श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
षष्ठोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
युधिष्ठिरद्वारा दुर्गादेवीकी स्तुति और देवीका प्रत्यक्ष प्रकट होकर उन्हें वर देना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
विराटनगरं रम्यं गच्छमानो युधिष्ठिरः।
अस्तुवन्मनसा देवीं दुर्गां त्रिभुवनेश्वरीम् ॥ १ ॥
मूलम्
विराटनगरं रम्यं गच्छमानो युधिष्ठिरः।
अस्तुवन्मनसा देवीं दुर्गां त्रिभुवनेश्वरीम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! विराटके रमणीय नगरमें प्रवेश करते समय महाराज युधिष्ठिरने मन-ही-मन त्रिभुवनकी अधीश्वरी दुर्गादेवीका इस प्रकार स्तवन किया—॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यशोदागर्भसम्भूतां नारायणवरप्रियाम् ।
नन्दगोपकुले जातां मङ्गल्यां कुलवर्धिनीम् ॥ २ ॥
कंसविद्रावणकरीमसुराणां क्षयंकरीम् ।
शिलातटविनिक्षिप्तामाकाशं प्रति गामिनीम् ॥ ३ ॥
वासुदेवस्य भगिनीं दिव्यमाल्यविभूषिताम् ।
दिव्याम्बरधरां देवीं खड्गखेटकधारिणीम् ॥ ४ ॥
मूलम्
यशोदागर्भसम्भूतां नारायणवरप्रियाम् ।
नन्दगोपकुले जातां मङ्गल्यां कुलवर्धिनीम् ॥ २ ॥
कंसविद्रावणकरीमसुराणां क्षयंकरीम् ।
शिलातटविनिक्षिप्तामाकाशं प्रति गामिनीम् ॥ ३ ॥
वासुदेवस्य भगिनीं दिव्यमाल्यविभूषिताम् ।
दिव्याम्बरधरां देवीं खड्गखेटकधारिणीम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो यशोदाके गर्भसे प्रकट हुई है, जो भगवान् नारायणको अत्यन्त प्रिय है, नन्दगोपके कुलमें जिसने अवतार लिया है, जो सबका मंगल करनेवाली तथा कुलको बढ़ानेवाली है, जो कंसको भयभीत करनेवाली और असुरोंका संहार करनेवाली है, कंसके द्वारा पत्थरकी शिलापर पटकी जानेपर जो आकाशमें उड़ गयी थी, जिसके अंग दिव्य गन्धमाला एवं आभूषणोंसे विभूषित हैं, जिसने दिव्य वस्त्र धारण कर रखा है, जो हाथोंमें ढाल और तलवार धारण करती है, वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णकी भगिनी उस दुर्गादेवीका मैं चिन्तन करता हूँ॥२—४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भारावतरणे पुण्ये ये स्मरन्ति सदाशिवाम्।
तान् वै तारयसे पापात् पङ्के गामिव दुर्बलाम् ॥ ५ ॥
मूलम्
भारावतरणे पुण्ये ये स्मरन्ति सदाशिवाम्।
तान् वै तारयसे पापात् पङ्के गामिव दुर्बलाम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पृथ्वीका भार उतारनेवाली पुण्यमयी देवि! तुम सदा सबका कल्याण करनेवाली हो। जो लोग तुम्हारा स्मरण करते हैं, निश्चय ही तुम उन्हें पाप और उसके फलस्वरूप होनेवाले दुःखसे उबार लेती हो; ठीक उसी तरह, जैसे कोई पुरुष कीचड़में फँसी हुई दुर्बल गायका उद्धार कर देता है’॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्तोतुं प्रचक्रमे भूयो विविधैः स्तोत्रसम्भवैः।
आमन्त्र्य दर्शनाकाङ्क्षी राजा देवीं सहानुजः ॥ ६ ॥
नमोऽस्तु वरदे कृष्णे कुमारि ब्रह्मचारिणि।
बालार्कसदृशाकारे पूर्णचन्द्रनिभानने ॥ ७ ॥
मूलम्
स्तोतुं प्रचक्रमे भूयो विविधैः स्तोत्रसम्भवैः।
आमन्त्र्य दर्शनाकाङ्क्षी राजा देवीं सहानुजः ॥ ६ ॥
नमोऽस्तु वरदे कृष्णे कुमारि ब्रह्मचारिणि।
बालार्कसदृशाकारे पूर्णचन्द्रनिभानने ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् भाइयोंसहित राजा युधिष्ठिरने देवीके दर्शनकी अभिलाषा रखकर नाना प्रकारके स्तुतिपरक नामोंद्वारा उन्हें सम्बोधित करके पुनः उनकी स्तुति प्रारम्भ की—‘इच्छानुसार उत्तम वर देनेवाली देवि! तुम्हें नमस्कार है। सच्चिदानन्दमयी कृष्णे! तुम कुमारी और ब्रह्मचारिणी हो। तुम्हारी अंगकान्ति प्रभातकालीन सूर्यके सदृश लाल है। तुम्हारा मुख पूर्णिमाके चन्द्रमाकी भाँति आह्लाद प्रदान करनेवाला है॥६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्भुजे चतुर्वक्त्रे पीनश्रोणिपयोधरे ।
मयूरपिच्छवलये केयूराङ्गदधारिणि ।
भासि देवि यथा पद्मा नारायणपरिग्रहः ॥ ८ ॥
स्वरूपं ब्रह्मचर्यं च विशदं गगनेश्वरी।
कृष्णच्छविसमा कृष्णा संकर्षणसमानना ॥ ९ ॥
मूलम्
चतुर्भुजे चतुर्वक्त्रे पीनश्रोणिपयोधरे ।
मयूरपिच्छवलये केयूराङ्गदधारिणि ।
भासि देवि यथा पद्मा नारायणपरिग्रहः ॥ ८ ॥
स्वरूपं ब्रह्मचर्यं च विशदं गगनेश्वरी।
कृष्णच्छविसमा कृष्णा संकर्षणसमानना ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम चार भुजाओंसे सुशोभित विष्णुरूपा और चार मुखोंसे अलंकृत ब्रह्मस्वरूपा हो। तुम्हारे नितम्ब और उरोज पीन हैं। तुमने मोरपंखका कंगन धारण किया है तथा केयूर और अंगद पहन रखे हैं। देवि! भगवान् नारायणकी धर्मपत्नी लक्ष्मीजीके समान तुम्हारी शोभा हो रही है। आकाशमें विचरनेवाली देवि! तुम्हारा स्वरूप और ब्रह्मचर्य परम उज्ज्वल है। श्यामसुन्दर श्रीकृष्णकी छबिके समान तुम्हारी श्याम कान्ति है, इसीलिये तुम कृष्णा कहलाती हो। तुम्हारा मुख संकर्षणके समान है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिभ्रती विपुलौ बाहू शक्रध्वजसमुच्छ्रयौ।
पात्री च पङ्कजी घण्टी स्त्रीविशुद्धा च या भुवि॥१०॥
पाशं धनुर्महाचक्रं विविधान्यायुधानि च।
कुण्डलाभ्यां सुपूर्णाभ्यां कर्णाभ्यां च विभूषिता ॥ ११ ॥
चन्द्रविस्पर्द्धिना देवि मुखेन त्वं विराजसे।
मुकुटेन विचित्रेण केशबन्धेन शोभिना ॥ १२ ॥
भुजङ्गाभोगवासेन श्रोणिसूत्रेण राजता ।
विभ्राजसे चाबद्धेन भोगेनेवेह मन्दरः ॥ १३ ॥
मूलम्
बिभ्रती विपुलौ बाहू शक्रध्वजसमुच्छ्रयौ।
पात्री च पङ्कजी घण्टी स्त्रीविशुद्धा च या भुवि॥१०॥
पाशं धनुर्महाचक्रं विविधान्यायुधानि च।
कुण्डलाभ्यां सुपूर्णाभ्यां कर्णाभ्यां च विभूषिता ॥ ११ ॥
चन्द्रविस्पर्द्धिना देवि मुखेन त्वं विराजसे।
मुकुटेन विचित्रेण केशबन्धेन शोभिना ॥ १२ ॥
भुजङ्गाभोगवासेन श्रोणिसूत्रेण राजता ।
विभ्राजसे चाबद्धेन भोगेनेवेह मन्दरः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम (वर और अभय मुद्रा धारण करनेवाली) ऊपर उठी हुई दो विशाल भुजाओंको इन्द्रकी ध्वजाके समान धारण करती हो। तुम्हारे तीसरे हाथमें पात्र, चौथेमें कमल और पाँचवेंमें घण्टा सुशोभित है। छठे हाथमें पाश, सातवेंमें धनुष तथा आठवेंमें महान् चक्र शोभा पाता है। ये ही तुम्हारे नाना प्रकारके आयुध हैं। इस पृथ्वीपर स्त्रीका जो विशुद्ध स्वरूप है, वह तुम्हीं हो। कुण्डलमण्डित कर्णयुगल तुम्हारे मुखमण्डलकी शोभा बढ़ाते हैं। देवि! तुम चन्द्रमासे होड़ लेनेवाले मुखसे सुशोभित होती हो। तुम्हारे मस्तकपर विचित्र मुकुट है। बँधे हुए केशोंकी वेणी साँपकी आकृतिके समान कुछ और ही शोभा दे रही है। यहाँ कमरमें बँधी हुई सुन्दर करधनीके द्वारा तुम्हारी ऐसी शोभा हो रही है, मानो नागसे लपेटा हुआ मन्दराचल हो॥१०—१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ध्वजेन शिखिपिच्छानामुच्छ्रितेन विराजसे ।
कौमारं व्रतमास्थाय त्रिदिवं पावितं त्वया ॥ १४ ॥
मूलम्
ध्वजेन शिखिपिच्छानामुच्छ्रितेन विराजसे ।
कौमारं व्रतमास्थाय त्रिदिवं पावितं त्वया ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम्हारी मयूरपिच्छसे चिह्नित ध्वजा आकाशमें ऊँची फहरा रही है। उससे तुम्हारी शोभा और भी बढ़ गयी है। तुमने ब्रह्मचर्यव्रत धारण करके तीनों लोकोंको पवित्र कर दिया है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन त्वं स्तूयसे देवि त्रिदशैः पूज्यसेऽपि च।
त्रैलोक्यरक्षणार्थाय महिषासुरनाशिनि ।
प्रसन्ना मे सुरश्रेष्ठे दयां कुरु शिवा भव ॥ १५ ॥
मूलम्
तेन त्वं स्तूयसे देवि त्रिदशैः पूज्यसेऽपि च।
त्रैलोक्यरक्षणार्थाय महिषासुरनाशिनि ।
प्रसन्ना मे सुरश्रेष्ठे दयां कुरु शिवा भव ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देवि! इसीलिये सम्पूर्ण देवता तुम्हारी स्तुति और पूजा भी करते हैं। तीनों लोकोंकी रक्षाके लिये महिषासुरका नाश करनेवाली देवेश्वरी! मुझपर प्रसन्न होकर दया करो। मेरे लिये कल्याणमयी हो जाओ॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जया त्वं विजया चैव संग्रामे च जयप्रदा।
ममापि विजयं देहि वरदा त्वं च साम्प्रतम् ॥ १६ ॥
मूलम्
जया त्वं विजया चैव संग्रामे च जयप्रदा।
ममापि विजयं देहि वरदा त्वं च साम्प्रतम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम जया और विजया हो। तुम्हीं संग्राममें विजय देनेवाली हो, अतः मुझे भी विजय दो। इस समय तुम मेरे लिये वरदायिनी हो जाओ॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विन्ध्ये चैव नगश्रेष्ठे तव स्थानं हि शाश्वतम्।
कालि कालि महाकालि खड्गखट्वाङ्गधारिणि ॥ १७ ॥
मूलम्
विन्ध्ये चैव नगश्रेष्ठे तव स्थानं हि शाश्वतम्।
कालि कालि महाकालि खड्गखट्वाङ्गधारिणि ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पर्वतोंमें श्रेष्ठ विन्ध्याचलपर तुम्हारा सनातन निवासस्थान है। काली! काली!! महाकाली!!! तुम खड्ग और खट्वांग धारण करनेवाली हो॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतानुयात्रा भूतैस्त्वं वरदा कामचारिणि।
भारावतारे ये च त्वां संस्मरिष्यन्ति मानवाः ॥ १८ ॥
प्रणमन्ति च ये त्वां हि प्रभाते तु नरा भुवि।
न तेषां दुर्लभं किंचित् पुत्रतो धनतोऽपि वा ॥ १९ ॥
मूलम्
कृतानुयात्रा भूतैस्त्वं वरदा कामचारिणि।
भारावतारे ये च त्वां संस्मरिष्यन्ति मानवाः ॥ १८ ॥
प्रणमन्ति च ये त्वां हि प्रभाते तु नरा भुवि।
न तेषां दुर्लभं किंचित् पुत्रतो धनतोऽपि वा ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो प्राणी तुम्हारा अनुसरण करते हैं, उन्हें तुम मनोवाञ्छित वर देती हो। इच्छानुसार विचरनेवाली देवि! जो मनुष्य अपने ऊपर आये हुए संकटका भार उतारनेके लिये तुम्हारा स्मरण करते हैं तथा जो मानव प्रतिदिन प्रातःकाल तुम्हें प्रणाम करते हैं, उनके लिये इस पृथ्वीपर पुत्र अथवा धन-धान्य आदि कुछ भी दुर्लभ नहीं हैं॥१८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्गात् तारयसे दुर्गे तत् त्वं दुर्गा स्मृता जनैः।
कान्तारेष्ववसन्नानां मग्नानां च महार्णवे ॥ २० ॥
दस्युभिर्वा निरुद्धानां त्वं गतिः परमा नृणाम्।
जलप्रतरणे चैव कान्तारेष्वटवीषु च ॥ २१ ॥
ये स्मरन्ति महादेवि न च सीदन्ति ते नराः।
त्वं कीर्तिः श्रीर्धृतिः सिद्धिर्ह्रोर्विद्या संततिर्मतिः ॥ २२ ॥
संध्या रात्रिः प्रभा निद्रा ज्योत्स्ना कान्तिः क्षमा दया।
नृणां च बन्धनं मोहं पुत्रनाशं धनक्षयम् ॥ २३ ॥
व्याधिं मृत्युं भयं चैव पूजिता नाशयिष्यसि।
सोऽहं राज्यात् परिभ्रष्टः शरणं त्वां प्रपन्नवान् ॥ २४ ॥
मूलम्
दुर्गात् तारयसे दुर्गे तत् त्वं दुर्गा स्मृता जनैः।
कान्तारेष्ववसन्नानां मग्नानां च महार्णवे ॥ २० ॥
दस्युभिर्वा निरुद्धानां त्वं गतिः परमा नृणाम्।
जलप्रतरणे चैव कान्तारेष्वटवीषु च ॥ २१ ॥
ये स्मरन्ति महादेवि न च सीदन्ति ते नराः।
त्वं कीर्तिः श्रीर्धृतिः सिद्धिर्ह्रोर्विद्या संततिर्मतिः ॥ २२ ॥
संध्या रात्रिः प्रभा निद्रा ज्योत्स्ना कान्तिः क्षमा दया।
नृणां च बन्धनं मोहं पुत्रनाशं धनक्षयम् ॥ २३ ॥
व्याधिं मृत्युं भयं चैव पूजिता नाशयिष्यसि।
सोऽहं राज्यात् परिभ्रष्टः शरणं त्वां प्रपन्नवान् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘दुर्गे! तुम दुःसह दुःखसे उद्धार करती हो, इसीलिये लोगोंके द्वारा दुर्गा कही जाती हो। जो दुर्गम वनमें कष्ट पा रहे हों, महासागरमें डूब रहे हों अथवा लुटेरोंके वशमें पड़ गये हों, उन सब मनुष्योंके लिये तुम्हीं परम गति हो—तुम्हीं उन्हें संकटसे मुक्त कर सकती हो। महादेवि! पानीमें तैरते समय, दुर्गम मार्गमें चलते समय और जंगलोंमें भटक जानेपर जो तुम्हारा स्मरण करते हैं, वे मनुष्य क्लेश नहीं पाते। तुम्हीं कीर्ति, श्री, धृति, सिद्धि, लज्जा, विद्या, संतति, मति, संध्या, रात्रि, प्रभा, निद्रा, ज्योत्स्ना, कान्ति, क्षमा और दया हो। तुम पूजित होनेपर मनुष्योंके बन्धन, मोह, पुत्रनाश और धननाशका संकट, व्याधि, मृत्यु और सम्पूर्ण भय नष्ट कर देती हो। मैं भी राज्यसे भ्रष्ट हूँ, इसलिये तुम्हारी शरणमें आया हूँ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रणतश्च यथा मूर्ध्ना तव देवि सुरेश्वरि।
त्राहि मां पद्मपत्राक्षि सत्ये सत्या भवस्व नः ॥ २५ ॥
मूलम्
प्रणतश्च यथा मूर्ध्ना तव देवि सुरेश्वरि।
त्राहि मां पद्मपत्राक्षि सत्ये सत्या भवस्व नः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कमलदलके समान विशाल नेत्रोंवाली देवि! देवेश्वरि! मैं तुम्हारे चरणोंमें मस्तक रखकर प्रणाम करता हूँ। मेरी रक्षा करो। सत्ये! हमारे लिये वस्तुतः सत्यस्वरूपा बनो—अपनी महिमाको सत्य कर दिखाओ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरणं भव मे दुर्गे शरण्ये भक्तवत्सले।
एवं स्तुता हि सा देवी दर्शयामास पाण्डवम् ॥ २६ ॥
उपगम्य तु राजानमिदं वचनमब्रवीत्।
मूलम्
शरणं भव मे दुर्गे शरण्ये भक्तवत्सले।
एवं स्तुता हि सा देवी दर्शयामास पाण्डवम् ॥ २६ ॥
उपगम्य तु राजानमिदं वचनमब्रवीत्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘शरणागतोंकी रक्षा करनेवाली भक्तवत्सले दुर्गे! मुझे शरण दो।’ इस प्रकार स्तुति करनेपर देवी दुर्गाने पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरको प्रत्यक्ष दर्शन दिया तथा राजाके पास आकर यह बात कही॥२६॥
मूलम् (वचनम्)
देव्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणु राजन् महाबाहो मदीयं वचनं प्रभो ॥ २७ ॥
भविष्यत्यचिरादेव संग्रामे विजयस्तव ।
मम प्रसादान्निर्जित्य हत्वा कौरववाहिनीम् ॥ २८ ॥
राज्यं निष्कपटकं कृत्वा भोक्ष्यसे मेदिनीं पुनः।
भ्रातृभिःसहितो राजन् प्रीतिं प्राप्स्यसि पुष्कलाम् ॥ २९ ॥
मूलम्
शृणु राजन् महाबाहो मदीयं वचनं प्रभो ॥ २७ ॥
भविष्यत्यचिरादेव संग्रामे विजयस्तव ।
मम प्रसादान्निर्जित्य हत्वा कौरववाहिनीम् ॥ २८ ॥
राज्यं निष्कपटकं कृत्वा भोक्ष्यसे मेदिनीं पुनः।
भ्रातृभिःसहितो राजन् प्रीतिं प्राप्स्यसि पुष्कलाम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवी बोली— महाबाहु राजा युधिष्ठिर! मेरी बात सुनो। समर्थ राजन्! शीघ्र ही तुम्हें संग्राममें विजय प्राप्त होगी। मेरे प्रसादसे कौरवसेनाको जीतकर उसका संहार करके तुम निष्कण्टक राज्य करोगे और पुनः इस पृथ्वीका सुख भोगोगे। राजन्! तुम्हें भाइयोंसहित पूर्ण प्रसन्नता प्राप्त होगी॥२७—२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मत्प्रसादाच्च ते सौख्यमारोग्यं च भविष्यति।
ये च संकीर्तयिष्यन्ति लोके विगतकल्मषाः ॥ ३० ॥
तेषां तुष्टा प्रदास्यामि राज्यमायुर्वपुः सुतम्।
प्रवासे नगरे चापि संग्रामे शत्रुसंकटे ॥ ३१ ॥
अटव्यां दुर्गकान्तारे सागरे गहने गिरौ।
ये स्मरिष्यन्ति मां राजन् यथाहं भवता स्मृता ॥ ३२ ॥
न तेषां दुर्लभं किंचिदस्मिल्ँलोके भविष्यति।
इदं स्तोत्रवरं भक्त्या शृणुयाद् वा पठेत वा ॥ ३३ ॥
तस्य सर्वाणि कार्याणि सिद्धिं यास्यन्ति पाण्डवाः।
मत्प्रसादाच्च वः सर्वान् विराटनगरे स्थितान् ॥ ३४ ॥
न प्रज्ञास्यन्ति कुरवो नरा वा तन्निवासिनः।
इत्युक्त्वा वरदा देवी युधिष्ठिरमरिंदमम्।
रक्षां कृत्वा च पाण्डूनां तत्रैवान्तरधीयत ॥ ३५ ॥
मूलम्
मत्प्रसादाच्च ते सौख्यमारोग्यं च भविष्यति।
ये च संकीर्तयिष्यन्ति लोके विगतकल्मषाः ॥ ३० ॥
तेषां तुष्टा प्रदास्यामि राज्यमायुर्वपुः सुतम्।
प्रवासे नगरे चापि संग्रामे शत्रुसंकटे ॥ ३१ ॥
अटव्यां दुर्गकान्तारे सागरे गहने गिरौ।
ये स्मरिष्यन्ति मां राजन् यथाहं भवता स्मृता ॥ ३२ ॥
न तेषां दुर्लभं किंचिदस्मिल्ँलोके भविष्यति।
इदं स्तोत्रवरं भक्त्या शृणुयाद् वा पठेत वा ॥ ३३ ॥
तस्य सर्वाणि कार्याणि सिद्धिं यास्यन्ति पाण्डवाः।
मत्प्रसादाच्च वः सर्वान् विराटनगरे स्थितान् ॥ ३४ ॥
न प्रज्ञास्यन्ति कुरवो नरा वा तन्निवासिनः।
इत्युक्त्वा वरदा देवी युधिष्ठिरमरिंदमम्।
रक्षां कृत्वा च पाण्डूनां तत्रैवान्तरधीयत ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरी कृपासे तुम्हें सुख और आरोग्य सुलभ होगा। लोकमें जो मनुष्य मेरा कीर्तन और स्तवन करेंगे, वे पापरहित होंगे और मैं संतुष्ट होकर उन्हें राज्य, बड़ी आयु, नीरोग शरीर और पुत्र प्रदान करूँगी। राजन्! जैसे तुमने मेरा स्मरण किया है, इसी प्रकार जो लोग परदेशमें रहते समय, नगरमें, युद्धमें, शत्रुओंद्वारा संकट प्राप्त होनेपर, घने जंगलोंमें, दुर्गम मार्गमें, समुद्रमें तथा गहन पर्वतपर भी मेरा स्मरण करेंगे, उनके लिये इस संसारमें कुछ भी दुर्लभ न होगा। पाण्डवो! जो इस उत्तम स्तोत्रको भक्तिभावसे सुनेगा या पढ़ेगा, उसके सम्पूर्ण कार्य सिद्ध हो जायँगे। मेरे कृपाप्रसादसे विराटनगरमें रहते समय तुम सब लोगोंको कौरवगण अथवा उस नगरके निवासी मनुष्य नहीं पहचान सकेंगे। शत्रुओंका दमन करनेवाले राजा युधिष्ठिरसे ऐसा कहकर वरदायिनी देवी दुर्गा पाण्डवोंकी रक्षाका भार ले वहीं अन्तर्धान हो गयी॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि पाण्डवप्रवेशपर्वणि दुर्गास्तवे षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत पाण्डवप्रवेशपर्वमें दुर्गास्तोत्रविषयक छठा अध्याय पूरा हुआ॥६॥