श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
सप्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
युधिष्ठिरका राजसभामें जाकर विराटसे मिलना और वहाँ आदरपूर्वक निवास पाना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
(ततस्तु ते पुण्यतमां शिवां शुभां
महर्षिगन्धर्वनिषेवितोदकाम् ।
त्रिलोककान्तामवतीर्य जाह्नवी-
मृषींश्च देवांश्च पितॄनतर्पयन् ॥
मूलम्
(ततस्तु ते पुण्यतमां शिवां शुभां
महर्षिगन्धर्वनिषेवितोदकाम् ।
त्रिलोककान्तामवतीर्य जाह्नवी-
मृषींश्च देवांश्च पितॄनतर्पयन् ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते है— राजन्! तदनन्तर पाण्डवोंने परम पवित्र, कल्याणमयी, मंगलस्वरूपा, त्रिभुवनकमनीया गंगामें, जिसके जलका महर्षि और गन्धर्वगण सदा सेवन करते हैं, उतरकर देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंका तर्पण किया।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वरप्रदानं ह्यनुचिन्त्य पार्थिवो
हुताग्निहोत्रः कृतजप्यमङ्गलः ।
दिशं तथैन्द्रीमभितः प्रपेदिवान्
कृताञ्जलिर्धर्ममुपाह्वयच्छनैः ॥
मूलम्
वरप्रदानं ह्यनुचिन्त्य पार्थिवो
हुताग्निहोत्रः कृतजप्यमङ्गलः ।
दिशं तथैन्द्रीमभितः प्रपेदिवान्
कृताञ्जलिर्धर्ममुपाह्वयच्छनैः ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् राजा युधिष्ठिर अग्निहोत्र, जप और मंगलपाठ करके धर्मराजके दिये हुए वरदानका चिन्तन करते हुए पूर्व दिशाकी ओर चले और हाथ जोड़कर धीरे-धीरे धर्मराजका स्मरण करने लगे।
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वरप्रदानं मम दत्तवान् पिता
प्रसन्नचेता वरदः प्रजापतिः ।
जलार्थिनो मे तृषितस्य सोदरा
मया प्रयुक्ता विविशुर्जलाशयम् ॥
मूलम्
वरप्रदानं मम दत्तवान् पिता
प्रसन्नचेता वरदः प्रजापतिः ।
जलार्थिनो मे तृषितस्य सोदरा
मया प्रयुक्ता विविशुर्जलाशयम् ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— मेरे पिता प्रजापति धर्म वरदायक देवता हैं। उन्होंने प्रसन्नचित्त होकर मुझे वर दिया है। मैंने प्याससे पीड़ित हो जलकी इच्छासे अपने भाइयोंको भेजा था। मेरी प्रेरणासे ही वे एक सरोवरमें उतरे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निपातिता यक्षवरेण ते वने
महाहवे वज्रभृतेव दानवाः ।
मया च गत्वा वरदोऽभितोषितो
विवक्षता प्रश्नसमुच्चयं गुरुः ॥
मूलम्
निपातिता यक्षवरेण ते वने
महाहवे वज्रभृतेव दानवाः ।
मया च गत्वा वरदोऽभितोषितो
विवक्षता प्रश्नसमुच्चयं गुरुः ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु उस वनमें श्रेष्ठ यक्षके रूपमें आये हुए उन धर्मराजने मेरे भाइयोंको उसी प्रकार धराशायी कर दिया, जैसे वज्रधारी इन्द्र महान् संग्राममें दानवोंको मार गिराते हैं। तब मैंने वहाँ जाकर उनके प्रश्नोंका उत्तर दे उन वरदायक गुरुरूप पिताको संतुष्ट किया।
विश्वास-प्रस्तुतिः
स मे प्रसन्नो भगवान् वरं ददौ
परिष्वजंश्चाह तथैव सौहृदात् ।
वृणीष्व यद् वाञ्छसि पाण्डुनन्दन
स्थितोऽन्तरिक्षे वरदोऽस्मि पश्यताम् ॥
मूलम्
स मे प्रसन्नो भगवान् वरं ददौ
परिष्वजंश्चाह तथैव सौहृदात् ।
वृणीष्व यद् वाञ्छसि पाण्डुनन्दन
स्थितोऽन्तरिक्षे वरदोऽस्मि पश्यताम् ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय प्रसन्न हो भगवान् धर्मने बड़े स्नेहसे मुझे हृदयसे लगाया और वर देनेके लिये उद्यत हो मुझसे कहा—‘पाण्डुनन्दन! तुम जो कुछ चाहते हो, वह मुझसे माँग लो। मैं तुम्हें वर देनेके लिये आकाशमें खड़ा हूँ। मेरी ओर देखो।’
विश्वास-प्रस्तुतिः
स वै मयोक्तो वरदः पिता प्रभुः
सदैव मे धर्मरता मतिर्भवेत्।
इमे च जीवन्तु ममानुजाः प्रभो
वपुश्च रूपं च बलं तथाप्नुयुः॥
मूलम्
स वै मयोक्तो वरदः पिता प्रभुः
सदैव मे धर्मरता मतिर्भवेत्।
इमे च जीवन्तु ममानुजाः प्रभो
वपुश्च रूपं च बलं तथाप्नुयुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब मैंने अपने वरदायक पिता भगवान् धर्मराजसे कहा—‘प्रभो! मेरी बुद्धि सदा धर्ममें ही लगी रहे तथा ये मेरे छोटे भाई जीवित हो जायँ और पहले-जैसा रूप, युवावस्था एवं बल प्राप्त कर लें।
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षमा च कीर्तिश्च यथेष्टतो भवेद्
व्रतं च सत्यं च समाप्तिरेव च।
वरो ममैषोऽस्तु यथानुकीर्तितो
न तन्मृषा देववरो यदब्रवीत्॥
मूलम्
क्षमा च कीर्तिश्च यथेष्टतो भवेद्
व्रतं च सत्यं च समाप्तिरेव च।
वरो ममैषोऽस्तु यथानुकीर्तितो
न तन्मृषा देववरो यदब्रवीत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हमलोगोंमें इच्छानुसार क्षमा और कीर्ति हो और हम अपने सत्यव्रतको पूर्ण कर लें; यही वर हमें प्राप्त होना चाहिये।’ जैसा कि मैंने बताया, वैसा ही वर उन्होंने दिया। देवेश्वर धर्मने जैसा कहा है, वह कभी मिथ्या नहीं हो सकता।
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवमुक्त्वा धर्मात्मा धर्ममेवानुचिन्तयन् ।
तदैव तत्प्रसादेन रूपमेवाभजत् स्वकम्॥
मूलम्
इत्येवमुक्त्वा धर्मात्मा धर्ममेवानुचिन्तयन् ।
तदैव तत्प्रसादेन रूपमेवाभजत् स्वकम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! ऐसा कहकर धर्मात्मा युधिष्ठिर उस समय धर्मका ही बार-बार चिन्तन करने लगे। तब धर्मदेवके प्रसादसे उन्होंने तत्काल अपने अभीष्ट स्वरूपको प्राप्त कर लिया।
विश्वास-प्रस्तुतिः
स वै द्विजातिस्तरुणस्त्रिदण्डधृक्
कमण्डलूष्णीषधरोऽन्वजायत ।
सुरक्तमाञ्जिष्ठवराम्बरः शिखी
पवित्रपाणिर्ददृशे तदद्भुतम् ॥
मूलम्
स वै द्विजातिस्तरुणस्त्रिदण्डधृक्
कमण्डलूष्णीषधरोऽन्वजायत ।
सुरक्तमाञ्जिष्ठवराम्बरः शिखी
पवित्रपाणिर्ददृशे तदद्भुतम् ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे कमण्डलु और पगड़ी धारण किये त्रिदण्डधारी तरुण ब्राह्मण बन गये। उनके शरीरपर मँजीठके रंगके सुन्दर लाल वस्त्र शोभा पाने लगे तथा मस्तकपर शिखा दिखायी देने लगी। वे हाथमें कुश लिये अद्भुत रूपमें दृष्टिगोचर होने लगे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव तेषामपि धर्मचारिणां
यथेप्सिता ह्याभरणाम्बरस्रजः ।
क्षणेन राजन्नभवन्महात्मनां
प्रशस्तधर्माग्र्यफलाभिकाङ्क्षिणाम् ॥)
मूलम्
तथैव तेषामपि धर्मचारिणां
यथेप्सिता ह्याभरणाम्बरस्रजः ।
क्षणेन राजन्नभवन्महात्मनां
प्रशस्तधर्माग्र्यफलाभिकाङ्क्षिणाम् ॥)
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इसी प्रकार उत्तम धर्मके श्रेष्ठ फलकी अभिलाषा रखनेवाले उन सभी धर्मचारी महात्मा पाण्डवोंको क्षणभरमें उनके अभीष्ट वेशके अनुरूप वस्त्र, आभूषण और माला आदि वस्तुएँ प्राप्त हो गयीं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो विराटं प्रथमं युधिष्ठिरो
राजा सभायामुपविष्टमाव्रजत् ।
वैदूर्यरूपान् प्रतिमुच्य काञ्चना-
नक्षान् स कक्षे परिगृह्य वाससा ॥ १ ॥
मूलम्
ततो विराटं प्रथमं युधिष्ठिरो
राजा सभायामुपविष्टमाव्रजत् ।
वैदूर्यरूपान् प्रतिमुच्य काञ्चना-
नक्षान् स कक्षे परिगृह्य वाससा ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर वैदूर्यके समान हरी, सुवर्णके समान पीली (तथा लाल और काली) चौसरकी गोटियोंसहित पासोंको कपड़ेमें बाँधकर बगलमें दबाये हुए राजा युधिष्ठिर सबसे पहले राजाके दरबारमें गये। उस समय राजा विराट सभामें बैठे थे॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नराधिपो राष्ट्रपतिं यशस्विनं
महायशाः कौरववंशवर्धनः ।
महानुभावो नरराजसत्कृतो
दुरासदस्तीक्ष्णविषो यथोरगः ॥ २ ॥
बलेन रूपेण नरर्षभो महा-
नपूर्वरूपेण यथामरस्तथा ।
महाभ्रजालैरिव संवृतो रवि-
र्यथानलो भस्मवृतश्च वीर्यवान् ॥ ३ ॥
मूलम्
नराधिपो राष्ट्रपतिं यशस्विनं
महायशाः कौरववंशवर्धनः ।
महानुभावो नरराजसत्कृतो
दुरासदस्तीक्ष्णविषो यथोरगः ॥ २ ॥
बलेन रूपेण नरर्षभो महा-
नपूर्वरूपेण यथामरस्तथा ।
महाभ्रजालैरिव संवृतो रवि-
र्यथानलो भस्मवृतश्च वीर्यवान् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे बड़े यशस्वी और मत्स्यराष्ट्रके अधिपति थे। राजा युधिष्ठिर भी महान् यशस्वी, कौरववंशकी मर्यादाको बढ़ानेवाले तथा महानुभाव (अत्यन्त प्रभावशाली) थे। सब राजे-महाराजे उनका सत्कार करते थे। तीखे विषवाले सर्पकी भाँति वे दुर्धर्ष थे। बल और रूपकी दृष्टिसे मनुष्योंमें सबसे श्रेष्ठ और महान् थे। अपने अपूर्व रूपके कारण वे देवताके समान जान पड़ते थे। महामेघमालाओंसे आवृत सूर्य तथा राखमें छिपी हुई अग्निके समान उनका तेजस्वी रूप वेशभूषासे आच्छादित था। वे बड़े पराक्रमी थे॥२-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमापतन्तं प्रसमीक्ष्य पाण्डवं
विराटराडिन्दुमिवाभ्रसंवृतम् ।
समागतं पूर्णशशिप्रभाननं
महानुभावं न चिरेण दृष्टवान् ॥ ४ ॥
मूलम्
तमापतन्तं प्रसमीक्ष्य पाण्डवं
विराटराडिन्दुमिवाभ्रसंवृतम् ।
समागतं पूर्णशशिप्रभाननं
महानुभावं न चिरेण दृष्टवान् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनका मुख पूर्ण चन्द्रमाके समान प्रकाशित हो रहा था। बादलोंसे ढके हुए चन्द्रमाकी भाँति शोभायमान महानुभाव पाण्डुनन्दनको आते देख राजा विराटकी दृष्टि सहसा उनकी ओर आकृष्ट हो गयी। निकट आनेपर शीघ्र ही उन्होंने बड़े गौरसे उनकी ओर देखा॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्त्रिद्विजान् सूतमुखान् विशस्तथा
ये चापि केचित् परितः समासते।
पप्रच्छ कोऽयं प्रथमं समेयिवान्
नृपोपमोऽयं समवेक्षते सभाम् ॥ ५ ॥
मूलम्
मन्त्रिद्विजान् सूतमुखान् विशस्तथा
ये चापि केचित् परितः समासते।
पप्रच्छ कोऽयं प्रथमं समेयिवान्
नृपोपमोऽयं समवेक्षते सभाम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मन्त्री, ब्राह्मण, सूत-मागध आदि, वैश्यगण तथा अन्य जो कोई भी सभासद् उनके दायें-बायें सब ओर बैठे थे, उन सबसे राजाने पूछा—‘ये कौन हैं? जो पहले-पहल यहाँ पधारे हैं? ये तो किसी राजाकी भाँति मेरी सभाको निहार रहे हैं’॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तु द्विजोऽयं भविता नरोत्तमः
पतिः पृथिव्या इति मे मनोगतम्।
न चास्य दासो न रथो न कुञ्जरः
समीपतो भ्राजति चायमिन्द्रवत् ॥ ६ ॥
मूलम्
न तु द्विजोऽयं भविता नरोत्तमः
पतिः पृथिव्या इति मे मनोगतम्।
न चास्य दासो न रथो न कुञ्जरः
समीपतो भ्राजति चायमिन्द्रवत् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनका वेश तो ब्राह्मणका-सा है, किंतु ये ब्राह्मण नहीं हो सकते। ये नरश्रेष्ठ तो कहींके भूपति ही होंगे; ऐसा विचार मेरे मनमें उठ रहा है। परंतु इनके साथ दास, रथ और हाथी-घोड़े आदि कुछ भी नहीं हैं। फिर भी ये निकटसे इन्द्रके समान सुशोभित हो रहे हैं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरीरलिङ्गैरुपसूचितो ह्ययं
मूर्द्धाभिषिक्त इति मे मनोगतम्।
समीपमायाति च मे गतव्यथो
यथा गजस्तामरसीं मदोत्कटः ॥ ७ ॥
मूलम्
शरीरलिङ्गैरुपसूचितो ह्ययं
मूर्द्धाभिषिक्त इति मे मनोगतम्।
समीपमायाति च मे गतव्यथो
यथा गजस्तामरसीं मदोत्कटः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इनके शरीरमें जो लक्षण दृष्टिगोचर हो रहे हैं, उनसे यह सूचित होता है कि ये मूर्द्धाभिषिक्त सम्राट् हैं। मेरे मनमें तो यही बात आती है। जैसे मतवाला हाथी बेखटके किसी कमलिनीके पास जाता हो, उसी प्रकार ये बिना किसी संकोचके—व्यथारहित होकर मेरी सभामें आ रहे हैं’॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वितर्कयन्तं तु नरर्षभस्तथा
युधिष्ठिरोऽभ्येत्य विराटमब्रवीत् ।
सम्राड्विजानात्विह जीवनार्थिनं
विनष्टसर्वस्वमुपागतं द्विजम् ॥ ८ ॥
मूलम्
वितर्कयन्तं तु नरर्षभस्तथा
युधिष्ठिरोऽभ्येत्य विराटमब्रवीत् ।
सम्राड्विजानात्विह जीवनार्थिनं
विनष्टसर्वस्वमुपागतं द्विजम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार तर्क-वितर्कमें पड़े हुए राजा विराटके पास आकर नरश्रेष्ठ युधिष्ठिरने कहा—‘महाराज! आपको विदित हो; मैं एक ब्राह्मण हूँ, मेरा सर्वस्व नष्ट हो गया है; अतः मैं आपके यहाँ जीवननिर्वाहके लिये आया हूँ॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहाहमिच्छामि तवानघान्तिके
वस्तुं यथा कामचरस्तथा विभो।
तमब्रवीत् स्वागतमित्यनन्तरं
राजा प्रहृष्टः प्रतिसंगृहाण च ॥ ९ ॥
तं राजसिंहं प्रतिगृह्य राजा
प्रीत्याऽऽत्मना चैनमिदं बभाषे ।
कामेन ताताभिवदाम्यहं त्वां
कस्यासि राज्ञो विषयादिहागतः ॥ १० ॥
मूलम्
इहाहमिच्छामि तवानघान्तिके
वस्तुं यथा कामचरस्तथा विभो।
तमब्रवीत् स्वागतमित्यनन्तरं
राजा प्रहृष्टः प्रतिसंगृहाण च ॥ ९ ॥
तं राजसिंहं प्रतिगृह्य राजा
प्रीत्याऽऽत्मना चैनमिदं बभाषे ।
कामेन ताताभिवदाम्यहं त्वां
कस्यासि राज्ञो विषयादिहागतः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अनघ! मैं यहाँ आपके समीप रहना चाहता हूँ। प्रभो! जैसी आपकी इच्छा होगी, उसी प्रकार सब कार्य करते हुए मैं यहाँ रहूँगा।’ युधिष्ठिरकी बात सुनकर राजा विराट बहुत प्रसन्न हुए और बोले—‘ब्रह्मन्! आपका स्वागत है।’ तदनन्तर उन्होंने राजाओंमें श्रेष्ठ युधिष्ठिरको सादर ग्रहण किया। ग्रहण करके राजा विराटने प्रसन्न मनसे उनसे इस प्रकार कहा—‘तात! मैं प्रेमपूर्वक आपसे पूछता हूँ, आप इस समय किस राजाके राज्यसे यहाँ आये हैं?॥९-१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोत्रं च नामापि च शंस तत्त्वतः
किं चापि शिल्पं तव विद्यते कृतम् ॥ ११ ॥
मूलम्
गोत्रं च नामापि च शंस तत्त्वतः
किं चापि शिल्पं तव विद्यते कृतम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अपने गोत्र और नाम भी ठीक-ठीक बताइये। साथ ही यह भी कहें कि आपने किस विद्या या कलामें कुशलता प्राप्त की है॥११॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
युधिष्ठिरस्यासमहं पुरा सखा
वैयाघ्रपद्यः पुनरस्मि विप्रः ।
अक्षान् प्रयोक्तुं कुशलोऽस्मि देविनां
कङ्केति नाम्नास्मि विराट विश्रुतः ॥ १२ ॥
मूलम्
युधिष्ठिरस्यासमहं पुरा सखा
वैयाघ्रपद्यः पुनरस्मि विप्रः ।
अक्षान् प्रयोक्तुं कुशलोऽस्मि देविनां
कङ्केति नाम्नास्मि विराट विश्रुतः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने कहा— महाराज विराट! मैं वैयाघ्रपद-गोत्रमें उत्पन्न हुआ ब्राह्मण हूँ। लोगोंमें ‘कंक’ नामसे मेरी प्रसिद्धि है। मैं पहले राजा युधिष्ठिरके साथ रहता था। वे मुझे अपना सखा मानते थे। मैं चौसर खेलनेवालोंके बीच पासे फेंकनेकी कलामें कुशल हूँ॥१२॥
मूलम् (वचनम्)
विराट उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ददामि ते हन्त वरं यमिच्छसि
प्रशाधि मत्स्यान् वशगो ह्यहं तव।
प्रियाश्च धूर्ता मम देविनः सदा
भवांश्च देवोपम राज्यमर्हति ॥ १३ ॥
मूलम्
ददामि ते हन्त वरं यमिच्छसि
प्रशाधि मत्स्यान् वशगो ह्यहं तव।
प्रियाश्च धूर्ता मम देविनः सदा
भवांश्च देवोपम राज्यमर्हति ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विराट बोले— ब्रह्मन्! मैं आपको वर देता हूँ; आप जो चाहें, माँग लें। समूचे मत्स्यदेशपर शासन करें। मैं आपके वशमें हूँ; क्योंकि द्यूतक्रीडामें निपुण, चतुर, चालाक मनुष्य मुझे सदा प्रिय हैं। देवोपम ब्राह्मण! आप तो राज्य पानेके योग्य हैं॥१३॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राप्तो विवादः प्रथमं विशाम्पते
न विद्यते कं च न मत्स्य हीनतः।
न मे जितः कश्चन धारयेद् धनं
वरो ममैषोऽस्तु तव प्रसादजः ॥ १४ ॥
मूलम्
प्राप्तो विवादः प्रथमं विशाम्पते
न विद्यते कं च न मत्स्य हीनतः।
न मे जितः कश्चन धारयेद् धनं
वरो ममैषोऽस्तु तव प्रसादजः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने कहा— मत्स्यराज! नरनाथ! मुझे किसी हीन वर्णके मनुष्यसे विवाद न करना पड़े, यह मैं पहला वर माँगता हूँ तथा मुझसे पराजित होनेवाला कोई भी मनुष्य हारे हुए धनको अपने पास न रखे (मुझे दे दे)। आपकी कृपासे यह दूसरा वर मुझे प्राप्त हो जाय, तो मैं रह सकता हूँ॥१४॥
मूलम् (वचनम्)
विराट उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
हन्यामवश्यं यदि तेऽप्रियं चरेत्
प्रव्राजयेयं विषयाद् द्विजांस्तथा ।
शृण्वन्तु मे जानपदाः समागताः
कङ्को यथाहं विषये प्रभुस्तथा ॥ १५ ॥
मूलम्
हन्यामवश्यं यदि तेऽप्रियं चरेत्
प्रव्राजयेयं विषयाद् द्विजांस्तथा ।
शृण्वन्तु मे जानपदाः समागताः
कङ्को यथाहं विषये प्रभुस्तथा ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विराट बोले— ब्रह्मन्! यदि कोई ब्राह्मणेतर मनुष्य आपका अप्रिय करेगा तो उसे मैं निश्चय ही प्राण-दण्ड दूँगा। यदि ब्राह्मणोंने आपका अपराध किया तो उन्हें देशसे निकाल दूँगा। [युधिष्ठिरसे ऐसा कहकर राजा विराट अन्य सभासदोंसे बोले—] मेरे राज्यमें निवास करनेवाले और इस सभामें आये हुए लोगो! मेरी बात सुनो, जैसे मैं इस मत्स्यदेशका स्वामी हूँ, वैसे ही ये कंक भी हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समानयानो भवितासि मे सखा
प्रभूतवस्त्रो बहुपानभोजनः ।
पश्येस्त्वमन्तश्च बहिश्च सर्वदा
कृतं च ते द्वारमपावृतं मया ॥ १६ ॥
मूलम्
समानयानो भवितासि मे सखा
प्रभूतवस्त्रो बहुपानभोजनः ।
पश्येस्त्वमन्तश्च बहिश्च सर्वदा
कृतं च ते द्वारमपावृतं मया ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
[फिर वे युधिष्ठिरसे बोले—] कंक! आजसे आप मेरे सखा हैं। जैसी सवारीमें मैं चलता हूँ, वैसी ही आपको भी मिलेगी। पहननेके वस्त्र और भोजन-पान आदिका प्रबन्ध भी आपके लिये पर्याप्त मात्रामें रहेगा। बाहरके राज्य-कोश, उद्यान और सेना आदि तथा भीतरके धन-दारा आदिकी भी देख-भाल आप ही करें। मेरे आदेशसे आपके लिये राजमहलका द्वार सदा खुला रहेगा; आपसे कोई परदा नहीं रखा जायगा॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये त्वानुवादेऽयुरवृत्तिकर्शिता
ब्रूयाश्च तेषां वचनेन मां सदा।
दास्यामि सर्वं तदहं न संशयो
न ते भयं विद्यति संनिधौ मम ॥ १७ ॥
मूलम्
ये त्वानुवादेऽयुरवृत्तिकर्शिता
ब्रूयाश्च तेषां वचनेन मां सदा।
दास्यामि सर्वं तदहं न संशयो
न ते भयं विद्यति संनिधौ मम ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग जीविकाके अभावमें कष्ट पा रहे हों और अनुवादके लिये अर्थात् पहलेके स्थायी तौरपर दिये हुए खेत और बगीचे आदिको पुनः उपयोगमें लानेके निमित्त नूतन राजाज्ञा प्राप्त करनेके लिये आपके पास आवें, उनके अनुरोधपूर्ण वचनसे आप सदा उनकी प्रार्थना मुझे सुना सकते हैं। विश्वास रखिये, आपके कथनानुसार उन याचकोंको मैं सब कुछ दूँगा; इसमें संशय नहीं है। आपको मेरे पास आने या कुछ कहनेमें भयभीत होनेकी आवश्यकता नहीं है॥१७॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
(एवं तु राज्ञः प्रथमः समागमो
बभूव मात्स्यस्य युधिष्ठिरस्य च।
विराटराजस्य हि तेन संगमो
बभूव विष्णोरिव वज्रपाणिना ॥
मूलम्
(एवं तु राज्ञः प्रथमः समागमो
बभूव मात्स्यस्य युधिष्ठिरस्य च।
विराटराजस्य हि तेन संगमो
बभूव विष्णोरिव वज्रपाणिना ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! इस प्रकार वहाँ राजा युधिष्ठिर तथा मत्स्यनरेशकी प्रथम भेंट हुई। जैसे भगवान् विष्णुका वज्रधारी इन्द्रसे मिलन हुआ हो, उसी प्रकार विराटनरेशका राजा युधिष्ठिरके साथ समागम हुआ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमासनस्थं प्रियरूपदर्शनं
निरीक्षमाणो न ततर्प भूमिपः।
सभां च तां प्रज्वलयन् युधिष्ठिरः
श्रिया यथा शक्र इव त्रिविष्टपम्॥)
मूलम्
तमासनस्थं प्रियरूपदर्शनं
निरीक्षमाणो न ततर्प भूमिपः।
सभां च तां प्रज्वलयन् युधिष्ठिरः
श्रिया यथा शक्र इव त्रिविष्टपम्॥)
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरके स्वरूपका दर्शन विराटराजको बहुत प्रिय लगा। जब वे आसनपर बैठ गये, तब राजा विराट उन्हें एकटक निहारने लगे। उनके दर्शनसे वे तृप्त ही नहीं होते थे। जैसे इन्द्र अपनी कान्तिसे स्वर्गकी शोभा बढ़ाते हैं, उसी प्रकार राजा युधिष्ठिर उस सभाको प्रकाशित कर रहे थे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं स लब्ध्वा तु वरं समागमं
विराटराजेन नरर्षभस्तदा ।
उवास धीरः परमार्चितः सुखी
न चापि कश्चिच्चरितं बुबोध तत् ॥ १८ ॥
मूलम्
एवं स लब्ध्वा तु वरं समागमं
विराटराजेन नरर्षभस्तदा ।
उवास धीरः परमार्चितः सुखी
न चापि कश्चिच्चरितं बुबोध तत् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धीर स्वभाववाले नरश्रेष्ठ युधिष्ठिर उस समय राजा विराटके साथ इस प्रकार अच्छे ढंगसे मिलकर और उनके द्वारा परम आदर-सत्कार पाकर वहाँ सुखपूर्वक रहने लगे। उनका वह चरित्र किसीको भी मालूम नहीं हुआ॥१८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि पाण्डवप्रवेशपर्वणि युधिष्ठिरप्रवेशो नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत पाण्डवप्रवेशपर्वमें युधिष्ठिरप्रवेशविषयक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १२ श्लोक मिलाकर कुल ३० श्लोक हैं।)