०१२ नकुलस्य विराटराज्ये अश्वपालनकार्यप्राप्तिः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

द्वादशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

नकुलका विराटके अश्वोंकी देखरेखमें नियुक्त होना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथापरोऽदृश्यत पाण्डवः प्रभु-
र्विराटराजं तरसा समेयिवान् ।
तमापतन्तं ददृशे पृथग्जनो
विमुक्तमभ्रादिव सूर्यमण्डलम् ॥ १ ॥

मूलम्

अथापरोऽदृश्यत पाण्डवः प्रभु-
र्विराटराजं तरसा समेयिवान् ।
तमापतन्तं ददृशे पृथग्जनो
विमुक्तमभ्रादिव सूर्यमण्डलम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! तदनन्तर अन्य पाण्डुपुत्र शक्तिशाली नकुल बड़े वेगसे चलते हुए राजा विराटके यहाँ आये। उन्हें आते समय साधारण लोगोंने देखा; उस समय वे मेघमालाकी ओटसे निकले हुए सूर्यमण्डलके समान तेजस्वी जान पड़ते थे॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वै हयानैक्षत तांस्ततस्ततः
समीक्षमाणं स ददर्श मत्स्यराट्।
ततोऽब्रवीत् ताननुगान् नरेश्वरः
कुतोऽयमायाति नरोऽमरोपमः ॥ २ ॥
स्वयं हयानीक्षति मामकान् दृढं
ध्रुवं हयज्ञो भविता विचक्षणः।
प्रवेश्यतामेष समीपमाशु मे
विभाति वीरो हि यथामरस्तथा ॥ ३ ॥

मूलम्

स वै हयानैक्षत तांस्ततस्ततः
समीक्षमाणं स ददर्श मत्स्यराट्।
ततोऽब्रवीत् ताननुगान् नरेश्वरः
कुतोऽयमायाति नरोऽमरोपमः ॥ २ ॥
स्वयं हयानीक्षति मामकान् दृढं
ध्रुवं हयज्ञो भविता विचक्षणः।
प्रवेश्यतामेष समीपमाशु मे
विभाति वीरो हि यथामरस्तथा ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आते ही उन्होंने इधर-उधर घूमकर घोड़ोंको देखना प्रारम्भ किया। इस प्रकार उन अश्वोंका निरीक्षण करते समय उन्हें मत्स्यराज विराटने देखा। तब वे नरेश वहाँ बैठे हुए अनुचरोंसे बोले—‘पता तो लगाओ, यह देवोपम पुरुष कहाँसे आ रहा है? यह बिना कहे-सुने स्वयं मेरे घोड़ोंको बहुत ध्यानसे देख रहा है; अतः यह अवश्य घोड़ोंको पहचाननेवाला और अश्वविद्याका विद्वान् होगा। इसलिये इसे शीघ्र मेरे समीप ले आओ। यह वीर देवताओंकी भाँति सुशोभित हो रहा है’॥२-३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभ्येत्य राजानममित्रहाब्रवी-
ज्जयोऽस्तु ते पार्थिव भद्रमस्तु वः।
हयेषु युक्तो नृप सम्मतः सदा
तवाश्वसूतो निपुणो भवाम्यहम् ॥ ४ ॥

मूलम्

अभ्येत्य राजानममित्रहाब्रवी-
ज्जयोऽस्तु ते पार्थिव भद्रमस्तु वः।
हयेषु युक्तो नृप सम्मतः सदा
तवाश्वसूतो निपुणो भवाम्यहम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् राजसेवकोंके साथ राजाके समीप आकर शत्रुहन्ता नकुलने कहा—‘राजन्! आपकी जय हो। आपका कल्याण हो। मैं घोड़ोंको शिक्षा देनेमें निपुण हूँ और अनेक राजाओंसे सम्मानित हूँ। मैं सदा आपके घोड़ोंका चतुर सारथि हो सकता हूँ’॥४॥

मूलम् (वचनम्)

विराट उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ददामि यानानि धनं निवेशनं
ममाश्वसूतो भवितुं त्वमर्हसि ।
कुतोऽसि कस्यासि कथं त्वमागतः
प्रब्रूहि शिल्पं तव विद्यते च यत् ॥ ५ ॥

मूलम्

ददामि यानानि धनं निवेशनं
ममाश्वसूतो भवितुं त्वमर्हसि ।
कुतोऽसि कस्यासि कथं त्वमागतः
प्रब्रूहि शिल्पं तव विद्यते च यत् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विराटने कहा— भद्र पुरुष! मैं तुम्हें सवारी, धन और रहनेके लिये घर देता हूँ। तुम मेरे घोड़ोंको शिक्षा देनेवाले सारथि हो सकते हो, किंतु मैं पहले यह जानना चाहता हूँ कि तुम कहाँसे आये हो? किसके पुत्र हो और किसलिये तुम्हारा यहाँ आगमन हुआ है? तुममें जो कला-कौशल हो, उसे भी बताओ॥५॥

मूलम् (वचनम्)

नकुल उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पञ्चानां पाण्डुपुत्राणां ज्येष्ठो भ्राता युधिष्ठिरः।
तेनाहमश्वेषु पुरा नियुक्तः शत्रुकर्शन ॥ ६ ॥
अश्वानां प्रकृतिं वेद्मि विनयं चापि सर्वशः।
दुष्टानां प्रतिपत्तिं च कृत्स्नं चैव चिकित्सितम् ॥ ७ ॥

मूलम्

पञ्चानां पाण्डुपुत्राणां ज्येष्ठो भ्राता युधिष्ठिरः।
तेनाहमश्वेषु पुरा नियुक्तः शत्रुकर्शन ॥ ६ ॥
अश्वानां प्रकृतिं वेद्मि विनयं चापि सर्वशः।
दुष्टानां प्रतिपत्तिं च कृत्स्नं चैव चिकित्सितम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नकुल बोले— शत्रुदमन! सुनिये, पाँचों पाण्डवोंमें जो बड़े भ्राता युधिष्ठिर हैं, उन्होंने पहले मुझे घोड़ोंकी देखभालके कामपर लगा रखा था। मैं घोड़ोंकी जाति पहचानता हूँ एवं उन्हें सब प्रकारकी शिक्षा देनेकी कला भी जानता हूँ। दुष्ट घोड़ोंकी दुष्टता-निवारणका ढंग भी मुझे मालूम है तथा घोड़ोंकी चिकित्सा भी मैं पूर्णरूपसे जानता हूँ॥६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न कातरं स्यान्मम जातु वाहनं
न मेऽस्ति दुष्टा वडवा कुतो हयाः।
जनस्तु मामाह स चापि पाण्डवो
युधिष्ठिरो ग्रन्थिकमेव नामतः ॥ ८ ॥

मूलम्

न कातरं स्यान्मम जातु वाहनं
न मेऽस्ति दुष्टा वडवा कुतो हयाः।
जनस्तु मामाह स चापि पाण्डवो
युधिष्ठिरो ग्रन्थिकमेव नामतः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरा सिखाया हुआ घोड़ा कभी कायर नहीं हो सकता। मेरी सिखायी हुई घोड़ीमें भी कोई ऐब नहीं आता, फिर घोड़े तो बिगड़ ही कैसे सकते हैं? मुझे साधारण लोग तथा पाण्डुनन्दन महाराज युधिष्ठिर भी ‘ग्रन्थिक’ नामसे ही पुकारा करते थे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(मातलिरिव देवपतेर्दशरथनृपतेः सुमन्त्र इव यन्ता।
सुमह इव जामदग्नेस्तथैव तव शिक्षयाम्यश्वान्॥
युधिष्ठिरस्य राजेन्द्र नरराजस्य शासनात्।
शतसाहस्रकोटीनामश्वानामस्मि रक्षिता ॥)

मूलम्

(मातलिरिव देवपतेर्दशरथनृपतेः सुमन्त्र इव यन्ता।
सुमह इव जामदग्नेस्तथैव तव शिक्षयाम्यश्वान्॥
युधिष्ठिरस्य राजेन्द्र नरराजस्य शासनात्।
शतसाहस्रकोटीनामश्वानामस्मि रक्षिता ॥)

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे देवराज इन्द्रके सारथि मातलि हैं, जैसे राजा दशरथके रथचालक सुमन्त्र हैं और जैसे जमदग्निनन्दन परशुरामके सूत सुमह हैं, उसी प्रकार मैं आपका सारथि होकर आपके घोड़ोंको शिक्षा दूँगा। राजेन्द्र! मैं महाराज युधिष्ठिरके आदेशसे उनके यहाँ लक्षकोटि अश्वोंका संरक्षक रहा हूँ।

मूलम् (वचनम्)

विराट उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदस्ति किंचिन्मम वाजिवाहनं
तदस्तु सर्वं त्वदधीनमद्य वै।
ये चापि केचिन्मम वाजियोजका-
स्त्वदाश्रयाः सारथयश्च सन्तु मे ॥ ९ ॥

मूलम्

यदस्ति किंचिन्मम वाजिवाहनं
तदस्तु सर्वं त्वदधीनमद्य वै।
ये चापि केचिन्मम वाजियोजका-
स्त्वदाश्रयाः सारथयश्च सन्तु मे ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विराटने कहा— ग्रन्थिक! मेरे पास जो भी घोड़े और अन्य वाहन हैं, वे सब आजसे ही तुम्हारे अधीन हो जायँ। इसके सिवा जो कोई भी मेरे घोड़ोंको जोतनेवाले सारथि हैं, वे सब तुम्हारे अधिकारमें इदं रहें॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं तवेष्टं यदि वै सुरोपम
ब्रवीहि यत् ते प्रसमीक्षितं वसु।
त तेऽनुरूपं हयकर्म विद्यते
प्रभासि राजेव हि सम्मतो मम ॥ १० ॥
युधिष्ठिरस्येव हि दर्शनेन मे
समं तवेदं प्रियमत्र दर्शनम्।
कथं तु भृत्यैः स विनाकृतो वने
वसत्यनिन्द्यो रमते च पाण्डवः ॥ ११ ॥

मूलम्

इदं तवेष्टं यदि वै सुरोपम
ब्रवीहि यत् ते प्रसमीक्षितं वसु।
त तेऽनुरूपं हयकर्म विद्यते
प्रभासि राजेव हि सम्मतो मम ॥ १० ॥
युधिष्ठिरस्येव हि दर्शनेन मे
समं तवेदं प्रियमत्र दर्शनम्।
कथं तु भृत्यैः स विनाकृतो वने
वसत्यनिन्द्यो रमते च पाण्डवः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवोपम पुरुष! यदि यही कार्य तुम्हें प्रिय है, तो बताओ, इसके लिये वेतनरूपसे कितना धन लेनेका तुमने विचार किया है? यह घोड़ोंकी शिक्षाका कार्य तुम्हारे अनुरूप नहीं है। तुम तो राजाकी भाँति शोभा पा रहे हो और मुझे भी अत्यन्त प्रिय लगते हो। आज मुझे तुम्हारा जो यहाँ दर्शन हुआ है, यह राजा युधिष्ठिरके ही दर्शनके समान मुझे अत्यन्त प्रिय है। अहो! सर्वथा प्रशंसाके योग्य पाण्डुनन्दन महाराज युधिष्ठिर सेवकोंके बिना वनमें कैसे रहते होंगे और कैसे उनका मन वहाँ लगता होगा?॥१०-११॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा स गन्धर्ववरोपमो युवा
विराटराज्ञा मुदितेन पूजितः ।
न चैनमन्येऽपि विदुः कथंचन
प्रियाभिरामं विचरन्तमन्तरा ॥ १२ ॥

मूलम्

तथा स गन्धर्ववरोपमो युवा
विराटराज्ञा मुदितेन पूजितः ।
न चैनमन्येऽपि विदुः कथंचन
प्रियाभिरामं विचरन्तमन्तरा ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! इस प्रकार प्रसन्न हुए राजा विराटके द्वारा सम्मानित हो श्रेष्ठ गन्धर्वके सदृश शोभा पानेवाले युवावस्थासम्पन्न नकुल वहाँ रहने लगे। उनका स्वरूप बड़ा ही प्रिय और नयनाभिराम था। वे नगरके भीतर विचरते रहते थे, तो भी उन्हें राजा तथा अन्य मनुष्य किसी प्रकार पहचान न सके॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं हि मत्स्ये न्यवसन्त पाण्डवा
यथाप्रतिज्ञाभिरमोघदर्शनाः ।
अज्ञातचर्यां व्यचरन् समाहिताः
समुद्रनेमीपतयोऽतिदुःखिताः ॥ १३ ॥

मूलम्

एवं हि मत्स्ये न्यवसन्त पाण्डवा
यथाप्रतिज्ञाभिरमोघदर्शनाः ।
अज्ञातचर्यां व्यचरन् समाहिताः
समुद्रनेमीपतयोऽतिदुःखिताः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनका दर्शन अमोघ है, वे पाण्डवगण इस प्रकार अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार मत्स्यदेशमें रहने और एकाग्रतापूर्वक अज्ञातवासका समय व्यतीत करने लगे। वे सागरसे घिरी हुई सम्पूर्ण पृथ्वीके अधिपति होकर भी अत्यन्त कष्ट उठा रहे थे॥१३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि पाण्डवप्रवेशपर्वणि नकुलप्रवेशे द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत पाण्डवप्रवेशपर्वमें नकुलप्रवेशसम्बन्धी बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१२॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल १५ श्लोक हैं।)