
स कीचकमपोवाह वातवेगेन भारत ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! इतनेमें ही भगवान् सूर्यने जिस राक्षसको द्रौपदीकी रक्षाके लिये नियुक्त कर रखा था, उसने कीचकको पकड़कर आँधीके समान वेगसे दूर फेंक दिया॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स पपात तदा भूमौ रक्षोबलसमाहतः।
विघूर्णमानो निश्चेष्टश्छिन्नमूल इव द्रुमः ॥ १२ ॥
मूलम्
स पपात तदा भूमौ रक्षोबलसमाहतः।
विघूर्णमानो निश्चेष्टश्छिन्नमूल इव द्रुमः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राक्षसद्वारा बलपूर्वक आहत होकर कीचकके सारे शरीरमें चक्कर आ गया और वह जड़से कटे हुए वृक्षकी भाँति निश्चेष्ट होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(सभायां पश्यतो राज्ञो विराटस्य महात्मनः।
ब्राह्मणानां च वृद्धानां क्षत्रियाणां च पश्यताम्॥
तस्याः पादाभितप्ताया मुखाद् रुधिरमास्रवत्।
तां दृष्ट्वा तत्र ते सभ्या हाहाभूताः समन्ततः॥
न युक्तं सूतपुत्रेति कीचकेति च मानवाः।
किमियं वध्यते बाला कृपणा चाप्यबान्धवा॥)
मूलम्
(सभायां पश्यतो राज्ञो विराटस्य महात्मनः।
ब्राह्मणानां च वृद्धानां क्षत्रियाणां च पश्यताम्॥
तस्याः पादाभितप्ताया मुखाद् रुधिरमास्रवत्।
तां दृष्ट्वा तत्र ते सभ्या हाहाभूताः समन्ततः॥
न युक्तं सूतपुत्रेति कीचकेति च मानवाः।
किमियं वध्यते बाला कृपणा चाप्यबान्धवा॥)
अनुवाद (हिन्दी)
सभामें महामना राजा विराटके तथा वृद्ध ब्राह्मणों और क्षत्रियोंके देखते-देखते कीचकके पादप्रहारसे पीड़ित हुई द्रौपदीके मुँहसे रक्त बहने लगा। उसे उस अवस्थामें देखकर समस्त सभासद् सब ओरसे हाहाकार कर उठे और सब लोग कहने लगे—‘सूतपुत्र कीचक! तुम्हारा यह कार्य उचित नहीं है। यह बेचारी अबला अपने बन्धु-बान्धवोंसे रहित है। इसे क्यों पीड़ा दे रहे हो?’
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां चासीनौ ददृशतुर्भीमसेनयुधिष्ठिरौ ।
अमृष्यमाणौ कृष्णायाः कीचकेन पराभवम् ॥ १३ ॥
मूलम्
तां चासीनौ ददृशतुर्भीमसेनयुधिष्ठिरौ ।
अमृष्यमाणौ कृष्णायाः कीचकेन पराभवम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय भीमसेन और युधिष्ठिर भी राजसभामें बैठे हुए थे। उन्होंने कीचकके द्वारा द्रौपदीका यह अपमान अपनी आँखों देखा; जिसे वे सहन न कर सके॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य भीमो वधं प्रेप्सुः कीचकस्य दुरात्मनः।
दन्तैर्दन्तांस्तदा रोषान्निष्पिपेष महामनाः ॥ १४ ॥
मूलम्
तस्य भीमो वधं प्रेप्सुः कीचकस्य दुरात्मनः।
दन्तैर्दन्तांस्तदा रोषान्निष्पिपेष महामनाः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महामना भीमसेन दुरात्मा कीचकको मार डालनेकी इच्छासे उस समय रोषवश दाँतोंसे दाँत पीसने लगे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धूमच्छाया ह्यभजतां नेत्रे चोच्छ्रितपक्ष्मणी।
सस्वेदा भृकुटी चोग्रा ललाटे समवर्तत ॥ १५ ॥
मूलम्
धूमच्छाया ह्यभजतां नेत्रे चोच्छ्रितपक्ष्मणी।
सस्वेदा भृकुटी चोग्रा ललाटे समवर्तत ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनकी आँखोंकी पलकें ऊपरको उठकर तन गयीं। उनमें धूआँ-सा छा गया, ललाटमें पसीना निकल आया और भौंहें टेढ़ी होकर भयंकर प्रतीत होने लगीं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हस्तेन ममृजे चैव ललाटं परवीरहा।
भूयश्च त्वरितः क्रुद्धः सहसोत्थातुमैच्छत ॥ १६ ॥
मूलम्
हस्तेन ममृजे चैव ललाटं परवीरहा।
भूयश्च त्वरितः क्रुद्धः सहसोत्थातुमैच्छत ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुहन्ता भीम हाथसे माथेका पसीना पोंछने लगे। फिर तुरंत ही प्रचण्ड कोपमें भर गये और सहसा उठनेकी इच्छा करने लगे॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथावमृद्नादङ्गुष्ठमङ्गुष्ठेन युधिष्ठिरः ।
प्रबोधनभयाद् राजा भीमं तं प्रत्यषेधयत् ॥ १७ ॥
मूलम्
अथावमृद्नादङ्गुष्ठमङ्गुष्ठेन युधिष्ठिरः ।
प्रबोधनभयाद् राजा भीमं तं प्रत्यषेधयत् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब राजा युधिष्ठिरने रहस्य प्रकट हो जानेके डरसे अपने अँगूठेसे भीमका अँगूठा दबाया और इस प्रकार उन्हें उत्तेजित होनेसे रोका॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं मत्तमिव मातङ्गं वीक्षमाणं वनस्पतिम्।
स तमावारयामास भीमसेनं युधिष्ठिरः ॥ १८ ॥
मूलम्
तं मत्तमिव मातङ्गं वीक्षमाणं वनस्पतिम्।
स तमावारयामास भीमसेनं युधिष्ठिरः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेन मतवाले गजराजकी भाँति एक वृक्षकी ओर देख रहे थे। तब युधिष्ठिरने उन्हें रोकते हुए कहा—॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आलोकयसि किं वृक्षं सूद दारुकृतेन वै।
यदि ते दारुभिः कृत्यं बहिर्वृक्षान्निगृह्यताम् ॥ १९ ॥
मूलम्
आलोकयसि किं वृक्षं सूद दारुकृतेन वै।
यदि ते दारुभिः कृत्यं बहिर्वृक्षान्निगृह्यताम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बल्लव! क्या तुम ईंधनके लिये वृक्षकी ओर देखते हो? यदि रसोईके लिये सूखी लकड़ी चाहिये, तो बाहर जाकर वृक्षसे ले लो’॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(यस्य चार्द्रस्य वृक्षस्य शीतच्छायां समाश्रयेत्।
न तस्य पर्णं द्रुह्येत पूर्ववृत्तमनुस्मरन्॥
मूलम्
(यस्य चार्द्रस्य वृक्षस्य शीतच्छायां समाश्रयेत्।
न तस्य पर्णं द्रुह्येत पूर्ववृत्तमनुस्मरन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिस हरे-भरे वृक्षकी शीतल छायाका आश्रय लेकर रहा जाय, उसके किसी एक पत्तेसे भी द्रोह नहीं करना चाहिये। उसके पहलेके उपकारोंको सदा याद रखकर उसकी रक्षा करनी चाहिये’।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इङ्गितज्ञः स तु भ्रातुस्तूष्णीमासीद् वृकोदरः॥
भीमस्य तु समारम्भं दृष्ट्वा राज्ञश्च चेष्टितम्।
द्रौपद्यभ्यधिकं क्रुद्धा प्रारुदत् सा पुनः पुनः॥
कीचकेनानुगमनात् कृष्णा ताम्रायतेक्षणा ।)
मूलम्
इङ्गितज्ञः स तु भ्रातुस्तूष्णीमासीद् वृकोदरः॥
भीमस्य तु समारम्भं दृष्ट्वा राज्ञश्च चेष्टितम्।
द्रौपद्यभ्यधिकं क्रुद्धा प्रारुदत् सा पुनः पुनः॥
कीचकेनानुगमनात् कृष्णा ताम्रायतेक्षणा ।)
अनुवाद (हिन्दी)
तब भाईके संकेतको समझनेवाले भीमसेन उस समय चुप हो गये। भीमके उस क्रोधको तथा राजा युधिष्ठिरकी शान्तिपूर्ण चेष्टाको देखकर द्रौपदी अधिक कुद्ध हो उठी। कीचकके पीछा करनेसे कृष्णाकी आँखें रोषसे लाल हो रही थीं। वह खीझके कारण बार-बार रोने लगी।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा सभाद्वारमासाद्य रुदती मत्स्यमब्रवीत्।
अवेक्षमाणा सुश्रोणी पतींस्तान् दीनचेतसः ॥ २० ॥
मूलम्
सा सभाद्वारमासाद्य रुदती मत्स्यमब्रवीत्।
अवेक्षमाणा सुश्रोणी पतींस्तान् दीनचेतसः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इधर सुन्दर कटिप्रान्तवाली द्रौपदी राजसभाके द्वारपर आकर अपने दीन हृदयवाले पतियोंकी ओर देखती हुई मत्स्यनरेशसे बोली॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आकारमभिरक्षन्ती प्रतिज्ञाधर्मसंहिता ।
दह्यमानेव रौद्रेण चक्षुषा द्रुपदात्मजा ॥ २१ ॥
मूलम्
आकारमभिरक्षन्ती प्रतिज्ञाधर्मसंहिता ।
दह्यमानेव रौद्रेण चक्षुषा द्रुपदात्मजा ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय वह प्रतिज्ञारूप धर्मसे आबद्ध होनेके कारण अपने स्वरूपको छिपा रही थी; किंतु उसके नेत्र मानो जला रहे हों, इस प्रकार भयंकर हो उठे थे॥२१॥
मूलम् (वचनम्)
(द्रौपद्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रजारक्षणशीलानां राज्ञां ह्यमिततेजसाम् ।
कार्यं हि पालनं नित्यं धर्मे सत्ये च तिष्ठताम्॥
स्वप्रजायां प्रजायां च विशेषं नाधिगच्छताम्।
मूलम्
प्रजारक्षणशीलानां राज्ञां ह्यमिततेजसाम् ।
कार्यं हि पालनं नित्यं धर्मे सत्ये च तिष्ठताम्॥
स्वप्रजायां प्रजायां च विशेषं नाधिगच्छताम्।
अनुवाद (हिन्दी)
द्रौपदीने कहा— जों स्वभावसे ही प्रजाजनोंकी रक्षामें लगे हुए हैं, सदा धर्म और सत्यके मार्गमें स्थित हैं तथा प्रजा और अपनी संतानमें कोई अन्तर नहीं समझते, उन अमिततेजस्वी राजाओंको चाहिये कि वे सदा आश्रितजनोंका पालन एवं संरक्षण करें।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रियेष्वपि च द्वेष्येषु समत्वं ये समाश्रिताः॥
विवादेषु प्रवृत्तेषु समं कार्यानुदर्शिना।
राज्ञा धर्मासनस्थेन जितौ लोकावुभावपि॥
मूलम्
प्रियेष्वपि च द्वेष्येषु समत्वं ये समाश्रिताः॥
विवादेषु प्रवृत्तेषु समं कार्यानुदर्शिना।
राज्ञा धर्मासनस्थेन जितौ लोकावुभावपि॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो प्रियजनों तथा द्वेषपात्रोंमें भी समानभाव रखते हैं, प्रजाजनोंमें विवाद आरम्भ होनेपर जो राजा धर्मासनपर बैठकर समानभावसे प्रत्येक कार्यपर विचार करते हैं, वे दोनों लोकोंको जीत लेते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजन् धर्मासनस्थोऽपि रक्ष मां त्वमनागसीम्॥
अहं त्वनपराध्यन्ती कीचकेन दुरात्मना।
पश्यतस्ते महाराज हता पादेन दासवत्॥
मूलम्
राजन् धर्मासनस्थोऽपि रक्ष मां त्वमनागसीम्॥
अहं त्वनपराध्यन्ती कीचकेन दुरात्मना।
पश्यतस्ते महाराज हता पादेन दासवत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! आप धर्मके आसनपर बैठे हैं। मुझ निरपराध अबलाकी रक्षा कीजिये। महाराज! मैंने कोई अपराध नहीं किया है तो भी दुरात्मा कीचकने आपके देखते-देखते मुझको लात मारी है; मेरे साथ (खरीदे हुए) दासका-सा बर्ताव किया है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मत्स्याधिप प्रजा रक्ष पिता पुत्रानिवौरसान्॥
यस्त्वधर्मेण कार्याणि मोहात्मा कुरुते नृपः।
अचिरात् तं दुरात्मानं वशे कुर्वन्ति शत्रवः॥
मूलम्
मत्स्याधिप प्रजा रक्ष पिता पुत्रानिवौरसान्॥
यस्त्वधर्मेण कार्याणि मोहात्मा कुरुते नृपः।
अचिरात् तं दुरात्मानं वशे कुर्वन्ति शत्रवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मत्स्यराज! जैसे पिता अपने औरस पुत्रोंकी रक्षा करता है, उसी प्रकार आप अपने प्रजाजनोंका संरक्षण कीजिये। जो मोहमें डूबा हुआ राजा अधर्मयुक्त कार्य करता है, उस दुरात्माको उसके शत्रु शीघ्र ही वशमें कर लेते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मत्स्यानां कुलजस्त्वं हि तेषां सत्यं परायणम्।
त्वं किलैवंविधो जातः कुले धर्मपरायणे॥
मूलम्
मत्स्यानां कुलजस्त्वं हि तेषां सत्यं परायणम्।
त्वं किलैवंविधो जातः कुले धर्मपरायणे॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप मत्स्यकुलमें उत्पन्न हुए हैं। सत्य ही मत्स्यनरेशोंका महान् आश्रय रहा है। आप भी इस धर्मपरायण कुलमें ऐसे ही धर्मात्मा पैदा हुए हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतस्त्वाहमभिक्रन्दे शरणार्थं नराधिप ।
त्राहि मामद्य राजेन्द्र कीचकात् पापपूरुषात्॥
मूलम्
अतस्त्वाहमभिक्रन्दे शरणार्थं नराधिप ।
त्राहि मामद्य राजेन्द्र कीचकात् पापपूरुषात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः नरेश्वर! मैं आपसे शरण देनेके लिये रुदन करती हूँ। राजेन्द्र! आज मुझे इस पापी कीचकसे बचाइये।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनाथामिह मां ज्ञात्वा कीचकः पुरुषाधमः।
प्रहरत्येव नीचात्मा न तु धर्ममवेक्षते॥
मूलम्
अनाथामिह मां ज्ञात्वा कीचकः पुरुषाधमः।
प्रहरत्येव नीचात्मा न तु धर्ममवेक्षते॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषाधम कीचक यहाँ मुझे असहाय जानकर मार रहा है। यह नीच अपने धर्मकी ओर नहीं देखता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अकार्याणामनारम्भात् कार्याणामनुपालनात् ।
प्रजासु ये सुवृत्तास्ते स्वर्गमायान्ति भूमिपाः॥
मूलम्
अकार्याणामनारम्भात् कार्याणामनुपालनात् ।
प्रजासु ये सुवृत्तास्ते स्वर्गमायान्ति भूमिपाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो भूमिपाल न करनेयोग्य कार्योंका आरम्भ नहीं करते, करनेयोग्य कर्तव्योंका निरन्तर पालन करते हैं और सदा प्रजाके साथ उत्तम बर्ताव करते हैं, वे स्वर्गलोकमें जाते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कार्याकार्यविशेषज्ञाः कामकारेण पार्थिव ।
प्रजासु किल्बिषं कृत्वा नरकं यान्त्यधोमुखाः॥
मूलम्
कार्याकार्यविशेषज्ञाः कामकारेण पार्थिव ।
प्रजासु किल्बिषं कृत्वा नरकं यान्त्यधोमुखाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु राजन्! जो राजा कर्तव्य और अकर्तव्यके अन्तरको जानते हुए भी स्वेच्छाचारितावश प्रजावर्गके साथ पापाचार करते हैं, वे अधोमुख हो नरकमें जाते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैव यज्ञैर्न वा दानैर्न गुरोरुपसेवया।
प्राप्नुवन्ति तथा धर्मं यथा कार्यानुपालनात्॥
मूलम्
नैव यज्ञैर्न वा दानैर्न गुरोरुपसेवया।
प्राप्नुवन्ति तथा धर्मं यथा कार्यानुपालनात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजालोग यज्ञ, दान अथवा गुरुसेवनसे भी वैसा धर्म (पुण्य) नहीं पाते हैं, जैसा कि अपने कर्तव्यका ठीक-ठीक पालन करनेसे प्राप्त करते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रियायामक्रियायां च प्रापणे पुण्यपापयोः॥
प्रजायां सृज्यमानायां पुरा ह्येतदुदाहृतम्।
एतद् वो मानुषाः सम्यक् कार्यं द्वन्द्वतया भुवि।
अस्मिन् सुनीते दुर्नीते लभते कर्मजं फलम्॥
मूलम्
क्रियायामक्रियायां च प्रापणे पुण्यपापयोः॥
प्रजायां सृज्यमानायां पुरा ह्येतदुदाहृतम्।
एतद् वो मानुषाः सम्यक् कार्यं द्वन्द्वतया भुवि।
अस्मिन् सुनीते दुर्नीते लभते कर्मजं फलम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालमें सृष्टिकी रचनाके समय ब्रह्माजीने क्रिया करने और न करनेकी स्थितिमें पुण्य और पापकी प्राप्तिके विषयमें इस प्रकार कहा था—‘मनुष्यो! तुमलोगोंको इस पृथ्वीलोकमें द्वन्द्वरूपमें प्राप्त धर्म और अधर्मके विषयमें भलीभाँति समझकर कर्म करना चाहिये; क्योंकि अच्छी या बुरी जैसी नीयतसे काम किया जाता है, वैसा ही कर्मजनित फल मिलता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कल्याणकारी कल्याणं पापकारी च पापकम्।
तेन गच्छति संसर्गं स्वर्गाय नरकाय वा॥
मूलम्
कल्याणकारी कल्याणं पापकारी च पापकम्।
तेन गच्छति संसर्गं स्वर्गाय नरकाय वा॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कल्याणकारी मनुष्य कल्याणका और पापाचारी पुरुष पापके फलस्वरूप दुःखका भागी होता है। जो इनके संसर्गमें आता है, वह भी (कर्मानुसार) स्वर्ग या नरकमें जाता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुकृतं दुष्कृतं वापि कृत्वा मोहेन मानवः।
पश्चात्तापेन तप्येत स्वबुद्ध्या मरणं गतः॥
मूलम्
सुकृतं दुष्कृतं वापि कृत्वा मोहेन मानवः।
पश्चात्तापेन तप्येत स्वबुद्ध्या मरणं गतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मनुष्य मोहपूर्वक सत्कर्म या दुष्कर्म करके मृत्युके बाद भी मन-ही-मन पश्चात्ताप करता रहता है’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा परं वाक्यं विससर्ज शतक्रतुम्।
शक्रोऽप्यापृच्छ्य ब्रह्माणं देवराज्यमपालयत् ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा परं वाक्यं विससर्ज शतक्रतुम्।
शक्रोऽप्यापृच्छ्य ब्रह्माणं देवराज्यमपालयत् ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार उत्तम वचन कहकर ब्रह्माजीने इन्द्रको विदा कर दिया। इन्द्र भी ब्रह्माजीसे पूछकर देवलोकमें आये और देवसाम्राज्यका पालन करने लगे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथोक्तं देवदेवेन ब्रह्मणा परमेष्ठिना।
तथा त्वमपि राजेन्द्र कार्याकार्ये स्थिरो भव॥
मूलम्
यथोक्तं देवदेवेन ब्रह्मणा परमेष्ठिना।
तथा त्वमपि राजेन्द्र कार्याकार्ये स्थिरो भव॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! देवाधिदेव परमेष्ठी ब्रह्माजीने जैसा उपदेश दिया है, उसके अनुसार आप भी कर्तव्य और अकर्तव्यके निर्णयमें दृढ़तापूर्वक लगे रहिये।
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं विलपमानायां पाञ्चाल्यां मत्स्यपुङ्गवः।
अशक्तः कीचकं तत्र शासितुं बलदर्पितम्॥
मूलम्
एवं विलपमानायां पाञ्चाल्यां मत्स्यपुङ्गवः।
अशक्तः कीचकं तत्र शासितुं बलदर्पितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! पांचाल-राजकुमारी द्रौपदीके इस प्रकार विलाप करनेपर भी मत्स्यराज विराट बलाभिमानी कीचकपर शासन करनेमें असमर्थ ही रहे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
विराटराजः सूतं तु सान्त्वेनैव न्यवारयत्।
कीचकं मत्स्यराजेन कृतागसमनिन्दिता ॥
नापराधानुरूपेण दण्डेन प्रतिपादितम् ।
पाञ्चालराजस्य सुता दृष्ट्वा सुरसुतोपमा॥
धर्मज्ञा व्यवहाराणां कीचकं कृतकिल्बिषम्।
पुनः प्रोवाच राजानं स्मरन्ती धर्ममुत्तमम्॥
सम्प्रेक्ष्य च वरारोहा सर्वांस्तत्र सभासदः।
विराटं चाह पाञ्चाली दुःखेनाविष्टचेतना॥)
मूलम्
विराटराजः सूतं तु सान्त्वेनैव न्यवारयत्।
कीचकं मत्स्यराजेन कृतागसमनिन्दिता ॥
नापराधानुरूपेण दण्डेन प्रतिपादितम् ।
पाञ्चालराजस्य सुता दृष्ट्वा सुरसुतोपमा॥
धर्मज्ञा व्यवहाराणां कीचकं कृतकिल्बिषम्।
पुनः प्रोवाच राजानं स्मरन्ती धर्ममुत्तमम्॥
सम्प्रेक्ष्य च वरारोहा सर्वांस्तत्र सभासदः।
विराटं चाह पाञ्चाली दुःखेनाविष्टचेतना॥)
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने शान्तिपूर्वक समझा-बुझाकर ही सूतको वैसा करनेसे मना किया। यद्यपि कीचकने भारी अपराध किया था, तो भी मत्स्यराजने उसे अपराधके अनुसार दण्ड नहीं दिया; यह देख देवकन्याके समान सुन्दरी एवं व्यवहार-धर्मको जाननेवाली साध्वी द्रौपदी उत्तम धर्मका स्मरण करती हुई राजा विराट तथा समस्त सभासदोंकी ओर देखकर दुःखी हृदयसे इस प्रकार बोली—।
विश्वास-प्रस्तुतिः
येषां वैरी न स्वपिति षष्ठेऽपि विषये वसन्।
तेषां मां मानिनीं भार्यां सूतपुत्रः पदावधीत् ॥ २२ ॥
मूलम्
येषां वैरी न स्वपिति षष्ठेऽपि विषये वसन्।
तेषां मां मानिनीं भार्यां सूतपुत्रः पदावधीत् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिन मेरे पतियोंके वैरीको पाँच देशोंको पार करके छठे देशमें रहनेपर भी भयके मारे नींद नहीं आती, आज उन्हींकी मानिनी पत्नी मुझ असहाय अबलाको एक सूतपुत्रने लातसे मारा है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये दद्युर्न च याचेयुर्ब्रह्मण्याः सत्यवादिनः।
तेषां मां मानिनीं भार्यां सूतपुत्रः पदावधीत् ॥ २३ ॥
मूलम्
ये दद्युर्न च याचेयुर्ब्रह्मण्याः सत्यवादिनः।
तेषां मां मानिनीं भार्यां सूतपुत्रः पदावधीत् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो सदा दूसरोंको देते हैं, किंतु किसीसे याचना नहीं करते, जो ब्राह्मणभक्त तथा सत्यवादी हैं, उन्हींकी मुझ मानिनी पत्नीको सूतपुत्रने लात मारी है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येषां दुन्दुभिनिर्घोषो ज्याघोषः श्रूयतेऽनिशम्।
तेषां मां मानिनीं भार्यां सूतपुत्रः पदावधीत् ॥ २४ ॥
मूलम्
येषां दुन्दुभिनिर्घोषो ज्याघोषः श्रूयतेऽनिशम्।
तेषां मां मानिनीं भार्यां सूतपुत्रः पदावधीत् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिनके धनुषकी टंकार सदा देव-दुन्दुभियोंकी गम्भीर ध्वनिके समान सुनायी पड़ती है, उन्हींकी मुझ मानिनी पत्नीको सूतपुत्रने लातसे मारा है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये च तेजस्विनो दान्ता बलवन्तोऽतिमानिनः।
तेषां मां मानिनीं भार्यां सूतपुत्रः पदावधीत् ॥ २५ ॥
मूलम्
ये च तेजस्विनो दान्ता बलवन्तोऽतिमानिनः।
तेषां मां मानिनीं भार्यां सूतपुत्रः पदावधीत् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो तेजस्वी, जितेन्द्रिय, बलवान् और अत्यन्त मानी हैं, उन्हींकी मुझ मानिनी पत्नीपर सूतपुत्रने पैरसे आघात किया है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वलोकमिमं हन्युर्धर्मपाशसितास्तु ये ।
तेषां मां मानिनीं भार्यां सूतपुत्रः पदावधीत् ॥ २६ ॥
मूलम्
सर्वलोकमिमं हन्युर्धर्मपाशसितास्तु ये ।
तेषां मां मानिनीं भार्यां सूतपुत्रः पदावधीत् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरे पति इस सम्पूर्ण संसारको मार सकते हैं; किंतु वे धर्मके बन्धनमें बँधे हैं, इसीसे आज उनकी मुझ मानिनी पत्नीपर सूतपुत्रने पैरसे प्रहार किया है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरणं ये प्रपन्नानां भवन्ति शरणार्थिनाम्।
चरन्ति लोके प्रच्छन्नाः क्व नु तेऽद्य महारथाः ॥ २७ ॥
मूलम्
शरणं ये प्रपन्नानां भवन्ति शरणार्थिनाम्।
चरन्ति लोके प्रच्छन्नाः क्व नु तेऽद्य महारथाः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो शरण चाहनेवाले अथवा शरणमें आये हुए सब लोगोंको शरण देते हैं, वे मेरे महारथी पति अपने स्वरूपको छिपाकर आज जगत्में कहाँ विचर रहे हैं?॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं ते सूतपुत्रेण वध्यमानां प्रियां सतीम्।
मर्षयन्ति यथा क्लीबा बलवन्तोऽमितौजसः ॥ २८ ॥
मूलम्
कथं ते सूतपुत्रेण वध्यमानां प्रियां सतीम्।
मर्षयन्ति यथा क्लीबा बलवन्तोऽमितौजसः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो अमिततेजस्वी और बलवान् हैं, वे (मेरे पति) एक सूतपुत्रद्वारा मारी जाती हुई अपनी सती-साध्वी प्रिय पत्नीका अपमान कायरों और नपुंसकोंकी भाँति कैसे सहन कर रहे हैं?॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्व नु तेषाममर्षश्च वीर्यं तेजश्च वर्तते।
न परीप्सन्ति ये भार्यां वध्यमानां दुरात्मना ॥ २९ ॥
मूलम्
क्व नु तेषाममर्षश्च वीर्यं तेजश्च वर्तते।
न परीप्सन्ति ये भार्यां वध्यमानां दुरात्मना ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आज उनका अमर्ष, पराक्रम और तेज कहाँ है? जो एक दुरात्माकी मार खाती हुई अपनी पत्नीकी रक्षा नहीं करते हैं॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मयात्र शक्यं किं कर्तुं विराटे धर्मदूषके।
यः पश्यन् मां मर्षयति वध्यमानामनागसम् ॥ ३० ॥
मूलम्
मयात्र शक्यं किं कर्तुं विराटे धर्मदूषके।
यः पश्यन् मां मर्षयति वध्यमानामनागसम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यहाँका राजा विराट भी धर्मको कलंकित करनेवाला है; जो मुझ निरपराध अबलाको अपने सामने मार खाती देखकर भी सहन किये जाता है। भला, इसके रहते मैं इस अपमानका बदला चुकानेके लिये क्या कर सकती हूँ?॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न राजा राजवत् किंचित् समाचरति कीचके।
दस्यूनामिव धर्मस्ते न हि संसदि शोभते ॥ ३१ ॥
नाहमेतेन युक्तं वै हन्तुं मत्स्य तवान्तिके।
सभासदोऽत्र पश्यन्तु कीचकस्य व्यतिक्रमम् ॥ ३२ ॥
मूलम्
न राजा राजवत् किंचित् समाचरति कीचके।
दस्यूनामिव धर्मस्ते न हि संसदि शोभते ॥ ३१ ॥
नाहमेतेन युक्तं वै हन्तुं मत्स्य तवान्तिके।
सभासदोऽत्र पश्यन्तु कीचकस्य व्यतिक्रमम् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह राजा होकर भी कीचकके प्रति कुछ भी राजोचित न्याय नहीं कर रहा है। मत्स्यराज! तुम्हारा यह लुटेरोंका-सा धर्म इस राजसभामें शोभा नहीं देता। तुम्हारे निकट इस कीचकद्वारा मुझपर मार पड़ी, यह कदापि उचित नहीं कहा जा सकता। यहाँ जो सभासद् बैठे हैं, वे भी कीचकका यह अत्याचार देखें॥३१-३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीचको न च धर्मज्ञो न च मत्स्यः कथंचन।
सभासदोऽप्यधर्मज्ञा य एनं पर्युपासते ॥ ३३ ॥
मूलम्
कीचको न च धर्मज्ञो न च मत्स्यः कथंचन।
सभासदोऽप्यधर्मज्ञा य एनं पर्युपासते ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कीचकको धर्मका ज्ञान नहीं है और यह मत्स्यराज भी किसी प्रकार धर्मज्ञ नहीं है तथा जो इस अधर्मी राजाके पास बैठते हैं, वे सभासद् भी धर्मके ज्ञाता नहीं हैं’॥३३॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवंविधैर्वचोभिः सा तदा कृष्णाश्रुलोचना।
उपालभत राजानं मत्स्यानां वरवर्णिनी ॥ ३४ ॥
मूलम्
एवंविधैर्वचोभिः सा तदा कृष्णाश्रुलोचना।
उपालभत राजानं मत्स्यानां वरवर्णिनी ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! उत्तम वर्णवाली द्रौपदीने उस समय आँखोंमें आँसू भरकर ऐसे वचनोंद्वारा मत्स्यराजको बहुत फटकारा और उलाहना दिया॥३४॥
मूलम् (वचनम्)
विराट उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
परोक्षं नाभिजानामि विग्रहं युवयोरहम्।
अर्थतत्त्वमविज्ञाय किं नु स्यात् कौशलं मम ॥ ३५ ॥
मूलम्
परोक्षं नाभिजानामि विग्रहं युवयोरहम्।
अर्थतत्त्वमविज्ञाय किं नु स्यात् कौशलं मम ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब विराट बोले— सैरन्ध्री! हमारे परोक्षमें तुम दोनोंमें किस प्रकार कलह हुआ है; इसे मैं नहीं जानता और वास्तविक बातको जाने बिना न्याय करनेमें मेरा क्या कौशल प्रकट होगा?॥३५॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तु सभ्या विज्ञाय कृष्णां भूयोऽभ्यपूजयन्।
साधु साध्विति चाप्याहुः कीचकं च व्यगर्हयन् ॥ ३६ ॥
मूलम्
ततस्तु सभ्या विज्ञाय कृष्णां भूयोऽभ्यपूजयन्।
साधु साध्विति चाप्याहुः कीचकं च व्यगर्हयन् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! तदनन्तर सभासदोंने सारा रहस्य जानकर द्रौपदीकी बार-बार सराहना की। उसे अनेक बार साधुवाद दिया और कीचककी निन्दा करते हुए उसे बहुत धिक्कारा॥३६॥
मूलम् (वचनम्)
सभ्या ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्येयं चारुसर्वाङ्गी भार्या स्वादायतेक्षणा।
परो लाभस्तु तस्य स्यान्न च शोचेत् कथंचन ॥ ३७ ॥
मूलम्
यस्येयं चारुसर्वाङ्गी भार्या स्वादायतेक्षणा।
परो लाभस्तु तस्य स्यान्न च शोचेत् कथंचन ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सभासद् बोले— सम्पूर्ण मनोहर अंगोंसे सुशोभित यह बड़े-बड़े नेत्रोंवाली साध्वी जिसकी धर्मपत्नी है, उसे जीवनमें बहुत बड़ा लाभ मिला है। वह किसी प्रकार शोक नहीं कर सकता॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(यस्या गात्रं शुभं पीनं मुखं जयति पङ्कजम्।
गतिर्हंसं स्मितं कुन्दं सैषा नार्हति पद्वधम्॥
मूलम्
(यस्या गात्रं शुभं पीनं मुखं जयति पङ्कजम्।
गतिर्हंसं स्मितं कुन्दं सैषा नार्हति पद्वधम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसका शरीर शुभ और हृष्ट-पुष्ट है, जिसका मुख अपने सौन्दर्यसे कमलको पराजित कर रहा है तथा जिसकी मन्द-मन्द गति हंसको और मुस्कान कुन्दपुष्पोंकी शोभाको तिरस्कृत कर रही है, वही यह नारी पदप्रहारके योग्य नहीं है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वात्रिंशद् दशना यस्याः श्वेता मांसनिबन्धनाः।
स्निग्धाश्च मृदवः केशाः सैषा नार्हति पद्वधम्॥
मूलम्
द्वात्रिंशद् दशना यस्याः श्वेता मांसनिबन्धनाः।
स्निग्धाश्च मृदवः केशाः सैषा नार्हति पद्वधम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके बत्तीसों दाँत मसूड़ोंमें दृढ़तापूर्वक आबद्ध और उज्ज्वल हैं, जिसके केश चिकने और कोमल हैं, वैसी यह नारी लात मारने योग्य कदापि नहीं है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पद्मं चक्रं ध्वजं शङ्खं प्रासादो मकरस्तथा।
यस्याः पाणितले सन्ति सैषा नार्हति पद्वधम्॥
मूलम्
पद्मं चक्रं ध्वजं शङ्खं प्रासादो मकरस्तथा।
यस्याः पाणितले सन्ति सैषा नार्हति पद्वधम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसकी हथेलीमें कमल, चक्र, ध्वजा, शंख, मन्दिर और मगरके चिह्न हैं, वह शुभलक्षणा नारी पैरोंसे ठुकरायी जाय, यह कदापि उचित नहीं है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आवर्ताः खलु चत्वारः सर्वे चैव प्रदक्षिणाः।
समं गात्रं शुभं स्निग्धं यस्य नार्हति पद्वधम्॥
मूलम्
आवर्ताः खलु चत्वारः सर्वे चैव प्रदक्षिणाः।
समं गात्रं शुभं स्निग्धं यस्य नार्हति पद्वधम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके शरीरमें चार आवर्त हैं और वे सबके सब प्रदक्षिणभावसे सुशोभित हैं, जिसके अङ्ग समान (सुडौल), शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न और स्निग्ध हैं, वह लात मारनेयोग्य नहीं है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अच्छिद्रहस्तपादा च अच्छिद्रदशना च या।
कन्या कमलपत्राक्षी कथमर्हति पद्वधम्॥
मूलम्
अच्छिद्रहस्तपादा च अच्छिद्रदशना च या।
कन्या कमलपत्राक्षी कथमर्हति पद्वधम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके हाथों, पैरों और दाँतोंमें छिद्र नहीं दिखायी देते हैं, वह कमलदललोचना कन्या पैरोंसे ठोकर मारने योग्य कैसे हो सकती है?।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेयं लक्षणसम्पन्ना पूर्णचन्द्रनिभानना ।
सुरूपिणी सुवदना नेयं योग्या पदा वधम्॥
मूलम्
सेयं लक्षणसम्पन्ना पूर्णचन्द्रनिभानना ।
सुरूपिणी सुवदना नेयं योग्या पदा वधम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न है। इसका मुख पूर्णचन्द्रके समान मनोहर है। यह सुन्दर रूपवाली सुमुखी नारी पैरोंसे ठुकराने योग्य नहीं है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवदेवीव सुभगा शक्रदेवीव शोभना।
अप्सरा इव सौरूप्यान्नेयं योग्या पदा वधम्॥)
मूलम्
देवदेवीव सुभगा शक्रदेवीव शोभना।
अप्सरा इव सौरूप्यान्नेयं योग्या पदा वधम्॥)
अनुवाद (हिन्दी)
यह देवांगनाके समान सौभाग्यशालिनी, इन्द्राणीके समान शोभासम्पन्न तथा अप्सराके समान सुन्दर रूप धारण करनेवाली है। यह लात मारनेयोग्य कदापि नहीं है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हीदृशी मनुष्येषु सुलभा वरवर्णिनी।
नारी सर्वानवद्याङ्गी देवीं मन्यामहे वयम् ॥ ३८ ॥
मूलम्
न हीदृशी मनुष्येषु सुलभा वरवर्णिनी।
नारी सर्वानवद्याङ्गी देवीं मन्यामहे वयम् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य-जातिमें तो ऐसी सती-साध्वी और सुन्दरी स्त्री सुलभ ही नहीं होती। इसके सम्पूर्ण अंग निर्दोष हैं। हम तो इसे मानवी नहीं; देवी मानते हैं॥३८॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं सम्पूजयन्तस्ते कृष्णां प्रेक्ष्य सभासदः।
युधिष्ठिरस्य कोपात् तु ललाटे स्वेद आगमत् ॥ ३९ ॥
मूलम्
एवं सम्पूजयन्तस्ते कृष्णां प्रेक्ष्य सभासदः।
युधिष्ठिरस्य कोपात् तु ललाटे स्वेद आगमत् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! जब इस प्रकार द्रौपदीको देखकर सभासद् उसकी प्रशंसा कर रहे थे, उस समय कीचकके प्रति क्रोध होनेके कारण युधिष्ठिरके ललाटमें पसीना आ गया॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(सा विनिःश्वस्य सुश्रोणी भूमावन्तर्मुखी स्थिता।
तूष्णीमासीत् तदा दृष्ट्वा विवक्षन्तं युधिष्ठिरम्॥)
मूलम्
(सा विनिःश्वस्य सुश्रोणी भूमावन्तर्मुखी स्थिता।
तूष्णीमासीत् तदा दृष्ट्वा विवक्षन्तं युधिष्ठिरम्॥)
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर सुन्दरी द्रौपदी लंबी साँस खींचकर नीचा मुख किये भूमिपर खड़ी हो गयी और राजा युधिष्ठिरको कुछ कहनेके लिये उद्यत देख वह स्वयं मौन रह गयी।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथाब्रवीद् राजपुत्रीं कौरव्यो महिषीं प्रियाम्।
गच्छ सैरन्ध्रि मात्र स्थाः सुदेष्णाया निवेशनम् ॥ ४० ॥
मूलम्
अथाब्रवीद् राजपुत्रीं कौरव्यो महिषीं प्रियाम्।
गच्छ सैरन्ध्रि मात्र स्थाः सुदेष्णाया निवेशनम् ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उन कुरुनन्दनने अपनी प्यारी रानीसे इस प्रकार कहा—‘सैरन्ध्री! अब तू यहाँ न ठहर। रानी सुदेष्णाके महलमें चली जा॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भर्तारमनुरुन्धन्त्यः क्लिश्यन्ते वीरपत्नयः ।
शुश्रूषया क्लिश्यमानाः पतिलोकं जयन्त्युत ॥ ४१ ॥
मूलम्
भर्तारमनुरुन्धन्त्यः क्लिश्यन्ते वीरपत्नयः ।
शुश्रूषया क्लिश्यमानाः पतिलोकं जयन्त्युत ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पतिका अनुसरण करनेवाली वीरपत्नियाँ सब क्लेश चुपचाप सहन कर लेती हैं। जो पतिसेवापूर्वक क्लेश उठाती हैं, वे साध्वी देवियाँ पतिलोकपर विजय पा लेती हैं॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्ये न कालं क्रोधस्य पश्यन्ति पतयस्तव।
तेन त्वां नाभिधावन्ति गन्धर्वाः सूर्यवर्चसः ॥ ४२ ॥
मूलम्
मन्ये न कालं क्रोधस्य पश्यन्ति पतयस्तव।
तेन त्वां नाभिधावन्ति गन्धर्वाः सूर्यवर्चसः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं समझता हूँ, तुम्हारे सूर्यके समान तेजस्वी पति गन्धर्वगण अभी क्रोध करनेका अवसर नहीं देखते; इसीलिये तुम्हारे पास दौड़कर नहीं आ रहे हैं॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(श्रूयन्तां ते सुकेशान्ते मोक्षधर्माश्रयाः कथाः।
यथा धर्मः कुलस्त्रीणां दृष्टो धर्मानुरोधनात्॥
मूलम्
(श्रूयन्तां ते सुकेशान्ते मोक्षधर्माश्रयाः कथाः।
यथा धर्मः कुलस्त्रीणां दृष्टो धर्मानुरोधनात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुन्दर केशप्रान्तवाली सैरन्ध्री! तुम मोक्षधर्मसे सम्बन्ध रखनेवाली बातें सुनो। धर्मशास्त्रके अनुसार कुलवती स्त्रियोंका धर्म इस प्रकार देखा गया है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नास्ति कश्चित् स्त्रिया यज्ञो न श्राद्धं नाप्युपोषणम्।
या च भर्तरि शुश्रूषा सा स्वर्गायाभिजायते॥
मूलम्
नास्ति कश्चित् स्त्रिया यज्ञो न श्राद्धं नाप्युपोषणम्।
या च भर्तरि शुश्रूषा सा स्वर्गायाभिजायते॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘स्त्रीके लिये न तो कोई यज्ञ है, न श्राद्ध है और न उपवासका ही विधान है। स्त्रियोंके द्वारा जो पतिकी सेवा होती है, वही उन्हें स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाली है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने।
पुत्रस्तु स्थविरे भावे न स्त्री स्वाततन्त्र्यमर्हति॥
मूलम्
पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने।
पुत्रस्तु स्थविरे भावे न स्त्री स्वाततन्त्र्यमर्हति॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुमारावस्थामें पिता, युवावस्थामें पति और वृद्धावस्थामें पुत्र नारीकी रक्षा करता है। स्त्रीको कभी स्वतन्त्र नहीं रहना चाहिये।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भर्तॄन् प्रति तथा पत्न्यो न क्रुध्यन्ति कदाचन।
बहुभिश्च परिक्लेशैरवज्ञाताश्च शत्रुभिः ॥
मूलम्
भर्तॄन् प्रति तथा पत्न्यो न क्रुध्यन्ति कदाचन।
बहुभिश्च परिक्लेशैरवज्ञाताश्च शत्रुभिः ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पतिव्रता स्त्रियाँ नाना प्रकारके क्लेश सहकर तथा शत्रुओंद्वारा अपमानित होकर भी अपने पतियोंपर कभी क्रोध नहीं करतीं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनन्यभावशुश्रूषाः पुण्यलोकं व्रजन्त्युत ।
न क्रुद्धान् प्रति यायाद् वै पतींस्ते वृत्रहा अपि॥
मूलम्
अनन्यभावशुश्रूषाः पुण्यलोकं व्रजन्त्युत ।
न क्रुद्धान् प्रति यायाद् वै पतींस्ते वृत्रहा अपि॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस प्रकार अनन्यभावसे पतिकी शुश्रूषा करनेवाली स्त्रियाँ पुण्यलोकोंको प्राप्त कर लेती हैं। सैरन्ध्री! तुम्हारे पतियोंके कुपित होनेपर तो वृत्रहन्ता इन्द्र भी युद्धमें उनका सामना नहीं कर सकते।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि ते समयः कश्चित् कृतो ह्यायतलोचने।
तं स्मरस्व क्षमाशीले क्षमा धर्मो ह्यनुत्तमः॥
मूलम्
यदि ते समयः कश्चित् कृतो ह्यायतलोचने।
तं स्मरस्व क्षमाशीले क्षमा धर्मो ह्यनुत्तमः॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘विशाललोचने! यदि उनके साथ तेरी कोई शर्त हुई हो तो उसे याद कर ले। क्षमाशीले! क्षमा सबसे उत्तम धर्म है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षमा सत्यं क्षमा दानं क्षमा धर्मः क्षमा तपः।
क्षमावतामयं लोकः परलोकः क्षमावताम्॥
द्व्यंशिनो द्वादशाङ्गस्य चतुर्विंशतिपर्वणः ।
कः षष्टित्रिशतारस्य मासोनस्याक्षमी भवेत्॥
मूलम्
क्षमा सत्यं क्षमा दानं क्षमा धर्मः क्षमा तपः।
क्षमावतामयं लोकः परलोकः क्षमावताम्॥
द्व्यंशिनो द्वादशाङ्गस्य चतुर्विंशतिपर्वणः ।
कः षष्टित्रिशतारस्य मासोनस्याक्षमी भवेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘क्षमा सत्य है, क्षमा दान है, क्षमा धर्म है और क्षमा ही तप है। क्षमाशील मनुष्योंके लिये ही यह लोक और परलोक है। जिसके दो (उत्तरायण एवं दक्षिणायन) अंश हैं, बारह (मास) अंग हैं, चौबीस (पक्ष) पर्व हैं और तीन सौ साठ (दिन) अरे हैं, उस कालचक्रके पूर्ण होनेमें यदि एक मासकी ही कमी रह गयी हो; तो कौन उसकी प्रतीक्षा न करके क्षमाका त्याग कर सकता है?’।
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवमुक्ते तिष्ठन्तीं पुनरेवाह धर्मराट्।)
मूलम्
इत्येवमुक्ते तिष्ठन्तीं पुनरेवाह धर्मराट्।)
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! इतना कहनेपर भी जब द्रौपदी वहाँ खड़ी ही रह गयी, तब धर्मराजने पुनः उससे कहा—।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अकालज्ञासि सैरन्ध्रि शैलूषीव विरोदिषि।
विघ्नं करोषि मत्स्यानां दीव्यतां राजसंसदि ॥ ४३ ॥
मूलम्
अकालज्ञासि सैरन्ध्रि शैलूषीव विरोदिषि।
विघ्नं करोषि मत्स्यानां दीव्यतां राजसंसदि ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सैरन्ध्री! तू अवसरको नहीं पहचानती; इसीलिये नटीकी भाँति राजसभामें रो रही है और द्यूतक्रीड़ामें लगे हुए मत्स्यराजकुमारोंके खेलमें विघ्न डालती है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छ सैरन्ध्रि गन्धर्वाः करिष्यन्ति तव प्रियम्।
व्यपनेष्यन्ति ते दुःखं येन ते विप्रियं कृतम् ॥ ४४ ॥
मूलम्
गच्छ सैरन्ध्रि गन्धर्वाः करिष्यन्ति तव प्रियम्।
व्यपनेष्यन्ति ते दुःखं येन ते विप्रियं कृतम् ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सैरन्ध्री! जाओ, गन्धर्व तुम्हारा प्रिय करेंगे। जिसने तुम्हारा अपकार किया है, उसे मारकर तुम्हारा दुःख दूर कर देंगे’॥४४॥
मूलम् (वचनम्)
सैरन्ध्र्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतीव तेषां घृणिनामर्थेऽहं धर्मचारिणी।
तस्य तस्यैव ते वध्या येषां ज्येष्ठोऽक्षदेविता ॥ ४५ ॥
मूलम्
अतीव तेषां घृणिनामर्थेऽहं धर्मचारिणी।
तस्य तस्यैव ते वध्या येषां ज्येष्ठोऽक्षदेविता ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सैरन्ध्री बोली— जिनके बड़े भाई सदा जूआ खेला करते हैं, उन दयालु गन्धर्वोंके लिये मैं अत्यन्त धर्मपरायणा रहूँगी। मेरा अपकार करनेवाले दुरात्मा उन सबके लिये वध्य हों॥४५॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा प्राद्रवत् कृष्णा सुदेष्णाया निवेशनम्।
केशान् मुक्त्वा च सुश्रोणी संरम्भाल्लोहितेक्षणा ॥ ४६ ॥
मूलम्
इत्युक्त्वा प्राद्रवत् कृष्णा सुदेष्णाया निवेशनम्।
केशान् मुक्त्वा च सुश्रोणी संरम्भाल्लोहितेक्षणा ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! यों कहकर सुन्दर कटिप्रान्तवाली द्रौपदी तीव्र गतिसे रानी सुदेष्णाके महलको चली गयी। उसके केश खुले हुए थे और क्रोधसे उसकी आँखें लाल हो रही थीं॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुशुभे वदनं तस्या रुदत्याः सुचिरं तदा।
मेघलेखाविनिर्मुक्तं दिवीव शशिमण्डलम् ॥ ४७ ॥
मूलम्
शुशुभे वदनं तस्या रुदत्याः सुचिरं तदा।
मेघलेखाविनिर्मुक्तं दिवीव शशिमण्डलम् ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय रोती हुई द्रौपदीका मुख इस प्रकार सुशोभित हो रहा था, मानो आकाशमें मेघमालाके आवरणसे मुक्त चन्द्रबिम्ब शोभा पा रहा हो॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(पांसुकुण्ठितसर्वाङ्गी गजराजवधूरिव ।
प्रतस्थे नागनासोरूर्भर्तुराज्ञाय शासनम् ॥
मूलम्
(पांसुकुण्ठितसर्वाङ्गी गजराजवधूरिव ।
प्रतस्थे नागनासोरूर्भर्तुराज्ञाय शासनम् ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समस्त अंगोंमें धूलिसे धूसरित गजराजवधूकी भाँति शोभा पानेवाली तथा हाथीकी सूँड़के समान जाँघोंवाली द्रौपदी स्वामीकी आज्ञा शिरोधार्य करके राजसभासे अन्तःपुरमें चली गयी।
विश्वास-प्रस्तुतिः
विमुक्ता मृगशावाक्षी निरन्तरपयोधरा ।
प्रभा नक्षत्रराजस्य कालमेघैरिवावृता ॥
मूलम्
विमुक्ता मृगशावाक्षी निरन्तरपयोधरा ।
प्रभा नक्षत्रराजस्य कालमेघैरिवावृता ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके स्तन एक-दूसरेसे सटे हुए थे, तथा नेत्र मृगशावकोंके समान चंचल हो रहे थे। वह कीचकके हाथसे छूटकर शोक और दुःखसे इस प्रकार मलिन हो रही थी, मानो चन्द्रमाकी प्रभा वर्षाकालके मेघोंसे आच्छादित हो गयी हो।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्या ह्यर्थे पाण्डवेयास्त्यजेयुरपि जीवितम्।
तां ते दृष्ट्वा तथा कृष्णां क्षमिणो धर्मचारिणः॥
समयं नातिवर्तन्ते वेलामिव महोदधिः॥)
मूलम्
यस्या ह्यर्थे पाण्डवेयास्त्यजेयुरपि जीवितम्।
तां ते दृष्ट्वा तथा कृष्णां क्षमिणो धर्मचारिणः॥
समयं नातिवर्तन्ते वेलामिव महोदधिः॥)
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके लिये समस्त पाण्डव अपने प्राणतक दे सकते थे, उसी कृष्णाको उस दशामें देखकर भी धर्मात्मा पाण्डव क्षमा धारण किये बैठे थे। जैसे समुद्र अपने तटकी सीमाका उल्लंघन नहीं करता, उसी प्रकार वे अज्ञातवासके लिये स्वीकृत समयका अतिक्रमण नहीं कर रहे थे।
मूलम् (वचनम्)
सुदेष्णोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कस्त्वावधीद् वरारोहे कस्माद् रोदिषि शोभने।
कस्याद्य न सुखं भद्रे केन ते विप्रियं कृतम्॥४८॥
मूलम्
कस्त्वावधीद् वरारोहे कस्माद् रोदिषि शोभने।
कस्याद्य न सुखं भद्रे केन ते विप्रियं कृतम्॥४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुदेष्णाने पूछा— वरारोहे! तुम्हें किसने मारा है? शोभने! तू क्यों रोती है? भद्रे! आज किसका सुख समाप्त हो गया? किसने तुम्हारा अपराध किया है? ४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(किमिदं पद्मसंकाशं सुदन्तोष्ठाक्षिनासिकम् ।
रुदन्त्या अवमृष्टास्रं पूर्णेन्दुसमवर्चसम् ॥
मूलम्
(किमिदं पद्मसंकाशं सुदन्तोष्ठाक्षिनासिकम् ।
रुदन्त्या अवमृष्टास्रं पूर्णेन्दुसमवर्चसम् ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कमलके समान कमनीय, सुन्दर दाँत, ओठ, नेत्र और नासिकासे सुशोभित तथा पूर्णचन्द्रके समान कान्तिमान् तुम्हारा यह मनोहर मुख ऐसा (मलिन) क्यों हो रहा है? तुम रोती हुई अपने मुखपर बहे हुए आँसुओंको पोंछ रही हो।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिम्बोष्ठं कृष्णताराभ्यामत्यन्तरुचिरप्रभम् ।
नयनाभ्यामजिह्माभ्यां मुखं ते मुञ्चते जलम्॥
मूलम्
बिम्बोष्ठं कृष्णताराभ्यामत्यन्तरुचिरप्रभम् ।
नयनाभ्यामजिह्माभ्यां मुखं ते मुञ्चते जलम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
काली पुतलीवाले सरल नेत्रोंसे सुशोभित, बिम्ब-फलके समान अरुण अधरोंसे उपलक्षित और अत्यन्त मनोहर प्रभासे प्रकाशित तुम्हारा मुख इस समय आँसू क्यों गिरा रहा है?।
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तीं निःश्वस्याब्रवीत् कृष्णा जानन्ती नाम पृच्छसि।
भ्रात्रे त्वं मामनुप्रेष्य किमेवं त्वं विकत्थसे॥)
मूलम्
तीं निःश्वस्याब्रवीत् कृष्णा जानन्ती नाम पृच्छसि।
भ्रात्रे त्वं मामनुप्रेष्य किमेवं त्वं विकत्थसे॥)
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तब कृष्णाने लंबी साँसे खींचकर कहा—‘तुम सब कुछ जानती हुई भी मुझसे क्या पूछ रही हो? स्वयं ही मुझे अपने भाईके पास भेजकर अब इस प्रकारकी बातें क्यों बना रही हो?’।
मूलम् (वचनम्)
द्रौपद्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीचको मावधीत् तत्र सुराहारीं गतां तव।
सभायां पश्यतो राज्ञो यथैव विजने वने ॥ ४९ ॥
मूलम्
कीचको मावधीत् तत्र सुराहारीं गतां तव।
सभायां पश्यतो राज्ञो यथैव विजने वने ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रौपदी फिर बोली— मैं तुम्हारे लिये मदिरा लाने गयी थी। वहाँ कीचकने राजसभामें महाराजके देखते-देखते मुझपर प्रहार किया है; ठीक उसी तरह, जैसे कोई निर्जन वनमें किसी असहाय अबलापर आघात करता हो॥४९॥
मूलम् (वचनम्)
सुदेष्णोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
घातयामि सुकेशान्ते कीचकं यदि मन्यसे।
योऽसौ त्वां कामसम्मत्तो दुर्लभामवमन्यते ॥ ५० ॥
मूलम्
घातयामि सुकेशान्ते कीचकं यदि मन्यसे।
योऽसौ त्वां कामसम्मत्तो दुर्लभामवमन्यते ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुदेष्णाने कहा— सुन्दर लटोंवाली सुन्दरी! यदि तुम्हारी सम्मति हो, तो मैं कीचकको मरवा डालूँ; जो कामसे उन्मत्त होकर तुझ-जैसी दुर्लभ देवीका अपमान कर रहा है॥५०॥
मूलम् (वचनम्)
सैरन्ध्र्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्ये चैनं वधिष्यन्ति येषामागः करोति सः।
मन्ये चैवाद्य सुव्यक्तं यमलोकं गमिष्यति ॥ ५१ ॥
मूलम्
अन्ये चैनं वधिष्यन्ति येषामागः करोति सः।
मन्ये चैवाद्य सुव्यक्तं यमलोकं गमिष्यति ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सैरन्ध्री बोली— महारानी! उसे दूसरे ही लोग मार डालेंगे, जिनका कि अपराध वह कर रहा है। मैं तो समझती हूँ, अब वह निश्चय ही यमलोककी यात्रा करेगा॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(भ्रातुः प्रयच्छ त्वरिता जीवश्राद्धं त्वमद्य वै।
सुदृष्टं कुरु वै चैनं नासून् मन्ये धरिष्यति॥
मूलम्
(भ्रातुः प्रयच्छ त्वरिता जीवश्राद्धं त्वमद्य वै।
सुदृष्टं कुरु वै चैनं नासून् मन्ये धरिष्यति॥
अनुवाद (हिन्दी)
रानी! आज तुम अपने भाईके लिये शीघ्र ही जीवित श्राद्ध कर लो। उसके लिये आवश्यक दान दे लो। साथ ही उसे आँख भरकर अच्छी तरह देख लो। मेरा विश्वास है कि अब उसके प्राण नहीं रहेंगे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां हि मम भर्तॄणां पञ्चानां धर्मचारिणाम्।
एको दुर्धर्षणोऽत्यर्थं बले चाप्रतिमो भुवि॥
निर्मनुष्यमिमं लोकं कुर्यात् क्रुद्धो निशामिमाम्।
न च संक्रुध्यते तावद् गन्धर्वः कामरूपधृक्॥
मूलम्
तेषां हि मम भर्तॄणां पञ्चानां धर्मचारिणाम्।
एको दुर्धर्षणोऽत्यर्थं बले चाप्रतिमो भुवि॥
निर्मनुष्यमिमं लोकं कुर्यात् क्रुद्धो निशामिमाम्।
न च संक्रुध्यते तावद् गन्धर्वः कामरूपधृक्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे पाँच धर्मात्मा पतियोंमेंसे एक अत्यन्त दुःसह एवं अमर्षशील वीर हैं। भूतलपर बलमें उनकी समानता करनेवाला दूसरा कोई नहीं है। वे कुपित होनेपर इस रातमें ही इस संसारको मनुष्योंसे शून्य कर सकते हैं। परंतु इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले वे गन्धर्व न जाने क्यों अभीतक क्रोध नहीं कर रहे हैं।
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुदेष्णामेवमुक्त्वा तु सैरन्ध्री दुःखमोहिता।
कीचकस्य वधार्थाय व्रतदीक्षामुपागमत् ॥
मूलम्
सुदेष्णामेवमुक्त्वा तु सैरन्ध्री दुःखमोहिता।
कीचकस्य वधार्थाय व्रतदीक्षामुपागमत् ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! रानी सुदेष्णासे ऐसा कहकर दुःखसे मोहित हुई सैरन्ध्रीने कीचकके वधके लिये व्रतकी दीक्षा ग्रहण की।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभ्यर्थिता च नारीभिर्मानिता च सुदेष्णया।
न च स्नाति न चाश्नाति न पांसून् परिमार्जति॥
मूलम्
अभ्यर्थिता च नारीभिर्मानिता च सुदेष्णया।
न च स्नाति न चाश्नाति न पांसून् परिमार्जति॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरी स्त्रियोंने उससे बहुत प्रार्थना की। रानी सुदेष्णाने भी उसे बहुत मनाया; तथापि न वह स्नान करती, न भोजन करती और न अपने शरीरकी धूल ही झाड़ती थी।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रुधिरक्लिन्नवदना बभूव रुदितेक्षणा ॥
तां तथा शोकसंतप्तां दृष्ट्वा प्ररुदितां स्त्रियः।
कीचकस्य वधं सर्वा मनोभिश्च शशंसिरे॥
मूलम्
रुधिरक्लिन्नवदना बभूव रुदितेक्षणा ॥
तां तथा शोकसंतप्तां दृष्ट्वा प्ररुदितां स्त्रियः।
कीचकस्य वधं सर्वा मनोभिश्च शशंसिरे॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसका मुँह रक्तसे भींगा हुआ था, आँखोंमें रुलाईके आँसू भरे हुए थे। उसे इस प्रकार शोकसे संतप्त होकर रोती देख सब स्त्रियाँ मन-ही-मन कीचकके वधकी इच्छा करने लगीं।
मूलम् (वचनम्)
जनमेजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो दुःखतरं प्राप्ता कीचकेन पदा हता।
प्रतिव्रता महाभागा द्रौपदी योषितां वरा॥
मूलम्
अहो दुःखतरं प्राप्ता कीचकेन पदा हता।
प्रतिव्रता महाभागा द्रौपदी योषितां वरा॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजय बोले— विप्रवर! संसारकी युवतियोंमें श्रेष्ठ एवं पतिव्रता महाभागा द्रौपदीको कीचकने लात मार दी; इससे वह महान् दुःखमें डूब गयी। अहो! यह कितने कष्टकी बात है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुःशलां मानयन्ती या भर्तॄणां भगिनीं शुभाम्।
नाशपत् सिन्धुराजं तं बलात्कारेण वाहिता॥
मूलम्
दुःशलां मानयन्ती या भर्तॄणां भगिनीं शुभाम्।
नाशपत् सिन्धुराजं तं बलात्कारेण वाहिता॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय सिन्धुराज जयद्रथने बलपूर्वक उसका अपहरण किया था, उस समय उसने अपने पतियोंकी बहिन दुःशलाका सम्मान करते हुए वह कष्ट सह लिया और शुभलक्षणा सिन्धुराजको शाप नहीं दिया।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमर्थं धर्षणं प्राप्ता कीचकेन दुरात्मना।
नाशपत् तं महाभागा कृष्णा पादेन ताडिता॥
मूलम्
किमर्थं धर्षणं प्राप्ता कीचकेन दुरात्मना।
नाशपत् तं महाभागा कृष्णा पादेन ताडिता॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु जब दुरात्मा कीचकने उसका तिरस्कार किया और उसे लातसे मारा, उस समय महाभागा कृष्णाने उस दुष्टको शाप क्यों नहीं दे दिया?।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेजोराशिरियं देवी धर्मज्ञा सत्यवादिनी।
केशपक्षे परामृष्टा मर्षयिष्यत्यशक्तवत् ॥
नैतत् कारणमल्पं हि श्रोतुकामोऽस्मि सत्तम।
कृष्णायास्तु परिक्लेशान्मनो मे दूयते भृशम्॥
मूलम्
तेजोराशिरियं देवी धर्मज्ञा सत्यवादिनी।
केशपक्षे परामृष्टा मर्षयिष्यत्यशक्तवत् ॥
नैतत् कारणमल्पं हि श्रोतुकामोऽस्मि सत्तम।
कृष्णायास्तु परिक्लेशान्मनो मे दूयते भृशम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवी द्रौपदी तेजकी राशि थी। वह धर्मज्ञा और सत्यवादिनी थी। उसके-जैसी तेजस्विनी स्त्री अपने केश पकड़ लिये जानेपर असमर्थकी भाँति चुपचाप सह लेगी, यह सम्भव नहीं है। यदि उसने सह लिया तो इसका कोई छोटा कारण नहीं होगा। साधुशिरोमणे! मैं वह कारण सुनना चाहता हूँ। कृष्णाके क्लेशकी बात सुनकर मेरा मन अत्यन्त व्यथित हो रहा है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कस्य वंशे समुद्भूतः स च दुर्ललितो मुने।
बलोन्मत्तः कथं चासीच्छ्यालो मात्स्यस्य कीचकः॥
मूलम्
कस्य वंशे समुद्भूतः स च दुर्ललितो मुने।
बलोन्मत्तः कथं चासीच्छ्यालो मात्स्यस्य कीचकः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुने! मत्स्यराजका साला दुष्ट कीचक किसके कुलमें उत्पन्न हुआ था? और वह बलसे उन्मत्त क्यों हो गया था?।
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वदुक्तोऽयमनुप्रश्नः कुरूणां कीर्तिवर्धन ।
एतत् सर्वं तथा वक्ष्ये विस्तरेणैव पार्थिव॥
मूलम्
त्वदुक्तोऽयमनुप्रश्नः कुरूणां कीर्तिवर्धन ।
एतत् सर्वं तथा वक्ष्ये विस्तरेणैव पार्थिव॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजीने कहा— कुरुकुलकी कीर्ति बढ़ानेवाले नरेश! तुम्हारा उठाया हुआ यह प्रश्न ठीक है। मैं यह सब विस्तारपूर्वक बताऊँगा।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मण्यां क्षत्रियाज्जातः सूतो भवति पार्थिव।
प्रातिलोम्येन जातानां स ह्येको द्विज एव तु॥
मूलम्
ब्राह्मण्यां क्षत्रियाज्जातः सूतो भवति पार्थिव।
प्रातिलोम्येन जातानां स ह्येको द्विज एव तु॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! क्षत्रिय पिता और ब्राह्मणी मातासे उत्पन्न हुआ बालक ‘सूत’ कहलाता है। प्रतिलोमसंकर जातियोंमें अकेली यह सूत जाति ही द्विज कही गयी है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथकारमितीमं हि क्रियायुक्तं द्विजन्मनाम्।
क्षत्रियादवरं वैश्याद् विशिष्टमिति चक्षते॥
मूलम्
रथकारमितीमं हि क्रियायुक्तं द्विजन्मनाम्।
क्षत्रियादवरं वैश्याद् विशिष्टमिति चक्षते॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्विजोचित कर्मोंसे युक्त उस सूतको ही रथकार भी कहते हैं। इसे क्षत्रियसे हीन और वैश्यसे श्रेष्ठ बताते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सह सूतेन सम्बन्धः कृतपूर्वो नरेश्वरैः।
तथापि तैर्महीपाल राजशब्दो न लभ्यते॥
मूलम्
सह सूतेन सम्बन्धः कृतपूर्वो नरेश्वरैः।
तथापि तैर्महीपाल राजशब्दो न लभ्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! पहलेके नरेशोंने सूतजातिके साथ भी वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किया है, परंतु उन्हें राजाकी उपाधि नहीं प्राप्त होती थी।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां तु सूतविषयः सूतानां नामतः कृतः।
उपजीव्य च यत् क्षत्रं लब्धं सूतेन तत् पुरा॥
मूलम्
तेषां तु सूतविषयः सूतानां नामतः कृतः।
उपजीव्य च यत् क्षत्रं लब्धं सूतेन तत् पुरा॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके लिये सूतोंके नामसे सूतराज्य ही नियत कर दिया गया था। वह राज्य सूतजातिके एक पुरुषने किसी क्षत्रियकी सेवा करके ही प्राप्त किया था।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूतानामधिपो राजा केकयो नाम विश्रुतः॥
राजकन्यासमुद्भूतः सारथ्येऽनुपमोऽभवत् ।
मूलम्
सूतानामधिपो राजा केकयो नाम विश्रुतः॥
राजकन्यासमुद्भूतः सारथ्येऽनुपमोऽभवत् ।
अनुवाद (हिन्दी)
सुप्रसिद्ध केकय नामक राजा सूतोंके ही अधिपति थे। उनका जन्म किसी क्षत्रियकन्याके गर्भसे हुआ था। वे सारथिके कर्ममें अनुपम थे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्रास्तस्य कुरुश्रेष्ठ मालव्यां जज्ञिरे तदा॥
तेषामतिबलो ज्येष्ठः कीचकः सर्वजित् प्रभो।
मूलम्
पुत्रास्तस्य कुरुश्रेष्ठ मालव्यां जज्ञिरे तदा॥
तेषामतिबलो ज्येष्ठः कीचकः सर्वजित् प्रभो।
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुश्रेष्ठ! उनके मालवीके गर्भसे कई पुत्र उत्पन्न हुए। प्रभो! उन पुत्रोंमें कीचक ही सबसे बड़ा था। वह अत्यन्त बलवान् और सर्वविजयी योद्धा था।
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वितीयायां तु मालव्यां चित्रा ह्यवरजाभवत्।
तां सुदेष्णेति वै प्राहुर्विराटमहिषीं प्रियाम्॥
मूलम्
द्वितीयायां तु मालव्यां चित्रा ह्यवरजाभवत्।
तां सुदेष्णेति वै प्राहुर्विराटमहिषीं प्रियाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा केकयकी दूसरी रानी भी मालवकन्या ही थी। उसके गर्भसे चित्रा नामवाली कन्या उत्पन्न हुई, जो समस्त कीचकबन्धुओंकी छोटी बहिन थी। उसीको सुदेष्णा भी कहते हैं। वही आगे चलकर महाराज विराटकी प्यारी पटरानी हुई।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां विराटस्य मात्स्यस्य केकयः प्रददौ मुदा।
सुरथायां मृतायां तु कौसल्यां श्वेतमातरि॥
मूलम्
तां विराटस्य मात्स्यस्य केकयः प्रददौ मुदा।
सुरथायां मृतायां तु कौसल्यां श्वेतमातरि॥
अनुवाद (हिन्दी)
विराटकी बड़ी रानी कोसलदेशकी राजकुमारी सुरथा, जो श्वेतकी जननी थी, उसकी मृत्यु हो जानेपर केकय-नरेशने अपनी कन्या सुदेष्णाका विवाह मत्स्यराज विराटके साथ प्रसन्नतापूर्वक कर दिया।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुदेष्णां महिषीं लब्ध्वा राजा दुःखमपानुदत्॥
उत्तरं चोत्तरां चैव विराटात् पृथिवीपते।
सुदेष्णा सुषुवे देवी कैकेयी कुलवृद्धये॥
मूलम्
सुदेष्णां महिषीं लब्ध्वा राजा दुःखमपानुदत्॥
उत्तरं चोत्तरां चैव विराटात् पृथिवीपते।
सुदेष्णा सुषुवे देवी कैकेयी कुलवृद्धये॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुदेष्णाको महारानीके रूपमें पाकर राजा विराटका दुःख दूर हो गया। जनमेजय! केकयकुमारी रानी सुदेष्णाने राजा विराटसे अपने कुलकी वृद्धिके लिये उत्तर और उत्तरा नामक दो संतानोंको उत्पन्न किया।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मातृष्वसृसुतां राजन् कीचकस्तामनिन्दिताम् ।
सदा परिचरन् प्रीत्या विराटे न्यवसत् सुखी॥
मूलम्
मातृष्वसृसुतां राजन् कीचकस्तामनिन्दिताम् ।
सदा परिचरन् प्रीत्या विराटे न्यवसत् सुखी॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! कीचक अपनी मौसीकी बेटी सती-साध्वी सुदेष्णाकी प्रेमपूर्वक परिचर्या करता हुआ विराटके यहाँ सुखपूर्वक रहने लगा।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रातरस्तस्य विक्रान्ताः सर्वे च तमनुव्रताः।
विराटस्यैव संहृष्टा बलं कोशं च वर्धयन्॥
मूलम्
भ्रातरस्तस्य विक्रान्ताः सर्वे च तमनुव्रताः।
विराटस्यैव संहृष्टा बलं कोशं च वर्धयन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके सभी पराक्रमी भाई कीचकके ही प्रेमी भक्त थे; अतः वे भी विराटके ही बल और कोषको बढ़ाते हुए प्रसन्नतापूर्वक वहाँ रहने लगे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालेया नाम दैतेयाः प्रायशो भुवि विश्रुताः।
जज्ञिरे कीचका राजन् बाणो ज्येष्ठस्ततोऽभवत्॥
स हि सर्वास्त्रसम्पन्नो बलवान् भीमविक्रमः।
कीचको नष्टमर्यादो बभूव भयदो नृणाम्।
मूलम्
कालेया नाम दैतेयाः प्रायशो भुवि विश्रुताः।
जज्ञिरे कीचका राजन् बाणो ज्येष्ठस्ततोऽभवत्॥
स हि सर्वास्त्रसम्पन्नो बलवान् भीमविक्रमः।
कीचको नष्टमर्यादो बभूव भयदो नृणाम्।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! कालेय नामक दैत्य ही, जो प्रायः इस भूमण्डलमें विख्यात थे, कीचकोंके रूपमें उत्पन्न हुए थे। कालेयोंमें बाण सबसे बड़ा था। वही सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंसे सम्पन्न, भयंकर पराक्रमी और महाबली कीचक हुआ, जो धर्मकी मर्यादाको तोड़ने और मनुष्योंके भयको बढ़ानेवाला था।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं प्राप्य बलसम्मत्तं विराटः पृथिवीपतिः॥
जिगाय सर्वांश्च रिपून् यथेन्द्रो दानवानिव।
मूलम्
तं प्राप्य बलसम्मत्तं विराटः पृथिवीपतिः॥
जिगाय सर्वांश्च रिपून् यथेन्द्रो दानवानिव।
अनुवाद (हिन्दी)
उस बलोन्मत्त कीचककी सहायता पाकर जैसे इन्द्र दानवोंपर विजय पाते हैं, उसी प्रकार राजा विराटने भी समस्त शत्रुओंपर विजय प्राप्त की।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेखलांश्च त्रिगर्तांश्च दशार्णांश्च कशेरुकान्।
मालवान् यवनांश्चैव पुलिन्दान् काशिकोसलान्।
अङ्गान् वङ्गान् कलिङ्गांश्च तङ्गणान् परतङ्गणान्।
मलदान् निषधांश्चैव तुण्डिकेरांश्च कोङ्कणान्॥
करदांश्च निषिद्धांश्च शिवान् दुश्छिल्लिकांस्तथा।
अन्ये च बहवः शूराः नानाजनपदेश्वराः।
कीचकेन रणे भग्ना व्यद्रवन्त दिशो दश॥
मूलम्
मेखलांश्च त्रिगर्तांश्च दशार्णांश्च कशेरुकान्।
मालवान् यवनांश्चैव पुलिन्दान् काशिकोसलान्।
अङ्गान् वङ्गान् कलिङ्गांश्च तङ्गणान् परतङ्गणान्।
मलदान् निषधांश्चैव तुण्डिकेरांश्च कोङ्कणान्॥
करदांश्च निषिद्धांश्च शिवान् दुश्छिल्लिकांस्तथा।
अन्ये च बहवः शूराः नानाजनपदेश्वराः।
कीचकेन रणे भग्ना व्यद्रवन्त दिशो दश॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेखल, त्रिगर्त, दशार्ण, कशेरुक, मालव, यवन, पुलिन्द, काशी, कोसल, अंग, वंग, कलिंग, तंगण, परतंगण, मलद, निषध, तुण्डिकेर, कोंकण, करद, निषिद्ध, शिव, दुश्छिल्लिक तथा अन्य नाना जनपदोंके स्वामी अनेक शूरवीर नरेश रणभूमिमें कीचकसे पराजित हो दसों दिशाओंमें भाग गये।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमेवं वीर्यसम्पन्नं नागायुतबलं रणे।
विराटस्तत्र सेनायाश्चकार पतिमात्मनः ॥
मूलम्
तमेवं वीर्यसम्पन्नं नागायुतबलं रणे।
विराटस्तत्र सेनायाश्चकार पतिमात्मनः ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसे पराक्रमसम्पन्न कीचकको, जो संग्राममें दस हजार हाथियोंका बल रखता था, राजा विराटने अपना सेनापति बना लिया।
विश्वास-प्रस्तुतिः
विराटभ्रातरश्चैव दश दाशरथोपमाः ।
ते चैनानन्ववर्तन्त कीचकान् बलवत्तरान्॥
मूलम्
विराटभ्रातरश्चैव दश दाशरथोपमाः ।
ते चैनानन्ववर्तन्त कीचकान् बलवत्तरान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
विराटके दस भाई ऐसे थे, जो दशरथनन्दन श्रीरामके समान शक्तिशाली समझे जाते थे। वे भी इन प्रबलतर कीचकबन्धुओंका अनुसरण करने लगे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवंविधबलोपेताः कीचकास्ते न तद्विधाः।
राज्ञः श्याला महात्मानो विराटस्थ हितैषिणः।
मूलम्
एवंविधबलोपेताः कीचकास्ते न तद्विधाः।
राज्ञः श्याला महात्मानो विराटस्थ हितैषिणः।
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसे बलसम्पन्न कीचक, जो राजा विराटके साले लगते थे, शौर्यमें अपना सानी नहीं रखते थे। वे महामना विराटके बड़े हितैषी थे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् ते कथितं सर्वं कीचकस्य पराक्रमम्॥
द्रौपदी न शशापैनं यस्मात् तद् गदतः शृणु।
मूलम्
एतत् ते कथितं सर्वं कीचकस्य पराक्रमम्॥
द्रौपदी न शशापैनं यस्मात् तद् गदतः शृणु।
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजय! इस प्रकार मैंने तुमसे कीचकके पराक्रमकी सारे बातें बता दीं। अब यह भी सुन लो कि द्रौपदीने उसे शाप क्यों नहीं दिया?।
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षरतीति तपः क्रोधादृषयो न शपन्ति हि॥
जानन्ती तद् यथातत्त्वं पाञ्चाली न शशाप तम्।
मूलम्
क्षरतीति तपः क्रोधादृषयो न शपन्ति हि॥
जानन्ती तद् यथातत्त्वं पाञ्चाली न शशाप तम्।
अनुवाद (हिन्दी)
क्रोधसे तपस्या नष्ट होती है, इसीलिये ऋषि भी सहसा किसीको शाप नहीं देते हैं। द्रौपदी इस बातको अच्छी तरह जानती थी; इसीलिये उसने उसे शाप नहीं दिया।
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षमा धर्मः क्षमा दानं क्षमा यज्ञः क्षमा यशः।
क्षमा सत्यं क्षमा शीलं क्षमा कीर्तिः क्षमा परम्॥
क्षमा पुण्यं क्षमा तीर्थं क्षमा सर्वमिति श्रुतिः।
क्षमावतामयं लोकः परश्चैव क्षमावताम्।
एतत् सर्वं विजानन्ती सा क्षमामन्वपद्यत॥
मूलम्
क्षमा धर्मः क्षमा दानं क्षमा यज्ञः क्षमा यशः।
क्षमा सत्यं क्षमा शीलं क्षमा कीर्तिः क्षमा परम्॥
क्षमा पुण्यं क्षमा तीर्थं क्षमा सर्वमिति श्रुतिः।
क्षमावतामयं लोकः परश्चैव क्षमावताम्।
एतत् सर्वं विजानन्ती सा क्षमामन्वपद्यत॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्षमा धर्म है, क्षमा दान है, क्षमा यज्ञ है, क्षमा यश है, क्षमा सत्य है, क्षमा शील है, क्षमा कीर्ति है, क्षमा सबसे उत्कृष्ट तत्त्व है, क्षमा पुण्य है, क्षमा तीर्थ है और क्षमा सब कुछ है; ऐसा श्रुतिका कथन है। यह लोक क्षमावानोंका ही है। परलोक भी क्षमावानोंका ही है। द्रौपदी यह सब कुछ जानती थी, इसलिये उसने क्षमाका ही आश्रय लिया।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भर्तॄणां मतमाज्ञाय क्षमिणां धर्मचारिणाम्।
नाशपत् तं विशालाक्षी सती शक्तापि भारत॥
मूलम्
भर्तॄणां मतमाज्ञाय क्षमिणां धर्मचारिणाम्।
नाशपत् तं विशालाक्षी सती शक्तापि भारत॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! क्षमाशील एवं धर्मात्मा पतियोंका मत जानकर विशाल नेत्रोंवाली सती-साध्वी द्रौपदीने समर्थ होते हुए भी कीचकको शाप नहीं दिया।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डवाश्चापि ते सर्वे द्रौपदीं प्रेक्ष्य दुःखिताः।
क्रोधाग्निना व्यदह्यन्त तदा कालव्यपेक्षया॥
मूलम्
पाण्डवाश्चापि ते सर्वे द्रौपदीं प्रेक्ष्य दुःखिताः।
क्रोधाग्निना व्यदह्यन्त तदा कालव्यपेक्षया॥
अनुवाद (हिन्दी)
समस्त पाण्डव भी द्रौपदीकी दुरवस्था देखकर दुःखी हो समयकी प्रतीक्षा करते हुए क्रोधाग्निमें जलते रहे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ भीमो महाबाहुः सूदयिष्यंस्तु कीचकम्।
वारितो धर्मपुत्रेण वेलयेव महोदधिः॥
मूलम्
अथ भीमो महाबाहुः सूदयिष्यंस्तु कीचकम्।
वारितो धर्मपुत्रेण वेलयेव महोदधिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहु भीमसेन तो कीचकको तत्काल मार डालनेके लिये उद्यत थे; परंतु जैसे वेला (तटकी सीमा) महासागरके वेगको रोके रहती है, उसी प्रकार धर्मपुत्र युधिष्ठिरने उन्हें रोक दिया।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संधार्य मनसा रोषं दिवारात्रं विनिःश्वसन्।
मूलम्
संधार्य मनसा रोषं दिवारात्रं विनिःश्वसन्।
Misc Detail
महानसे तदा कृच्छ्रात् सुष्वाप रजनीं च ताम्॥ )
अनुवाद (हिन्दी)
वे मनमें क्रोधको रोककर दिन-रात लंबी साँसें खींचते रहते थे। उस दिन पाकशालामें जाकर वे रातमें बड़े कष्टसे सोये।
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि कीचकवधपर्वणि द्रौपदीपरिभवे षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत कीचकवधपर्वमें द्रौपदीतिरस्कारसम्बन्धी सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१६॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ९२ श्लोक मिलाकर कुल १४३ श्लोक हैं।)