००५ पाण्डवैः शमीवृक्षे अस्त्रारोपणम्

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

पञ्चमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

पाण्डवोंका विराटनगरके समीप पहुँचकर श्मशानमें एक शमीवृक्षपर अपने अस्त्र-शस्त्र रखना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते वीरा बद्धनिस्त्रिंशास्तथा बद्धकलापिनः।
बद्धगोधाङ्गुलित्राणाः कालिन्दीमभितो ययुः ॥ १ ॥

मूलम्

ते वीरा बद्धनिस्त्रिंशास्तथा बद्धकलापिनः।
बद्धगोधाङ्गुलित्राणाः कालिन्दीमभितो ययुः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर वे वीर पाण्डव तलवार बाँधे, पीठपर तूणीर कसे, गोहके चमड़ेसे बने हुए अंगुलित्र (दस्ताने) पहने (पैदल चलते-चलते) यमुनानदीके समीप जा पहुँचे॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्ते दक्षिणं तीरमन्वगच्छन् पदातयः।
निवृत्तवनवासा हि स्वराष्ट्रं प्रेप्सवस्तदा।
वसन्तो गिरिदुर्गेषु वनदुर्गेषु धन्विनः ॥ २ ॥
विध्यन्तो मृगजातानि महेष्वासा महाबलाः।

मूलम्

ततस्ते दक्षिणं तीरमन्वगच्छन् पदातयः।
निवृत्तवनवासा हि स्वराष्ट्रं प्रेप्सवस्तदा।
वसन्तो गिरिदुर्गेषु वनदुर्गेषु धन्विनः ॥ २ ॥
विध्यन्तो मृगजातानि महेष्वासा महाबलाः।

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद वे यमुनाके दक्षिण किनारेपर पैदल ही चलने लगे। उस समय उनके मनमें यह अभिलाषा जाग उठी थी कि अब हम वनवासके कष्टसे मुक्त हो अपना राज्य प्राप्त कर लेंगे। उन सबने धनुष ले रखे थे। वे महान् धनुर्धर और महापराक्रमी वीर पर्वतों और वनोंके दुर्गम प्रदेशोंमें डेरा डालते और हिंसक पशुओंको मारते हुए यात्रा कर रहे थे॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तरेण दशार्णांस्ते पञ्चालान् दक्षिणेन च ॥ ३ ॥
अन्तरेण यकृल्लोमान् शूरसेनांश्च पाण्डवाः।
लुब्धा ब्रुवाणा मत्स्यस्य विषयं प्राविशन् वनात् ॥ ४ ॥
धन्विनो बद्धनिस्त्रिंशा विवर्णाः श्मश्रुधारिणः।
ततो जनपदं प्राप्य कृष्णा राजानमब्रवीत् ॥ ५ ॥

मूलम्

उत्तरेण दशार्णांस्ते पञ्चालान् दक्षिणेन च ॥ ३ ॥
अन्तरेण यकृल्लोमान् शूरसेनांश्च पाण्डवाः।
लुब्धा ब्रुवाणा मत्स्यस्य विषयं प्राविशन् वनात् ॥ ४ ॥
धन्विनो बद्धनिस्त्रिंशा विवर्णाः श्मश्रुधारिणः।
ततो जनपदं प्राप्य कृष्णा राजानमब्रवीत् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आगे जाकर वे दशार्णसे उत्तर और पांचालसे दक्षिण एवं यकृल्लोम तथा शूरसेन देशोंके बीचसे होकर यात्रा करने लगे। उन्होंने हाथोंमें धनुष धारण कर रखे थे। उनकी कमरमें तलवारें बँधी थीं। उनके शरीर मलिन एवं उदास थे। उन सबकी दाढ़ी-मूँछें बढ़ गयी थीं। किसीके पूछनेपर वे अपनेको मत्स्यदेशमें निवास करनेके इच्छुक बताते थे। इस प्रकार उन्होंने वनसे निकलकर मत्स्यराष्ट्रके जनपदमें प्रवेश किया। जनपदमें आनेपर द्रौपदीने राजा युधिष्ठिरसे कहा—॥३—५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्यैकपद्यो दृश्यन्ते क्षेत्राणि विविधानि च।
व्यक्तं दूरे विराटस्य राजधानी भविष्यति।
वसामेहापरां रात्रिं बलवान् मे परिश्रमः ॥ ६ ॥

मूलम्

पश्यैकपद्यो दृश्यन्ते क्षेत्राणि विविधानि च।
व्यक्तं दूरे विराटस्य राजधानी भविष्यति।
वसामेहापरां रात्रिं बलवान् मे परिश्रमः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! देखिये, यहाँ अनेक प्रकारके खेत और उनमें पहुँचनेके लिये बहुत-सी पगडंडियाँ दिखायी देती हैं। जान पड़ता है, विराटकी राजधानी अभी दूर होगी। मुझे बड़ी थकावट हो रही है, अतः हम एक रात और यहीं रहें’॥६॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनंजय समुद्यम्य पाञ्चालीं वह भारत।
राजधान्यां निवत्स्यामो विमुक्ताश्च वनादितः ॥ ७ ॥

मूलम्

धनंजय समुद्यम्य पाञ्चालीं वह भारत।
राजधान्यां निवत्स्यामो विमुक्ताश्च वनादितः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— धनंजय! तुम द्रौपदीको कंधेपर उठाकर ले चलो। भारत! इस वनसे निकलकर अब हमलोग राजधानीमें ही निवास करेंगे॥७॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तामादायार्जुनस्तूर्णं द्रौपदीं गजराडिव ।
सम्प्राप्य नगराध्याशमवतारयदर्जुनः ॥ ८ ॥

मूलम्

तामादायार्जुनस्तूर्णं द्रौपदीं गजराडिव ।
सम्प्राप्य नगराध्याशमवतारयदर्जुनः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! तब गजराजके समान पराक्रमी अर्जुनने तुरंत ही द्रौपदीको उठा लिया और नगरके निकट पहुँचकर उन्हें कंधेसे उतारा॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स राजधानीं सम्प्राप्य कौन्तेयोऽर्जुनमब्रवीत्।
क्वायुधानि समासज्ज्य प्रवेक्ष्यामः पुरं वयम् ॥ ९ ॥

मूलम्

स राजधानीं सम्प्राप्य कौन्तेयोऽर्जुनमब्रवीत्।
क्वायुधानि समासज्ज्य प्रवेक्ष्यामः पुरं वयम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजधानीके समीप पहुँचकर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरने अर्जुनसे कहा—‘भैया! हम अपने अस्त्र-शस्त्र कहाँ रखकर नगरमें प्रवेश करें?॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सायुधाश्च प्रवेक्ष्यामो वयं तात पुरं यदि।
समुद्वेगं जनस्यास्य करिष्यामो न संशयः ॥ १० ॥

मूलम्

सायुधाश्च प्रवेक्ष्यामो वयं तात पुरं यदि।
समुद्वेगं जनस्यास्य करिष्यामो न संशयः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! यदि अपने आयुधोंके साथ हम नगरमें प्रवेश करेंगे, तो निःसंदेह यहाँके निवासियोंको उद्वेग (भय) में डाल देंगे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गाण्डीवं च महद् गाढं लोके च विदितं नृणाम्।
तच्चेदायुधमादाय गच्छामो नगरं वयम्।
क्षिप्रमस्मान् विजानीयुर्मनुष्या नात्र संशयः ॥ ११ ॥

मूलम्

गाण्डीवं च महद् गाढं लोके च विदितं नृणाम्।
तच्चेदायुधमादाय गच्छामो नगरं वयम्।
क्षिप्रमस्मान् विजानीयुर्मनुष्या नात्र संशयः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हारा गाण्डीव धनुष तो बहुत बड़ा और भारी है। संसारके सब लोगोंमें उसकी प्रसिद्धि है। ऐसी दशामें यदि हम अस्त्र-शस्त्र लेकर नगरमें चलेंगे, तो यहाँ सब लोग हमें शीघ्र ही पहचान लेंगे। इसमें संशय नहीं है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो द्वादश वर्षाणि प्रवेष्टव्यं वने पुनः।
एकस्मिन्नपि विज्ञाते प्रतिज्ञातं हि नस्तथा ॥ १२ ॥

मूलम्

ततो द्वादश वर्षाणि प्रवेष्टव्यं वने पुनः।
एकस्मिन्नपि विज्ञाते प्रतिज्ञातं हि नस्तथा ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि हममेंसे एक भी पहचान लिया गया, तो हमें दुबारा बारह वर्षोंके लिये वनमें प्रवेश करना पड़ेगा; क्योंकि हमने ऐसी ही प्रतिज्ञा कर रखी है’॥१२॥

मूलम् (वचनम्)

अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इयं कूटे मनुष्येन्द्र गहना महती शमी।
भीमशाखा दुरारोहा श्मशानस्य समीपतः ॥ १३ ॥

मूलम्

इयं कूटे मनुष्येन्द्र गहना महती शमी।
भीमशाखा दुरारोहा श्मशानस्य समीपतः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनने कहा— राजन्! श्मशानभूमिके समीप एक टीलेपर यह शमीका बहुत बड़ा सघन वृक्ष है। इसकी शाखाएँ बड़ी भयानक हैं, इससे इसपर चढ़ना कठिन है॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चापि विद्यते कश्चिन्मनुष्य इति मे मतिः।
योऽस्मान्‌ निदधतो द्रष्टा भवेच्छस्त्राणि पाण्डवाः ॥ १४ ॥

मूलम्

न चापि विद्यते कश्चिन्मनुष्य इति मे मतिः।
योऽस्मान्‌ निदधतो द्रष्टा भवेच्छस्त्राणि पाण्डवाः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डवो! मेरा विश्वास है कि यहाँ कोई ऐसा मनुष्य नहीं है, जो हमें अपने अस्त्र-शस्त्रोंको यहाँ रखते समय देख सके॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्पथे हि वने जाता मृगव्यालनिषेविते।
समीपे च श्मशानस्य गहनस्य विशेषतः ॥ १५ ॥
समाधायायुधं शम्यां गच्छामो नगरं प्रति।
एवमत्र यथायोगं विहरिष्याम भारत ॥ १६ ॥

मूलम्

उत्पथे हि वने जाता मृगव्यालनिषेविते।
समीपे च श्मशानस्य गहनस्य विशेषतः ॥ १५ ॥
समाधायायुधं शम्यां गच्छामो नगरं प्रति।
एवमत्र यथायोगं विहरिष्याम भारत ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह वृक्ष रास्तेसे बहुत दूर जंगलमें है। इसके आसपास हिंसक जीव और सर्प आदि रहते हैं। विशेषतः यह दुर्गम श्मशानभूमिके निकट है; (अतः यहाँतक किसीके आने या वृक्षपर चढ़नेकी सम्भावना नहीं है;) इसलिये इसी शमीवृक्षपर हम अपने अस्त्र-शस्त्र रखकर नगरमें चलें। भारत! ऐसा करके हम यहाँ जैसा सुयोग होगा, उसके अनुसार विचरण करेंगे॥१५-१६॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा स राजानं धर्मराजं युधिष्ठिरम्।
प्रचक्रमे निधानाय शस्त्राणां भरतर्षभ ॥ १७ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा स राजानं धर्मराजं युधिष्ठिरम्।
प्रचक्रमे निधानाय शस्त्राणां भरतर्षभ ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! धर्मराज राजा युधिष्ठिरसे ऐसा कहकर अर्जुन वहाँ अस्त्र-शस्त्रोंको रखनेके प्रयत्नमें लग गये॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येन देवान् मनुष्यांश्च सर्वांश्चैकरथोऽजयत्।
स्फीताञ्जनपदांश्चान्यानजयत् कुरुपुङ्गवः ॥ १८ ॥
तदुदारं महाघोषं सम्पन्नबलसूदनम् ।
अपज्यमकरोत् पार्थो गाण्डीवं सुभयंकरम् ॥ १९ ॥

मूलम्

येन देवान् मनुष्यांश्च सर्वांश्चैकरथोऽजयत्।
स्फीताञ्जनपदांश्चान्यानजयत् कुरुपुङ्गवः ॥ १८ ॥
तदुदारं महाघोषं सम्पन्नबलसूदनम् ।
अपज्यमकरोत् पार्थो गाण्डीवं सुभयंकरम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुश्रेष्ठ अर्जुनने जिस धनुषके द्वारा एकमात्र रथका आश्रय ले सम्पूर्ण देवताओं और मनुष्योंपर विजय पायी थी तथा अन्यान्य अनेक समृद्धिशाली जनपदोंपर विजय-पताका फहरायी थी, जिस धनुषने दिव्य बलसे सम्पन्न असुरों आदिकी सेनाओंका संहार किया था, जिसकी टंकारध्वनि बहुत दूरतक फैलती है, उस उदार तथा अत्यन्त भयंकर गाण्डीव धनुषकी प्रत्यंचा अर्जुनने उतार डाली॥१८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येन वीरः कुरुक्षेत्रमभ्यरक्षत् परंतपः।
अमुञ्चद् धनुषस्तस्य ज्यामक्षय्यां युधिष्ठिरः ॥ २० ॥

मूलम्

येन वीरः कुरुक्षेत्रमभ्यरक्षत् परंतपः।
अमुञ्चद् धनुषस्तस्य ज्यामक्षय्यां युधिष्ठिरः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतप वीर युधिष्ठिरने जिसके द्वारा समूचे कुरुक्षेत्रकी रक्षा की थी, उस धनुषकी अक्षय डोरीको उन्होंने भी उतार दिया॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाञ्चालान् येन संग्रामे भीमसेनोऽजयत् प्रभुः।
प्रत्यषेधद् बहूनेकः सपत्नांश्चैव दिग्जये ॥ २१ ॥
निशम्य यस्य विस्फारं व्यद्रवन्त रणात् परे।
पर्वतस्येव दीर्णस्य विस्फोटमशनेरिव ॥ २२ ॥
सैन्धवं येन राजानं पर्यामृषितवानथ।
ज्यापाशं धनुषस्तस्य भीमसेनोऽवतारयत् ॥ २३ ॥

मूलम्

पाञ्चालान् येन संग्रामे भीमसेनोऽजयत् प्रभुः।
प्रत्यषेधद् बहूनेकः सपत्नांश्चैव दिग्जये ॥ २१ ॥
निशम्य यस्य विस्फारं व्यद्रवन्त रणात् परे।
पर्वतस्येव दीर्णस्य विस्फोटमशनेरिव ॥ २२ ॥
सैन्धवं येन राजानं पर्यामृषितवानथ।
ज्यापाशं धनुषस्तस्य भीमसेनोऽवतारयत् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेनने जिसके द्वारा पांचाल वीरोंपर विजय पायी थी, दिग्विजयके समय उन्होंने अकेले ही जिसकी सहायतासे बहुतेरे शत्रुओंको परास्त किया था, वज्रके फटने और पर्वतके विदीर्ण होनेके समान जिसका भयंकर टंकार सुनकर कितने ही शत्रु युद्ध छोड़कर भाग खड़े हुए तथा जिसके सहयोगसे उन्होंने सिन्धुराज जयद्रथको परास्त किया था, अपने उसी धनुषकी प्रत्यंचा भीमसेनने भी उतार दिया॥२१—२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अजयत् पश्चिमामाशां धनुषा येन पाण्डवः।
माद्रीपुत्रो महाबाहुस्ताम्रास्यो मितभाषिता ॥ २४ ॥
तस्य मौर्वीमपाकर्षच्छूरः संक्रन्दनो युधि।
कुले नास्ति समो रूपे यस्येति नकुलः स्मृतः ॥ २५ ॥

मूलम्

अजयत् पश्चिमामाशां धनुषा येन पाण्डवः।
माद्रीपुत्रो महाबाहुस्ताम्रास्यो मितभाषिता ॥ २४ ॥
तस्य मौर्वीमपाकर्षच्छूरः संक्रन्दनो युधि।
कुले नास्ति समो रूपे यस्येति नकुलः स्मृतः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनका मुख ताँबेके समान लाल था, जो बहुत कम बोलते थे, उन महाबाहु माद्रीनन्दन नकुलने दिग्विजयके समय जिस धनुषकी सहायतासे पश्चिम दिशापर विजय प्राप्त की थी, समूचे कुरुकुलमें जिनके समान दूसरा कोई रूपवान् न होनेके कारण जिन्हें नकुल कहा जाता था, जो युद्धमें शत्रुओंको रुलानेवाले शूर-वीर थे; उन वीरवर नकुलने भी अपने पूर्वोक्त धनुषकी प्रत्यंचा उतार दी॥२४-२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दक्षिणां दक्षिणाचारो दिशं येनाजयत् प्रभुः।
अपज्यमकरोद् वीरः सहदेवस्तदायुधम् ॥ २६ ॥

मूलम्

दक्षिणां दक्षिणाचारो दिशं येनाजयत् प्रभुः।
अपज्यमकरोद् वीरः सहदेवस्तदायुधम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शास्त्रानुकूल तथा उदार आचार-विचारवाले शक्तिशाली वीर सहदेवने भी जिसकी सहायतासे दक्षिण दिशाको जीता था, उस धनुषकी डोरी उतार दी॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

खड्गांश्च दीप्तान् दीर्घांश्च कलापांश्च महाधनान्।
विपाठान् क्षुरधारांश्च धनुर्भिर्निदधुः सह ॥ २७ ॥

मूलम्

खड्गांश्च दीप्तान् दीर्घांश्च कलापांश्च महाधनान्।
विपाठान् क्षुरधारांश्च धनुर्भिर्निदधुः सह ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धनुषोंके साथ-साथ पाण्डवोंने बड़े-बड़े एवं चमकीले खड्ग, बहुमूल्य तूणीर, छुरेके समान तीखी धारवाले क्षुरधार और विपाठ नामक बाण भी रख दिये॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथान्वशासन्नकुलं कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ।
आरुह्येमां शमीं वीर धनूंष्येतानि निक्षिप ॥ २८ ॥

मूलम्

अथान्वशासन्नकुलं कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ।
आरुह्येमां शमीं वीर धनूंष्येतानि निक्षिप ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! तदनन्तर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरने नकुलको आज्ञा दी—‘वीर! तुम इस शमीपर चढ़कर ये धनुष आदि अस्त्र-शस्त्र रख दो’॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तामुपारुह्य नकुलो धनूंषि निदधे स्वयम्।
यानि तस्यावकाशानि दिव्यरूपाण्यमन्यत ॥ २९ ॥

मूलम्

तामुपारुह्य नकुलो धनूंषि निदधे स्वयम्।
यानि तस्यावकाशानि दिव्यरूपाण्यमन्यत ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब नकुलने उस वृक्षपर चढ़कर उसके खोंखलोंमें वे धनुष आदि आयुध स्वयं अपने हाथसे रखे। उसके जो खोंखले थे, वे नकुलको दिव्यरूप जान पड़े॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्र चापश्यत स वै तिरोवर्षाणि वर्षति।
तत्र तानि टृढैः पाशैः सुगाढं पर्यबन्धत ॥ ३० ॥

मूलम्

यत्र चापश्यत स वै तिरोवर्षाणि वर्षति।
तत्र तानि टृढैः पाशैः सुगाढं पर्यबन्धत ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्योंकि उन्होंने देखा, वहाँ मेघ तिरछी वृष्टि करता है (जिससे खोंखलोंमें पानी नहीं पड़ता)। उन्हींमें उन आयुधोंको रखकर मजबूत रस्सियोंसे उन्हें अच्छी तरह बाँध दिया॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरीरं च मृतस्यैकं समबध्नन्त पाण्डवाः।
विवर्जयिष्यन्ति नरा दूरादेव शमीमिमाम् ॥ ३१ ॥
आबद्धं शवमत्रेति गन्धमाघ्राय पूतिकम्।
अशीतिशतवर्षेयं माता न इति वादिनः ॥ ३२ ॥
कुलधर्मोऽयमस्माकं पूर्वैराचरितोऽपि वा ।
समासज्ज्याथ वृक्षेऽस्मिन्निति वै व्याहरन्ति ते ॥ ३३ ॥
आगोपालाविपालेभ्य आचक्षाणाः परंतपाः ।
आजग्मुर्नगराभ्याशं पार्थाः शत्रुनिबर्हणाः ॥ ३४ ॥

मूलम्

शरीरं च मृतस्यैकं समबध्नन्त पाण्डवाः।
विवर्जयिष्यन्ति नरा दूरादेव शमीमिमाम् ॥ ३१ ॥
आबद्धं शवमत्रेति गन्धमाघ्राय पूतिकम्।
अशीतिशतवर्षेयं माता न इति वादिनः ॥ ३२ ॥
कुलधर्मोऽयमस्माकं पूर्वैराचरितोऽपि वा ।
समासज्ज्याथ वृक्षेऽस्मिन्निति वै व्याहरन्ति ते ॥ ३३ ॥
आगोपालाविपालेभ्य आचक्षाणाः परंतपाः ।
आजग्मुर्नगराभ्याशं पार्थाः शत्रुनिबर्हणाः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद पाण्डवोंने एक मृतकका शव लाकर उस वृक्षकी शाखामें बाँध दिया। उसे बाँधनेका उद्देश्य यह था कि इसकी दुर्गन्ध नाकमें पड़ते ही लोग समझ लेंगे कि इसमें सड़ी लाश बँधी है; अतः दूरसे ही वे इस शमीवृक्षको त्याग देंगे। परंतप पाण्डव इस प्रकार उस शमीवृक्षपर शव बाँधकर उस वनमें गाय चरानेवाले-ग्वालों और भेड़ पालनेवाले गड़रियोंसे शव बाँधनेका कारण बताते हुए इस प्रकार कहते थे—‘यह एक सौ अस्सी वर्षकी हमारी माता है। हमारे कुलका यह धर्म है, इसलिये ऐसा किया है। हमारे पूर्वज भी ऐसा ही करते आये हैं।’1 इस प्रकार शत्रुओंका संहार करनेवाले वे कुन्तीपुत्र नगरके निकट आ पहुँचे॥३१—३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जयो जयन्तो विजयो जयत्सेनो जयद्बलः।
इति गुह्यानि नामानि चक्रे तेषां युधिष्ठिरः ॥ ३५ ॥

मूलम्

जयो जयन्तो विजयो जयत्सेनो जयद्बलः।
इति गुह्यानि नामानि चक्रे तेषां युधिष्ठिरः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब युधिष्ठिरने क्रमशः पाँचों भाइयोंके जय, जयन्त, विजय, जयत्सेन और जयद्बल—ये गुप्त नाम रखे॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो यथाप्रतिज्ञाभिः प्राविशन् नगरं महत्।
अज्ञातचर्यां वत्स्यन्तो राष्ट्रे वर्षं त्रयोदशम् ॥ ३६ ॥

मूलम्

ततो यथाप्रतिज्ञाभिः प्राविशन् नगरं महत्।
अज्ञातचर्यां वत्स्यन्तो राष्ट्रे वर्षं त्रयोदशम् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् उन्होंने अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार तेरहवें वर्षका अज्ञातवास पूर्ण करनेके लिये मत्स्यराष्ट्रके उस विशाल नगरमें प्रवेश किया॥३६॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि पाण्डवप्रवेशपर्वणि पुरप्रवेशे अस्त्रसंस्थापने पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत पाण्डवप्रवेशपर्वमें नगरप्रवेशके लिये अस्त्रस्थापनविषयक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५॥


  1. पाण्डवलोग शव बँधी हुई शाखाकी ओर अँगुलीसे संकेत करके कहते थे—‘यह हमारी माता है।’ वे अपने आयुधोंकी रक्षा करनेके कारण शमीको ही अपनी माता मानते थे और उसीकी ओर उनका वास्तविक संकेत था। शव-बन्धनके व्याजसे वे अस्त्र-संरक्षणको ही पूर्वजोंद्वारा आचरित कुलधर्म घोषित करते थे। ↩︎