०११ अर्जुनेन नृत्यशिक्षाकार्यप्राप्तिः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

एकादशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अर्जुनका राजा विराटसे मिलना और राजाके द्वारा कन्याओंको नृत्य आदिकी शिक्षा देनेके लिये उनको नियुक्त करना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथापरोऽदृश्यत रूपसम्पदा
स्त्रीणामलङ्कारधरो बृहत्पुमान् ।
प्राकारवप्रे प्रतिमुच्य कुण्डले
दीर्घे च कम्बूपरि हाटके शुभे ॥ १ ॥

मूलम्

अथापरोऽदृश्यत रूपसम्पदा
स्त्रीणामलङ्कारधरो बृहत्पुमान् ।
प्राकारवप्रे प्रतिमुच्य कुण्डले
दीर्घे च कम्बूपरि हाटके शुभे ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर नगरकी चहारदीवारीके पीछे जो मिट्टीका ऊँचा टीला था, उसके समीप रूप-सम्पदासे सुशोभित एक दूसरा पुरुष दिखायी दिया। उसका डील-डौल ऊँचा था। उसने स्त्रियोंके लिये उचित आभूषण पहन रखे थे तथा कानोंमें बड़े-बड़े कुण्डल और हाथोंमें शंखकी चूड़ियाँ पहनकर उनके ऊपर सोनेके सुन्दर कंगन धारण कर लिये थे॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाहू च दीर्घान् प्रविकीर्य मूर्धजान्
महाभुजो वारणतुल्यविक्रमः ।
गतेन भूमिं प्रतिकम्पयंस्तदा
विराटमासाद्य सभासमीपतः ॥ २ ॥

मूलम्

बाहू च दीर्घान् प्रविकीर्य मूर्धजान्
महाभुजो वारणतुल्यविक्रमः ।
गतेन भूमिं प्रतिकम्पयंस्तदा
विराटमासाद्य सभासमीपतः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने बड़े-बड़े केशोंकी लटोंको खोलकर हाथोंतक फैलाये वह महाबाहु पुरुष उस समय हाथीके समान मस्तानी चालसे चलता और पग-पगपर मानो पृथ्वीको कँपाता हुआ राजसभाके समीप राजा विराटके पास आकर खड़ा हुआ॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं प्रेक्ष्य राजोपगतं सभातले
व्याजात् प्रतिच्छन्नमरिप्रमाथिनम् ।
विराजमानं परमेण वर्चसा
सुतं महेन्द्रस्य गजेन्द्रविक्रमम् ॥ ३ ॥
सर्वानपृच्छच्च सभानुचारिणः
कुतोऽयमायाति पुरा न मे श्रुतः।
न चैनमूचुर्विदितं तदा नराः
सविस्मयं वाक्यमिदं नृपोऽब्रवीत् ॥ ४ ॥

मूलम्

तं प्रेक्ष्य राजोपगतं सभातले
व्याजात् प्रतिच्छन्नमरिप्रमाथिनम् ।
विराजमानं परमेण वर्चसा
सुतं महेन्द्रस्य गजेन्द्रविक्रमम् ॥ ३ ॥
सर्वानपृच्छच्च सभानुचारिणः
कुतोऽयमायाति पुरा न मे श्रुतः।
न चैनमूचुर्विदितं तदा नराः
सविस्मयं वाक्यमिदं नृपोऽब्रवीत् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

छद्मवेशसे अपने स्वरूपको छिपाकर सभाभवनमें आया हुआ वह शत्रुविजयी वीर पुरुष अपने उत्कृष्ट तेजसे प्रकाशित हो रहा था। गजराजके समान बल-विक्रमवाले उस महेन्द्रपुत्र अर्जुनको देखकर राजाने समस्त सभासदोंसे पूछा—‘यह कहाँसे आया है? आजसे पहले मैंने कभी इसके विषयमें नहीं सुना है।’ राजाके पूछनेपर उन मनुष्योंमेंसे किसीने उस पुरुषको अपना परिचित नहीं बताया। तब राजाने आश्चर्ययुक्त होकर यह बात कहीं—॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्त्वोपपन्नः पुरुषोऽमरोपमः
श्यामो युवा वारणयूथपोपमः ।
आमुच्य कम्बूपरि हाटके शुभे
विमुच्य वेणीमपिनह्य कुण्डले ॥ ५ ॥
स्रग्वी सुकेशः परिधाय चान्यथा
शुशोभ धन्वी कवची शरी यथा।
आरुह्य यानं परिधावतां भवान्
सुतैः समो मे भव वा मया समः ॥ ६ ॥

मूलम्

सत्त्वोपपन्नः पुरुषोऽमरोपमः
श्यामो युवा वारणयूथपोपमः ।
आमुच्य कम्बूपरि हाटके शुभे
विमुच्य वेणीमपिनह्य कुण्डले ॥ ५ ॥
स्रग्वी सुकेशः परिधाय चान्यथा
शुशोभ धन्वी कवची शरी यथा।
आरुह्य यानं परिधावतां भवान्
सुतैः समो मे भव वा मया समः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! तुम शक्ति और धैर्यसे सम्पन्न देवोपम पुरुष हो। तुम्हारी अंगकान्ति श्याम है। तुम तरुण हो और हाथियोंके यूथके अधिपति महान् गजराजके समान शोभा पा रहे हो। तुमने हाथोंमें शंखकी चूड़ियाँ पहनकर उनके ऊपर सोनेके सुन्दर कंगन डाल लिये हैं, वेणी खोलकर केशोंकी लटें छितरा ली हैं तथा कानोंमें कुण्डल धारणकर गलेमें गजरा डाल रखा है। तुम्हारे केश बहुत ही सुन्दर हैं। तुम नारीजनोचित वेश-भूषा धारण करके भी उसके विपरीत धनुष-बाण और कवच धारण करनेवाले वीरके समान शोभा पा रहे हो। तुम रथ आदि वाहनोंपर बैठकर इच्छानुसार भ्रमण करो और मेरे पुत्रोंके अथवा मेरे ही समान होकर रहो॥५-६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृद्धो ह्यहं वै परिहारकामः
सर्वान् मत्स्यांस्तरसा पालयस्व ।
नैवंविधाः क्लीबरूपा भवन्ति
कथंचनेति प्रतिभाति मे मनः ॥ ७ ॥

मूलम्

वृद्धो ह्यहं वै परिहारकामः
सर्वान् मत्स्यांस्तरसा पालयस्व ।
नैवंविधाः क्लीबरूपा भवन्ति
कथंचनेति प्रतिभाति मे मनः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं बूढ़ा हो गया हूँ; अब राजकाज छोड़ना चाहता हूँ; अतः तुम सम्पूर्ण मत्स्यदेशका शीघ्र ही पालन करो। तुम्हारे-जैसे स्वरूपवाले किसी तरह नपुंसक नहीं हो सकते। मेरे मनको ऐसा ही प्रतीत होता है’॥७॥

मूलम् (वचनम्)

(अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेणीं प्रकुर्यां रुचिरे च कुण्डले
तथा स्रजः प्रावरणानि संहरे।
स्नानं चरेयं विमृजे च दर्पणं
विशेषकेष्वेव च कौशलं मम॥
क्लीबेषु बालेषु जनेषु नर्तने
शिक्षाप्रदानेषु च योग्यता मम।
करोमि वेणीषु च पुष्पपूरणं
न मे स्त्रियः कर्मणि कौशलाधिकाः॥

मूलम्

वेणीं प्रकुर्यां रुचिरे च कुण्डले
तथा स्रजः प्रावरणानि संहरे।
स्नानं चरेयं विमृजे च दर्पणं
विशेषकेष्वेव च कौशलं मम॥
क्लीबेषु बालेषु जनेषु नर्तने
शिक्षाप्रदानेषु च योग्यता मम।
करोमि वेणीषु च पुष्पपूरणं
न मे स्त्रियः कर्मणि कौशलाधिकाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन बोले— मैं वेणी-रचना अच्छी कर सकता हूँ, मनोहर कुण्डल बनाना जानता हूँ, फूलोंके हार तथा ओढ़नेकी चादरें सुन्दर ढंगसे बनाता हूँ, स्नान करा सकता हूँ, दर्पणकी सफाई करता हूँ और चन्दन आदिसे अनेक प्रकारकी रेखाएँ बनाकर शृंगार करनेकी क्रियामें मुझे विशेष कुशलता प्राप्त है। नपुंसकों, बालकों एवं साधारण लोगोंमें नाचने तथा संगीत एवं नृत्यकी शिक्षा देनेमें मेरी अच्छी योग्यता है। स्त्रियोंकी वेणीमें फूल गूँथनेका कार्य भी मैं अच्छे ढंगसे सम्पन्न करता हूँ। इन सब कार्योंमें स्त्रियाँ भी मुझसे अधिक कुशल नहीं हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमब्रवीत् प्रांशुमुदीक्ष्य विस्मितो
विराटराजोपसृतं महायशाः ॥

मूलम्

तमब्रवीत् प्रांशुमुदीक्ष्य विस्मितो
विराटराजोपसृतं महायशाः ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निकट आनेपर उसका कद बहुत ऊँचा देखकर महायशस्वी राजा विराट अत्यन्त विस्मित होकर बोले।

मूलम् (वचनम्)

विराट उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नार्हस्तु वेषोऽयमनूर्जितस्ते
नापुंस्त्वमर्हो नरदेवसिंह ।
तवैष वेशोऽशुभवेषभूषणै-
र्विभूषितो भूतपतेरिव प्रभो ॥
विभाति भानोरिव रश्मिमालिनो
घनावरुद्धे गगने घनैरिव ।
धनुर्हि मन्ये तव शोभयेद् भुजौ
तथा हि पीनावतिमात्रमायतौ ॥)

मूलम्

नार्हस्तु वेषोऽयमनूर्जितस्ते
नापुंस्त्वमर्हो नरदेवसिंह ।
तवैष वेशोऽशुभवेषभूषणै-
र्विभूषितो भूतपतेरिव प्रभो ॥
विभाति भानोरिव रश्मिमालिनो
घनावरुद्धे गगने घनैरिव ।
धनुर्हि मन्ये तव शोभयेद् भुजौ
तथा हि पीनावतिमात्रमायतौ ॥)

अनुवाद (हिन्दी)

विराटने कहा— नरदेवसिंह! ओज और बलसे रहित नपुंसकका-सा यह वेष तुम्हारे योग्य नहीं है। तुम क्लीब होनेके योग्य नहीं हो। प्रभो! तुम्हारा यह वेष भगवान् भूतनाथकी भाँति अशुभ वेष-भूषासे विभूषित है। जैसे बादलोंकी घटासे आच्छादित आकाशमें भी अंशुमाली सूर्यका मण्डल सुशोभित होता है, उसी प्रकार इस क्लीबवेषमें भी तुम पौरुषसे प्रकाशित हो रहे हो। मेरा ऐसा विश्वास है कि तुम्हारी इन मोटी और अत्यन्त विशाल भुजाओंको धनुष ही सुशोभित कर सकता है।

मूलम् (वचनम्)

अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गायामि नृत्याम्यथ वादयामि
भद्रोऽस्मि नृत्ये कुशलोऽस्मि गीते।
त्वमुत्तरायै प्रदिशस्व मां स्वयं
भवामि देव्या नरदेव नर्तकः ॥ ८ ॥

मूलम्

गायामि नृत्याम्यथ वादयामि
भद्रोऽस्मि नृत्ये कुशलोऽस्मि गीते।
त्वमुत्तरायै प्रदिशस्व मां स्वयं
भवामि देव्या नरदेव नर्तकः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनने कहा— नरदेव! मैं गाता, नाचता और बाजे बजाता हूँ। नृत्यकलामें निपुण और संगीत-कलामें भी कुशल हूँ। आप उत्तराको शिक्षा देनेके लिये मुझे रख लें। मैं स्वयं राजकुमारी उत्तराको नृत्य सिखलाऊँगा॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं तु रूपं मम येन किं तव
प्रकीर्तयित्वा भृशशोकवर्धनम् ।
बृहन्नलां मां नरदेव विद्धि
सुतं सुतां वा पितृमातृवर्जिताम् ॥ ९ ॥

मूलम्

इदं तु रूपं मम येन किं तव
प्रकीर्तयित्वा भृशशोकवर्धनम् ।
बृहन्नलां मां नरदेव विद्धि
सुतं सुतां वा पितृमातृवर्जिताम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरा ऐसा रूप जिस कारणसे हुआ है, उसे आपके सामने कहनेसे क्या लाभ है? वह अधिक शोक बढ़ानेवाली बात है। राजन्! आप मुझे बृहन्नला समझें और पिता-मातासे रहित पुत्र या पुत्री मान लें॥९॥

मूलम् (वचनम्)

विराट उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ददामि ते हन्त वरं बृहन्नले
सुतां च मे नर्तय याश्च तादृशीः।
इदं तु ते कर्म समं न मे मतं
समुद्रनेमिं पृथिवीं त्वमर्हसि ॥ १० ॥

मूलम्

ददामि ते हन्त वरं बृहन्नले
सुतां च मे नर्तय याश्च तादृशीः।
इदं तु ते कर्म समं न मे मतं
समुद्रनेमिं पृथिवीं त्वमर्हसि ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विराट बोले— बृहन्नले! मैं तुम्हें अभीष्ट वर देता हूँ। तुम मेरी पुत्रीको तथा उसके समान अवस्थावाली अन्य राजकुमारियोंको नृत्यकला सिखलाओ। परंतु मुझे यह कर्म तुम्हारे योग्य नहीं जान पड़ता। तुम तो समुद्रसे घिरी हुई सम्पूर्ण पृथ्वीके शासक होने योग्य हो॥१०॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

बृहन्नलां तामभिवीक्ष्य मत्स्यराट्
कलासु नृत्येषु तथैव वादिते।
सम्मन्त्र्य राजा विविधैः स्वमन्त्रिभिः
परीक्ष्य चैनं प्रमदाभिराशु वै ॥ ११ ॥
अपुंस्त्वमप्यस्य निशम्य च स्थिरं
ततः कुमारीपुरमुत्ससर्ज तम् ।

मूलम्

बृहन्नलां तामभिवीक्ष्य मत्स्यराट्
कलासु नृत्येषु तथैव वादिते।
सम्मन्त्र्य राजा विविधैः स्वमन्त्रिभिः
परीक्ष्य चैनं प्रमदाभिराशु वै ॥ ११ ॥
अपुंस्त्वमप्यस्य निशम्य च स्थिरं
ततः कुमारीपुरमुत्ससर्ज तम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर मत्स्यनरेशने बृहन्नलाकी गीत, नृत्य और बाजे बजानेकी कलाओंमें परीक्षा करके अपने अनेक मन्त्रियोंसे यह सलाह ली कि इसे अन्तःपुरमें रखना चाहिये या नहीं। फिर तरुणी स्त्रियोंद्वारा शीघ्र ही उनके नपुंसकत्वकी जाँच करायी। जब सब तरहसे उनका नपुंसक होना ठीक प्रमाणित हो गया, तब यह सुन-समझकर उन्होंने बृहन्नलाको कन्याके अन्तःपुरमें जानेकी आज्ञा दी॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स शिक्षयामास च गीतवादितं
सुतां विराटस्य धनंजयः प्रभुः ॥ १२ ॥
सखीश्च तस्याः परिचारिकास्तथा
प्रियश्च तासां स बभूव पाण्डवः ॥ १३ ॥
तथा स सत्रेण धनंजयो वसन्
प्रियाणि कुर्वन् सह ताभिरात्मवान्।
तथा च तं तत्र न जज्ञिरे जना
बहिश्चरा वाप्यथ चान्तरेचराः ॥ १४ ॥

मूलम्

स शिक्षयामास च गीतवादितं
सुतां विराटस्य धनंजयः प्रभुः ॥ १२ ॥
सखीश्च तस्याः परिचारिकास्तथा
प्रियश्च तासां स बभूव पाण्डवः ॥ १३ ॥
तथा स सत्रेण धनंजयो वसन्
प्रियाणि कुर्वन् सह ताभिरात्मवान्।
तथा च तं तत्र न जज्ञिरे जना
बहिश्चरा वाप्यथ चान्तरेचराः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शक्तिशाली अर्जुन विराटकन्या उत्तरा, उसकी सखियों तथा सेविकाओंको भी गीत, वाद्य एवं नृत्यकलाकी शिक्षा देने लगे। इससे वे उन सबके प्रिय हो गये। छद्मवेशमें कन्याओंके साथ रहते हुए भी अर्जुन अपने मनको सदा पूर्णरूपसे वशमें रखते और उन सबको प्रिय लगनेवाले कार्य करते थे। इस रूपमें वहाँ रहते हुए अर्जुनको बाहर अथवा अन्तःपुरके कोई भी मनुष्य पहचान न सके॥१२—१४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि पाण्डवप्रवेशपर्वणि अर्जुनप्रवेशो नाम एकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत पाण्डवप्रवेशपर्वमें अर्जुनप्रवेशनामक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥११॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ४ श्लोक मिलाकर कुल १८ श्लोक हैं।)