०१४ कीचकेन द्रौपदीप्रणययाचना

भागसूचना

(कीचकवधपर्व)
चतुर्दशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

कीचकका द्रौपदीपर आसक्त हो उससे प्रणययाचना करना और द्रौपदीका उसे फटकारना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वसमानेषु पार्थेषु मत्स्यस्य नगरे तदा।
महारथेषु छन्नेषु मासा दश समाययुः ॥ १ ॥
याज्ञसेनी सुदेष्णां तु शुश्रूषन्ती विशाम्पते।
आवसत् परिचारार्हा सुदुःखं जनमेजय ॥ २ ॥

मूलम्

वसमानेषु पार्थेषु मत्स्यस्य नगरे तदा।
महारथेषु छन्नेषु मासा दश समाययुः ॥ १ ॥
याज्ञसेनी सुदेष्णां तु शुश्रूषन्ती विशाम्पते।
आवसत् परिचारार्हा सुदुःखं जनमेजय ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! उस समय कुन्तीके उन महारथी पुत्रोंको मत्स्यराजके नगरमें छिपकर रहते हुए धीरे-धीरे दस महीने बीत गये। राजन्! यज्ञसेनकुमारी द्रौपदी, जो स्वयं स्वामिनीकी भाँति सेवाके योग्य थी, रानी सुदेष्णाकी शुश्रूषा करती हुई बड़े कष्टसे वहाँ रहती थी॥१-२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा चरन्ती पाञ्चाली सुदेष्णाया निवेशने।
तां देवीं तोषयामास तथा चान्तःपुरस्त्रियः ॥ ३ ॥

मूलम्

तथा चरन्ती पाञ्चाली सुदेष्णाया निवेशने।
तां देवीं तोषयामास तथा चान्तःपुरस्त्रियः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुदेष्णाके महलमें पूर्वोक्तरूपसे सेवा करती हुई पांचालीने महारानी तथा अन्तःपुरकी अन्य स्त्रियोंको पूर्ण प्रसन्न कर लिया॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् वर्षे गतप्राये कीचकस्तु महाबलः।
सेनापतिर्विराटस्य ददर्श द्रुपदात्मजाम् ॥ ४ ॥

मूलम्

तस्मिन् वर्षे गतप्राये कीचकस्तु महाबलः।
सेनापतिर्विराटस्य ददर्श द्रुपदात्मजाम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब वह वर्ष पूरा होनेमें कुछ ही समय बाकी रह गया, तबकी बात है; एक दिन राजा विराटके सेनापति महाबली कीचकने द्रुपदकुमारीको देखा॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां दृष्ट्‌वा देवगर्भाभां चरन्तीं देवतामिव।
कीचकः कामयामास कामबाणप्रपीडितः ॥ ५ ॥

मूलम्

तां दृष्ट्‌वा देवगर्भाभां चरन्तीं देवतामिव।
कीचकः कामयामास कामबाणप्रपीडितः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजमहलमें देवांगनाकी भाँति विचरती हुई देवकन्याके समान कान्तिवाली द्रौपदीको देखकर कीचक कामबाणसे अत्यन्त पीड़ित हो उसे चाहने लगा॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तु कामाग्निसंतप्तः सुदेष्णामभिगम्य वै।
प्रहसन्निव सेनानीरिदं वचनमब्रवीत् ॥ ६ ॥

मूलम्

स तु कामाग्निसंतप्तः सुदेष्णामभिगम्य वै।
प्रहसन्निव सेनानीरिदं वचनमब्रवीत् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कामवासनाकी आगमें जलता हुआ सेनापति कीचक अपनी बहिन रानी सुदेष्णाके पास गया और हँसता हुआ-सा उससे इस प्रकार बोला—॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नेयं मया जातु पुरेह दृष्टा
राज्ञो विराटस्य निवेशने शुभा।
रूपेण चोन्मादयतीव मां भृशं
गन्धेन जाता मदिरेव भामिनी ॥ ७ ॥

मूलम्

नेयं मया जातु पुरेह दृष्टा
राज्ञो विराटस्य निवेशने शुभा।
रूपेण चोन्मादयतीव मां भृशं
गन्धेन जाता मदिरेव भामिनी ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुदेष्णे! यह सुन्दरी जो अपने रूपसे मुझे अत्यन्त उन्मत्त-सा किये देती है, पहले कभी राजा विराटके इस महलमें मेरे द्वारा नहीं देखी गयी थी। यह भामिनी अपनी दिव्य गन्धसे मेरे लिये मदिरा-सी मादक हो रही है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

का देवरूपा हृदयङ्गमा शुभे
ह्याचक्ष्व मे कस्य कुतोऽत्र शोभने।
चित्तं हि निर्मथ्य करोति मां वशे
न चान्यदत्रौषधमस्ति मे मतम् ॥ ८ ॥

मूलम्

का देवरूपा हृदयङ्गमा शुभे
ह्याचक्ष्व मे कस्य कुतोऽत्र शोभने।
चित्तं हि निर्मथ्य करोति मां वशे
न चान्यदत्रौषधमस्ति मे मतम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शुभे! यह कौन है? इसका रूप देवांगनाके समान है। यह मेरे हृदयमें समा गयी है। शोभने! मुझे बताओ, यह किसकी स्त्री है और कहाँसे आयी है? यह मेरे मनको मथकर मुझे वशमें किये लेती है। मेरे इस रोगकी ओषधि इसकी प्राप्तिके सिवा दूसरी कोई नहीं जान पड़ती॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो तवेयं परिचारिका शुभा
प्रत्यग्ररूपा प्रतिभाति मामियम् ।
अयुक्तरूपं हि करोति कर्म ते
प्रशास्तु मां यच्च ममास्ति किंचन ॥ ९ ॥

मूलम्

अहो तवेयं परिचारिका शुभा
प्रत्यग्ररूपा प्रतिभाति मामियम् ।
अयुक्तरूपं हि करोति कर्म ते
प्रशास्तु मां यच्च ममास्ति किंचन ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अहो! बड़े आश्चर्यकी बात है कि यह सुन्दरी तुम्हारे यहाँ दासीका काम कर रही है। मुझे ऐसा लगता है, इसका रूप नित्य नवीन है। तुम्हारे यहाँ जो काम यह करती है, वह इसके योग्य कदापि नहीं है। मैं चाहता हूँ, यह मेरी गृहस्वामिनी होकर मुझपर और मेरे पास जो कुछ है, उसपर भी एकच्छत्र शासन करे॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभूतनागाश्वरथं महाजनं
समृद्धियुक्तं बहुपानभोजनम् ।
मनोहरं काञ्चनचित्रभूषणं
गृहं महच्छोभयतामियं मम ॥ १० ॥

मूलम्

प्रभूतनागाश्वरथं महाजनं
समृद्धियुक्तं बहुपानभोजनम् ।
मनोहरं काञ्चनचित्रभूषणं
गृहं महच्छोभयतामियं मम ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरे घरमें बहुत-से हाथी, घोड़े और रथ हैं, बहुत-से सेवा करनेवाले परिजन हैं तथा उसमें प्रचुर सम्पत्ति भरी है। भोजन और पेयकी उसमें अधिकता है। देखनेमें भी वह मनोहर है। सुवर्णमय चित्र उसकी शोभा बढ़ा रहे हैं। मेरे उस विशाल भवनमें चलकर यह सुन्दरी उसे सुशोभित करे’॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सुदेष्णामनुमन्त्र्य कीचक-
स्ततः समभ्येत्य नराधिपात्मजाम् ।
उवाच कृष्णामभिसान्त्वयंस्तदा
मृगेन्द्रकन्यामिव जम्बुको वने ॥ ११ ॥

मूलम्

ततः सुदेष्णामनुमन्त्र्य कीचक-
स्ततः समभ्येत्य नराधिपात्मजाम् ।
उवाच कृष्णामभिसान्त्वयंस्तदा
मृगेन्द्रकन्यामिव जम्बुको वने ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर रानी सुदेष्णाकी सम्मति ले कीचक राजकुमारी द्रौपदीके पास आकर उसे सान्त्वना देता हुआ बोला; मानो वनमें कोई सियार किसी सिंहकी कन्याको फुसला रहा हो॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

का त्वं कस्यासि कल्याणि कुतो वा त्वं वरानने।
प्राप्ता विराटनगरं तत् त्वमाचक्ष्व शोभने ॥ १२ ॥

मूलम्

का त्वं कस्यासि कल्याणि कुतो वा त्वं वरानने।
प्राप्ता विराटनगरं तत् त्वमाचक्ष्व शोभने ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(उसने द्रौपदीसे पूछा—) ‘कल्याणि! तुम कौन हो और किसकी कन्या हो? अथवा सुमुखि! तुम कहाँसे इस विराटनगरमें आयी हो? शोभने! ये सब बातें मुझे सच-सच बताओ॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रूपमग्र्यं तथा कान्तिः सौकुमार्यमनुत्तमम्।
कान्त्या विभाति वक्त्रं ते शशाङ्क इव निर्मलम् ॥ १३ ॥

मूलम्

रूपमग्र्यं तथा कान्तिः सौकुमार्यमनुत्तमम्।
कान्त्या विभाति वक्त्रं ते शशाङ्क इव निर्मलम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हारा यह श्रेष्ठ और सुन्दर रूप, यह दिव्य कान्ति और यह सुकुमारता संसारमें सबसे उत्तम है और तुम्हारा निर्मल मुख तो अपनी छबिसे निष्कलंक चन्द्रमाकी भाँति शोभा पा रहा है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नेत्रे सुविपुले सुभ्रु पद्मपत्रनिभे शुभे।
वाक्यं ते चारुसर्वाङ्गि परपुष्टरुतोपमम् ॥ १४ ॥

मूलम्

नेत्रे सुविपुले सुभ्रु पद्मपत्रनिभे शुभे।
वाक्यं ते चारुसर्वाङ्गि परपुष्टरुतोपमम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुन्दर भौंहोंवाली सर्वांगसुन्दरी! तुम्हारे ये उत्तम और विशाल नेत्र कमलदलके समान सुशोभित हैं। तुम्हारी वाणी क्या है; कोकिलकी कूक है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवंरूपा मया नारी काचिदन्या महीतले।
न दृष्टपूर्वा सुश्रोणि यादृशी त्वमनिन्दिते ॥ १५ ॥

मूलम्

एवंरूपा मया नारी काचिदन्या महीतले।
न दृष्टपूर्वा सुश्रोणि यादृशी त्वमनिन्दिते ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुश्रोणि! अनिन्दिते! जैसी तुम हो, ऐसे मनोहर रूपवाली कोई दूसरी स्त्री इस पृथ्वीपर मैंने आजसे पहले कभी नहीं देखी थी॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लक्ष्मीः पद्मालया का त्वमथ भूतिः सुमध्यमे।
ह्रीः श्रीः कीर्तिरथो कान्तिरासां का त्वं वरानने ॥ १६ ॥

मूलम्

लक्ष्मीः पद्मालया का त्वमथ भूतिः सुमध्यमे।
ह्रीः श्रीः कीर्तिरथो कान्तिरासां का त्वं वरानने ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुमध्यमे! तुम कमलोंमें निवास करनेवाली लक्ष्मी हो अथवा साकार विभूति? सुमुखि! लज्जा, श्री, कीर्ति और कान्ति—इन देवियोंमेंसे तुम कौन हो?॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतीवरूपिणी किं त्वमनङ्गाङ्गविहारिणी ।
अतीव भ्राजसे सुभ्रु प्रभेवेन्दोरनुत्तमा ॥ १७ ॥

मूलम्

अतीवरूपिणी किं त्वमनङ्गाङ्गविहारिणी ।
अतीव भ्राजसे सुभ्रु प्रभेवेन्दोरनुत्तमा ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘क्या तुम कामदेवके अंगोंसे क्रीड़ा करनेवाली अतिशय रूपवती रति हो? सुभ्रु! तुम चन्द्रमाकी परम उत्तम प्रभाके समान अत्यन्त उद्‌भासित हो रही हो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि चेक्षणपक्ष्माणां स्मितं ज्योत्स्नोपमं शुभम्।
दिव्यांशुरश्मिभिर्वृत्तं दिव्यकान्तिमनोरमम् ॥ १८ ॥
निरीक्ष्य वक्त्रचन्द्रं ते लक्ष्म्यानुपमया युतम्।
कृत्स्ने जगति को नेह कामस्य वशगो भवेत् ॥ १९ ॥

मूलम्

अपि चेक्षणपक्ष्माणां स्मितं ज्योत्स्नोपमं शुभम्।
दिव्यांशुरश्मिभिर्वृत्तं दिव्यकान्तिमनोरमम् ॥ १८ ॥
निरीक्ष्य वक्त्रचन्द्रं ते लक्ष्म्यानुपमया युतम्।
कृत्स्ने जगति को नेह कामस्य वशगो भवेत् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हारा सुन्दर मुखचन्द्र अनुपम लक्ष्मीसे अलंकृत है, तुम्हारे नेत्रोंकी अधखुली पलकें चाँदनीके समान मनको आह्लादित करनेवाली हैं। दिव्य रश्मियोंसे आवृत तुम्हारा यह मुखचन्द्र दिव्य छबिके द्वारा मनको रमा लेनेवाला है। इसे देखकर सम्पूर्ण जगत्‌में कौन ऐसा पुरुष है, जो कामके अधीन न हो जाय?॥१८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हारालंकारयोग्यौ तु स्तनौ चोभौ सुशोभनौ।
सुजातौ सहितौ लक्ष्म्या पीनौ वृत्तौ निरन्तरौ ॥ २० ॥

मूलम्

हारालंकारयोग्यौ तु स्तनौ चोभौ सुशोभनौ।
सुजातौ सहितौ लक्ष्म्या पीनौ वृत्तौ निरन्तरौ ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हारे दोनों सान हार आदि आभूषणोंके योग्य और परम सुन्दर हैं। ये ऊँचे, श्रीसम्पन्न, स्थूल, गोल-गोल और परस्पर सटे हुए हैं॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुड्‌मलाम्बुरुहाकारौ तव सुभ्रु पयोधरौ।
कामप्रतोदाविव मां तुदतश्चारुहासिनि ॥ २१ ॥

मूलम्

कुड्‌मलाम्बुरुहाकारौ तव सुभ्रु पयोधरौ।
कामप्रतोदाविव मां तुदतश्चारुहासिनि ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुन्दर भौंहों तथा मनोरम मुसकानवाली सुन्दरी! कमलकोशके समान आकारवाले तुम्हारे दोनों उरोज कामदेवके चाबुककी भाँति मुझे पीड़ा दे रहे हैं॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वलीविभङ्गचतुरं स्तनभारविनामितम् ।
कराग्रसम्मितं मध्यं तवेदं तनुमध्यमे ॥ २२ ॥

मूलम्

वलीविभङ्गचतुरं स्तनभारविनामितम् ।
कराग्रसम्मितं मध्यं तवेदं तनुमध्यमे ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तनुमध्यमे! तुम्हारी कमर इतनी पतली है कि हाथोंके अग्रभागसे (अँगूठेसे लेकर तर्जनीतकके बित्तेसे) माप ली जा सकती है। वह त्रिवलीकी तीन रेखाओंसे परम सुन्दर दीखती है। तुम्हारे स्तनोंके भारने उसे कुछ झुका दिया है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्‌वैव चारु जघनं सरित्पुलिनसंनिभम्।
कामव्याधिरसाध्यो मामप्याक्रामति भामिनि ॥ २३ ॥

मूलम्

दृष्ट्‌वैव चारु जघनं सरित्पुलिनसंनिभम्।
कामव्याधिरसाध्यो मामप्याक्रामति भामिनि ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भामिनि! नदीके दो किनारोंके समान तुम्हारे मनोहर जघनको देख लेनेसे ही कामरूपी असाध्य रोग मुझ-जैसे वीरपर भी आक्रमण कर रहा है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जज्वाल चाग्निमदनो दावाग्निरिव निर्दयः।
त्वत्सङ्गमाभिसंकल्पविवृद्धो मां दहत्ययम् ॥ २४ ॥

मूलम्

जज्वाल चाग्निमदनो दावाग्निरिव निर्दयः।
त्वत्सङ्गमाभिसंकल्पविवृद्धो मां दहत्ययम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘निर्दयी कामदेव अग्निस्वरूप होकर दावानलकी भाँति मेरे हृदयरूपी वनमें जल उठा है। तुम्हारे समागमका संकल्प इसमें घीका काम करता है। इससे अत्यन्त प्रज्वलित होकर यह काम मुझे जला रहा है॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मप्रदानवर्षेण संगमाम्भोधरेण च ।
शमयस्व वरारोहे ज्वलन्तं मन्मथानलम् ॥ २५ ॥

मूलम्

आत्मप्रदानवर्षेण संगमाम्भोधरेण च ।
शमयस्व वरारोहे ज्वलन्तं मन्मथानलम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वरारोहे! तुम अपने संगमरूपी मेघसे आत्म-समर्पणरूपी वर्षाद्वारा इस प्रज्वलित मदनाग्निको बुझा दो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मच्चित्तोन्मादनकरा मन्मथस्य शरोत्कराः ।
त्वत्संगमाशानिशितास्तीव्रा शशिनिभानने ।
मह्यं विदार्य हृदयमिदं निर्दयवेगिताः ॥ २६ ॥
प्रविष्टा ह्यसितापाङ्गि प्रचण्डाश्चण्डदारुणाः ।
अत्युन्मादसमारम्भाः प्रीत्युन्मादकरा मम ।
आत्मप्रदानसम्भोगैर्मामुद्धर्तुमिहार्हसि ॥ २७ ॥

मूलम्

मच्चित्तोन्मादनकरा मन्मथस्य शरोत्कराः ।
त्वत्संगमाशानिशितास्तीव्रा शशिनिभानने ।
मह्यं विदार्य हृदयमिदं निर्दयवेगिताः ॥ २६ ॥
प्रविष्टा ह्यसितापाङ्गि प्रचण्डाश्चण्डदारुणाः ।
अत्युन्मादसमारम्भाः प्रीत्युन्मादकरा मम ।
आत्मप्रदानसम्भोगैर्मामुद्धर्तुमिहार्हसि ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘चन्द्रमुखी! मेरे मनको उन्मत्त बना देनेवाले कामदेवके बाणसमूह तुम्हारे समागमकी आशारूपी शानपर चढ़कर अत्यन्त तीखे और तीव्र हो गये हैं। कजरारे नयनप्रान्तोंवाली सुन्दरी! अत्यन्त क्रोधपूर्वक चलाये हुए कामके वे प्रचण्ड एवं भयंकर बाण दयाशून्य हो वेगसे आकर मेरे इस हृदयको विदीर्ण करके भीतर घुस गये हैं और अतिशय उन्माद (सन्निपातजनित बेहोशी) पैदा कर रहे हैं। वे मेरे लिये प्रेमोन्मादजनक हो रहे हैं। अब तुम्हीं आत्मदान-जनित सम्भोगरूप औषधके द्वारा यहाँ मेरा उद्धार कर सकती हो॥२६-२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चित्रमाल्याम्बरधरा सर्वाभरणभूषिता ।
कामं प्रकामं सेव त्वं मया सह विलासिनि ॥ २८ ॥

मूलम्

चित्रमाल्याम्बरधरा सर्वाभरणभूषिता ।
कामं प्रकामं सेव त्वं मया सह विलासिनि ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विलासिनि! विचित्र माला और सुन्दर वस्त्र धारण करके समस्त आभूषणोंसे विभूषित हो मेरे साथ अतिशय कामभोगका सेवन करो॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नार्हसीहासुखं वस्तुं सुखार्हा सुखवर्जिता।
प्राप्नुह्यनुत्तमं सौख्यं मत्तस्त्वं मत्तगामिनि ॥ २९ ॥

मूलम्

नार्हसीहासुखं वस्तुं सुखार्हा सुखवर्जिता।
प्राप्नुह्यनुत्तमं सौख्यं मत्तस्त्वं मत्तगामिनि ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यहाँ अनेक प्रकारके कष्ट हैं। अतः तुम ऐसे स्थानमें निवास करने योग्य नहीं हो। तुम सुख भोगनेके योग्य हो, किंतु यहाँ सुखसे वंचित हो। मस्तीभरी चालसे चलनेवाली सैरन्ध्री! तुम मुझसे सर्वोत्तम सुखभोग प्राप्त करो’॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वादून्यमृतकल्पानि पेयानि विविधानि च।
पिबमाना मनोज्ञानि रममाणा यथासुखम् ॥ ३० ॥

मूलम्

स्वादून्यमृतकल्पानि पेयानि विविधानि च।
पिबमाना मनोज्ञानि रममाणा यथासुखम् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अमृतके समान स्वादिष्ट और मनोहर भाँति-भाँतिके पेय रसोंका पान करती हुई तुम्हें जैसे सुख मिले, उसी प्रकार रमण करो॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भोगोपचारान् विविधान्‌ सौभाग्यं चाप्यनुत्तमम्।
पानं पिब महाभागे भोगैश्चानुत्तमैः शुभैः ॥ ३१ ॥
इदं हि रूपं प्रथमं तवानघे
निरर्थकं केवलमद्य भामिनि ।
अधार्यमाणा स्रगिवोत्तमा शुभा
न शोभसे सुन्दरि शोभना सती ॥ ३२ ॥

मूलम्

भोगोपचारान् विविधान्‌ सौभाग्यं चाप्यनुत्तमम्।
पानं पिब महाभागे भोगैश्चानुत्तमैः शुभैः ॥ ३१ ॥
इदं हि रूपं प्रथमं तवानघे
निरर्थकं केवलमद्य भामिनि ।
अधार्यमाणा स्रगिवोत्तमा शुभा
न शोभसे सुन्दरि शोभना सती ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाभागे! नाना प्रकारकी भोग-सामग्री तथा सर्वोत्तम सौभाग्य पाकर उत्तमोत्तम शुभ भोगोंके साथ पीने योग्य रसोंका आस्वादन करो। अनघे! तुम्हारा यह सर्वोत्कृष्ट रूप-सौन्दर्य आजकी परिस्थितिमें केवल व्यर्थ जा रहा है। भामिनि! जैसे उत्तम हारको यदि किसीने गलेमें धारण नहीं किया, तो उसकी शोभा नहीं होती, उसी प्रकार सुन्दरि! तुम शुभस्वरूपा और शोभामयी होकर भी किसीके गलेका हार न बन सकनेके कारण सुशोभित नहीं होती हो॥३१-३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्यजामि दारान् मम ये पुरातना
भवन्तु दास्यस्तव चारुहासिनि ।
अहं च ते सुन्दरि दासवत् स्थितः
सदा भविष्ये वशगो वरानने ॥ ३३ ॥

मूलम्

त्यजामि दारान् मम ये पुरातना
भवन्तु दास्यस्तव चारुहासिनि ।
अहं च ते सुन्दरि दासवत् स्थितः
सदा भविष्ये वशगो वरानने ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘चारुहासिनि! यदि तुम चाहो तो मैं पहली स्त्रियोंको त्याग दूँगा अथवा वे सब तुम्हारी दासी बनकर रहेंगी। सुन्दरि! सुमुखि! मैं स्वयं भी दासकी भाँति सदा तुम्हारे अधीन रहूँगा’॥३३॥

मूलम् (वचनम्)

द्रौपद्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्रार्थनीयामिह मां सुतपुत्राभिमन्यसे ।
निहीनवर्णां सैरन्ध्रीं बीभत्सां केशकारिणीम् ॥ ३४ ॥

मूलम्

अप्रार्थनीयामिह मां सुतपुत्राभिमन्यसे ।
निहीनवर्णां सैरन्ध्रीं बीभत्सां केशकारिणीम् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रौपदीने कहा— सूतपुत्र! तुम मुझे चाहते हो। छिः छिः; मुझसे इस तरहकी याचना करना तुम्हारे लिये कदापि योग्य नहीं है। एक तो मेरी जाति छोटी है, दूसरे मैं सैरन्ध्री (दासी) हूँ, बीभत्स वेषवाली स्त्री हूँ तथा केश सँवारनेका काम करनेवाली एक तुच्छ सेविका हूँ॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(स्वेषु दारेषु मेधावी कुरुते यत्नमुत्तमम्।
स्वदारनिरतो ह्याशु नरो भद्राणि पश्यति॥

मूलम्

(स्वेषु दारेषु मेधावी कुरुते यत्नमुत्तमम्।
स्वदारनिरतो ह्याशु नरो भद्राणि पश्यति॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धिमान् पुरुष अपनी पत्नीको ही अनुकूल बनाये रखनेके लिये उत्तम यत्न करता है। अपनी स्त्रीमें अनुराग रखनेवाला मनुष्य शीघ्र ही कल्याणका भागी होता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चाधर्मेण लिप्येत न चाकीर्तिमवाप्नुयात्।
स्वदारेषु रतिर्धर्मो मृतस्यापि न संशयः॥

मूलम्

न चाधर्मेण लिप्येत न चाकीर्तिमवाप्नुयात्।
स्वदारेषु रतिर्धर्मो मृतस्यापि न संशयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्यको चाहिये कि वह पापमें लिप्त न हो, अपयशका पात्र न बने, अपनी ही पत्नीके प्रति अनुराग रखना परम धर्म है। वह मृत पुरुषके लिये भी कल्याणकारी होता है, इसमें संशय नहीं है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वजातिदारा मर्त्यस्य इहलोके परत्र च।
प्रेतकार्याणि कुर्वन्ति निवापैस्तर्पयन्ति च॥

मूलम्

स्वजातिदारा मर्त्यस्य इहलोके परत्र च।
प्रेतकार्याणि कुर्वन्ति निवापैस्तर्पयन्ति च॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपनी जातिकी स्त्रियाँ मनुष्यके लिये इहलोक और परलोकमें भी हितकारिणी होती हैं। वे प्रेतकार्य (अन्त्येष्टि-संस्कार) करती और जलांजलि देकर मृतात्माको तृप्त करती हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदक्षय्यं च धर्म्यं च स्वर्ग्यमाहुर्मनीषिणः।
स्वजातिदारजाः पुत्रा जायन्ते कुलपूजिताः॥

मूलम्

तदक्षय्यं च धर्म्यं च स्वर्ग्यमाहुर्मनीषिणः।
स्वजातिदारजाः पुत्रा जायन्ते कुलपूजिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके इस कार्यको मनीषी पुरुषोंने अक्षय, धर्मसंगत एवं स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला बताया है। अपनी जातिकी स्त्रीसे उत्पन्न हुए पुरुष कुलमें सम्मानित होते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रिया हि प्राणिनां दारास्तस्मात् त्वं धर्मभाग् भव।
परदाररतो मर्त्यो न च भद्राणि पश्यति॥)

मूलम्

प्रिया हि प्राणिनां दारास्तस्मात् त्वं धर्मभाग् भव।
परदाररतो मर्त्यो न च भद्राणि पश्यति॥)

अनुवाद (हिन्दी)

सभी प्राणियोंको अपनी ही पत्नी प्यारी होती है। इसलिये तुम भी ऐसा करके धर्मके भागी बनो। परस्त्रीलम्पट पुरुष कभी कल्याण नहीं देखता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

परदारास्मि भद्रं ते न युक्तं तव साम्प्रतम्।
दयिताः प्राणिनां दारा धर्मं समनुचिन्तय ॥ ३५ ॥

मूलम्

परदारास्मि भद्रं ते न युक्तं तव साम्प्रतम्।
दयिताः प्राणिनां दारा धर्मं समनुचिन्तय ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सबसे बड़ी बात यह है कि मैं दूसरेकी पत्नी हूँ। तुम्हारा कल्याण हो। इस समय मुझसे इस तरहकी बातें करना तुम्हारे लिये किसी तरह उचित नहीं है। जगत्‌के सब प्राणियोंके लिये अपनी ही स्त्री प्रिय होती है। तुम धर्मका विचार करो॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परदारे न ते बुद्धिर्जातु कार्या कथंचन।
विवर्जनं ह्यकार्याणामेतत् सुपुरुषव्रतम् ॥ ३६ ॥

मूलम्

परदारे न ते बुद्धिर्जातु कार्या कथंचन।
विवर्जनं ह्यकार्याणामेतत् सुपुरुषव्रतम् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परायी स्त्रीमें तुम्हें कभी किसी तरह भी मन नहीं लगाना चाहिये। न करने योग्य अनुचित कर्मोंको सर्वथा त्याग दिया जाय, यही श्रेष्ठ पुरुषोंका व्रत है॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिथ्याभिगृध्नो हि नरः पापात्मा मोहमास्थितः।
अयशः प्राप्नुयाद् घोरं महद् वा प्राप्नुयाद् भयम् ॥ ३७ ॥

मूलम्

मिथ्याभिगृध्नो हि नरः पापात्मा मोहमास्थितः।
अयशः प्राप्नुयाद् घोरं महद् वा प्राप्नुयाद् भयम् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

झूठे विषयोंमें आसक्त होनेवाला पापात्मा मनुष्य मोहमें पड़कर भयंकर अपयश पाता है अथवा उसे बड़े भारी भय (मृत्यु) का सामना करना पड़ता है॥३७॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तु सैरन्ध्र्या कीचकः काममोहितः।
जानन्नपि सुदुर्बुद्धिः परदाराभिमर्शने ॥ ३८ ॥
दोषान् बहुन् प्राणहरान् सर्वलोकविगर्हितान्।
प्रोवाचेदं सुदुर्बुद्धिर्द्रौपदीमजितेन्द्रियः ॥ ३९ ॥

मूलम्

एवमुक्तस्तु सैरन्ध्र्या कीचकः काममोहितः।
जानन्नपि सुदुर्बुद्धिः परदाराभिमर्शने ॥ ३८ ॥
दोषान् बहुन् प्राणहरान् सर्वलोकविगर्हितान्।
प्रोवाचेदं सुदुर्बुद्धिर्द्रौपदीमजितेन्द्रियः ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! सैरन्ध्रीके इस प्रकार समझानेपर भी कीचकको होश न हुआ। वह कामसे मोहित हो रहा था। यद्यपि उस दुर्बुद्धिको यह मालूम था कि परायी स्त्रीके स्पर्शसे बहुत-से ऐसे दोष प्रकट होते हैं, जिनकी सब लोग निन्दा करते हैं तथा जिनके कारण प्राणोंसे भी हाथ धोना पड़ता है; तो भी उस अजितेन्द्रिय तथा अत्यन्त दुर्बुद्धिने द्रौपदीसे इस प्रकार कहा—॥३८-३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नार्हस्येवं वरारोहे प्रत्याख्यातुं वरानने।
मां मन्मथसमाविष्टं त्वत्कृते चारुहासिनि ॥ ४० ॥

मूलम्

नार्हस्येवं वरारोहे प्रत्याख्यातुं वरानने।
मां मन्मथसमाविष्टं त्वत्कृते चारुहासिनि ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वरारोहे! सुमुखि! तुम्हें इस प्रकार मेरी प्रार्थना नहीं ठुकरानी चाहिये! चारुहासिनि! मैं तुम्हारे लिये कामवेदनासे पीड़ित हूँ॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रत्याख्याय च मां भीरु वशगं प्रियवादिनम्।
नूनं त्वमसितापाङ्गि पश्चात्तापं करिष्यसि ॥ ४१ ॥

मूलम्

प्रत्याख्याय च मां भीरु वशगं प्रियवादिनम्।
नूनं त्वमसितापाङ्गि पश्चात्तापं करिष्यसि ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भीरु! मैं तुम्हारे वशमें हूँ और प्रिय वचन बोलता हूँ। कजरारे नयनोंवाली सैरन्ध्री! मुझे ठुकराकर तुम निश्चय ही पश्चात्ताप करोगी॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं हि सुभ्रु राज्यस्य कृत्स्नस्यास्य सुमध्यमे।
प्रभुर्वासयिता चैव वीर्ये चाप्रतिमः क्षितौ ॥ ४२ ॥

मूलम्

अहं हि सुभ्रु राज्यस्य कृत्स्नस्यास्य सुमध्यमे।
प्रभुर्वासयिता चैव वीर्ये चाप्रतिमः क्षितौ ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुभ्रू! सुमध्यमे! मैं इस सम्पूर्ण राज्यका स्वामी और इसे बसानेवाला हूँ। बल और पराक्रममें इस पृथ्वीपर मेरी समानता करनेवाला कोई नहीं है॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृथिव्यां मत्समो नास्ति कश्चिदन्यः पुमानिह।
रूपयौवनसौभाग्यैर्भोगैश्चानुत्तमैः शुभैः ॥ ४३ ॥

मूलम्

पृथिव्यां मत्समो नास्ति कश्चिदन्यः पुमानिह।
रूपयौवनसौभाग्यैर्भोगैश्चानुत्तमैः शुभैः ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘रूप, यौवन, सौभाग्य और सर्वोत्तम शुभ भोगोंकी दृष्टिसे इस भूतलपर मेरी समता करनेवाला दूसरा कोई पुरुष नहीं है॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वकामसमृद्धेषु भोगेष्वनुपमेष्विह ।
भोक्तव्येषु च कल्याणि कस्माद् दास्ये रता ह्यसि ॥ ४४ ॥

मूलम्

सर्वकामसमृद्धेषु भोगेष्वनुपमेष्विह ।
भोक्तव्येषु च कल्याणि कस्माद् दास्ये रता ह्यसि ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कल्याणि! जब सम्पूर्ण मनोरथोंसे सम्पन्न अनुपम भोग यहाँ भोगनेके लिये तुम्हें सुलभ हो रहे हैं, तब तुम दासीपनमें क्यों आसक्त हो?॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मया दत्तमिदं राज्यं स्वामिन्यसि शुभानने।
भजस्व मां वरारोहे भुङ्‌क्ष्व भोगाननुत्तमान् ॥ ४५ ॥

मूलम्

मया दत्तमिदं राज्यं स्वामिन्यसि शुभानने।
भजस्व मां वरारोहे भुङ्‌क्ष्व भोगाननुत्तमान् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शुभानने! मैंने यह सम्पूर्ण राज्य तुम्हें अर्पित कर दिया। अब तुम्हीं इसकी स्वामिनी हो। वरारोहे! मुझे अपना लो और मेरे साथ उत्तमोत्तम भोगोंका उपभोग करो’॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्ता तु सा साध्वी कीचकेनाशुभं वचः।
कीचकं प्रत्युवाचेदं गर्हयन्त्यस्य तद् वचः ॥ ४६ ॥

मूलम्

एवमुक्ता तु सा साध्वी कीचकेनाशुभं वचः।
कीचकं प्रत्युवाचेदं गर्हयन्त्यस्य तद् वचः ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कीचकके इस प्रकार अशुभ (पापपूर्ण) वचन कहनेपर सती-साध्वी द्रौपदीने उसकी उन ओछी बातोंकी निन्दा करते हुए इस प्रकार उत्तर दिया॥४६॥

मूलम् (वचनम्)

सैरन्ध्र्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मा सूतपुत्र मुह्यस्व माद्य त्यक्ष्यस्व जीवितम्।
जानीहि पञ्चभिर्घोरैर्नित्यं मामभिरक्षिताम् ॥ ४७ ॥

मूलम्

मा सूतपुत्र मुह्यस्व माद्य त्यक्ष्यस्व जीवितम्।
जानीहि पञ्चभिर्घोरैर्नित्यं मामभिरक्षिताम् ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सैरन्ध्री बोली— सूतपुत्र! तू आज इस प्रकार मोहके फंदेमें न पड़। अपनी जान न गँवा। तुझे मालूम होना चाहिये कि पाँच भयंकर गन्धर्व मेरी नित्य रक्षा करते हैं॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चाप्यहं त्वया लभ्या गन्धर्वाः पतयो मम।
ते त्वां निहन्युः कुपिताः साध्वलं मा व्यनीनशः ॥ ४८ ॥

मूलम्

न चाप्यहं त्वया लभ्या गन्धर्वाः पतयो मम।
ते त्वां निहन्युः कुपिताः साध्वलं मा व्यनीनशः ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे गन्धर्व ही मेरे पति हैं। तू कदापि मुझे पा नहीं सकता। मेरे पति कुपित होकर तुझे मार डालेंगे; अतः सँभल जा। इस पापबुद्धिका त्याग कर दे। अपना सर्वनाश न करा॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अशक्यरूपं पुरुषैरध्वानं गन्तुमिच्छसि ।
यथा निश्चेतनो बालः कूलस्थः कूलमुत्तरम्।
तर्तुमिच्छति मन्दात्मा तथा त्वं कर्तुमिच्छसि ॥ ४९ ॥

मूलम्

अशक्यरूपं पुरुषैरध्वानं गन्तुमिच्छसि ।
यथा निश्चेतनो बालः कूलस्थः कूलमुत्तरम्।
तर्तुमिच्छति मन्दात्मा तथा त्वं कर्तुमिच्छसि ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरे! तू उस राहपर जाना चाहता है, जहाँ दूसरे पुरुष नहीं जा सकते। जैसे नदीके एक किनारेपर बैठा हुआ कोई मन्दबुद्धि अचेत बालक दूसरे किनारेपर तैरकर जाना चाहता हो, वैसा ही विनाशकारी कार्य तू भी करना चाहता है॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्तर्महीं वा यदि वोर्ध्वमुत्पतेः
समुद्रपारं यदि वा प्रधावसि।
तथापि तेषां न विमोक्षमर्हसि
प्रमाथिनो देवसुता हि खेचराः ॥ ५० ॥

मूलम्

अन्तर्महीं वा यदि वोर्ध्वमुत्पतेः
समुद्रपारं यदि वा प्रधावसि।
तथापि तेषां न विमोक्षमर्हसि
प्रमाथिनो देवसुता हि खेचराः ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूतपुत्र! मुझपर कुदृष्टि डालकर पृथ्वीके भीतर (पातालमें) घुस जा, आकाशमें उड़ जा अथवा समुद्रके उस पार भाग जा, तथापि मेरे पतियोंके हाथसे तू छूट नहीं सकता; क्योंकि मेरे पति देवताओंके पुत्र तथा आकाशमें विचरनेवाले हैं। वे अपने शत्रुओंको मथ डालनेकी शक्ति रखते हैं॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(मां हि त्वमवमन्वानः सूतपुत्र विनङ्‌क्ष्यसि।
आशु चाद्यैव नचिरात् सपुत्रः सहबान्धवः॥

मूलम्

(मां हि त्वमवमन्वानः सूतपुत्र विनङ्‌क्ष्यसि।
आशु चाद्यैव नचिरात् सपुत्रः सहबान्धवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूतपुत्र! तू मेरा अपमान कर रहा है; अतः पुत्रों तथा बन्धु-बान्धवोंसहित तू आज ही शीघ्र नष्ट हो जायगा। तेरे विनाशमें अब विलम्ब नहीं है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्लभामभिमन्वानो मां वीरैरभिरक्षिताम् ।
पतिष्यस्यवशस्तूर्णं वृन्तात् तालफलं यथा॥

मूलम्

दुर्लभामभिमन्वानो मां वीरैरभिरक्षिताम् ।
पतिष्यस्यवशस्तूर्णं वृन्तात् तालफलं यथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं वीर गन्धर्वोंद्वारा सुरक्षित होनेके कारण तेरे लिये सर्वथा दुर्लभ हूँ। मेरा अपमान करनेसे शीघ्र ही विवशतापूर्वक तेरा उसी प्रकार पतन होगा, जैसे ताड़का फल अपने मूलस्थानसे नीचे गिरता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो मामज्ञाय कामार्तः अबद्धानि प्रभाषसे।
अशक्तस्तु पुमाञ्छैलं न लङ्घयितुमर्हति॥

मूलम्

यो मामज्ञाय कामार्तः अबद्धानि प्रभाषसे।
अशक्तस्तु पुमाञ्छैलं न लङ्घयितुमर्हति॥

अनुवाद (हिन्दी)

तू मुझे नहीं जानता, इसीलिये कामातुर होकर बहकी-बहकी बातें कर रहा है। परंतु कोई असमर्थ पुरुष कितना ही प्रयत्न करे, वह पर्वतको नहीं लाँघ सकता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिशः प्रपन्नो गिरिगह्वराणि वा
गुहां प्रविष्टोऽन्तरितोऽपि वा क्षितेः॥
जुह्वन् जपन् वा प्रपतन्‌ गिरेस्तटाद्-
हुताशनादित्यगतिं गतोऽपि वा ।
भार्याभिमन्ता पुरुषो महात्मनां
न जातु मुच्येत कथंचनाहतः॥

मूलम्

दिशः प्रपन्नो गिरिगह्वराणि वा
गुहां प्रविष्टोऽन्तरितोऽपि वा क्षितेः॥
जुह्वन् जपन् वा प्रपतन्‌ गिरेस्तटाद्-
हुताशनादित्यगतिं गतोऽपि वा ।
भार्याभिमन्ता पुरुषो महात्मनां
न जातु मुच्येत कथंचनाहतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

चाहे कोई सम्पूर्ण दिशाओंकी शरण लेता फिरे, पर्वतकी बड़ी-बड़ी कन्दराओं अथवा दुर्गम गुफाओंमें छिप जाय या पृथ्वीके अंदर ही रहने लगे, होम और जपमें संलग्न रहे, पर्वतके शिखरसे कूद पड़े, जलती आग अथवा सूर्यकी प्रचण्ड रश्मियोंकी शरण ले तो भी महात्मा गन्धर्वोंकी पत्नीका अपमान करनेवाला पुरुष कभी किसी तरह भी उनके हाथसे जीवित नहीं बच सकता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोघं तवेदं वचनं भविष्यति
प्रतोलनं वा तुलया महागिरेः।
हुताशनं प्रज्वलितं महावने
निदाघमध्याह्न इवातुरः स्वयम् ॥
प्रवेष्टुकामोऽसि वधाय चात्मनः
कुलस्य सर्वस्य विनाशनाय च।

मूलम्

मोघं तवेदं वचनं भविष्यति
प्रतोलनं वा तुलया महागिरेः।
हुताशनं प्रज्वलितं महावने
निदाघमध्याह्न इवातुरः स्वयम् ॥
प्रवेष्टुकामोऽसि वधाय चात्मनः
कुलस्य सर्वस्य विनाशनाय च।

अनुवाद (हिन्दी)

तेरी ये सब बातें व्यर्थ होंगी। तेरे लिये मुझे पाना किसी महान् पर्वतको तराजूपर तौलनेके समान महान् असम्भव है। गरमीकी दोपहरीमें जब किसी महान् वनके भीतर प्रचण्ड दावानल धधक चुका हो, उस समय उसमें स्वयं ही घुसनेवाले किसी आतुर पुरुषकी भाँति तू भी अपने और समस्त कुलके विनाशके लिये ही वहाँ प्रवेश करना चाहता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदेवगन्धर्वमहर्षिसंनिधौ
सनागलोकासुरराक्षसालये ॥
गूढस्थितां मामवमन्य चेतसा
न जीवितार्थी शरणं त्वमाप्स्यसि॥)

मूलम्

सदेवगन्धर्वमहर्षिसंनिधौ
सनागलोकासुरराक्षसालये ॥
गूढस्थितां मामवमन्य चेतसा
न जीवितार्थी शरणं त्वमाप्स्यसि॥)

अनुवाद (हिन्दी)

मैं यहाँ अपने स्वरूपको छिपाकर रहती हूँ। फिर भी तू मनसे समझ-बूझकर मेरा अपमान करना चाहता है। किंतु याद रख, तू ऐसा करके यदि अपना जीवन बचानेके लिये देवताओं, गन्धर्वों और महर्षियोंके निकट चला जाय अथवा नागलोग, असुरलोक तथा राक्षसोंके निवासस्थानमें भी पहुँच जाय, तो भी तू वहाँ शरण नहीं पा सकेगा।

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं कालरात्रीमिव कश्चिदातुरः
किं मां दृढं प्रार्थयसेऽद्य कीचक।
किं मातुरङ्के शयितो यथा शिशु-
श्चन्द्रं जिघृक्षुरिव मन्यसे हि माम् ॥ ५१ ॥

मूलम्

त्वं कालरात्रीमिव कश्चिदातुरः
किं मां दृढं प्रार्थयसेऽद्य कीचक।
किं मातुरङ्के शयितो यथा शिशु-
श्चन्द्रं जिघृक्षुरिव मन्यसे हि माम् ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कीचक! जैसे कोई रोगी कालरात्रिका आवाहन करे, उसी प्रकार मुझे प्राप्त करनेके लिये तू क्यों आज दुराग्रहपूर्ण प्रार्थना कर रहा है? अरे! जैसे माताकी गोदमें सोया हुआ शिशु चन्द्रमाको ग्रहण करना चाहे, क्या तू उसी प्रकार मुझे पाना चाहता है?॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां प्रियां प्रार्थयतो न ते भुवि
गत्वा दिवं वा शरणं भविष्यति।
न वर्तते कीचक ते दृशा शुभं
या तेन संजीवनमर्थयेत सा ॥ ५२ ॥

मूलम्

तेषां प्रियां प्रार्थयतो न ते भुवि
गत्वा दिवं वा शरणं भविष्यति।
न वर्तते कीचक ते दृशा शुभं
या तेन संजीवनमर्थयेत सा ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कीचक! उन गन्धर्वोंकी प्रियतमासे ऐसी अनुचित प्रार्थना करके पृथ्वी अथवा आकाशमें भाग जानेपर भी तुझे कोई शरण देनेवाला नहीं मिलेगा। (तू इतना कामान्ध हो गया है कि) तुझे वह शुभ दृष्टि—वह बुद्धि नहीं प्राप्त होती, जो तेरी मंगलकामना करे—जिससे तेरा जीवन सुरक्षित रह सके॥५२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि कीचकवधपर्वणि कीचककृष्णासंवादे चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत कीचकवधपर्वमें कीचक-द्रौपदी-संवादविषयक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १२ श्लोक मिलाकर कुल ६४ श्लोक हैं।)