श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
(समयपालनपर्व)
त्रयोदशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
भीमसेनके द्वारा जीमूत नामक विश्वविख्यात मल्लका वध
मूलम् (वचनम्)
जनमेजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं ते मत्स्यनगरे प्रच्छन्नाः कुरुनन्दनाः।
अत ऊर्ध्वं महावीर्याः किमकुर्वत वै द्विज ॥ १ ॥
मूलम्
एवं ते मत्स्यनगरे प्रच्छन्नाः कुरुनन्दनाः।
अत ऊर्ध्वं महावीर्याः किमकुर्वत वै द्विज ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजयने पूछा— ब्रह्मन्! इस प्रकार मत्स्यदेशकी राजधानीमें गुप्तरूपसे निवास करनेवाले महापराक्रमी पाण्डुपुत्रोंने इसके बाद क्या किया?॥१॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं मत्स्यस्य नगरे प्रच्छन्नाः कुरुनन्दनाः।
आराधयन्तो राजानं यदकुर्वत तच्छृणु ॥ २ ॥
मूलम्
एवं मत्स्यस्य नगरे प्रच्छन्नाः कुरुनन्दनाः।
आराधयन्तो राजानं यदकुर्वत तच्छृणु ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजीने कहा— राजन्! इस प्रकार मत्स्यदेशकी राजधानीमें गुप्तरूपसे निवास करनेवाले पाण्डवोंने राजा विराटकी सेवा करते हुए जो-जो कार्य किया, वह सुनो॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तृणबिन्दुप्रसादाच्च धर्मस्य च महात्मनः।
अज्ञातवासमेवं तु विराटनगरेऽवसन् ॥ ३ ॥
युधिष्ठिरः सभास्तारो मत्स्यानामभवत् प्रियः।
तथैव च विराटस्य सपुत्रस्य विशाम्पते ॥ ४ ॥
स ह्यक्षहृदयज्ञस्तान् क्रीडयामास पाण्डवः।
अक्षवत्यां यथाकामं सूत्रबद्धानिव द्विजान् ॥ ५ ॥
मूलम्
तृणबिन्दुप्रसादाच्च धर्मस्य च महात्मनः।
अज्ञातवासमेवं तु विराटनगरेऽवसन् ॥ ३ ॥
युधिष्ठिरः सभास्तारो मत्स्यानामभवत् प्रियः।
तथैव च विराटस्य सपुत्रस्य विशाम्पते ॥ ४ ॥
स ह्यक्षहृदयज्ञस्तान् क्रीडयामास पाण्डवः।
अक्षवत्यां यथाकामं सूत्रबद्धानिव द्विजान् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजर्षि तृणबिन्दु और महात्मा धर्मके प्रसादसे पाण्डवलोग इस प्रकार विराटके नगरमें अज्ञातवासके दिन पूरे करने लगे। महाराज युधिष्ठिर राजसभाके प्रमुख सदस्य और मत्स्यदेशकी प्रजाके अत्यन्त प्रिय थे। राजन्! इसी प्रकार पुत्रसहित राजा विराटका भी उनपर विशेष प्रेम था। वे पासोंका मर्म जानते थे। जैसे कोई सूतमें बाँधे हुए पक्षियोंको इच्छानुसार उड़ावे, उसी प्रकार वे द्यूतशालामें पासोंको अपने इच्छानुसार फेंकते हुए राजा आदिको जूआ खेलाया करते थे॥३—५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अज्ञातं च विराटस्य विजित्य वसु धर्मराट्।
भ्रातृभ्यः पुरुषव्याघ्रो यथार्हं सम्प्रयच्छति ॥ ६ ॥
मूलम्
अज्ञातं च विराटस्य विजित्य वसु धर्मराट्।
भ्रातृभ्यः पुरुषव्याघ्रो यथार्हं सम्प्रयच्छति ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुरुषसिंह धर्मराज युधिष्ठिर जूएमें धन जीतकर अपने भाइयोंको यथायोग्य बाँट देते थे।’ इसका राजा विराटको भी पता नहीं लगता था॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमसेनोऽपि मांसानि भक्ष्याणि विविधानि च।
अतिसृष्टानि मत्स्येन विक्रीणीते युधिष्ठिरे ॥ ७ ॥
मूलम्
भीमसेनोऽपि मांसानि भक्ष्याणि विविधानि च।
अतिसृष्टानि मत्स्येन विक्रीणीते युधिष्ठिरे ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेन भी नाना प्रकारके भक्ष्य-भोज्य पदार्थ, जो मत्स्यनरेशद्वारा उन्हें पुरस्काररूपमें प्राप्त होते, बेच देते और उससे मिला हुआ धन युधिष्ठिरकी सेवामें अर्पित करते थे॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वासांसि परिजीर्णानि लब्धान्यन्तःपुरेऽर्जुनः ।
विक्रीणानश्च सर्वेभ्यः पाण्डवेभ्यः प्रयच्छति ॥ ८ ॥
मूलम्
वासांसि परिजीर्णानि लब्धान्यन्तःपुरेऽर्जुनः ।
विक्रीणानश्च सर्वेभ्यः पाण्डवेभ्यः प्रयच्छति ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनको अन्तःपुरमें जो पुराने उतारे हुए बहुमूल्य वस्त्र प्राप्त होते, उन्हें वे बेचते और बेचनेसे मिला हुआ मूल्य सब पाण्डवोंको देते थे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहदेवोऽपि गोपानां वेषमास्थाय पाण्डवः।
दधि क्षीरं घृतं चैव पाण्डवेभ्यः प्रयच्छति ॥ ९ ॥
मूलम्
सहदेवोऽपि गोपानां वेषमास्थाय पाण्डवः।
दधि क्षीरं घृतं चैव पाण्डवेभ्यः प्रयच्छति ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डुनन्दन सहदेव भी ग्वालोंका वेश धारणकर पाण्डवोंको दही, दूध और घी दिया करते थे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नकुलोऽपि धनं लब्ध्वा कृते कर्मणि वाजिनाम्।
तुष्टे तस्मिन् नरपतौ पाण्डवेभ्यः प्रयच्छति ॥ १० ॥
मूलम्
नकुलोऽपि धनं लब्ध्वा कृते कर्मणि वाजिनाम्।
तुष्टे तस्मिन् नरपतौ पाण्डवेभ्यः प्रयच्छति ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नकुल भी घोड़ोंके शिक्षणका कार्य करके महाराज विराटके संतुष्ट होनेपर उनसे पुरस्कारस्वरूप जो धन पाते, उसे सब पाण्डवोंको बाँट दिया करते थे॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णा तु सर्वान् भर्तॄंस्तान् निरीक्षन्ती तपस्विनी।
यथा पुनरविज्ञाता तथा चरति भामिनी ॥ ११ ॥
मूलम्
कृष्णा तु सर्वान् भर्तॄंस्तान् निरीक्षन्ती तपस्विनी।
यथा पुनरविज्ञाता तथा चरति भामिनी ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तपस्विनी एवं सुन्दरी द्रौपदी भी उन सब पतियोंकी देखभाल करती हुई ऐसा बर्ताव करती, जिससे फिर कोई उसे पहचान न सके॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं सम्पादयन्तस्ते तदान्योन्यं महारथाः।
विराटनगरे चेरुः पुनर्गर्भधृता इव ॥ १२ ॥
मूलम्
एवं सम्पादयन्तस्ते तदान्योन्यं महारथाः।
विराटनगरे चेरुः पुनर्गर्भधृता इव ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार एक-दूसरेका सहयोग करते हुए वे महारथी पाण्डव विराटनगरमें बहुत छिपकर रहते थे; मानो पुनः माताके गर्भमें निवास कर रहे हों॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साशङ्का धार्तराष्ट्रस्य भयात् पाण्डुसुतास्तदा।
प्रेक्षमाणास्तदा कृष्णामूषुश्छन्ना नराधिप ॥ १३ ॥
मूलम्
साशङ्का धार्तराष्ट्रस्य भयात् पाण्डुसुतास्तदा।
प्रेक्षमाणास्तदा कृष्णामूषुश्छन्ना नराधिप ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! दुर्योधनद्वारा पहचान लिये जानेके भयसे पाण्डव सदा सशंक रहते थे; अतः वे उस समय द्रौपदीकी देखभाल करते हुए भी छिपकर ही वहाँ निवास करते थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ मासे चतुर्थे तु ब्रह्मणः सुमहोत्सवः।
आसीत् समृद्धो मत्स्येषु पुरुषाणां सुसम्मतः ॥ १४ ॥
तत्र मल्लाः समापेतुर्दिग्भ्यो राजन् सहस्रशः।
समाजे ब्रह्मणो राजन् यथा पशुपतेरिव ॥ १५ ॥
मूलम्
अथ मासे चतुर्थे तु ब्रह्मणः सुमहोत्सवः।
आसीत् समृद्धो मत्स्येषु पुरुषाणां सुसम्मतः ॥ १४ ॥
तत्र मल्लाः समापेतुर्दिग्भ्यो राजन् सहस्रशः।
समाजे ब्रह्मणो राजन् यथा पशुपतेरिव ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर चौथा महीना प्रारम्भ होनेपर मत्स्यदेशमें ब्रह्माजीकी पूजाका महान् उत्सव मनाया जाने लगा। इसमें बड़ा समारोह होता था। मत्स्यदेशके लोगोंको यह बहुत प्रिय था। जनमेजय! उस समय विराटनगरमें चारों दिशाओंसे हजारों कुश्ती लड़नेवाले मल्ल जुटने लगे। इसी अवसरपर ब्रह्माजी और भगवान् शंकरकी सभाके समान उस राजधानीमें लोगोंका जमाव होता था॥१४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महाकाया महावीर्याः कालखञ्जा इवासुराः।
वीर्योन्मत्ता बलोदग्रा राज्ञा समभिपूजिताः ॥ १६ ॥
मूलम्
महाकाया महावीर्याः कालखञ्जा इवासुराः।
वीर्योन्मत्ता बलोदग्रा राज्ञा समभिपूजिताः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ आये हुए विशालकाय और महान् बलशाली मल्ल कालखंज नामक असुरोंके समान जान पड़ते थे। वे सब अपनी शक्ति और पराक्रमके मदसे उन्मत्त थे एवं बलमें बहुत बड़े-चढ़े थे। राजा विराटने उन सबका खूब स्वागत-सत्कार किया॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिंहस्कन्धकटिग्रीवाः स्ववदाता मनस्विनः ।
असकृल्लब्धलक्षास्ते रङ्गे पार्थिवसंनिधौ ॥ १७ ॥
मूलम्
सिंहस्कन्धकटिग्रीवाः स्ववदाता मनस्विनः ।
असकृल्लब्धलक्षास्ते रङ्गे पार्थिवसंनिधौ ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके कंधे, कमर और कण्ठ सिंहके समान थे। वे निर्मल यशसे सुशोभित और मनस्वी थे। उन्होंने अनेक बार राजाके समीप रंगभूमि (अखाड़े) में विजय पायी थी॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषामेको महानासीत् सर्वमल्लानथाह्वयत् ।
आवल्गमानं तं रङ्गे नोपतिष्ठति कश्चन ॥ १८ ॥
मूलम्
तेषामेको महानासीत् सर्वमल्लानथाह्वयत् ।
आवल्गमानं तं रङ्गे नोपतिष्ठति कश्चन ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन सबमें एक बहुत बड़ा पहलवान था, जो दूसरे सब पहलवानोंको अपने साथ लड़नेके लिये ललकारता था। जब वह अखाड़ेमें उतरकर उलछने लगा, उस समय कोई भी उसके समीप खड़ा न हो सका॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा सर्वे विमनसस्ते मल्ला हतचेतसः।
अथ सूदेन तं मल्लं योधयामास मत्स्यराट् ॥ १९ ॥
मूलम्
यदा सर्वे विमनसस्ते मल्ला हतचेतसः।
अथ सूदेन तं मल्लं योधयामास मत्स्यराट् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब वे सभी मल्ल उदासीन हो हिम्मत हार बैठे, तब मत्स्यनरेशने अपने रसोइयेसे उस पहलवानको लड़ानेका निश्चय किया॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नोद्यमानस्तदा भीमो दुःखेनैवाकरोन्मतिम् ।
न हि शक्नोति विवृते प्रत्याख्यातुं नराधिपम् ॥ २० ॥
मूलम्
नोद्यमानस्तदा भीमो दुःखेनैवाकरोन्मतिम् ।
न हि शक्नोति विवृते प्रत्याख्यातुं नराधिपम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय राजासे प्रेरित होनेपर भीमसेनने [पहचाने जानेके भयसे] दुःखी होकर ही उससे लड़नेका विचार किया। वे राजाकी बातको प्रकटरूपमें टाल नहीं सकते थे॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स पुरुषव्याघ्रः शार्दूलशिथिलश्चरन्।
प्रविवेश महारङ्गं विराटमभिपूजयन् ॥ २१ ॥
मूलम्
ततः स पुरुषव्याघ्रः शार्दूलशिथिलश्चरन्।
प्रविवेश महारङ्गं विराटमभिपूजयन् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर पुरुषसिंह भीमने सिंहके समान धीमी चालसे चलते हुए राजा विराटका मान रखनेके लिये उस विशाल रंगभूमिमें प्रवेश किया॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बबन्ध कक्षां कौन्तेयस्ततः संहर्षयन् जनम्।
ततस्तु वृत्रसंकाशं भीमो मल्लं समाह्वयत् ॥ २२ ॥
जीमूतं नाम तं तत्र मल्लं प्रख्यातविक्रमम्।
मूलम्
बबन्ध कक्षां कौन्तेयस्ततः संहर्षयन् जनम्।
ततस्तु वृत्रसंकाशं भीमो मल्लं समाह्वयत् ॥ २२ ॥
जीमूतं नाम तं तत्र मल्लं प्रख्यातविक्रमम्।
अनुवाद (हिन्दी)
फिर लोगोंमें हर्षका संचार करते हुए उन्होंने लँगोट बाँधा और उस प्रसिद्ध पराक्रमी जीमूत नामक मल्लको, जो वृत्रासुरके समान दिखायी देता था, युद्धके लिये ललकारा॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावुभौ सुमहोत्साहावुभौ भीमपराक्रमौ ॥ २३ ॥
मत्ताविव महाकायौ वारणौ षष्टिहायनौ।
मूलम्
तावुभौ सुमहोत्साहावुभौ भीमपराक्रमौ ॥ २३ ॥
मत्ताविव महाकायौ वारणौ षष्टिहायनौ।
अनुवाद (हिन्दी)
वे दोनों बड़े उत्साहमें भरे थे। दोनों ही प्रचण्ड पराक्रमी थे, ऐसा लगता था मानो साठ वर्षके दो मतवाले एवं विशालकाय गजराज एक-दूसरेसे भिड़नेको उद्यत हों॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तौ नरशार्दूलौ बाहुयुद्धं समीयतुः ॥ २४ ॥
वीरौ परमसंहृष्टावन्योन्यजयकाङ्क्षिणौ ।
आसीत् सुभीमः सम्पातो वज्रपर्वतयोरिव ॥ २५ ॥
मूलम्
ततस्तौ नरशार्दूलौ बाहुयुद्धं समीयतुः ॥ २४ ॥
वीरौ परमसंहृष्टावन्योन्यजयकाङ्क्षिणौ ।
आसीत् सुभीमः सम्पातो वज्रपर्वतयोरिव ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अत्यन्त हर्षमें भरकर एक-दूसरेको जीत लेनेकी इच्छावाले वे दोनों नरश्रेष्ठ वीर बाहुयुद्ध करने लगे। उस समय उन दोनोंमें बड़ी भयंकर भिड़न्त हुई। उनके परस्परके आघातसे इस प्रकार चटचट शब्द होने लगा, मानो वज्र और पर्वत एक-दूसरेसे टकरा गये हों॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उभौ परमसंहृष्टौ बलेनातिबलावुभौ ।
अन्योन्यस्यान्तरं प्रेप्सू परस्परजयैषिणौ ॥ २६ ॥
मूलम्
उभौ परमसंहृष्टौ बलेनातिबलावुभौ ।
अन्योन्यस्यान्तरं प्रेप्सू परस्परजयैषिणौ ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दोनों अत्यन्त प्रसन्न थे। बलकी दृष्टिसे दोनों ही अत्यन्त बलशाली थे और एक-दूसरेपर चोट करनेका अवसर देखते हुए विजयके अभिलाषी हो रहे थे॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उभौ परमसंहृष्टौ मत्ताविव महागजौ।
कृतप्रतिकृतैश्चित्रैर्बाहुभिश्च सुसङ्कटैः ।
संनिपातावधूतैश्च प्रमाथोन्मथनैस्तथा 1_ ॥ २७ ॥_
मूलम्
उभौ परमसंहृष्टौ मत्ताविव महागजौ।
कृतप्रतिकृतैश्चित्रैर्बाहुभिश्च सुसङ्कटैः ।
संनिपातावधूतैश्च प्रमाथोन्मथनैस्तथा 1_ ॥ २७ ॥_
अनुवाद (हिन्दी)
दोनोंमें भरपूर हर्ष और उत्साह भरा था। दोनों ही मतवाले गजराजोंकी भाँति एक-दूसरेसे भिड़े हुए थे। जब एक-दूसरेका कोई अंग जोरसे दबाता, तब दूसरा फौरन उसका प्रतीकार करता—उस अंगको उसकी पकड़से छुड़ा लेता था। दोनों एक-दूसरेके हाथोंको मुट्ठीसे पकड़कर विवश कर देते और विचित्र ढंगसे परस्पर प्रहार करते थे। दोनों आपसमें गुँथ जाते और फिर धक्के देकर एक दूसरेको दूर हटा देते। कभी एक-दूसरेको पटककर जमीनपर रगड़ता, तो दूसरा नीचेसे ही कुलाँचकर ऊपरवालेको दूर फेंक देता या उसे लिये-दिये खड़ा हो अपने शरीरसे दबाकर उसके अंगोंको भी मथ डालता था॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षेपणैर्मुष्टिभिश्चैव 1 2_ वराहोद्धूतनिःस्वनैः_ 3_ ।_
तलैर्वज्रनिपातैश्च 4_ प्रसृष्टाभिस्तथैव_ 5_ च ॥ २८ ॥_
मूलम्
क्षेपणैर्मुष्टिभिश्चैव 1 2_ वराहोद्धूतनिःस्वनैः_ 3_ ।_
तलैर्वज्रनिपातैश्च 4_ प्रसृष्टाभिस्तथैव_ 5_ च ॥ २८ ॥_
अनुवाद (हिन्दी)
कभी दोनों दोनोंको बलपूर्वक पीछे हटाते और मुक्कोंसे एक-दूसरेकी छातीपर चोट करते थे। कभी एकको दूसरा अपने कंधेपर उठा लेता और उसका मुँह नीचे करके घुमाकर पटक देता था, जिससे ऐसा शब्द होता; मानो किसी शूकरने चोट की हो। कभी परस्पर तर्जनी और अँगूठेके मध्यभागको फैलाकर चाँटोंकी मार होती और कभी हाथकी अंगुलियोंको फैलाकर वे एक-दूसरेको थप्पड़ मारते थे॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शलाकानखपातैश्च पादोद्धूतैश्च दारुणैः ।
जानुभिश्चाश्मनिर्घोषैः शिरोभिश्चावघट्टनैः ॥ २९ ॥
मूलम्
शलाकानखपातैश्च पादोद्धूतैश्च दारुणैः ।
जानुभिश्चाश्मनिर्घोषैः शिरोभिश्चावघट्टनैः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कभी वे रोषपूर्वक अंगुलियोंके नखोंसे एक-दूसरेको बकोटते। कभी पैरोंसे उलझाकर दोनों दोनोंको गिरा देते। कभी घुटने और सिरसे टक्कर मारते; जिससे पत्थर टकरानेके समान भयंकर शब्द होता था॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् युद्धमभवद् घोरमशस्त्रं बाहुतेजसा।
बलप्राणेन शूराणां समाजोत्सवसंनिधौ ॥ ३० ॥
अरज्यत जनः सर्वः सोत्क्रुष्टनिनदोत्थितः।
बलिनोः संयुगे राजन् वृत्रवासवयोरिव ॥ ३१ ॥
प्रकर्षणाकर्षणयोरभ्याकर्षविकर्षणैः 6_ ।_
आकर्षतुरथान्योन्यं जानुभिश्चापि जघ्नतुः ॥ ३२ ॥
मूलम्
तद् युद्धमभवद् घोरमशस्त्रं बाहुतेजसा।
बलप्राणेन शूराणां समाजोत्सवसंनिधौ ॥ ३० ॥
अरज्यत जनः सर्वः सोत्क्रुष्टनिनदोत्थितः।
बलिनोः संयुगे राजन् वृत्रवासवयोरिव ॥ ३१ ॥
प्रकर्षणाकर्षणयोरभ्याकर्षविकर्षणैः 6_ ।_
आकर्षतुरथान्योन्यं जानुभिश्चापि जघ्नतुः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कभी वे प्रतिपक्षीको गोदमें घसीट लाते, कभी खेलमें ही उसे सामने खींच लेते, कभी आगे-पीछे, दायें-बायें पैंतरे बदलते और कभी सहसा पीछे ढकेलकर पटक देते थे। इस तरह दोनों दोनोंको अपनी ओर खींचते और घुटनोंसे एक-दूसरेपर प्रहार करते थे। उस सामूहिक उत्सवमें पहलवानों और जनसमुदायके निकट उन दोनोंमें केवल बाहुबल, शारीरिक बल तथा प्राणबलसे किसी अस्त्र-शस्त्रके बिना बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। राजन्! इन्द्र और वृत्रासुरके समान भीम और जीमूतके उस मल्लयुद्धमें सब लोगोंका बड़ा मनोरंजन हुआ। सभी दर्शक जीतनेवालेका उत्साह बढ़ानेके लिये जोर-जोरसे हर्षनाद कर उठते थे॥३०—३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः शब्देन महता भर्त्सयन्तौ परस्परम्।
व्यूढोरस्कौ दीर्घभुजौ नियुद्धकुशलावुभौ ।
बाहुभिः समसज्जेतामायसैः परिघैरिव ॥ ३३ ॥
चकर्ष दोर्भ्यामुत्पात्य भीमो मल्लममित्रहा।
निनदन्तमभिक्रोशन् शार्दूल इव वारणम् ॥ ३४ ॥
समुद्यम्य महाबाहुर्भ्रामयामास वीर्यवान् ।
ततो मल्लाश्च मत्स्याश्च विस्मयं चक्रिरे परम् ॥ ३५ ॥
मूलम्
ततः शब्देन महता भर्त्सयन्तौ परस्परम्।
व्यूढोरस्कौ दीर्घभुजौ नियुद्धकुशलावुभौ ।
बाहुभिः समसज्जेतामायसैः परिघैरिव ॥ ३३ ॥
चकर्ष दोर्भ्यामुत्पात्य भीमो मल्लममित्रहा।
निनदन्तमभिक्रोशन् शार्दूल इव वारणम् ॥ ३४ ॥
समुद्यम्य महाबाहुर्भ्रामयामास वीर्यवान् ।
ततो मल्लाश्च मत्स्याश्च विस्मयं चक्रिरे परम् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर चौड़ी छाती और लंबी भुजावाले, कुश्तीके दाँव-पेचमें कुशल वे दोनों वीर गम्भीर गर्जनाके साथ एक-दूसरेको डाँट बताते हुए लोहेके परिघ (मोटे डंडे)-जैसी बाँहोंसे बाँहें मिलाकर परस्पर भिड़ गये। फिर विपुलपराक्रमी शत्रुहन्ता महाबाहु भीमसेनने गर्जना करते हुए, जैसे सिंह हाथीपर झपटे, उसी प्रकार झपटकर जीमूतको दोनों हाथोंसे पकड़कर खींचा और ऊपर उठाकर उसे घुमाना आरम्भ किया। यह देख वहाँ आये हुए पहलवानों तथा मत्स्यदेशकी प्रजाको बड़ा आश्चर्य हुआ॥३३—३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रामयित्वा शतगुणं गतसत्त्वमचेतनम् ।
प्रत्यपिंषन्महाबाहुर्मल्लं भुवि वृकोदरः ॥ ३६ ॥
मूलम्
भ्रामयित्वा शतगुणं गतसत्त्वमचेतनम् ।
प्रत्यपिंषन्महाबाहुर्मल्लं भुवि वृकोदरः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सौ बार घुमानेपर जब वह धैर्य, साहस और चेतनासे भी हाथ धो बैठा, तब बड़ी-बड़ी बाहुओंवाले वृकोदरने उसे पृथ्वीपर गिराकर मसल डाला॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् विनिहते वीरे जीमूते लोकविश्रुते।
विराटः परमं हर्षमगच्छद् बान्धवैः सह ॥ ३७ ॥
मूलम्
तस्मिन् विनिहते वीरे जीमूते लोकविश्रुते।
विराटः परमं हर्षमगच्छद् बान्धवैः सह ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार उस लोकविख्यात वीर जीमूतके मारे जानेपर राजा विराटको अपने बन्धु-बान्धवोंके साथ बड़ी प्रसन्नता हुई॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रहर्षात् प्रददौ वित्तं बहु राजा महामनाः।
बल्लवाय महारङ्गे यथा वैश्रवणस्तथा ॥ ३८ ॥
मूलम्
प्रहर्षात् प्रददौ वित्तं बहु राजा महामनाः।
बल्लवाय महारङ्गे यथा वैश्रवणस्तथा ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय कुबेरके समान महामनस्वी राजा विराटने अत्यन्त हर्षमें भरकर बल्लवको उस विशाल रंगभूमिमें ही बहुत धन दिया॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं स सुबहून् मल्लान् पुरुषांश्च महाबलान्।
विनिघ्नन् मत्स्यराजस्य प्रीतिमाहरदुत्तमाम् ॥ ३९ ॥
मूलम्
एवं स सुबहून् मल्लान् पुरुषांश्च महाबलान्।
विनिघ्नन् मत्स्यराजस्य प्रीतिमाहरदुत्तमाम् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी तरह बहुत-से पहलवानों और महाबली पुरुषोंको मारकर भीमसेनने मत्स्यनरेश विराटका उत्तम प्रेम प्राप्त किया॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदास्य तुल्यः पुरुषो न कश्चित् तत्र विद्यते।
ततो व्याघ्रैश्च सिंहैश्च द्विरदैश्चाप्ययोधयत् ॥ ४० ॥
मूलम्
यदास्य तुल्यः पुरुषो न कश्चित् तत्र विद्यते।
ततो व्याघ्रैश्च सिंहैश्च द्विरदैश्चाप्ययोधयत् ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब वहाँ उनकी जोड़का कोई पहलवान नहीं रह गया, तब विराट उन्हें व्याघ्रों, सिंहों और हाथियोंसे लड़ाने लगे॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनरन्तःपुरगतः स्त्रीणां मध्ये वृकोदरः।
योध्यते स विराटेन सिंहैर्मत्तैर्महाबलैः ॥ ४१ ॥
मूलम्
पुनरन्तःपुरगतः स्त्रीणां मध्ये वृकोदरः।
योध्यते स विराटेन सिंहैर्मत्तैर्महाबलैः ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कभी-कभी विराटकी प्रेरणासे स्त्रियोंके अन्तःपुरमें जाकर भीमसेन उन्हें दिखानेके लिये महान् बलवान् और मतवाले सिंहोंके साथ लड़ा करते थे॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बीभत्सुरपि गीतेन स्वनृत्येन च पाण्डवः।
विराटं तोषयामास सर्वाश्चान्तःपुरस्त्रियः ॥ ४२ ॥
मूलम्
बीभत्सुरपि गीतेन स्वनृत्येन च पाण्डवः।
विराटं तोषयामास सर्वाश्चान्तःपुरस्त्रियः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डुनन्दन अर्जुनने भी अपने गीत और नृत्यसे राजा विराट तथा अन्तःपुरकी सम्पूर्ण स्त्रियोंको संतुष्ट कर लिया था॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्वैर्विनीतैर्जवनैस्तत्र तत्र समागतैः ।
तोषयामास राजानं नकुलो नृपसत्तमम् ॥ ४३ ॥
तस्मै प्रदेयं प्रायच्छत् प्रीतो राजा धनं बहु।
विनीतान् वृषभान् दृष्ट्वा सहदेवस्य चाभितः।
धनं ददौ बहुविधं विराटः पुरुषर्षभः ॥ ४४ ॥
मूलम्
अश्वैर्विनीतैर्जवनैस्तत्र तत्र समागतैः ।
तोषयामास राजानं नकुलो नृपसत्तमम् ॥ ४३ ॥
तस्मै प्रदेयं प्रायच्छत् प्रीतो राजा धनं बहु।
विनीतान् वृषभान् दृष्ट्वा सहदेवस्य चाभितः।
धनं ददौ बहुविधं विराटः पुरुषर्षभः ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार नकुलने जहाँ-तहाँसे आये हुए वेगवान् घोड़ोंको सुशिक्षित करके नृपश्रेष्ठ विराटको प्रसन्न किया था। प्रसन्न होकर राजाने पुरस्काररूपमें उन्हें बहुत धन दिया था। इसी तरह सहदेवके द्वारा शिक्षित एवं विनीत किये हुए बैलोंको देखकर नरश्रेष्ठ विराटने उन्हें भी इनाममें बहुत धन दिया॥४३-४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रौपदी प्रेक्ष्य तान् सर्वान् क्लिश्यमानान् महारथान्।
नातिप्रीतमना राजन् निःश्वासपरमाभवत् ॥ ४५ ॥
मूलम्
द्रौपदी प्रेक्ष्य तान् सर्वान् क्लिश्यमानान् महारथान्।
नातिप्रीतमना राजन् निःश्वासपरमाभवत् ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! अपने सम्पूर्ण महारथी पतियोंको इस प्रकार क्लेश उठाते देख द्रौपदीके मनमें खेद होता था और वह लंबी साँसें भरती रहती थी॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं ते न्यवसंस्तत्र प्रच्छन्नाः पुरुषर्षभाः।
कर्माणि तस्य कुर्वाणा विराटनृपतेस्तदा ॥ ४६ ॥
मूलम्
एवं ते न्यवसंस्तत्र प्रच्छन्नाः पुरुषर्षभाः।
कर्माणि तस्य कुर्वाणा विराटनृपतेस्तदा ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार वे पुरुषशिरोमणि पाण्डव उस समय राजा विराटके भिन्न-भिन्न कार्य सँभालते हुए वहाँ छिपकर रहते थे॥४६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि समयपालनपर्वणि जीमूतवधे त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत समयपालनपर्वमें जीमूतवधसम्बन्धी तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूलम्
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- प्रमाथ तथा उन्मथन आदि मल्लयुद्धके दाँव-पेचोंके नाम हैं। इनकी व्याख्या नीलकण्ठी आदि टीकाओंमें मल्लशास्त्रके अनुसार इस प्रकार दी गयी है—‘‘‘निपात्य पेषणं भूमौ प्रमाथ इति कथ्यते। यत् तूत्थायाङ्गथनं तदुन्मथनमुच्यते॥’’’
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- उभयोर्भुजयोर्मुष्टिरुरोमध्ये निपात्यते । मुष्टिरित्युच्यते तज्ज्ञैर्मल्लविद्याविशारदैः ॥
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- अवाङ्मुखं स्कन्धगतं भ्रामयित्वा तदैव यः। क्षिप्तस्य शब्दः स भवेद् वराहोद्धूतनिःस्वनः॥
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- तर्जन्यङ्गुष्ठमध्येन प्रसारितकरो हि यः। सम्प्रहारतलाख्यस्तु संग्राहो वज्रमिष्यते॥
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- अङ्गुल्यः प्रसृता यास्तु ताः प्रसृष्टा उदीरिताः॥
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- आकृष्य क्रोडीकरणं प्रकर्षणमुदाहृतम्। आकर्षणं लीलयैव सम्मुखीकरणं स्मृतम्॥पुरः पश्चात् पार्श्वयोश्चाभ्याकर्षो भ्रमणं तथा। पश्चात् प्रपातनं वेगाद् विकर्षणमुदाहृतम्॥