००४ पाण्डवैः विराटनगरे स्वकार्यस्थानगमनम्

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

चतुर्थोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

धौम्यका पाण्डवोंको राजाके यहाँ रहनेका ढंग बताना और सबका अपने-अपने अभीष्ट स्थानोंको जाना

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्माण्युक्तानि युष्माभिर्यानि यानि करिष्यथ।
मम चापि यथा बुद्धिरुचिता विधिनिश्चयात् ॥ १ ॥

मूलम्

कर्माण्युक्तानि युष्माभिर्यानि यानि करिष्यथ।
मम चापि यथा बुद्धिरुचिता विधिनिश्चयात् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— विराटके यहाँ रहकर तुम्हें जो-जो कार्य करने हैं, वे सब तुमने बताये। मुझे भी अपनी बुद्धिके अनुसार जो कार्य उचित प्रतीत हुआ, वह कह चुका। जान पड़ता है, विधाताका यही निश्चय है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरोहितोऽयमस्माकमग्निहोत्राणि रक्षतु ।
सूदपौरोगवैः सार्द्धं द्रुपदस्य निवेशने ॥ २ ॥
इन्द्रसेनमुखाश्चेमे रथानादाय केवलान् ।
यान्तु द्वारवतीं शीघ्रमिति मे वर्तते मतिः ॥ ३ ॥

मूलम्

पुरोहितोऽयमस्माकमग्निहोत्राणि रक्षतु ।
सूदपौरोगवैः सार्द्धं द्रुपदस्य निवेशने ॥ २ ॥
इन्द्रसेनमुखाश्चेमे रथानादाय केवलान् ।
यान्तु द्वारवतीं शीघ्रमिति मे वर्तते मतिः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब मेरी सलाह यह है कि ये पुरोहित धौम्यजी रसोइयों तथा पाकशालाध्यक्षके साथ राजा द्रुपदके घर जाकर रहें और वहाँ हमारे अग्निहोत्रकी अग्नियोंकी रक्षा करें तथा ये इन्द्रसेन आदि सेवकगण केवल रथोंको लेकर शीघ्र यहाँसे द्वारकाको चले जायँ॥२-३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमाश्च नार्यो द्रौपद्याः सर्वाश्च परिचारिकाः।
पाञ्जालानेव गच्छन्तु सूदपौरोगवैः सह ॥ ४ ॥

मूलम्

इमाश्च नार्यो द्रौपद्याः सर्वाश्च परिचारिकाः।
पाञ्जालानेव गच्छन्तु सूदपौरोगवैः सह ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

और ये जो द्रौपदीकी सेवा करनेवाली स्त्रियाँ हैं, वे सब रसोइयों और पाकशालाध्यक्षके साथ पांचालदेशको ही चली जायँ॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वैरपि च वक्तव्यं न प्राज्ञायन्त पाण्डवाः।
गता ह्यस्मानपाहाय सर्वे द्वैतवनादिति ॥ ५ ॥

मूलम्

सर्वैरपि च वक्तव्यं न प्राज्ञायन्त पाण्डवाः।
गता ह्यस्मानपाहाय सर्वे द्वैतवनादिति ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ सब लोग यही कहें—‘हमें पाण्डवोंका कुछ भी पता नहीं है। वे सब द्वैतवनसे ही हमें छोड़कर न जाने कहाँ चले गये’॥५॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं तेऽन्योन्यमामन्त्र्य कर्माण्युक्त्वा पृथक् पृथक्।
धौम्यमामन्त्रयामासुः स च तान् मन्त्रमब्रवीत् ॥ ३ ॥

मूलम्

एवं तेऽन्योन्यमामन्त्र्य कर्माण्युक्त्वा पृथक् पृथक्।
धौम्यमामन्त्रयामासुः स च तान् मन्त्रमब्रवीत् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! इस प्रकार आपसमें एक-दूसरेकी सलाह लेकर और अपने पृथक्-पृथक् कर्म बतलाकर पाण्डवोंने पुरोहित धौम्यकी भी सम्मति ली। तब पुरोहित धौम्यने उन्हें इस प्रकार सलाह दी॥६॥

मूलम् (वचनम्)

धौम्य उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विहितं पाण्डवाः सर्वं ब्राह्मणेषु सुहृत्सु च।
याने प्रहरणे चैव तथैवाग्निषु भारत ॥ ७ ॥
त्वया रक्षा विधातव्या कृष्णायाः फाल्गुनेन च।
विदितं वो यथा सर्वं लोकवृत्तमिदं तव ॥ ८ ॥

मूलम्

विहितं पाण्डवाः सर्वं ब्राह्मणेषु सुहृत्सु च।
याने प्रहरणे चैव तथैवाग्निषु भारत ॥ ७ ॥
त्वया रक्षा विधातव्या कृष्णायाः फाल्गुनेन च।
विदितं वो यथा सर्वं लोकवृत्तमिदं तव ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धौम्यजी बोले— पाण्डवो! ब्राह्मणों, सुहृदों, सवारी या युद्ध-यात्रा, आयुध या युद्ध तथा अग्नियोंके प्रति जो शास्त्रविहित कर्तव्य हैं, उन्हें तुम अच्छी तरह जानते हो और तदनुकूल तुमने जो व्यवस्था की है, वह सब ठीक है। भारत! अब मैं तुमसे यह कहना चाहता हूँ कि तुम और अर्जुन सावधान रहकर सदा द्रौपदीकी रक्षा करना। लोकव्यवहारकी सभी बातें अथवा साधारण लोगोंके व्यवहार तुम सब लोगोंको विदित हैं॥७-८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विदिते चापि वक्तव्यं सुहृद्भिरनुरागतः।
एष धर्मश्च कामश्च अर्थश्चैव सनातनः ॥ ९ ॥

मूलम्

विदिते चापि वक्तव्यं सुहृद्भिरनुरागतः।
एष धर्मश्च कामश्च अर्थश्चैव सनातनः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदित होनेपर भी हितैषी सुहृदोंका कर्तव्य है कि वे स्नेहवश हितकी बात बतावें। यही सनातन धर्म है और इसीसे काम एवं अर्थकी प्राप्ति होती है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतोऽहमपि वक्ष्यामि हेतुमत्र निबोधत।
हन्तेमां राजवसतिं राजपुत्रा ब्रवीम्यहम् ॥ १० ॥
यथा राजकुलं प्राप्य सर्वान् दोषांस्तरिष्यथ।
दुर्वसं चैव कौरव्य जानता राजवेश्मनि ॥ ११ ॥

मूलम्

अतोऽहमपि वक्ष्यामि हेतुमत्र निबोधत।
हन्तेमां राजवसतिं राजपुत्रा ब्रवीम्यहम् ॥ १० ॥
यथा राजकुलं प्राप्य सर्वान् दोषांस्तरिष्यथ।
दुर्वसं चैव कौरव्य जानता राजवेश्मनि ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये मैं भी जो युक्तियुक्त बातें बताऊँगा, उन्हें यहाँ ध्यान देकर सुनो। राजपुत्रो! मैं यह बता रहा हूँ कि राजाके घरमें रहकर कैसा बर्ताव करना चाहिये? उसके अनुसार राजकुलमें रहते हुए भी तुमलोग वहाँके सब दोषोंसे पार हो जाओगे। कुरुनन्दन! विवेकी पुरुषके लिये भी राजमहलमें निवास करना अत्यन्त कठिन है॥१०-११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमानितैर्मानितैर्वा अज्ञातैः परिवत्सरम् ।
ततश्चतुर्दशे वर्षे चरिष्यथ यथासुखम् ॥ १२ ॥

मूलम्

अमानितैर्मानितैर्वा अज्ञातैः परिवत्सरम् ।
ततश्चतुर्दशे वर्षे चरिष्यथ यथासुखम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ तुम्हारा अपमान हो या सम्मान, सब कुछ सहकर एक वर्षतक अज्ञातभावसे रहना चाहिये। तदनन्तर चौदहवें वर्षमें तुमलोग अपनी इच्छाके अनुसार सुखपूर्वक विचरण कर सकोगे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्टद्वारो लभेद् द्रष्टुं राजस्वेषु न विश्वसेत्।
तदेवासनमन्विच्छेद् यत्र नाभिपतेत् परः ॥ १३ ॥

मूलम्

दृष्टद्वारो लभेद् द्रष्टुं राजस्वेषु न विश्वसेत्।
तदेवासनमन्विच्छेद् यत्र नाभिपतेत् परः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजासे मिलना हो, तो पहले द्वारपालसे मिलकर राजाको सूचना देनी चाहिये और मिलनेके लिये उनकी आज्ञा मँगा लेनी चाहिये। इन राजाओंपर पूर्ण विश्वास कभी न करे। अपने लिये वही आसन पसंद करे, जिसपर दूसरा कोई बैठनेवाला न हो॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो न यानं न पर्यङ्कं न पीठं न गजं रथम्।
आरोहेत् सम्मतोऽस्मीति स राजवसतिं वसेत् ॥ १४ ॥

मूलम्

यो न यानं न पर्यङ्कं न पीठं न गजं रथम्।
आरोहेत् सम्मतोऽस्मीति स राजवसतिं वसेत् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो ‘मैं राजाका प्रिय व्यक्ति हूँ’, यों मानकर कभी राजाकी सवारी, पलंग, पादुका, हाथी एवं रथ आदिपर नहीं चढ़ता है, वही राजाके घरमें कुशलपूर्वक रह सकता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्र यत्रैनमासीनं शङ्केरन् दुष्टचारिणः।
न तत्रोपविशेद् यो वै स राजवसतिं वसेत् ॥ १५ ॥

मूलम्

यत्र यत्रैनमासीनं शङ्केरन् दुष्टचारिणः।
न तत्रोपविशेद् यो वै स राजवसतिं वसेत् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन-जिन स्थानोंपर बैठनेसे दुराचारी मनुष्य संदेह करते हों, वहाँ-वहाँ जो कभी नहीं बैठता, वही राजभवनमें रह सकता है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चानुशिष्याद् राजानमपृच्छन्तं कदाचन।
तूष्णीं त्वेनमुपासीत काले समभिपूजयेत् ॥ १६ ॥

मूलम्

न चानुशिष्याद् राजानमपृच्छन्तं कदाचन।
तूष्णीं त्वेनमुपासीत काले समभिपूजयेत् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बिना पूछे राजाको कभी कर्तव्यका उपदेश न दे। मौनभावसे ही उसकी सेवा करे और उपयुक्त अवसरपर राजाकी प्रशंसा भी करे॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असूयन्ति हि राजानो जनाननृतवादिनः।
तथैव चावमन्यन्ते मन्त्रिणं वादिनं मृषा ॥ १७ ॥

मूलम्

असूयन्ति हि राजानो जनाननृतवादिनः।
तथैव चावमन्यन्ते मन्त्रिणं वादिनं मृषा ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

झूठ बोलनेवाले मनुष्योंके प्रति राजालोग दोषदृष्टि कर लेते हैं। इसी प्रकार वे मिथ्यावादी मन्त्रीका भी अपमान करते हैं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैषां दारेषु कुर्वीत मैत्रीं प्राज्ञः कदाचन।
अन्तःपुरचरा ये च द्वेष्टि यानहिताश्च ये ॥ १८ ॥

मूलम्

नैषां दारेषु कुर्वीत मैत्रीं प्राज्ञः कदाचन।
अन्तःपुरचरा ये च द्वेष्टि यानहिताश्च ये ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह राजाओंकी रानियोंसे मेल-जोल न करे और जो रनिवासमें आते-जाते हों, राजा जिनसे द्वेष रखते हों तथा जो लोग राजाका अहित चाहनेवाले हों, उनसे भी मैत्री स्थापित न करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विदिते चास्य कुर्वीत कार्याणि सुलघून्यपि।
एवं विचरतो राज्ञि न क्षतिर्जायते क्वचित् ॥ १९ ॥

मूलम्

विदिते चास्य कुर्वीत कार्याणि सुलघून्यपि।
एवं विचरतो राज्ञि न क्षतिर्जायते क्वचित् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

छोटे-से-छोटे कार्य भी राजाको जनाकर ही करे। राजदरबारमें ऐसा आचरण करनेवाले मनुष्योंको कभी हानि नहीं उठानी पड़ती॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गच्छन्नपि परां भूमिमपृष्टो ह्यनियोजितः।
जात्यन्ध इव मन्येत मर्यादामनुचिन्तयन् ॥ २० ॥

मूलम्

गच्छन्नपि परां भूमिमपृष्टो ह्यनियोजितः।
जात्यन्ध इव मन्येत मर्यादामनुचिन्तयन् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बैठनेके लिये अपनेको ऊँचा आसन प्राप्त होता हो, तो भी जबतक राजा न पूछें—बैठनेका आदेश न दें, तबतक राजदरबारकी मर्यादाका खयाल करके अपनेको जन्मान्ध-सा माने, मानो उस आसनको वह देखता ही न हो। इस भावसे खड़ा रहकर राजाज्ञाकी प्रतीक्षा करता रहे॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि पुत्रं न नप्तारं न भ्रातरमरिंदमाः।
समतिक्रान्तमर्यादं पूजयन्ति नराधिपाः ॥ २१ ॥

मूलम्

न हि पुत्रं न नप्तारं न भ्रातरमरिंदमाः।
समतिक्रान्तमर्यादं पूजयन्ति नराधिपाः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्योंकि शत्रुविजयी राजालोग मर्यादाका उल्लंघन करनेवाले अपने पुत्र, नाती-पोते और भाईका भी आदर नहीं करते॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्नाच्चोपचरेदेनमग्निवद् देववत् त्विह ।
अनृतेनोपचीर्णो हि हन्यादेव न संशयः ॥ २२ ॥

मूलम्

यत्नाच्चोपचरेदेनमग्निवद् देववत् त्विह ।
अनृतेनोपचीर्णो हि हन्यादेव न संशयः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस जगत्‌में राजाको अग्निके समान दाहक मानकर उसके अत्यन्त निकट न रहे और देवताके समान निग्रह तथा अनुग्रहमें समर्थ जानकर उसकी कभी अवहेलना न करे। इस प्रकार यत्नपूर्वक उसकी परिचर्यामें संलग्न रहे। इसमें संदेह नहीं कि जो मिथ्या एवं कपटपूर्ण उपचारके द्वारा राजाकी सेवा करता है, वह एक दिन अवश्य उसके हाथसे मारा जाता है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद् यद् भर्तानुयुञ्जीत तत् तदेवानुवर्तयेत्।
प्रमादमवलेपं च कोपं च परिवर्जयेत् ॥ २३ ॥

मूलम्

यद् यद् भर्तानुयुञ्जीत तत् तदेवानुवर्तयेत्।
प्रमादमवलेपं च कोपं च परिवर्जयेत् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा जिस-जिस कार्यके लिये आज्ञा दे, उसीका पालन करे। लापरवाही, घमंड और क्रोधको सर्वथा त्याग दे॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समर्थनासु सर्वासु हितं च प्रियमेव च।
संवर्णयेत् तदेवास्य प्रियादपि हितं भवेत् ॥ २४ ॥

मूलम्

समर्थनासु सर्वासु हितं च प्रियमेव च।
संवर्णयेत् तदेवास्य प्रियादपि हितं भवेत् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्तव्य और अकर्तव्यके निर्णयके सभी अवसरोंपर हितकारक और प्रिय वचन कहे। यदि दोनों सम्भव न हों, तो प्रिय वचनका त्याग करके भी जो हितकारक हो, वही बात कहे (हितविरोधी प्रिय वचन कदापि न कहे)॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुकूलो भवेच्चास्य सर्वार्थेषु कथासु च।
अप्रियं चाहितं यत् स्यात् तदस्मै नानुवर्णयेत् ॥ २५ ॥

मूलम्

अनुकूलो भवेच्चास्य सर्वार्थेषु कथासु च।
अप्रियं चाहितं यत् स्यात् तदस्मै नानुवर्णयेत् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सभी विषयों तथा सब बातोंमें राजाके अनुकूल रहे। कथावार्तामें भी राजाके सामने ऐसी बातोंकी बार-बार चर्चा न करे, जो उसे अप्रिय एवं अहितकर प्रतीत होती हों॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहमस्य प्रियोऽस्मीति मत्वा सेवेत पण्डितः।
अप्रमत्तश्च सततं हितं कुर्यात् प्रियं च यत् ॥ २६ ॥

मूलम्

नाहमस्य प्रियोऽस्मीति मत्वा सेवेत पण्डितः।
अप्रमत्तश्च सततं हितं कुर्यात् प्रियं च यत् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विद्वान् पुरुष ‘मैं राजाका प्रिय व्यक्ति नहीं हूँ’, ऐसा मानता हुआ सदा सावधान रहकर उसकी सेवा करे। राजाके लिये जो हितकर और प्रिय हो, वही कार्य करे॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नास्यानिष्टानि सेवेत नाहितैः सह संवदेत्।
स्वस्थानान्न विकम्पेत स राजवसतिं वसेत् ॥ २७ ॥

मूलम्

नास्यानिष्टानि सेवेत नाहितैः सह संवदेत्।
स्वस्थानान्न विकम्पेत स राजवसतिं वसेत् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो चीज राजाको पसंद न हो, उसका कदापि सेवन न करे। उसके शत्रुओंसे बातचीत न करे और अपने स्थानसे कभी विचलित न हो। ऐसा बर्ताव करनेवाला मनुष्य ही राजाके यहाँ सकुशल रह सकता है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दक्षिणं वाथ वामं वा पार्श्वमासीत पण्डितः।
रक्षिणां ह्यात्तशस्त्राणां स्थानं पश्चात् विधीयते ॥ २८ ॥

मूलम्

दक्षिणं वाथ वामं वा पार्श्वमासीत पण्डितः।
रक्षिणां ह्यात्तशस्त्राणां स्थानं पश्चात् विधीयते ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह राजाके दाहिने या बायें भागमें बैठे; क्योंकि राजाके पीछे अस्त्र-शस्त्रधारी अंगरक्षक सैनिकोंका स्थान होता है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नित्यं हि प्रतिषिद्धं तु पुरस्तादासनं महत्।
न च संदर्शने किञ्चित् प्रवृत्तमपि संजयेत् ॥ २९ ॥

मूलम्

नित्यं हि प्रतिषिद्धं तु पुरस्तादासनं महत्।
न च संदर्शने किञ्चित् प्रवृत्तमपि संजयेत् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाके सामने किसीके लिये भी ऊँचा आसन लगाना सर्वथा निषिद्ध है। उसकी आँखोंके सामने यदि कोई पुरस्कार-वितरण या वेतनदान आदिका कार्य हो रहा हो, तो उसमें बिना बुलाये स्वयं पहले लेनेकी चेष्टा नहीं करनी चाहिये॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि ह्येतद् दरिद्राणां व्यलीकस्थानमुत्तमम्।
न मृषाभिहितं राज्ञां मनुष्येषु प्रकाशयेत् ॥ ३० ॥

मूलम्

अपि ह्येतद् दरिद्राणां व्यलीकस्थानमुत्तमम्।
न मृषाभिहितं राज्ञां मनुष्येषु प्रकाशयेत् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्योंकि ऐसी ढिठाई तो दरिद्रोंको भी बहुत अप्रिय जान पड़ती है; फिर राजाओंकी तो बात ही क्या है? राजाओंकी किसी झूठी बातको दूसरे मनुष्योंके सामने प्रकाशित न करें॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असूयन्ति हि राजानो नराननृतवादिनः।
तथैव चावमन्यन्ते नरान् पण्डितमानिनः ॥ ३१ ॥

मूलम्

असूयन्ति हि राजानो नराननृतवादिनः।
तथैव चावमन्यन्ते नरान् पण्डितमानिनः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्योंकि झूठ बोलनेवाले मनुष्योंसे राजालोग द्वेष मान लेते हैं। इसी तरह जो लोग अपनेको पण्डित मानते हैं, उनका भी राजा तिरस्कार करते हैं॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शूरोऽस्मीति न दृप्तः स्याद् बुद्धिमानिति वा पुनः।
प्रियमेवाचरन् राज्ञः प्रियो भवति भोगवान् ॥ ३२ ॥

मूलम्

शूरोऽस्मीति न दृप्तः स्याद् बुद्धिमानिति वा पुनः।
प्रियमेवाचरन् राज्ञः प्रियो भवति भोगवान् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं शूरवीर हूँ अथवा बड़ा बुद्धिमान् हूँ’, ऐसा घमंड न करे। जो सदा राजाको प्रिय लगनेवाले कार्य ही करता है, वही उसका प्रेमपात्र तथा ऐश्वर्यभोगसे सम्पन्न होता है॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐश्वर्यं प्राप्य दुष्प्रापं प्रियं प्राप्य च राजतः।
अप्रमत्तो भवेद् राज्ञः प्रियेषु च हितेषु च ॥ ३३ ॥

मूलम्

ऐश्वर्यं प्राप्य दुष्प्रापं प्रियं प्राप्य च राजतः।
अप्रमत्तो भवेद् राज्ञः प्रियेषु च हितेषु च ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजासे दुर्लभ ऐश्वर्य तथा प्रिय भोग प्राप्त होनेपर मनुष्य सदा सावधान होकर उसके प्रिय एवं हितकर कार्योंमें संलग्न रहे॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य कोपो महाबाधः प्रसादश्च महाफलः।
कस्तस्य मनसापीच्छेदनर्थं प्राज्ञसम्मतः ॥ ३४ ॥

मूलम्

यस्य कोपो महाबाधः प्रसादश्च महाफलः।
कस्तस्य मनसापीच्छेदनर्थं प्राज्ञसम्मतः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसका क्रोध बड़ा भारी संकट उपस्थित कर देता है और जिसकी प्रसन्नता महान् फल—ऐश्वर्य-भोग देनेवाली है, उस राजाका कौन बुद्धिमान् पुरुष मनसे भी अनिष्ट साधन करना चाहेगा?॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चोष्ठौ न भुजौ जानू न च वाक्यं समाक्षिपेत्।
सदा वातं च वाचं च ष्ठीवनं चाचरेच्छनैः ॥ ३५ ॥

मूलम्

न चोष्ठौ न भुजौ जानू न च वाक्यं समाक्षिपेत्।
सदा वातं च वाचं च ष्ठीवनं चाचरेच्छनैः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाके समक्ष अपने दोनों हाथ, ओठ और घुटनोंको व्यर्थ न हिलावे; बकवाद न करे। सदा शनैः-शनैः बोले। धीरेसे थूके और दूसरोंको पता न चले, इस प्रकार अधोवायु छोड़े॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हास्यवस्तुषु चान्यस्य वर्तमानेषु केषुचित्।
नातिगाढं प्रहृष्येत न चाप्युन्मत्तवद्धसेत् ॥ ३६ ॥
न चातिधैर्येण चरेद् गुरुतां हि व्रजेत् ततः।
स्मितं तु मृदुपूर्वेण दर्शयेत प्रसादजम् ॥ ३७ ॥

मूलम्

हास्यवस्तुषु चान्यस्य वर्तमानेषु केषुचित्।
नातिगाढं प्रहृष्येत न चाप्युन्मत्तवद्धसेत् ॥ ३६ ॥
न चातिधैर्येण चरेद् गुरुतां हि व्रजेत् ततः।
स्मितं तु मृदुपूर्वेण दर्शयेत प्रसादजम् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किसी दूसरे व्यक्तिके सम्बन्धमें कोई हास्यजनक वस्तु दिखायी दे, तो अधिक हर्ष न प्रकट करे एवं पागलोंकी तरह अट्टहास न करे तथा अत्यन्त धैर्यके कारण जडवत् निश्चेष्ट होकर भी न रहे। इससे वह गौरव (सम्मान) को प्राप्त होता है। मनमें प्रसन्नता होनेपर मुखसे मृदुल (मन्द) मुसकानका ही प्रदर्शन करे॥३६-३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लाभे न हर्षयेद् यस्तु न व्यथेद् योऽवमानितः।
असम्मूढश्च यो नित्यं स राजवसतिं वसेत् ॥ ३८ ॥

मूलम्

लाभे न हर्षयेद् यस्तु न व्यथेद् योऽवमानितः।
असम्मूढश्च यो नित्यं स राजवसतिं वसेत् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अभीष्ट वस्तुकी प्राप्ति होनेपर (अधिक) हर्षित नहीं होता अथवा अपमानित होनेपर अधिक व्यथाका अनुभव नहीं करता और सदा मोहशून्य होकर विवेकसे काम लेता है, वही राजाके यहाँ सुखपूर्वक रह सकता है॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजानं राजपुत्रं वा संवर्णयति यः सदा।
अमात्यः पण्डितो भूत्वा स चिरं तिष्ठते प्रियः ॥ ३९ ॥

मूलम्

राजानं राजपुत्रं वा संवर्णयति यः सदा।
अमात्यः पण्डितो भूत्वा स चिरं तिष्ठते प्रियः ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो बुद्धिमान् सचिव सदा राजा अथवा राजकुमारकी प्रशंसा करता रहता है, वही राजाके यहाँ उसका प्रीतिपात्र होकर दीर्घकालतक टिक सकता है॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रगृहीतश्च योऽमात्यो निगृहीतस्त्वकारणैः ।
न निर्वदति राजानं लभते सम्पदं पुनः ॥ ४० ॥
प्रत्यक्षं च परोक्षं च गुणवादी विचक्षणः।
उपजीवी भवेद् राज्ञो विषये योऽपि वा भवेत् ॥ ४१ ॥

मूलम्

प्रगृहीतश्च योऽमात्यो निगृहीतस्त्वकारणैः ।
न निर्वदति राजानं लभते सम्पदं पुनः ॥ ४० ॥
प्रत्यक्षं च परोक्षं च गुणवादी विचक्षणः।
उपजीवी भवेद् राज्ञो विषये योऽपि वा भवेत् ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि कोई मन्त्री पहले राजाका कृपापात्र रहा हो और पीछे अकारण उसे दण्ड भोगना पड़ा हो, उस दशामें भी जो राजाकी निन्दा नहीं करता, वह पुनः अपने पूर्व वैभवको प्राप्त कर लेता है। जो बुद्धिमान् राजाके आश्रित रहकर जीवननिर्वाह अथवा उसके राज्यमें निवास करता है, उसे राजाके सामने अथवा पीठ पीछे भी उसके गुणोंकी ही चर्चा करनी चाहिये॥४०-४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमात्यो हि बलाद् भोक्तुं राजानं प्रार्थयेत यः।
न स तिष्ठेच्चिरं स्थानं गच्छेच्च प्राणसंशयम् ॥ ४२ ॥

मूलम्

अमात्यो हि बलाद् भोक्तुं राजानं प्रार्थयेत यः।
न स तिष्ठेच्चिरं स्थानं गच्छेच्च प्राणसंशयम् ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मन्त्री राजाको बलपूर्वक अपने अधीन करना चाहता है, वह अधिक समयतक अपने पदपर नहीं टिक सकता। इतना ही नहीं, उसके प्राणोंपर भी संकट आ जाता है॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रेयः सदाऽऽत्मनो दृष्ट्वा परं राज्ञा न संवदेत्।
विशेषयेच्च राजानं योग्यभूमिषु सर्वदा ॥ ४३ ॥

मूलम्

श्रेयः सदाऽऽत्मनो दृष्ट्वा परं राज्ञा न संवदेत्।
विशेषयेच्च राजानं योग्यभूमिषु सर्वदा ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपनी भलाई अथवा लाभ देखकर दूसरेको सदा राजाके साथ न मिलावे; न बातचीत करावे। उपयुक्त स्थान और अवसर देखकर सदा राजाकी विशेषता प्रकट करे॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अम्लानोबलवाञ्छूरश्छायेवानुगतः सदा ।
सत्यवादी मृदुर्दान्तः स राजवसतिं वसेत् ॥ ४४ ॥

मूलम्

अम्लानोबलवाञ्छूरश्छायेवानुगतः सदा ।
सत्यवादी मृदुर्दान्तः स राजवसतिं वसेत् ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो उत्साहसम्पन्न, बुद्धि-बलसे युक्त, शूरवीर, सत्यवादी, कोमलस्वभाव और जितेन्द्रिय होकर सदा छायाकी भाँति राजाका अनुसरण करता है, वही राजदरबारमें टिक सकता है॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यस्मिन् प्रेष्यमाणे तु पुरस्ताद् यः समुत्पतेत्।
अहं किं करवाणीति स राजवसतिं वसेत् ॥ ४५ ॥

मूलम्

अन्यस्मिन् प्रेष्यमाणे तु पुरस्ताद् यः समुत्पतेत्।
अहं किं करवाणीति स राजवसतिं वसेत् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब दूसरेको किसी कार्यके लिये भेजा जा रहा हो, उस समय जो स्वयं ही उठकर आगे जाय और पूछे—‘मेरे लिये क्या आज्ञा है’, वही राजभवनमें निवास कर सकता है॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आन्तरे चैव बाह्ये च राज्ञा यश्चाथ सर्वदा।
आदिष्टो नैव कम्पेत स राजवसतिं वसेत् ॥ ४६ ॥

मूलम्

आन्तरे चैव बाह्ये च राज्ञा यश्चाथ सर्वदा।
आदिष्टो नैव कम्पेत स राजवसतिं वसेत् ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो राजाके द्वारा आन्तरिक (धन एवं स्त्री आदिकी रक्षा) और बाह्य (शत्रुविजय आदि) कार्योंके लिये आदेश मिलनेपर कभी शंकित या भयभीत नहीं होता, वही राजाके यहाँ रह सकता है॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो वै गृहेभ्यः प्रवसन् प्रियाणां नानुसंस्मरेत्।
दुःखेन सुखमन्विच्छेत् स राजवसतिं वसेत् ॥ ४७ ॥

मूलम्

यो वै गृहेभ्यः प्रवसन् प्रियाणां नानुसंस्मरेत्।
दुःखेन सुखमन्विच्छेत् स राजवसतिं वसेत् ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो घर-बार छोड़कर परदेशमें पड़ा रहनेपर भी प्रियजनों एवं अभीष्ट भोगोंका स्मरण नहीं करता और कष्ट सहकर सुख पानेकी इच्छा करता है, वही राजदरबारमें टिक सकता है॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समवेषं न कुर्वीत नोच्चैः संनिहितो वसेत्।
न मन्त्रं बहुधा कुर्यादेवं राज्ञः प्रियो भवेत् ॥ ४८ ॥

मूलम्

समवेषं न कुर्वीत नोच्चैः संनिहितो वसेत्।
न मन्त्रं बहुधा कुर्यादेवं राज्ञः प्रियो भवेत् ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाके समान वेशभूषा न धारण करे। उसके अत्यन्त निकट न रहे। उसके सामने उच्च आसनपर न बैठे। अपने साथ राजाने जो गुप्त सलाह की हो, उसे दूसरोंपर प्रकट न करे। ऐसा करनेसे ही मनुष्य राजाका प्रिय हो सकता है॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न कर्मणि नियुक्तः सन् धनं किञ्चिदपि स्पृशेत्।
प्राप्नोति हि हरन् द्रव्यं बन्धनं यदि वा वधम्॥४९॥

मूलम्

न कर्मणि नियुक्तः सन् धनं किञ्चिदपि स्पृशेत्।
प्राप्नोति हि हरन् द्रव्यं बन्धनं यदि वा वधम्॥४९॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि राजाने किसी कामपर नियुक्त किया हो, तो उसमें घूसके रूपमें थोड़ा भी धन न ले; क्योंकि जो इस प्रकार चोरीसे धन लेता है, उसे एक दिन बन्धन अथवा वधका दण्ड भोगना पड़ता है॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यानं वस्त्रमलङ्कारं यच्चान्यत् सम्प्रयच्छति।
तदेव धारयेन्नित्यमेवं प्रियतरो भवेत् ॥ ५० ॥

मूलम्

यानं वस्त्रमलङ्कारं यच्चान्यत् सम्प्रयच्छति।
तदेव धारयेन्नित्यमेवं प्रियतरो भवेत् ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा प्रसन्न होकर सवारी, वस्त्र, आभूषण तथा और भी जो कोई वस्तु दे, उसीको सदा धारण करे या उपयोगमें लावे। ऐसा करनेसे वह राजाका अधिक प्रिय होता है॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं संयम्य चित्तानि यत्नतः पाण्डुनन्दनाः।
संवत्सरमिमं तात तथाशीला बुभूषत।
अथ स्वविषयं प्राप्य यथाकामं करिष्यथ ॥ ५१ ॥

मूलम्

एवं संयम्य चित्तानि यत्नतः पाण्डुनन्दनाः।
संवत्सरमिमं तात तथाशीला बुभूषत।
अथ स्वविषयं प्राप्य यथाकामं करिष्यथ ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात युधिष्ठिर एवं पाण्डवो! इस प्रकार प्रयत्न-पूर्वक अपने मनको वशमें रखकर पूर्वोक्त रीतिसे उत्तम बर्ताव करते हुए इस तेरहवें वर्षको व्यतीत करो और इसी रूपमें रहकर ऐश्वर्य पानेकी इच्छा करो। तदनन्तर अपने राज्यमें आकर इच्छानुसार व्यवहार करना॥५१॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुशिष्टाः स्म भद्रं ते नैतद् वक्तास्ति कश्चन।
कुन्तीमृते मातरं नो विदुरं वा महामतिम् ॥ ५२ ॥

मूलम्

अनुशिष्टाः स्म भद्रं ते नैतद् वक्तास्ति कश्चन।
कुन्तीमृते मातरं नो विदुरं वा महामतिम् ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— ब्रह्मन्! आपका भला हो। आपने हमें बहुत अच्छी शिक्षा दी। हमारी माता कुन्ती तथा महाबुद्धिमान् विदुरजीको छोड़कर दूसरा कोई नहीं है, जो हमें ऐसी बात बतावे॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदेवानन्तरं कार्यं तद् भवान् कर्तुमर्हति।
तारणायास्य दुःखस्य प्रस्थानाय जयाय च ॥ ५३ ॥

मूलम्

यदेवानन्तरं कार्यं तद् भवान् कर्तुमर्हति।
तारणायास्य दुःखस्य प्रस्थानाय जयाय च ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब हमें इस दुःखसागरसे पार होने, यहाँसे प्रस्थान करने और विजय पानेके लिये जो कर्तव्य आवश्यक हो, उसे आप पूर्ण करें॥५३॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्ततो राज्ञा धौम्योऽथ द्विजसत्तमः।
अकरोद् विधिवत् सर्वं प्रस्थाने यद् विधीयते ॥ ५४ ॥

मूलम्

एवमुक्तस्ततो राज्ञा धौम्योऽथ द्विजसत्तमः।
अकरोद् विधिवत् सर्वं प्रस्थाने यद् विधीयते ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! राजा युधिष्ठिरके ऐसा कहनेपर विप्रवर धौम्यजीने यात्राके समय जो आवश्यक शास्त्रविहित कर्तव्य है, वह सब विधिपूर्वक सम्पन्न किया॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां समिध्य तानग्नीन् मन्त्रवच्च जुहाव सः।
समृद्धिवृद्धिलाभाय पृथिवीविजयाय च ॥ ५५ ॥

मूलम्

तेषां समिध्य तानग्नीन् मन्त्रवच्च जुहाव सः।
समृद्धिवृद्धिलाभाय पृथिवीविजयाय च ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डवोंकी अग्निहोत्रसम्बन्धी अग्निको प्रज्वलित करके उन्होंने उनकी समृद्धि, वृद्धि, राज्यलाभ तथा पृथ्वीपर विजय-प्राप्तिके लिये वेदमन्त्र पढ़कर होम किया॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्नीन् प्रदक्षिणीकृत्य ब्राह्मणांश्च तपोधनान्।
याज्ञसेनीं पुरस्कृत्य षडेवाथ प्रवव्रजुः ॥ ५६ ॥

मूलम्

अग्नीन् प्रदक्षिणीकृत्य ब्राह्मणांश्च तपोधनान्।
याज्ञसेनीं पुरस्कृत्य षडेवाथ प्रवव्रजुः ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् पाण्डवोंने अग्नि तथा तपस्वी ब्राह्मणोंकी परिक्रमा करके द्रौपदीको आगे रखकर वहाँसे प्रस्थान किया। कुल छः व्यक्ति ही आसन छोड़कर एक साथ चले थे॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गतेषु तेषु वीरेषु धौम्योऽथ जपतां वरः।
अग्निहोत्राण्युपादाय पाञ्चालानभ्यगच्छत ॥ ५७ ॥

मूलम्

गतेषु तेषु वीरेषु धौम्योऽथ जपतां वरः।
अग्निहोत्राण्युपादाय पाञ्चालानभ्यगच्छत ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन पाण्डव वीरोंके चले जानेपर जपयज्ञ करनेवालोंमें श्रेष्ठ धौम्यजी उस अग्निहोत्रसम्बन्धी अग्निको साथ लेकर पांचालदेशमें चले गये॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रसेनादयश्चैव यथोक्ताः प्राप्य यादवान्।
रथानश्वांश्च रक्षन्तः सुखमूषुः सुसंवृताः ॥ ५८ ॥

मूलम्

इन्द्रसेनादयश्चैव यथोक्ताः प्राप्य यादवान्।
रथानश्वांश्च रक्षन्तः सुखमूषुः सुसंवृताः ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रसेन आदि सेवक भी पूर्वोक्त आदेश पाकर यदुवंशियोंकी नगरी द्वारकामें जा पहुँचे और वहाँ स्वयं सुरक्षित हो रथ और घोड़ोंकी रक्षा करते हुए सुखपूर्वक रहने लगे॥५८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि पाण्डवप्रवेशपर्वणि धौम्योपदेशे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत पाण्डवप्रवेशपर्वमें धौम्योपदेशसम्बन्धी चौथा अध्याय पूरा हुआ॥४॥