श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
अष्टमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
भीमसेनका राजा विराटकी सभामें प्रवेश और राजाके द्वारा आश्वासन पाना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथापरो भीमबलः श्रियाज्वल-
न्नुपाययौ सिंहविलासविक्रमः ।
खजां च दर्बीं च करेण धारय-
न्नसिं च कालाङ्गमकोशमव्रणम् ॥ १ ॥
मूलम्
अथापरो भीमबलः श्रियाज्वल-
न्नुपाययौ सिंहविलासविक्रमः ।
खजां च दर्बीं च करेण धारय-
न्नसिं च कालाङ्गमकोशमव्रणम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर द्वितीय पाण्डव भयंकर बलशाली भीमसेन सिंहकी-सी मस्त चालसे चलते हुए राजाके दरबारमें आये। वे अपने सहज तेजसे प्रकाशित हो रहे थे। उन्होंने हाथमें मथानी, करछी और शाक काटनेके लिये एक काले रंगका तीखी धारवाला छुरा ले रखा था। उनका वह छुरा टूटा-फूटा न था और न उसके ऊपर कोई आवरण था॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स सूदरूपः परमेण वर्चसा
रविर्यथा लोकमिमं प्रकाशयन् ।
स कृष्णवासा गिरिराजसारवां-
स्तं मत्स्यराजं समुपेत्य तस्थिवान् ॥ २ ॥
मूलम्
स सूदरूपः परमेण वर्चसा
रविर्यथा लोकमिमं प्रकाशयन् ।
स कृष्णवासा गिरिराजसारवां-
स्तं मत्स्यराजं समुपेत्य तस्थिवान् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे यद्यपि रसोइयेके वेशमें थे, तो भी अपने उत्कृष्ट तेजसे इस लोकको प्रकाशित करनेवाले सूर्यदेवकी भाँति सुशोभित हो रहे थे। उनके वस्त्र काले थे और उनका शरीर पर्वतराज मेरुके समान सुदृढ़ था। वे मत्स्यराज विराटके समीप आकर खड़े हो गये॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं प्रेक्ष्य राजा रमयन्नुपागतं
ततोऽब्रवीज्जानपदान् समागतान् ।
सिंहोन्नतांसोऽयमतीव रूपवान्
प्रदृश्यते को नु नरर्षभो युवा ॥ ३ ॥
मूलम्
तं प्रेक्ष्य राजा रमयन्नुपागतं
ततोऽब्रवीज्जानपदान् समागतान् ।
सिंहोन्नतांसोऽयमतीव रूपवान्
प्रदृश्यते को नु नरर्षभो युवा ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने पास आये हुए भीमसेनको देखकर उन्हें प्रसन्न करते हुए राजा विराट मत्स्य जनपदके निवासी समागत सभासदोंसे बोले—‘सिंहके समान ऊँचे कंधोंवाला और मनुष्योंमें श्रेष्ठ यह जो अत्यन्त रूपवान् युवक दिखायी दे रहा है; कौन है?॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अदृष्टपूर्वः पुरुषो रविर्यथा
वितर्कयन् नास्य लभामि निश्चयम्।
तथास्य चित्तं ह्यपि संवितर्कयन्
नरर्षभस्यास्य न यामि तत्त्वतः ॥ ४ ॥
मूलम्
अदृष्टपूर्वः पुरुषो रविर्यथा
वितर्कयन् नास्य लभामि निश्चयम्।
तथास्य चित्तं ह्यपि संवितर्कयन्
नरर्षभस्यास्य न यामि तत्त्वतः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आजसे पहले कभी इसका दर्शन नहीं हुआ है। यह वीर पुरुष सूर्यके समान तेजस्वी है। मैं बहुत सोच-विचारकर भी इसके विषयमें किसी निश्चयपर नहीं पहुँच पाता। यहाँ आनेमें इस श्रेष्ठ पुरुषका आन्तरिक अभिप्राय क्या है? इसपर भी मैंने बहुत तर्क-वितर्क किया है; परंतु किसी वास्तविक परिणामतक नहीं पहुँच पा रहा हूँ॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वैव चैनं तु विचारयाम्यहं
गन्धर्वराजो यदि वा पुरंदरः।
जानीत कोऽयं मम दर्शने स्थितो
यदीप्सितं तल्लभतां च मा चिरम् ॥ ५ ॥
मूलम्
दृष्ट्वैव चैनं तु विचारयाम्यहं
गन्धर्वराजो यदि वा पुरंदरः।
जानीत कोऽयं मम दर्शने स्थितो
यदीप्सितं तल्लभतां च मा चिरम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इसे देखकर ही मैं सोचने लगा हूँ कि यह गन्धर्वराज हैं या देवराज इन्द्र? मेरी दृष्टिके सामने खड़ा हुआ यह युवक कौन है, इसका पता लगाओ और यह जो कुछ पाना चाहता हो, वह सब इसे मिल जाना चाहिये; इसमें विलम्ब नहीं होना चाहिये’॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विराटवाक्येन च तेन चोदिता
नरा विराटस्य सुशीघ्रगामिनः ।
उपेत्य कौन्तेयमथाब्रुवंस्तदा
यथा स राजावदताच्युतानुजम् ॥ ६ ॥
मूलम्
विराटवाक्येन च तेन चोदिता
नरा विराटस्य सुशीघ्रगामिनः ।
उपेत्य कौन्तेयमथाब्रुवंस्तदा
यथा स राजावदताच्युतानुजम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा विराटके पूर्वोक्त आदेशसे प्रेरित हो दरबारीलोग शीघ्रतापूर्वक धर्मराज युधिष्ठिरके छोटे भाई कुन्तीपुत्र भीमसेनके समीप गये तथा राजाने जैसे कहा था, उसी प्रकार उनका परिचय पूछा॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो विराटं समुपेत्य पाण्डव-
स्त्वदीनरूपं वचनं महामनाः ।
उवाच सूदोऽस्मि नरेन्द्र बल्लवो
भजस्व मां व्यञ्जनकारमुत्तमम् ॥ ७ ॥
मूलम्
ततो विराटं समुपेत्य पाण्डव-
स्त्वदीनरूपं वचनं महामनाः ।
उवाच सूदोऽस्मि नरेन्द्र बल्लवो
भजस्व मां व्यञ्जनकारमुत्तमम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब महामना पाण्डुनन्दन भीम विराटके अत्यन्त निकट जाकर दीनतारहित वाणीमें बोले—‘नरेन्द्र! मैं रसोइया हूँ। मेरा नाम बल्लव है। मैं बहुत उत्तम व्यंजन बनाता हूँ। आप मुझे अपने यहाँ इस कार्यके लिये रख लीजिये’॥७॥
मूलम् (वचनम्)
विराट उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न सूदतां बल्लव श्रद्दधामि ते
सहस्रनेत्रप्रतिमो विराजसे ।
श्रिया च रूपेण च विक्रमेण च
प्रभाससे त्वं नृवरो नरेष्विव ॥ ८ ॥
मूलम्
न सूदतां बल्लव श्रद्दधामि ते
सहस्रनेत्रप्रतिमो विराजसे ।
श्रिया च रूपेण च विक्रमेण च
प्रभाससे त्वं नृवरो नरेष्विव ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विराट बोले— बल्लव! तुम रसोइये हो, इस बातपर मुझे विश्वास नहीं होता। तुम तो इन्द्रके समान तेजस्वी दिखायी देते हो। अपने अद्भुत रूप, दिव्य शोभा और महान् पराक्रमसे तुम मनुष्योंमें कोई श्रेष्ठ पुरुष अथवा राजा प्रतीत होते हो॥८॥
मूलम् (वचनम्)
भीम उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नरेन्द्र सूदः परिचारकोऽस्मि ते
जानामि सूपान् प्रथमं च केवलान्।
आस्वादिता ये नृपते पुराभवन्
युधिष्ठिरेणापि नृपेण सर्वशः ॥ ९ ॥
मूलम्
नरेन्द्र सूदः परिचारकोऽस्मि ते
जानामि सूपान् प्रथमं च केवलान्।
आस्वादिता ये नृपते पुराभवन्
युधिष्ठिरेणापि नृपेण सर्वशः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेनने कहा— महाराज! मैं रसोई बनानेवाला आपका सेवक हूँ। मैं भाँति-भाँतिके व्यंजन बनाना जानता हूँ जिनका बनाना केवल मुझे ही ज्ञात है। मेरे बनाये हुए व्यंजन उत्तम श्रेणीके होते हैं। राजन्! पहले महाराज युधिष्ठिरने भी उन सब प्रकारके व्यंजनोंका आस्वादन किया है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलेन तुल्यश्च न विद्यते मया
नियुद्धशीलश्च सदैव पार्थिव ।
गजैश्च सिंहैश्च समेयिवानहं
सदा करिष्यामि तवानघ प्रियम् ॥ १० ॥
मूलम्
बलेन तुल्यश्च न विद्यते मया
नियुद्धशीलश्च सदैव पार्थिव ।
गजैश्च सिंहैश्च समेयिवानहं
सदा करिष्यामि तवानघ प्रियम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके सिवा शारीरिक बलमें भी मेरी समता करनेवाला दूसरा कोई नहीं है। भूपाल! मैं सदा कुश्ती लड़नेवाला पहलवान हूँ; हाथियों और सिंहोंसे भी भिड़ जाता हूँ। अनघ! मैं सदा आपको प्रिय लगनेवाला कार्य करूँगा॥१०॥
मूलम् (वचनम्)
विराट उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ददामि ते हन्त वरान् महानसे
तथा च कुर्याः कुशलं प्रभाषसे।
मूलम्
ददामि ते हन्त वरान् महानसे
तथा च कुर्याः कुशलं प्रभाषसे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चैव मन्ये तव कर्म यत् समं
समुद्रनेमिं पृथिवीं त्वमर्हसि ॥ ११ ॥
मूलम्
न चैव मन्ये तव कर्म यत् समं
समुद्रनेमिं पृथिवीं त्वमर्हसि ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विराट बोले— बल्लव! मैं प्रसन्नतापूर्वक तुम्हें अभीष्ट वर देता हूँ। तुम अपनेको भोजन बनानेके काममें कुशल बताते हो, तो मेरी पाकशालामें रहकर वही करो। किंतु मैं यह कार्य तुम्हारे योग्य नहीं समझता। तुम तो समुद्रसे घिरी हुई समूची पृथ्वीका शासन करनेके योग्य हो॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा हि कामो भवतस्तथा कृतं
महानसे त्वं भव मे पुरस्कृतः।
नराश्च ये तत्र समाहिताः पुरा
भवांश्च तेषामधिपो मया कृतः ॥ १२ ॥
मूलम्
तथा हि कामो भवतस्तथा कृतं
महानसे त्वं भव मे पुरस्कृतः।
नराश्च ये तत्र समाहिताः पुरा
भवांश्च तेषामधिपो मया कृतः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथापि जैसी तुम्हारी रुचि है, मैंने वैसा किया है। तुम मेरी पाकशालामें अग्रणी होकर रहो। जो लोग वहाँ पहलेसे नियुक्त हैं, मैंने तुम्हें उन सबका स्वामी बनाया॥१२॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा स भीमो विहितो महानसे
विराटराज्ञो दयितोऽभवद् दृढम् ।
उवास राज्ये न च तं पृथग् जनो
बुबोध तत्रानुचराश्च केचन ॥ १३ ॥
मूलम्
तथा स भीमो विहितो महानसे
विराटराज्ञो दयितोऽभवद् दृढम् ।
उवास राज्ये न च तं पृथग् जनो
बुबोध तत्रानुचराश्च केचन ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! इस प्रकार भीमसेन पाकशालामें नियुक्त हो राजा विराटके अत्यन्त प्रिय व्यक्ति होकर रहने लगे। उस राज्यके किसी भी मनुष्यने उनका रहस्य नहीं जाना और न उस पाकशालाके कोई सेवक ही उन्हें पहचान सके॥१३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि पाण्डवप्रवेशपर्वणि भीमप्रवेशे अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत पाण्डवप्रवेशपर्वमें भीमप्रवेशसम्बन्धी आठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८॥