श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
नवमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
द्रौपदीका सैरन्ध्रीके वेशमें विराटके रनिवासमें जाकर रानी सुदेष्णासे वार्तालाप करना और वहाँ निवास पाना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः केशान् समुत्क्षिप्य वेल्लिताग्राननिन्दितान्।
कृष्णान् सूक्ष्मान् मृदून् दीर्घान् समुद्ग्रथ्य शुचिस्मिता ॥ १ ॥
जुगूहे दक्षिणे पार्श्वे मृदूनसितलोचना।
वासश्च परिधायैकं कृष्णा सुमलिनं महत् ॥ २ ॥
कृत्वा वेषं च सैरन्ध्र्यास्ततो व्यचरदार्तवत्।
मूलम्
ततः केशान् समुत्क्षिप्य वेल्लिताग्राननिन्दितान्।
कृष्णान् सूक्ष्मान् मृदून् दीर्घान् समुद्ग्रथ्य शुचिस्मिता ॥ १ ॥
जुगूहे दक्षिणे पार्श्वे मृदूनसितलोचना।
वासश्च परिधायैकं कृष्णा सुमलिनं महत् ॥ २ ॥
कृत्वा वेषं च सैरन्ध्र्यास्ततो व्यचरदार्तवत्।
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर पवित्र मन्द मुसकान और कजरारे नेत्रोंवाली द्रौपदीने अपने सुन्दर, महीन, कोमल और बड़े-बड़े, काले एवं घुँघराले केशोंकी चोटी गूँथकर उन मृदुल अलकोंको दाहिने भागमें छिपा दिया और एक अत्यन्त मलिन वस्त्र धारण करके सैरन्ध्रीका वेश बनाये वह दीन-दुःखियोंकी भाँति नगरमें विचरने लगी॥१-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां नराः परिधावन्तीं स्त्रियश्च समुपाद्रवन् ॥ ३ ॥
अपृच्छंश्चैव तां दृष्ट्वा का त्वं किं च चिकीर्षसि।
मूलम्
तां नराः परिधावन्तीं स्त्रियश्च समुपाद्रवन् ॥ ३ ॥
अपृच्छंश्चैव तां दृष्ट्वा का त्वं किं च चिकीर्षसि।
अनुवाद (हिन्दी)
उसे इधर-उधर भटकती देख बहुत-सी स्त्रियाँ और पुरुष उसके पास दौड़े आये तथा पूछने लगे—‘तुम कौन हो? और क्या करना चाहती हो?’॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा तानुवाच राजेन्द्र सैरन्ध्र्यहमिहागता ॥ ४ ॥
कर्म चेच्छामि वै कर्तुं तस्य यो मां युयुक्षति।
तस्या रूपेण वेषेण श्लक्ष्णया च तथा गिरा।
न श्रद्दधत तां दासीमन्नहेतोरुपस्थिताम् ॥ ५ ॥
मूलम्
सा तानुवाच राजेन्द्र सैरन्ध्र्यहमिहागता ॥ ४ ॥
कर्म चेच्छामि वै कर्तुं तस्य यो मां युयुक्षति।
तस्या रूपेण वेषेण श्लक्ष्णया च तथा गिरा।
न श्रद्दधत तां दासीमन्नहेतोरुपस्थिताम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! उनके इस प्रकार पूछनेपर द्रौपदीने उनसे कहा—‘मैं सैरन्ध्री1 हूँ। जो मुझे अपने यहाँ नियुक्त करना चाहे, उसीके यहाँ मैं सैरन्ध्रीका कार्य करना चाहती हूँ और इसीलिये यहाँ आयी हूँ।’ उसके रूप, वेष और मधुर वाणीसे किसीको यह विश्वास नहीं हुआ कि यह दासी है और अन्न-वस्त्रके लिये यहाँ उपस्थित हुई है॥४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विराटस्य तु कैकेयी भार्या परमसम्मता।
आलोकयन्ती ददृशे प्रासादाद् द्रुपदात्मजाम् ॥ ६ ॥
मूलम्
विराटस्य तु कैकेयी भार्या परमसम्मता।
आलोकयन्ती ददृशे प्रासादाद् द्रुपदात्मजाम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतनेमें ही राजा विराटकी अत्यन्त प्यारी भार्या केकय-राजकुमारी सुदेष्णाने, जो अपने महलपर खड़ी हुई नगरकी शोभा निहार रही थी, वहींसे द्रुपदकुमारीको देखा॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा समीक्ष्य तथारूपामनाथामेकवाससम् ।
समाहूयाब्रवीद् भद्रे का त्वं किं च चिकीर्षसि ॥ ७ ॥
मूलम्
सा समीक्ष्य तथारूपामनाथामेकवाससम् ।
समाहूयाब्रवीद् भद्रे का त्वं किं च चिकीर्षसि ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह एक वस्त्र धारण किये थी एवं अनाथा-सी जान पड़ती थी। ऐसे दिव्य रूपवाली तरुणीको उस अवस्थामें देखकर रानीने उसे अपने पास बुलाया और पूछा—‘भद्रे! तुम कौन हो और क्या करना चाहती हो?’॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा तामुवाच राजेन्द्र सैरन्ध्र्यहमुपागता।
कर्म चेच्छाम्यहं कर्तुं तस्य यो मां युयुक्षति ॥ ८ ॥
मूलम्
सा तामुवाच राजेन्द्र सैरन्ध्र्यहमुपागता।
कर्म चेच्छाम्यहं कर्तुं तस्य यो मां युयुक्षति ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! तब द्रौपदीने रानी सुदेष्णासे कहा—‘मैं सैरन्ध्री हूँ। जो मुझे अपने यहाँ नियुक्त करना चाहे, उसके यहाँ रहकर मैं सैरन्ध्रीका कार्य करना चाहती हूँ और इसीलिये यहाँ आयी हूँ’॥८॥
मूलम् (वचनम्)
सुदेष्णोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैवंरूपा भवन्त्येव यथा वदसि भामिनि।
प्रेषयन्तीव वै दासीर्दासांश्च विविधान् बहुन् ॥ ९ ॥
मूलम्
नैवंरूपा भवन्त्येव यथा वदसि भामिनि।
प्रेषयन्तीव वै दासीर्दासांश्च विविधान् बहुन् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुदेष्णाने कहा— भामिनि! तुम जैसा कह रही हो, उसपर विश्वास नहीं होता, क्योंकि तुम्हारी-जैसी रूपवती स्त्रियाँ सैरन्ध्री (दासी) नहीं हुआ करतीं। तुम तो बहुत-सी दासियों और नाना प्रकारके बहुतेरे दासोंको आज्ञा देनेवाली रानी-जैसी जान पड़ती हो॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नोच्चगुल्फा संहतोरुस्त्रिगम्भीरा षडुन्नता ।
रक्ता पञ्चसु रक्तेषु हंसगद्गदभाषिणी ॥ १० ॥
सुकेशी सुस्तनी श्यामा पीनश्रोणिपयोधरा।
तेन तेनैव सम्पन्ना काश्मीरीव तुरङ्गमी ॥ ११ ॥
अरालपक्ष्मनयना बिम्बोष्ठी तनुमध्यमा ।
कम्बुग्रीवा गूढशिरा पूर्णचन्द्रनिभानना ॥ १२ ॥
मूलम्
नोच्चगुल्फा संहतोरुस्त्रिगम्भीरा षडुन्नता ।
रक्ता पञ्चसु रक्तेषु हंसगद्गदभाषिणी ॥ १० ॥
सुकेशी सुस्तनी श्यामा पीनश्रोणिपयोधरा।
तेन तेनैव सम्पन्ना काश्मीरीव तुरङ्गमी ॥ ११ ॥
अरालपक्ष्मनयना बिम्बोष्ठी तनुमध्यमा ।
कम्बुग्रीवा गूढशिरा पूर्णचन्द्रनिभानना ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारे गुल्फ ऊँचे नहीं हैं, दोनों जाँघें परस्पर सटी हुई हैं। तुम्हारी नाभि, वाणी और बुद्धि तीनोंमें गम्भीरता है। नाक, कान, आँख, स्तन, नख और घाँटी—इन छहों अंगोंमें ऊँचाई है। हाथों और पैरोंके तलवे, आँखके कोने, ओठ, जिह्वा और नख—इन पाँचों अंगोंमें स्वाभाविक लालिमा है। हंसोंकी भाँति मधुर एवं गद्गद वाणी है। तुम्हारे केश काले और चिकने हैं। स्तन बहुत सुन्दर हैं। अंगकान्ति श्याम है। नितम्ब और उरोज पीन हैं। ऊपर कही हुई प्रत्येक विशेषतासे तुम सम्पन्न हो। काश्मीरदेशकी घोड़ीके समान तुममें अनेक शुभ लक्षण हैं। तुम्हारे नेत्रोंकी पलकें काली और तिरछी हैं। ओष्ठ पके हुए बिम्बफलके समान लाल हैं। कमर पतली है। गर्दन शंखकी शोभाको छीने लेती है। नसें मांससे ढकी हुई हैं तथा मुख पूर्णिमाके चन्द्रमाको लज्जित कर रहा है॥१०—१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शारदोत्पलपत्राक्ष्या शारदोत्पलगन्धया ।
शारदोत्पलसेविन्या रूपेण सदृशी श्रिया ॥ १३ ॥
मूलम्
शारदोत्पलपत्राक्ष्या शारदोत्पलगन्धया ।
शारदोत्पलसेविन्या रूपेण सदृशी श्रिया ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम रूपमें उन्हीं लक्ष्मीके समान हो, जिनके नेत्र शरद्-ऋतुके विकसित कमलदलके समान विशाल हैं, जिनके अंगोंसे शरत्कालीन कमलकी-सी सुगन्ध फैलती रहती है तथा जो शरद्ऋतुके कमलोंका सेवन करती हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
का त्वं ब्रूहि यथा भद्रे नासि दासी कथंचन।
यक्षी वा यदि वा देवी गन्धर्वी यदि वाप्सराः॥१४॥
देवकन्या भुजङ्गी वा नगरस्याथ देवता।
विद्याधरी किन्नरी वा यदि वा रोहिणी स्वयम् ॥ १५ ॥
मूलम्
का त्वं ब्रूहि यथा भद्रे नासि दासी कथंचन।
यक्षी वा यदि वा देवी गन्धर्वी यदि वाप्सराः॥१४॥
देवकन्या भुजङ्गी वा नगरस्याथ देवता।
विद्याधरी किन्नरी वा यदि वा रोहिणी स्वयम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कल्याणी! बताओ, तुम वास्तवमें कौन हो? दासी तो तुम किसी प्रकार भी नहीं हो सकतीं। तुम यक्षी हो या देवी? गन्धर्वकन्या हो या अप्सरा? देवकन्या हो या नागकन्या? अथवा इस नगरकी अधिष्ठात्री देवी तो नहीं हो? विद्याधरी, किन्नरी या साक्षात् चन्द्रदेवकी पत्नी रोहिणी तो नहीं हो?॥१४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अलम्बुषा मिश्रकेशी पुण्डरीकाथ मालिनी।
इन्द्राणी वारुणी वा त्वं त्वष्टुर्धातुः प्रजापतेः।
देव्यो देवेषु विख्यातास्तासां त्वं कतमा शुभे ॥ १६ ॥
मूलम्
अलम्बुषा मिश्रकेशी पुण्डरीकाथ मालिनी।
इन्द्राणी वारुणी वा त्वं त्वष्टुर्धातुः प्रजापतेः।
देव्यो देवेषु विख्यातास्तासां त्वं कतमा शुभे ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम अलम्बुषा, मिश्रकेशी, पुण्डरीका अथवा मालिनी नामकी अप्सरा तो नहीं हो? क्या तुम इन्द्राणी, वारुणी देवी, विश्वकर्माकी पत्नी अथवा प्रजापति ब्रह्माकी शक्ति सावित्री हो? शुभे! देवताओंके यहाँ जो प्रसिद्ध देवियाँ हैं, उनमेंसे तुम कौन हो?॥१६॥
मूलम् (वचनम्)
द्रौपद्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नास्मि देवी न गन्धर्वी नासुरी न च राक्षसी।
सैरन्ध्री तु भुजिष्यास्मि सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ॥ १७ ॥
मूलम्
नास्मि देवी न गन्धर्वी नासुरी न च राक्षसी।
सैरन्ध्री तु भुजिष्यास्मि सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रौपदी बोली— रानीजी! मैं न तो देवी हूँ, न गन्धर्वी; न असुरपत्नी हूँ, न राक्षसी। मैं तो सेवा करनेवाली सैरन्ध्री हूँ। यह मैं आपसे सच-सच कह रही हूँ॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केशान् जानाम्यहं कर्तुं पिंषे साधु विलेपनम्।
मल्लिकोत्पलपद्मानां चम्पकानां तथा शुभे ॥ १८ ॥
ग्रथयिष्ये विचित्राश्च स्रजः परमशोभनाः।
मूलम्
केशान् जानाम्यहं कर्तुं पिंषे साधु विलेपनम्।
मल्लिकोत्पलपद्मानां चम्पकानां तथा शुभे ॥ १८ ॥
ग्रथयिष्ये विचित्राश्च स्रजः परमशोभनाः।
अनुवाद (हिन्दी)
मैं केशोंका शृंगार करना जानती हूँ तथा उबटन या अंगराग बहुत अच्छा पीस लेती हूँ। शुभे! मैं मल्लिका, उत्पल, कमल और चम्पा आदि फूलोंके बहुत सुन्दर एवं विचित्र हार भी गूँथ सकती हूँ॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आराधयं सत्यभामां कृष्णस्य महिषीं प्रियाम् ॥ १९ ॥
कृष्णां च भार्यां पाण्डूनां कुरूणामेकसुन्दरीम्।
मूलम्
आराधयं सत्यभामां कृष्णस्य महिषीं प्रियाम् ॥ १९ ॥
कृष्णां च भार्यां पाण्डूनां कुरूणामेकसुन्दरीम्।
अनुवाद (हिन्दी)
पहले मैं श्रीकृष्णकी प्यारी रानी सत्यभामा तथा कुरुकुलकी एकमात्र सुन्दरी पाण्डवोंकी धर्मपत्नी द्रौपदीकी सेवामें रह चुकी हूँ॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र तत्र चराम्येवं लभमाना सुभोजनम् ॥ २० ॥
वासांसि यावन्ति लभे तावत् तावद् रमे तथा।
मालिनीत्येव मे नाम स्वयं देवी चकार सा।
साहमद्यागता देवि सुदेष्णे त्वन्निवेशनम् ॥ २१ ॥
मूलम्
तत्र तत्र चराम्येवं लभमाना सुभोजनम् ॥ २० ॥
वासांसि यावन्ति लभे तावत् तावद् रमे तथा।
मालिनीत्येव मे नाम स्वयं देवी चकार सा।
साहमद्यागता देवि सुदेष्णे त्वन्निवेशनम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं भिन्न-भिन्न स्थानोंमें सेवा करके उत्तम भोजन पाती हुई विचरती हूँ। मुझे जितने वस्त्र मिल जाते हैं, उतनोंमें ही मैं प्रसन्न रहती हूँ। स्वयं देवी द्रौपदीने मेरा नाम ‘मालिनी’ रख दिया था। देवि सुदेष्णे! आज वही मैं सैरन्ध्री आपके महलमें आयी हूँ॥२०-२१॥
मूलम् (वचनम्)
सुदेष्णोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूर्ध्नि त्वां वासयेयं वै संशयो मे न विद्यते।
न चेदिच्छति राजा त्वां गच्छेत् सर्वेण चेतसा ॥ २२ ॥
मूलम्
मूर्ध्नि त्वां वासयेयं वै संशयो मे न विद्यते।
न चेदिच्छति राजा त्वां गच्छेत् सर्वेण चेतसा ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुदेष्णाने कहा— सुन्दरी! यदि मेरे मनमें संदेह न होता, तो मैं तुम्हें अपने सिर-माथे रख लेती। यदि राजा तुम्हें चाहने न लगें—सम्पूर्ण चित्तसे तुमपर आसक्त न हो जायँ तो तुम्हें रखनेमें मुझे कोई आपत्ति न होगी॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्त्रियो राजकुले याश्च याश्चेमा मम वेश्मनि।
प्रसक्तास्त्वां निरीक्षन्ते पुमांसं कं न मोहयेः ॥ २३ ॥
मूलम्
स्त्रियो राजकुले याश्च याश्चेमा मम वेश्मनि।
प्रसक्तास्त्वां निरीक्षन्ते पुमांसं कं न मोहयेः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस राजकुलमें जितनी स्त्रियाँ हैं तथा मेरे महलमें भी जो ये सुन्दरियाँ हैं, वे सब एकटक तुम्हारी ओर निहार रही हैं; फिर पुरुष कौन ऐसा होगा, जिसे तुम मोहित न कर सको?॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृक्षांश्चावस्थितान् पश्य य इमे मम वेश्मनि।
तेऽपि त्वां संनमन्तीव पुमांसं कं न मोहयेः ॥ २४ ॥
मूलम्
वृक्षांश्चावस्थितान् पश्य य इमे मम वेश्मनि।
तेऽपि त्वां संनमन्तीव पुमांसं कं न मोहयेः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देखो, मेरे भवनमें ये जो वृक्ष खड़े हैं, वे भी तुम्हें देखनेके लिये मानो झुके-से पड़ते हैं। फिर पुरुष कौन ऐसा होगा, जिसे तुम मोहित न कर लो?॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजा विराटः सुश्रोणि दृष्ट्वा वपुरमानुषम्।
विहाय मां वरारोहे गच्छेत् सर्वेण चेतसा ॥ २५ ॥
मूलम्
राजा विराटः सुश्रोणि दृष्ट्वा वपुरमानुषम्।
विहाय मां वरारोहे गच्छेत् सर्वेण चेतसा ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुन्दर नितम्बोंवाली सुन्दरी! तुम्हारे सम्पूर्ण अंग सुन्दर हैं। राजा विराट तुम्हारा यह दिव्य रूप देखते ही मुझे छोड़कर सम्पूर्ण चित्तसे तुम्हींमें आसक्त हो जायँगे॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यं हि त्वमनवद्याङ्गि तरलायतलोचने।
प्रसक्तमभिवीक्षेथाः स कामवशगो भवेत् ॥ २६ ॥
मूलम्
यं हि त्वमनवद्याङ्गि तरलायतलोचने।
प्रसक्तमभिवीक्षेथाः स कामवशगो भवेत् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निर्दोष अंगों तथा चंचल एवं विशाल नेत्रोंवाली सैरन्ध्री! जिस पुरुषकी ओर तुम ध्यानसे देख लोगी, वही कामके अधीन हो जायगा॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यश्च त्वां सततं पश्येत् पुरुषश्चारुहासिनि।
एवं सर्वानवद्याङ्गि स चानङ्गवशो भवेत् ॥ २७ ॥
मूलम्
यश्च त्वां सततं पश्येत् पुरुषश्चारुहासिनि।
एवं सर्वानवद्याङ्गि स चानङ्गवशो भवेत् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुभांगि! चारुहासिनि! इसी प्रकार जो पुरुष प्रतिदिन तुम्हें देखेगा, वह भी कामदेवके वशीभूत हो जायगा॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अध्यारोहेद् यथा वृक्षान् वधायैवात्मनो नरः।
राजवेश्मनि ते सुभ्रु गृहे तु स्यात् तथा मम॥२८॥
मूलम्
अध्यारोहेद् यथा वृक्षान् वधायैवात्मनो नरः।
राजवेश्मनि ते सुभ्रु गृहे तु स्यात् तथा मम॥२८॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुभ्रु! जैसे कोई मूर्ख मनुष्य आत्महत्याके लिये (गिरनेके उद्देश्यसे) वृक्षोंपर चढ़े, उसी प्रकार राजमहलमें या अपने घरमें तुम्हें रखना मेरे लिये अनिष्टकारी हो सकता है॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा च कर्कटी गर्भमाधत्ते मृत्युमात्मनः।
तथाविधमहं मन्ये वासं तव शुचिस्मिते ॥ २९ ॥
मूलम्
यथा च कर्कटी गर्भमाधत्ते मृत्युमात्मनः।
तथाविधमहं मन्ये वासं तव शुचिस्मिते ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुचिस्मिते! जैसे केंकड़ेकी मादा अपने मृत्युके लिये ही गर्भ धारण करती है, उसी प्रकार तुम्हें इस घरमें ठहराना मैं अपने लिये मरणके तुल्य मानती हूँ॥२९॥
मूलम् (वचनम्)
द्रौपद्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नास्मि लभ्या विराटेन न चान्येन कदाचन।
गन्धर्वाः पतयो मह्यं युवानः पञ्च भामिनि ॥ ३० ॥
मूलम्
नास्मि लभ्या विराटेन न चान्येन कदाचन।
गन्धर्वाः पतयो मह्यं युवानः पञ्च भामिनि ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रौपदी बोली— भामिनि! मुझे राजा विराट या दूसरा कोई पुरुष कभी नहीं पा सकता। पाँच तरुण गन्धर्व मेरे पति हैं॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्रा गन्धर्वराजस्य महासत्त्वस्य कस्यचित्।
रक्षन्ति ते च मां नित्यं दुःखाचारा तथा ह्यहम्॥३१॥
मूलम्
पुत्रा गन्धर्वराजस्य महासत्त्वस्य कस्यचित्।
रक्षन्ति ते च मां नित्यं दुःखाचारा तथा ह्यहम्॥३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सब किसी महान् शक्तिशाली गन्धर्वराजके1 पुत्र हैं। वे ही मेरी प्रतिदिन रक्षा करते हैं तथा मैं स्वयं भी दुर्धर्ष हूँ॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो मे न दद्यादुच्छिष्टं न च पादौ प्रधावयेत्।
प्रीणेरंस्तेन वासेन गन्धर्वाः पतयो मम ॥ ३२ ॥
मूलम्
यो मे न दद्यादुच्छिष्टं न च पादौ प्रधावयेत्।
प्रीणेरंस्तेन वासेन गन्धर्वाः पतयो मम ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मुझे जूँठा अन्न नहीं देता और मुझसे अपने पैर नहीं धुलवाता, उसके उस व्यवहारसे मेरे पति गन्धर्वलोग प्रसन्न रहते हैं॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो हि मां पुरुषो गृद्ध्येद् यथान्याः प्राकृताः स्त्रियः।
तामेव निवसेद् रात्रिं प्रविश्य च परां तनुम् ॥ ३३ ॥
मूलम्
यो हि मां पुरुषो गृद्ध्येद् यथान्याः प्राकृताः स्त्रियः।
तामेव निवसेद् रात्रिं प्रविश्य च परां तनुम् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु जो पुरुष मुझे अन्य प्राकृत स्त्रियोंके समान समझकर (बलपूर्वक) प्राप्त करना चाहता है, उसका उसी रातमें परलोकवास हो जाता है॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चाप्यहं चालयितुं शक्या केनचिदङ्गने।
दुःखशीला हि गन्धर्वास्ते च मे बलिनः प्रियाः ॥ ३४ ॥
प्रच्छन्नाश्चापि रक्षन्ति ते मां नित्यं शुचिस्मिते।
मूलम्
न चाप्यहं चालयितुं शक्या केनचिदङ्गने।
दुःखशीला हि गन्धर्वास्ते च मे बलिनः प्रियाः ॥ ३४ ॥
प्रच्छन्नाश्चापि रक्षन्ति ते मां नित्यं शुचिस्मिते।
अनुवाद (हिन्दी)
अतः कल्याणि! मुझे कोई भी सतीत्वसे विचलित नहीं कर सकता। शुचिस्मिते! यद्यपि मेरे पति गन्धर्वगण इस समय दुःखमें पड़े हैं; तथापि वे बड़े बलवान् हैं और गुप्तरूपसे सदा मेरी रक्षा करते रहते हैं॥३४॥
मूलम् (वचनम्)
सुदेष्णोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं त्वां वासयिष्यामि यथा त्वं नन्दिनीच्छसि ॥ ३५ ॥
न च पादौ न चोच्छिष्टं स्प्रक्ष्यसि त्वं कथंचन।
मूलम्
एवं त्वां वासयिष्यामि यथा त्वं नन्दिनीच्छसि ॥ ३५ ॥
न च पादौ न चोच्छिष्टं स्प्रक्ष्यसि त्वं कथंचन।
अनुवाद (हिन्दी)
सुदेष्णाने कहा— आनन्ददायिनी सुन्दरी! यदि (तुम्हारा शील-स्वभाव) ऐसा है, तो मैं जैसी तुम्हारी इच्छा है, उसके अनुसार तुम्हें अवश्य अपने घरमें ठहराऊँगी। तुम्हें किसी प्रकार पैर या जूँठन नहीं छूने पड़ेंगे॥३५॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं कृष्णा विराटस्य भार्यया परिसान्त्विता ॥ ३६ ॥
उवास नगरे तस्मिन् पतिधर्मवती सती।
न चैनां वेद तत्रान्यस्तत्त्वेन जनमेजय ॥ ३७ ॥
मूलम्
एवं कृष्णा विराटस्य भार्यया परिसान्त्विता ॥ ३६ ॥
उवास नगरे तस्मिन् पतिधर्मवती सती।
न चैनां वेद तत्रान्यस्तत्त्वेन जनमेजय ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— विराटकी रानीने जब इस प्रकार आश्वासन दिया, तब पातिव्रत्य धर्मका पालन करनेवाली सती द्रौपदी उस नगरमें रहने लगी। जनमेजय! वहाँ दूसरा कोई मनुष्य उसका वास्तविक परिचय न पा सका॥३६-३७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि पाण्डवप्रवेशपर्वणि द्रौपदीप्रवेशे नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत पाण्डवप्रवेशपर्वमें द्रौपदीप्रवेशसम्बन्धी नवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९॥