श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
तृतीयोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
नकुल, सहदेव तथा द्रौपदीद्वारा अपने-अपने भावी कर्तव्योंका दिग्दर्शन
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवमुक्त्वा पुरुषप्रवीर-
स्तथार्जुनो धर्मभृतां वरिष्ठः ।
वाक्यं तथासौ विरराम भूयो
नृपोऽपरं भ्रातरमाबभाषे ॥ १ ॥
मूलम्
इत्येवमुक्त्वा पुरुषप्रवीर-
स्तथार्जुनो धर्मभृतां वरिष्ठः ।
वाक्यं तथासौ विरराम भूयो
नृपोऽपरं भ्रातरमाबभाषे ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ तथा पुरुषोंमें महान् वीर अर्जुन इस प्रकार कहकर चुप हो गये। तब राजा युधिष्ठिर पुनः दूसरे भाईसे बोले॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं त्वं नकुल कुर्वाणस्तत्र तात चरिष्यसि।
कर्म तत् त्वं समाचक्ष्व राज्ये तस्य महीपतेः।
सुकुमारश्च शूरश्च दर्शनीयः सुखोचितः ॥ २ ॥
मूलम्
किं त्वं नकुल कुर्वाणस्तत्र तात चरिष्यसि।
कर्म तत् त्वं समाचक्ष्व राज्ये तस्य महीपतेः।
सुकुमारश्च शूरश्च दर्शनीयः सुखोचितः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— नकुल! तुम राजा विराटके राज्यमें कौन-सा कार्य करते हुए निवास करोगे? वह कार्य बताओ। तात! तुम तो शूरवीर होनेके साथ ही अत्यन्त सुकुमार, परम दर्शनीय और सर्वथा सुख भोगनेके ही योग्य हो॥२॥
मूलम् (वचनम्)
नकुल उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्वबन्धो भविष्यामि विराटनृपतेरहम् ।
सर्वथा ज्ञानसम्पन्नः कुशलः परिरक्षणे ॥ ३ ॥
मूलम्
अश्वबन्धो भविष्यामि विराटनृपतेरहम् ।
सर्वथा ज्ञानसम्पन्नः कुशलः परिरक्षणे ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नकुल बोले— राजन्! मैं राजा विराटके यहाँ अश्वबन्ध (घोड़ोंको वशमें करनेवाला सवार) होकर रहूँगा। मैं अश्वविज्ञानसे सम्पन्न और घोड़ोंकी रक्षाके कार्यमें कुशल हूँ॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ग्रन्थिको नाम नाम्नाहं कर्मैतत् सुप्रियं मम।
कुशलोऽस्म्यश्वशिक्षायां तथैवाश्वचिकित्सने ।
प्रियाश्च सततं मेऽश्वाः कुरुराज यथा तव ॥ ४ ॥
मूलम्
ग्रन्थिको नाम नाम्नाहं कर्मैतत् सुप्रियं मम।
कुशलोऽस्म्यश्वशिक्षायां तथैवाश्वचिकित्सने ।
प्रियाश्च सततं मेऽश्वाः कुरुराज यथा तव ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं राजसभामें ग्रन्थिक नामसे अपना परिचय दूँगा। घोड़ोंकी देखभालका काम मुझे अत्यन्त प्रिय है। उन्हें भाँति-भाँतिकी चालें सिखाने और उनकी चिकित्सा करनेमें भी मैं निपुण हूँ। कुरुराज! आपकी ही भाँति मुझे भी घोड़े सदैव प्रिय रहे हैं[^*]॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये मामामन्त्रयिष्यन्ति विराटनगरे जनाः।
तेभ्य एवं प्रवक्ष्यामि विहरिष्याम्यहं यथा ॥ ५ ॥
पाण्डवेन पुरा तात अश्वेष्वधिकृतः पुरा।
विराटनगरे छन्नश्चरिष्यामि महीपते ॥ ६ ॥
मूलम्
ये मामामन्त्रयिष्यन्ति विराटनगरे जनाः।
तेभ्य एवं प्रवक्ष्यामि विहरिष्याम्यहं यथा ॥ ५ ॥
पाण्डवेन पुरा तात अश्वेष्वधिकृतः पुरा।
विराटनगरे छन्नश्चरिष्यामि महीपते ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विराटनगरमें जो लोग मुझसे पूछेंगे, उन्हें मैं इस प्रकार उत्तर दूँगा—‘तात! पहले पाण्डुनन्दन राजा युधिष्ठिरने मुझे अश्वोंका अध्यक्ष बनाकर रख रखा था।’ महीपते! मैं जिस प्रकार वहाँ विहार करूँगा, वह सब मैंने आपको बता दिया। राजा विराटके नगरमें अपनेको छिपाये रखकर ही मैं सर्वत्र विचरूँगा॥५-६॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहदेव कथं तस्य समीपे विहरिष्यसि।
किं वा त्वं कर्म कुर्वाणः प्रच्छन्नो विहरिष्यसि ॥ ७ ॥
मूलम्
सहदेव कथं तस्य समीपे विहरिष्यसि।
किं वा त्वं कर्म कुर्वाणः प्रच्छन्नो विहरिष्यसि ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने सहदेवसे पूछा— भैया सहदेव! तुम राजा विराटके समीप कैसे जाओगे उनके यहाँ क्या काम करते हुए गुप्तरूपसे निवास करोगे?॥७॥
मूलम् (वचनम्)
सहदेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोसंख्याता भविष्यामि विराटस्य महीपतेः।
प्रतिषेद्धा च दोग्धा च संख्याने कुशलो गवाम् ॥ ८ ॥
मूलम्
गोसंख्याता भविष्यामि विराटस्य महीपतेः।
प्रतिषेद्धा च दोग्धा च संख्याने कुशलो गवाम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सहदेवने कहा— महाराज! मैं राजा विराटके यहाँ गौओंकी गिनती—जाँच-पड़ताल करनेवाला गो-शालाध्यक्ष होकर रहूँगा। मैं गौओंको नियन्त्रणमें रखने और दुहनेका काम अच्छी तरह जानता हूँ। उन्हें गिनने और उनकी परख-पहचानके काममें भी कुशल हूँ॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तन्तिपाल इति ख्यातो नाम्नाहं विदितस्त्वथ।
निपुणं च चरिष्यामि व्येतु ते मानसो ज्वरः ॥ ९ ॥
मूलम्
तन्तिपाल इति ख्यातो नाम्नाहं विदितस्त्वथ।
निपुणं च चरिष्यामि व्येतु ते मानसो ज्वरः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं वहाँ तन्तिपाल नामसे प्रसिद्ध होऊँगा। इसी नामसे मुझे सब लोग जानेंगे। मैं बड़ी चतुराईसे अपनेको छिपाये रखकर वहाँ सब ओर विचरूँगा; अतः मेरे विषयमें आपकी मानसिक चिन्ता दूर हो जानी चाहिये॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(अरोगा बहुलाः पुष्टाः क्षीरवत्यो बहुप्रजाः।
निष्पन्नसत्त्वाः सुभृता व्यपेतज्वरकिल्बिषाः ॥
नष्टचोरभया नित्यं व्याधिव्याघ्रविवर्जिताः ।
गावश्च सुसुखा राजन् निरुद्विग्ना निरामयाः॥
भविष्यन्ति मया गुप्ता विराटपशवो नृप॥)
मूलम्
(अरोगा बहुलाः पुष्टाः क्षीरवत्यो बहुप्रजाः।
निष्पन्नसत्त्वाः सुभृता व्यपेतज्वरकिल्बिषाः ॥
नष्टचोरभया नित्यं व्याधिव्याघ्रविवर्जिताः ।
गावश्च सुसुखा राजन् निरुद्विग्ना निरामयाः॥
भविष्यन्ति मया गुप्ता विराटपशवो नृप॥)
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! मेरे द्वारा रक्षित होकर राजा विराटके पशु तथा गौएँ नीरोग, संख्यामें अधिक, हृष्ट-पुष्ट, अधिक दूध देनेवाली, बहुत संतानोंवाली, सत्त्वयुक्त, अच्छी तरह सम्हाल होनेसे रोगरूप पापसे रहित, चोरोंके भयसे मुक्त तथा सदा व्याधि एवं बाघ आदिके भयसे रक्षित होंगी। महाराज! वे उद्वेगरहित, सुखी और निरामय तो होंगी ही।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं हि सततं गोषु भवता प्रहितः पुरा।
तत्र मे कौशलं सर्वमवबुद्धं विशाम्पते ॥ १० ॥
मूलम्
अहं हि सततं गोषु भवता प्रहितः पुरा।
तत्र मे कौशलं सर्वमवबुद्धं विशाम्पते ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भूपाल! पहले आपने मुझे सदा गौओंकी देखभालके कार्यमें नियुक्त किया है। इस कार्यमें मैं कितना दक्ष हूँ, यह सब आपको विदित ही है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लक्षणं चरितं चापि गवां यच्चापि मङ्गलम्।
तत् सर्वं मे सुविदितमन्यच्चापि महीपते ॥ ११ ॥
वृषभानपि जानामि राजन् पूजितलक्षणान्।
येषां मूत्रमुपाघ्राय अपि वन्ध्या प्रसूयते ॥ १२ ॥
मूलम्
लक्षणं चरितं चापि गवां यच्चापि मङ्गलम्।
तत् सर्वं मे सुविदितमन्यच्चापि महीपते ॥ ११ ॥
वृषभानपि जानामि राजन् पूजितलक्षणान्।
येषां मूत्रमुपाघ्राय अपि वन्ध्या प्रसूयते ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महीपते! गौओंके जो लक्षण और चरित्र मंगल-कारक होते हैं, वे सब मुझे भलीभाँति मालूम हैं। उनके विषयमें और भी बहुत-सी बातें मैं जानता हूँ। राजन्! इसके सिवा मैं ऐसे प्रशंसनीय लक्षणोंवाले साँड़ोंको भी जानता हूँ, जिनके मूत्रको सूँघ लेनेमात्रसे वन्ध्या स्त्री भी गर्भवती हो सकती है॥११-१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽहमेवं चरिष्यामि प्रीतिरत्र हि मे सदा।
न च मां वेत्स्यते कश्चित् तोषयिष्ये च पार्थिवम्॥१३॥
मूलम्
सोऽहमेवं चरिष्यामि प्रीतिरत्र हि मे सदा।
न च मां वेत्स्यते कश्चित् तोषयिष्ये च पार्थिवम्॥१३॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार मैं गौओंकी सेवा करूँगा। इस कार्यमें मुझे सदासे प्रेम रहा है। वहाँ मुझे कोई पहचान नहीं सकेगा। मैं अपने कार्यसे राजा विराटको संतुष्ट कर लूँगा[^*]॥१३॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इयं हि नः प्रिया भार्या प्राणेभ्योऽपि गरीयसी।
मातेव परिपाल्या च पूज्या ज्येष्ठेव च स्वसा ॥ १४ ॥
केन स्म द्रौपदी कृष्णा कर्मणा विचरिष्यति।
न हि किञ्चिद् विजानाति कर्म कर्तुं यथा स्त्रियः॥१५॥
मूलम्
इयं हि नः प्रिया भार्या प्राणेभ्योऽपि गरीयसी।
मातेव परिपाल्या च पूज्या ज्येष्ठेव च स्वसा ॥ १४ ॥
केन स्म द्रौपदी कृष्णा कर्मणा विचरिष्यति।
न हि किञ्चिद् विजानाति कर्म कर्तुं यथा स्त्रियः॥१५॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— यह द्रुपदकुमारी कृष्णा हमलोगोंकी प्यारी भार्या है। इसका गौरव हमारे लिये प्राणोंसे भी बढ़कर है। यह माता (पृथ्वी)-की भाँति पालन करनेयोग्य तथा बड़ी बहन (धेनु)-के समान आदरणीय है। यह तो दूसरी स्त्रियोंकी भाँति कोई काम-काज भी नहीं जानती; फिर वहाँ किस कर्मका आश्रय लेकर निवास करेगी?॥१४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुकुमारी च बाला च राजपुत्री यशस्विनी।
पतिव्रता महाभागा कथं नु विचरिष्यति ॥ १६ ॥
मूलम्
सुकुमारी च बाला च राजपुत्री यशस्विनी।
पतिव्रता महाभागा कथं नु विचरिष्यति ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसका शरीर अत्यन्त सुकुमार है। इसकी अवस्था नयी है। यह यशस्विनी राजकुमारी परम सौभाग्यवती तथा पतिव्रता है। भला, यह विराटनगरमें किस प्रकार रहेगी?॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
माल्यगन्धानलङ्कारान् वस्त्राणि विविधानि च।
एतान्येवाभिजानाति यतो जाता हि भामिनी ॥ १७ ॥
मूलम्
माल्यगन्धानलङ्कारान् वस्त्राणि विविधानि च।
एतान्येवाभिजानाति यतो जाता हि भामिनी ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस भामिनीने जबसे जन्म लिया है, तबसे अबतक माला, सुगन्धित पदार्थ, भाँति-भाँतिके गहने तथा अनेक प्रकारके वस्त्रोंको ही जाना है। इसने कभी कष्टका अनुभव नहीं किया है॥१७॥
मूलम् (वचनम्)
द्रौपद्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सैरन्ध्र्यो रक्षिता लोके भुजिष्याः सन्ति भारत।
नैवमन्याः स्त्रियो यान्ति इति लोकस्य निश्चयः॥
साहं ब्रुवाणा सैरन्ध्री कुशला केशकर्मणि ॥ १८ ॥
युधिष्ठिरस्य गेहे वै द्रौपद्याः परिचारिका।
उषितास्मीति वक्ष्यामि पृष्टा राज्ञा च भारत ॥ १९ ॥
मूलम्
सैरन्ध्र्यो रक्षिता लोके भुजिष्याः सन्ति भारत।
नैवमन्याः स्त्रियो यान्ति इति लोकस्य निश्चयः॥
साहं ब्रुवाणा सैरन्ध्री कुशला केशकर्मणि ॥ १८ ॥
युधिष्ठिरस्य गेहे वै द्रौपद्याः परिचारिका।
उषितास्मीति वक्ष्यामि पृष्टा राज्ञा च भारत ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रौपदीने कहा— भारत! इस जगत्में बहुत-सी ऐसी स्त्रियाँ हैं, जिनका दूसरोंके घरोंमें पालन होता है और जो शिल्पकर्मोंद्वारा जीवननिर्वाह करती हैं। वे अपने सदाचारसे स्वतः सुरक्षित होती हैं। ऐसी स्त्रियोंको सैरन्ध्री कहते हैं। लोगोंको अच्छी तरह मालूम है कि सैरन्ध्रीकी भाँति दूसरी स्त्रियाँ बाहरकी यात्रा नहीं करतीं, [अतः सैरन्ध्रीके वेशमें मुझे कोई पहचान नहीं सकेगा।] इसलिये मैं सैरन्ध्री कहकर अपना परिचय दूँगी। बालोंको सँवारने और वेणी-रचना आदिके कार्योंमें मैं बहुत निपुण हूँ। यदि राजा मुझसे पूछेंगे, तो कह दूँगी कि ‘मैं महाराज युधिष्ठिरके महलमें महारानी द्रौपदीकी परिचारिका बनकर रही हूँ’॥१८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मगुप्ता चरिष्यामि यन्मां त्वं परिपृच्छसि ॥ २० ॥
सुदेष्णां प्रत्युपस्थास्ये राजभार्यां यशस्विनीम्।
सा रक्षिष्यति मां प्राप्तां मा भूत् ते दुःखमीदृशम्॥२१॥
मूलम्
आत्मगुप्ता चरिष्यामि यन्मां त्वं परिपृच्छसि ॥ २० ॥
सुदेष्णां प्रत्युपस्थास्ये राजभार्यां यशस्विनीम्।
सा रक्षिष्यति मां प्राप्तां मा भूत् ते दुःखमीदृशम्॥२१॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं अपनी रक्षा स्वयं कर लूँगी। आप जो मुझसे पूछते हैं कि तुम वहाँ क्या करोगी? कैसे रहोगी? उसके उत्तरमें निवेदन है कि मैं यशस्विनी राजपत्नी सुदेष्णाके पास जाऊँगी। मुझे अपने पास आयी हुई जानकर वे रख लेंगी और सब प्रकारसे मेरी रक्षा करेंगी। अतः आपके मनमें इस बातका दुःख नहीं होना चाहिये कि द्रौपदी कैसे सुरक्षित रह सकेगा॥२०-२१॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कल्याणं भाषसे कृष्णे कुले जातासि भामिनि।
न पापमभिजानासि साध्वी साधुव्रते स्थिता ॥ २२ ॥
मूलम्
कल्याणं भाषसे कृष्णे कुले जातासि भामिनि।
न पापमभिजानासि साध्वी साधुव्रते स्थिता ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— कृष्णे! तुमने भली बात कही, इसमें कल्याण ही भरा है। क्यों न हो, तुम ऊँचे कुलमें उत्पन्न जो हुई हो! भामिनि! तुम्हें पापका रंचमात्र भी ज्ञान नहीं है। तुम साध्वी हो और उत्तम व्रतके पालनमें तत्पर रहती हो॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा न दुर्हृदः पापा भवन्ति सुखिनः पुनः।
कुर्यास्तत् त्वं हि कल्याणि लक्षयेयुर्न ते तथा ॥ २३ ॥
मूलम्
यथा न दुर्हृदः पापा भवन्ति सुखिनः पुनः।
कुर्यास्तत् त्वं हि कल्याणि लक्षयेयुर्न ते तथा ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कल्याणि! वहाँ ऐसा बर्ताव करना, जिससे वे पापी शत्रु फिर सुखी होनेका अवसर न पा सकें; वे तुम्हें किसी तरह पहचान न सकें॥२३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि पाण्डवप्रवेशपर्वणि युधिष्ठिरादिमन्त्रणे तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत पाण्डवप्रवेशपर्वमें युधिष्ठिर आदिकी परस्पर मन्त्रणाविषयक तीसरा अध्याय पूरा हुआ॥३॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल २५ श्लोक हैं।)
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नकुलने अपना नाम ग्रन्थिक बताया और अपनेको अश्वोंका अधिकारी कहा है। ग्रन्थिकका अर्थ है आयुर्वेद तथा अध्वर्युविद्यासम्बन्धी ग्रन्थोंको जाननेवाला। श्रुतिमें अश्विनीकुमारोंको देवताओंका वैद्य तथा अध्वर्यु कहा गया है। ‘अश्विनौ वै देवाना भिषजावश्विनावध्वर्यू’। नकुल अश्विनीकुमारोंके पुत्र हैं; अतः उनका अपनेको ग्रन्थिक कहना उपयुक्त ही है। ‘नास्ति श्वो येषां ते अश्वाः’ जिनके कलतक जीवित रहनेकी आशा न हो, वे अश्व हैं—इस व्युत्पत्तिके अनुसार जीवनकी आशा छोड़कर युद्धमें डटे रहनेवाले वीरोंको अश्व कहते हैं। नकुल उनके अधिकारी अर्थात् वीरोंमें प्रधान हैं। अतः उनका यह परिचय यथार्थ ही है।
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‘तस्य वाक्तन्तिर्नामानि दामानि’ इस श्रुतिके अनुसार तन्ति शब्द वाणीका वाचक है। तन्तिपाल कहकर सहदेवने गूढ़रूपसे युधिष्ठिरको यह बताया कि मैं आपकी प्रत्येक आज्ञाका पालन करूँगा। साधारण लोगोंकी दृष्टिमें तन्तिपालका अर्थ है, बैलोंको बाँधनेकी रस्सीको सुरक्षित रखनेवाला। अतः सहदेवने भी अपना परिचय यथार्थ ही दिया।