००१ अरण्ये पाण्डवानां गुप्तमन्त्रणा

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
Misc Detail

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

सूचना (हिन्दी)

श्रीमहाभारतम्
विराटपर्व

भागसूचना

पाण्डवप्रवेशपर्व
प्रथमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

विराटनगरमें अज्ञातवास करनेके लिये पाण्डवोंकी गुप्त मन्त्रणा तथा युधिष्ठिरके द्वारा अपने भावी कार्यक्रमका दिग्दर्शन

विश्वास-प्रस्तुतिः

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥ १ ॥

मूलम्

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अन्तर्यामी नारायण भगवान् श्रीकृष्ण, (उनके नित्यसखा) नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन, (उनकी लीला प्रकट करनेवाली) भगवती सरस्वती और (उनकी लीलाओंका संकलन करनेवाले) महर्षि वेदव्यासको नमस्कार करके जय (महाभारत)-का पाठ करना चाहिये॥१॥

मूलम् (वचनम्)

जनमेजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं विराटनगरे मम पूर्वपितामहाः।
अज्ञातवासमुषिता दुर्योधनभयार्दिताः ॥ २ ॥
पतिव्रता महाभागा सततं ब्रह्मवादिनी।
द्रौपदी च कथं ब्रह्मन्नज्ञाता दुःखितावसत् ॥ ३ ॥

मूलम्

कथं विराटनगरे मम पूर्वपितामहाः।
अज्ञातवासमुषिता दुर्योधनभयार्दिताः ॥ २ ॥
पतिव्रता महाभागा सततं ब्रह्मवादिनी।
द्रौपदी च कथं ब्रह्मन्नज्ञाता दुःखितावसत् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजयने पूछा— ब्रह्मन्! मेरे प्रपितामह पाण्डवोंने दुर्योधनके भयसे कष्ट उठाते हुए विराटनगरमें अपने अज्ञातवासका समय किस प्रकार व्यतीत किया तथा दुःखमें पड़ी हुई सदा ब्रह्मस्वरूप श्रीकृष्णका नामकीर्तन करनेवाली परम सौभाग्यवती पतिव्रता द्रौपदी वहाँ अपनेको अज्ञात रखकर कैसे निवास कर सकी?॥२-३॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा विराटनगरे तव पूर्वपितामहाः।
अज्ञातवासमुषितास्तच्छृणुष्व नराधिप ॥ ४ ॥

मूलम्

यथा विराटनगरे तव पूर्वपितामहाः।
अज्ञातवासमुषितास्तच्छृणुष्व नराधिप ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजीने कहा— राजन्! तुम्हारे प्रपितामहोंने विराटनगरमें जिस प्रकार अज्ञातवासके दिन पूरे किये थे, वह बताता हूँ; सुनो॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा स तु वराल्ँलब्ध्वा धर्मो धर्मभृतां वरः।
गत्वाऽऽश्रमं ब्राह्मणेभ्य आचख्यौ सर्वमेव तत् ॥ ५ ॥

मूलम्

तथा स तु वराल्ँलब्ध्वा धर्मो धर्मभृतां वरः।
गत्वाऽऽश्रमं ब्राह्मणेभ्य आचख्यौ सर्वमेव तत् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षरूपधारी धर्मसे इस प्रकार वरदान पानेके अनन्तर धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ धर्मपुत्र युधिष्ठिरने आश्रमपर जाकर वह सब समाचार ब्राह्मणोंको बताया॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथयित्वा तु तत् सर्वं ब्राह्मणेभ्यो युधिष्ठिरः।
अरणीसहितं तस्मै ब्राह्मणाय न्यवेदयत् ॥ ६ ॥
ततो युधिष्ठिरो राजा धर्मपुत्रो महामनाः।
संनिवर्त्यानुजान् सर्वानिति होवाच भारत ॥ ७ ॥

मूलम्

कथयित्वा तु तत् सर्वं ब्राह्मणेभ्यो युधिष्ठिरः।
अरणीसहितं तस्मै ब्राह्मणाय न्यवेदयत् ॥ ६ ॥
ततो युधिष्ठिरो राजा धर्मपुत्रो महामनाः।
संनिवर्त्यानुजान् सर्वानिति होवाच भारत ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! ब्राह्मणोंसे सब कुछ बताकर जब युधिष्ठिरने अरणीसहित मन्थनकाष्ठ पूर्वोक्त ब्राह्मणदेवताको सौंप दिया, तब धर्मपुत्र महामनस्वी उन राजा युधिष्ठिरने अपने सब भाइयोंको एकत्र करके इस प्रकार कहा—॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वादशेमानि वर्षाणि राज्यविप्रोषिता वयम्।
त्रयोदशोऽयं सम्प्राप्तः कृच्छ्रात् परमदुर्वसः ॥ ८ ॥

मूलम्

द्वादशेमानि वर्षाणि राज्यविप्रोषिता वयम्।
त्रयोदशोऽयं सम्प्राप्तः कृच्छ्रात् परमदुर्वसः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आज बारह वर्ष बीत गये, हमलोग अपने राज्यसे बाहर आकर वनमें रहते हैं। अब यह तेरहवाँ वर्ष आरम्भ हुआ है। इसमें बड़े कष्टसे कठिनाइयोंका सामना करते हुए अत्यन्त गुप्तरूपसे रहना होगा॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स साधु कौन्तेय इतो वासमर्जुन रोचय।
संवत्सरमिमं यत्र वसेमाविदिताः परैः ॥ ९ ॥

मूलम्

स साधु कौन्तेय इतो वासमर्जुन रोचय।
संवत्सरमिमं यत्र वसेमाविदिताः परैः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुन्तीनन्दन अर्जुन! तुम अपनी रुचिके अनुसार कोई उत्तम निवासस्थान चुनो, जहाँ यहाँसे चलकर हम एक वर्षतक इस प्रकार रहें कि शत्रुओंको हमारा पता न चल सके’॥९॥

मूलम् (वचनम्)

अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यैव वरदानेन धर्मस्य मनुजाधिप।
अज्ञाता विचरिष्यामो नराणां नात्र संशयः ॥ १० ॥
तत्र वासाय राष्ट्राणि कीर्तयिष्यामि कानिचित्।
रमणीयानि गुप्तानि तेषां किञ्चित् स्म रोचय ॥ ११ ॥

मूलम्

तस्यैव वरदानेन धर्मस्य मनुजाधिप।
अज्ञाता विचरिष्यामो नराणां नात्र संशयः ॥ १० ॥
तत्र वासाय राष्ट्राणि कीर्तयिष्यामि कानिचित्।
रमणीयानि गुप्तानि तेषां किञ्चित् स्म रोचय ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन बोले— नरेश्वर! इसमें संदेह नहीं कि उन्हीं भगवान् धर्मके दिये हुए वरके प्रभावसे हमलोग इस पृथ्वीपर विचरते रहेंगे और हमें दूसरे मनुष्य पहचान न सकेंगे तथापि मैं आपसे निवास करनेयोग्य कुछ रमणीय एवं गुप्त राष्ट्रोंके नाम बतलाऊँगा, उनमेंसे किसीको आप स्वयं ही अपनी रुचिके अनुसार चुन लीजिये॥१०-११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सन्ति रम्या जनपदा बह्वन्नाः परितः कुरून्।
पाञ्चालाश्चेदिमत्स्याश्च शूरसेनाः पटच्चराः ॥ १२ ॥
दशार्णा नवराष्ट्राश्च मल्लाः शाल्वा युगन्धराः।
कुन्तिराष्ट्रं च विपुलं सुराष्ट्रावन्तयस्तथा ॥ ५३ ॥

मूलम्

सन्ति रम्या जनपदा बह्वन्नाः परितः कुरून्।
पाञ्चालाश्चेदिमत्स्याश्च शूरसेनाः पटच्चराः ॥ १२ ॥
दशार्णा नवराष्ट्राश्च मल्लाः शाल्वा युगन्धराः।
कुन्तिराष्ट्रं च विपुलं सुराष्ट्रावन्तयस्तथा ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुदेशके चारों ओर बहुत-से सुरम्य जनपद हैं, जहाँ बहुत अन्न होता है। उनके नाम ये हैं—पांचाल, चेदि, मत्स्य, शूरसेन, पटच्चर, दशार्ण, नवराष्ट्र, मल्ल, शाल्व, युगन्धर, विशाल कुन्तिराष्ट्र, सौराष्ट्र तथा अवन्ती॥१२-१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतेषां कतमो राजन् निवासस्तव रोचते।
यत्र वत्स्यामहे राजन् संवत्सरमिमं वयम् ॥ १४ ॥

मूलम्

एतेषां कतमो राजन् निवासस्तव रोचते।
यत्र वत्स्यामहे राजन् संवत्सरमिमं वयम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इनमेंसे कौन-सा राष्ट्र आपको निवास करनेके लिये पसंद है? जिसमें हम सब लोग इस वर्ष निवास करें॥१४॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुतमेतन्महाबाहो यथा स भगवान् प्रभुः।
अब्रवीत् सर्वभूतेशस्तत् तथा न तदन्यथा ॥ १५ ॥

मूलम्

श्रुतमेतन्महाबाहो यथा स भगवान् प्रभुः।
अब्रवीत् सर्वभूतेशस्तत् तथा न तदन्यथा ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने कहा— महाबाहो! तुम्हारी यह बात मैंने ध्यानसे सुनी है। सम्पूर्ण भूतोंके अधीश्वर और प्रभावशाली भगवान् धर्मने हमारे लिये जैसा आदेश दिया है, वह सब वैसा ही होगा। उसके विपरीत कुछ नहीं होगा॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवश्यं त्वेव वासार्थं रमणीयं शिवं सुखम्।
सम्मन्त्र्य सहितैः सर्वैर्वस्तव्यमकुतोभयैः ॥ १६ ॥

मूलम्

अवश्यं त्वेव वासार्थं रमणीयं शिवं सुखम्।
सम्मन्त्र्य सहितैः सर्वैर्वस्तव्यमकुतोभयैः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथापि हम सब लोगोंको आपसमें सलाह करके अवश्य ही अपने रहनेके लिये कोई परम सुन्दर, कल्याणकारी तथा सुखद स्थान चुन लेना चाहिये, जहाँ हम निर्भय होकर रह सकें॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मत्स्यो विराटो बलवानभिरक्तोऽथ पाण्डवान्।
धर्मशीलो वदान्यश्च वृद्धश्च सततं प्रियः ॥ १७ ॥

मूलम्

मत्स्यो विराटो बलवानभिरक्तोऽथ पाण्डवान्।
धर्मशीलो वदान्यश्च वृद्धश्च सततं प्रियः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

[तुम्हारे बताये हुए देशोंमेंसे] मत्स्यदेशके राजा विराट बहुत बलवान् हैं और पाण्डवोंके प्रति उनका अनुराग भी है; साथ ही वे स्वभावतः धर्मात्मा, वृद्ध, उदार तथा हमें सदैव प्रिय हैं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विराटनगरे तात संवत्सरमिमं वयम्।
कुर्वन्तस्तस्य कर्माणि विहरिष्याम भारत ॥ १८ ॥

मूलम्

विराटनगरे तात संवत्सरमिमं वयम्।
कुर्वन्तस्तस्य कर्माणि विहरिष्याम भारत ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भाई अर्जुन! इसलिये इस वर्ष हमलोग राजा विराटके ही नगरमें रहें और उनका कार्यसाधन करते हुए उनके यहाँ विचरण करें॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यानि यानि च कर्माणि तस्य वक्ष्यामहे वयम्।
आसाद्य मत्स्यं तत् कर्म प्रब्रूत कुरुनन्दनाः ॥ १९ ॥

मूलम्

यानि यानि च कर्माणि तस्य वक्ष्यामहे वयम्।
आसाद्य मत्स्यं तत् कर्म प्रब्रूत कुरुनन्दनाः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किंतु कुरुनन्दनो! तुमलोग यह तो बताओ कि हम मत्स्यराजके पास पहुँचकर किन-किन कार्योंका भार सँभाल सकेंगे?॥१९॥

मूलम् (वचनम्)

अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नरदेव कथं तस्य राष्ट्रे कर्म करिष्यसि।
विराटनगरे साधो रंस्यसे केन कर्मणा ॥ २० ॥

मूलम्

नरदेव कथं तस्य राष्ट्रे कर्म करिष्यसि।
विराटनगरे साधो रंस्यसे केन कर्मणा ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनने पूछा— नरदेव! आप उनके राष्ट्रमें किस प्रकार कार्य करेंगे? महात्मन्! विराटनगरमें कौन-सा कर्म करनेसे आपको प्रसन्नता होगी?॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृदुर्वदान्यो ह्रीमांश्च धार्मिकः सत्यविक्रमः।
राजंस्त्वमापदाऽऽकृष्टः किं करिष्यसि पाण्डव ॥ २१ ॥

मूलम्

मृदुर्वदान्यो ह्रीमांश्च धार्मिकः सत्यविक्रमः।
राजंस्त्वमापदाऽऽकृष्टः किं करिष्यसि पाण्डव ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! आपका स्वभाव कोमल है। आप उदार, लज्जाशील, धर्मपरायण तथा सत्यपराक्रमी हैं, तथापि विपत्तिमें पड़ गये हैं। पाण्डुनन्दन! आप वहाँ क्या करेंगे?॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न दुःखमुचितं किञ्चिद् राजन् वेद यथा जनः।
स इमामापदं प्राप्य कथं घोरां तरिष्यसि ॥ २२ ॥

मूलम्

न दुःखमुचितं किञ्चिद् राजन् वेद यथा जनः।
स इमामापदं प्राप्य कथं घोरां तरिष्यसि ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! साधारण मनुष्योंकी भाँति आपको किसी प्रकारके दुःखका अनुभव हो, यह उचित नहीं है; अतः इस घोर आपत्तिमें पड़कर आप कैसे इसके पार होंगे?॥२२॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणुध्वं यत् करिष्यामि कर्म वै कुरुनन्दनाः।
विराटमनुसम्प्राप्य राजानं पुरुषर्षभाः ॥ २३ ॥

मूलम्

शृणुध्वं यत् करिष्यामि कर्म वै कुरुनन्दनाः।
विराटमनुसम्प्राप्य राजानं पुरुषर्षभाः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने कहा— नरश्रेष्ठ कुरुनन्दनो! मैं राजा विराटके यहाँ चलकर जो कार्य करूँगा, वह बताता हूँ; सुनो॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभास्तारो भविष्यामि तस्य राज्ञो महात्मनः।
कङ्को नाम द्विजो भूत्वा मताक्षः प्रियदेवनः ॥ २४ ॥
वैदूर्यान्‌ काञ्चनान्‌ दान्तान् फलैर्ज्योतीरसैः सह।
कृष्णाल्ँलोहितवर्णांश्च निर्वर्त्स्यामि मनोरमान् ॥ २५ ॥

मूलम्

सभास्तारो भविष्यामि तस्य राज्ञो महात्मनः।
कङ्को नाम द्विजो भूत्वा मताक्षः प्रियदेवनः ॥ २४ ॥
वैदूर्यान्‌ काञ्चनान्‌ दान्तान् फलैर्ज्योतीरसैः सह।
कृष्णाल्ँलोहितवर्णांश्च निर्वर्त्स्यामि मनोरमान् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं पासा खेलनेकी विद्या जानता हूँ और यह खेल मुझे प्रिय भी है, अतः मैं कंक1 नामक ब्राह्मण बनकर महामना राजा विराटकी राजसभाका एक सदस्य हो जाऊँगा और वैदूर्यमणिके समान हरी, सुवर्णके समान पीली तथा हाथीदाँतकी बनी हुई काली और लाल रंगकी मनोहर गोटियोंको चमकीले बिन्दुओंसे युक्त पासोंके अनुसार चलाता रहूँगा॥२४-२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विराटराजं रमयन् सामात्यं सहबान्धवम्।
न च मां वेत्स्यते कश्चित् तोषयिष्ये च तं नृपम्॥२६॥

मूलम्

विराटराजं रमयन् सामात्यं सहबान्धवम्।
न च मां वेत्स्यते कश्चित् तोषयिष्ये च तं नृपम्॥२६॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं राजा विराटको उनके मन्त्रियों तथा बन्धु-बान्धवोंसहित पासोंके खेलसे प्रसन्न करता रहूँगा। इस रूपमें मुझे कोई पहचान न सकेगा और मैं उन मत्स्यनरेशको भलीभाँति संतुष्ट रखूँगा॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसं युधिष्ठिरस्याहं पुरा प्राणसमः सखा।
इति वक्ष्यामि राजानं यदि मां सोऽनुयोक्ष्यते ॥ २७ ॥

मूलम्

आसं युधिष्ठिरस्याहं पुरा प्राणसमः सखा।
इति वक्ष्यामि राजानं यदि मां सोऽनुयोक्ष्यते ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि वे राजा मुझसे पूछेंगे कि आप कौन हैं, तो मैं उन्हें बताऊँगा कि मैं पहले महाराज युधिष्ठिरका प्राणोंके समान प्रिय सखा था॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येतद् वो मयाऽऽख्यातं विहरिष्याम्यहं यथा।

मूलम्

इत्येतद् वो मयाऽऽख्यातं विहरिष्याम्यहं यथा।

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार मैंने तुमलोगोंको बता दिया कि विराटनगरमें मैं किस प्रकार रहूँगा॥२७॥

मूलम् (वचनम्)

(वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं निर्दिश्य चात्मानं भीमसेनमुवाच ह॥

मूलम्

एवं निर्दिश्य चात्मानं भीमसेनमुवाच ह॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! इस प्रकार अज्ञातवासमें अपने द्वारा किये जानेवाले कार्यको बतलाकर युधिष्ठिर भीमसेनसे बोले।

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमसेन कथं कर्म मात्स्यराष्ट्रे करिष्यसि॥
हत्वा क्रोधवशांस्तत्र पर्वते गन्धमादने।
यक्षान् क्रोधाभिताम्राक्षान् राक्षसांश्चापि पौरुषान्।
प्रादाः पाञ्चालकन्यायै पद्मानि सुबहून्यपि॥

मूलम्

भीमसेन कथं कर्म मात्स्यराष्ट्रे करिष्यसि॥
हत्वा क्रोधवशांस्तत्र पर्वते गन्धमादने।
यक्षान् क्रोधाभिताम्राक्षान् राक्षसांश्चापि पौरुषान्।
प्रादाः पाञ्चालकन्यायै पद्मानि सुबहून्यपि॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— भीमसेन! तुम मत्स्यदेशमें किस प्रकार कोई कार्य कर सकोगे? तुमने गन्धमादन पर्वतपर क्रोधसे सदा लाल आँखें किये रहनेवाले क्रोधवश नामक यक्षों और महापराक्रमी राक्षसोंका वध करके पांचालराजकुमारी द्रौपदीको बहुत-से कमल लाकर दिये थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बकं राक्षसराजानं भीषणं पुरुषादकम्।
जघ्निवानसि कौन्तेय ब्राह्मणार्थमरिंदम ॥
क्षेमा चाभयसंवीता ह्येकचक्रा त्वया कृता॥

मूलम्

बकं राक्षसराजानं भीषणं पुरुषादकम्।
जघ्निवानसि कौन्तेय ब्राह्मणार्थमरिंदम ॥
क्षेमा चाभयसंवीता ह्येकचक्रा त्वया कृता॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुहन्ता भीम! ब्राह्मणपरिवारकी रक्षाके लिये तुमने भयानक आकृतिवाले नरभक्षी राक्षसराज बकको भी मार डाला था और इस प्रकार एकचक्रा नगरीको भयरहित एवं कल्याणयुक्त बनाया था।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिडिम्बं च महावीर्यं किर्मीरं चैव राक्षसम्।
त्वया हत्वा महाबाहो वनं निष्कण्टकं कृतम्॥

मूलम्

हिडिम्बं च महावीर्यं किर्मीरं चैव राक्षसम्।
त्वया हत्वा महाबाहो वनं निष्कण्टकं कृतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहो! तुमने महावीर हिडिम्ब और राक्षस किर्मीरको मारकर वनको निष्कण्टक बनाया था।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपदं चापि सम्प्राप्ता द्रौपदी चारुहासिनी।
जटासुरवधं कृत्वा त्वया च परिमोक्षिता॥
मत्स्यराजान्तिके तात वीर्यपूर्णोऽत्यमर्षणः ।)
वृकोदर विराटे त्वं रंस्यसे केन हेतुना ॥ २८ ॥

मूलम्

आपदं चापि सम्प्राप्ता द्रौपदी चारुहासिनी।
जटासुरवधं कृत्वा त्वया च परिमोक्षिता॥
मत्स्यराजान्तिके तात वीर्यपूर्णोऽत्यमर्षणः ।)
वृकोदर विराटे त्वं रंस्यसे केन हेतुना ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संकटमें पड़ी हुई मनोहर हास्यवाली द्रौपदीको भी तुमने जटासुरका वध करके छुड़ाया था। तात भीमसेन! तुम अत्यन्त बलवान् एवं अमर्षशाली हो। राजा विराटके यहाँ कौन-सा कार्य करके तुम प्रसन्नतापूर्वक रह सकोगे—यह बतलाओ॥२८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि पाण्डवप्रवेशपर्वणि युधिष्ठिरादिमन्त्रणे प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत पाण्डवप्रवेशपर्वमें युधिष्ठिर आदिकी परस्पर मन्त्रणासे सम्बन्ध रखनेवाला पहला अध्याय पूरा हुआ॥१॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ६ श्लोक मिलाकर कुल ३४ श्लोक हैं।)


  1. विश्वकोषके अनुसार ‘कंक’ शब्द यमराजका वाचक है। यमराजका ही दूसरा नाम धर्म है और वे ही युधिष्ठिररूपमें अवतीर्ण हुए थे। ‘आत्मा वै जायते पुत्रः’ इस उक्तिके अनुसार भी धर्म एवं धर्मपुत्र युधिष्ठिरमें कोई अन्तर नहीं है। यह समझकर ही अपनी सत्यवादिताकी रक्षा करते हुए युधिष्ठिरने ‘कंक’ नामसे अपना परिचय दिया। इसके सिवा उन्होंने जो अपनेको युधिष्ठिरका प्राणोंके समान प्रिय सखा बताया, वह भी असत्य नहीं है। युधिष्ठिर नामक शरीरको ही यहाँ युधिष्ठिर समझना चाहिये। आत्माकी सत्तासे ही शरीरका संचालन होता है। अतः आत्मा उसके साथ रहनेके कारण उसका सखा है। आत्मा सबसे बढ़कर प्रिय है ही; अतः यहाँ युधिष्ठिरका आत्मा युधिष्ठिर-शरीरका प्रिय सखा कहा गया है। ↩︎