३१३ यक्षप्रश्नने

भागसूचना

त्रयोदशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

यक्ष और युधिष्ठिरका प्रश्नोत्तर तथा युधिष्ठिरके उत्तरसे संतुष्ट हुए यक्षका चारों भाइयोंके जीवित होनेका वरदान देना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स ददर्श हतान् भ्रातॄल्ँलोकपालानिव च्युतान्।
चुगान्ते समनुप्राप्ते शक्रप्रतिमगौरवान् ॥ १ ॥

मूलम्

स ददर्श हतान् भ्रातॄल्ँलोकपालानिव च्युतान्।
चुगान्ते समनुप्राप्ते शक्रप्रतिमगौरवान् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! युधिष्ठिरने इन्द्रके समान गौरवशाली अपने भाइयोंको सरोवरके तटपर निर्जीवकी भाँति पड़े हुए देखा; मानो प्रलय-कालमें सम्पूर्ण लोकपाल अपने लोकोंसे भ्रष्ट होकर गिर गये हों॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विनिकीर्णधनुर्बाणं दृष्ट्‌वा निहतमर्जुनम् ।
भीमसेनं यमौ चैव निर्विचेष्टान् गतायुषः ॥ २ ॥
स दीर्घमुष्णं निःश्वस्य शोकबाष्पपरिप्लुतः।
तान्‌ दृष्ट्‌वा पतितान् भ्रातॄन्‌ सर्वांश्चिन्तासमन्वितः ॥ ३ ॥
धर्मपुत्रो महाबाहुर्विललाप सुविस्तरम् ।

मूलम्

विनिकीर्णधनुर्बाणं दृष्ट्‌वा निहतमर्जुनम् ।
भीमसेनं यमौ चैव निर्विचेष्टान् गतायुषः ॥ २ ॥
स दीर्घमुष्णं निःश्वस्य शोकबाष्पपरिप्लुतः।
तान्‌ दृष्ट्‌वा पतितान् भ्रातॄन्‌ सर्वांश्चिन्तासमन्वितः ॥ ३ ॥
धर्मपुत्रो महाबाहुर्विललाप सुविस्तरम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन मरे पड़े थे; उनके धनुष-बाण इधर-उधर बिखरे थे। भीमसेन और नकुल-सहदेव भी प्राणरहित हो निश्चेष्ट हो गये थे। इन सबको देखकर युधिष्ठिर गरम-गरम लंबी साँसें खींचने लगे। उनके नेत्रोंसे शोकके आँसू उमड़कर उन्हें भिगो रहे थे। अपने समस्त भ्राताओंको इस प्रकार धराशायी हुए देख महाबाहु धर्मपुत्र युधिष्ठिर गहरी चिन्तामें डूब गये और देरतक विलाप करते रहे—॥२-३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ननु त्वया महाबाहो प्रतिज्ञातं वृकोदर ॥ ४ ॥
सुयोधनस्य भेत्स्यामि गदया सक्थिनी रणे।
व्यर्थं तदद्य मे सर्वं त्वयि वीर निपातिते ॥ ५ ॥
महात्मनि महाबाहो कुरूणां कीर्तिवर्धने।

मूलम्

ननु त्वया महाबाहो प्रतिज्ञातं वृकोदर ॥ ४ ॥
सुयोधनस्य भेत्स्यामि गदया सक्थिनी रणे।
व्यर्थं तदद्य मे सर्वं त्वयि वीर निपातिते ॥ ५ ॥
महात्मनि महाबाहो कुरूणां कीर्तिवर्धने।

अनुवाद (हिन्दी)

वे बोले—‘महाबाहु वृकोदर! तुमने यह प्रतिज्ञा की थी कि ‘मैं युद्धमें अपनी गदासे दुर्योधनकी दोनों जाँघें तोड़ डालूँगा।’ महाबाहो! तुम कुरुकुलकी कीर्ति बढ़ानेवाले थे। तुम्हारा हृदय विशाल था। वीर! आज तुम्हारे गिर जानेसे मेरे लिये वह सब कुछ व्यर्थ हो गया॥४-५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनुष्यसम्भवा वाचो विधर्मिण्यः प्रतिश्रुताः ॥ ६ ॥
भवतां दिव्यवाचस्तु ता भवन्तु कथं मृषा।

मूलम्

मनुष्यसम्भवा वाचो विधर्मिण्यः प्रतिश्रुताः ॥ ६ ॥
भवतां दिव्यवाचस्तु ता भवन्तु कथं मृषा।

अनुवाद (हिन्दी)

‘साधारण मनुष्योंकी बातें तथा उनकी प्रतिज्ञाएँ तो झूठी निकल जाती हैं; परंतु तुमलोगोंके सम्बन्धमें जो दिव्य वाणियाँ हुई थीं, वे कैसे मिथ्या हो सकती हैं?॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवाश्चापि यदावोचन् सूतके त्वां धनंजय ॥ ७ ॥
सहस्राक्षादनवरः कुन्ति पुत्रस्तवेति वै।
उत्तरे पारियात्रे च जगुर्भूतानि सर्वशः ॥ ८ ॥
विप्रणष्टां श्रियं चैषामाहर्ता पुनरञ्जसा।
नास्य जेता रणे कश्चिदजेता नैष कस्यचित् ॥ १९ ॥

मूलम्

देवाश्चापि यदावोचन् सूतके त्वां धनंजय ॥ ७ ॥
सहस्राक्षादनवरः कुन्ति पुत्रस्तवेति वै।
उत्तरे पारियात्रे च जगुर्भूतानि सर्वशः ॥ ८ ॥
विप्रणष्टां श्रियं चैषामाहर्ता पुनरञ्जसा।
नास्य जेता रणे कश्चिदजेता नैष कस्यचित् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

“धनंजय! जब तुम्हारा जन्म हुआ था, उस समय देवताओंने भी कहा था कि ‘कुन्ती! तुम्हारा यह पुत्र सहस्रनेत्रधारी इन्द्रसे किसी बातमें कम न होगा।’ उत्तर पारियात्र पर्वतपर सब प्राणियोंने तुम्हारे विषयमें यही कहा था कि ‘ये अर्जुन शीघ्र ही पाण्डवोंकी खोयी हुई राजलक्ष्मीको पुनः लौटा लायेंगे। युद्धमें कोई भी इनपर विजय पानेवाला न होगा और ये भी किसीको परास्त किये बिना न रहेंगे”॥७—९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽयं मृत्युवशं यातः कथं जिष्णुर्महाबलः।
अयं ममाशां संहत्य शेते भूमौ धनंजयः ॥ १० ॥
आश्रित्य यं वयं नाथ दुःखान्येतानि सेहिम।

मूलम्

सोऽयं मृत्युवशं यातः कथं जिष्णुर्महाबलः।
अयं ममाशां संहत्य शेते भूमौ धनंजयः ॥ १० ॥
आश्रित्य यं वयं नाथ दुःखान्येतानि सेहिम।

अनुवाद (हिन्दी)

‘वे ही महाबली अर्जुन आज मृत्युके अधीन कैसे हो गये? ये वे ही धनंजय मेरी आशालताको छिन्न-भिन्न करके धरतीपर पड़े हैं; जिन्हें अपना रक्षक बनाकर और जिनका ही भारी भरोसा करके हमलोग ये सारे दुःख सहते आये हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रणे प्रमत्तौ वीरौ च सदा शत्रुनिबर्हणौ ॥ ११ ॥
कथं रिपुवशं यातौ कुन्तीपुत्रौ महाबलौ।
यौ सर्वास्त्राप्रतिहतौ भीमसेनधनंजयौ ॥ १२ ॥

मूलम्

रणे प्रमत्तौ वीरौ च सदा शत्रुनिबर्हणौ ॥ ११ ॥
कथं रिपुवशं यातौ कुन्तीपुत्रौ महाबलौ।
यौ सर्वास्त्राप्रतिहतौ भीमसेनधनंजयौ ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुन्तीके ये दोनों महाबली पुत्र भीमसेन और अर्जुन—जो किसी भी अस्त्रसे प्रतिहत न होनेवाले, समरांगणमें उन्मत्त होकर लड़नेवाले तथा सदैव शत्रुओंका संहार करनेवाले वीर थे, वे आज सहसा शत्रुके अधीन कैसे हो गये?॥११-१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्मसारमयं नूनं हृदयं मम दुर्हृदः।
यमौ यदेतौ दृष्ट्‌वाद्य पतितौ नावदीर्यते ॥ १३ ॥

मूलम्

अश्मसारमयं नूनं हृदयं मम दुर्हृदः।
यमौ यदेतौ दृष्ट्‌वाद्य पतितौ नावदीर्यते ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मुझ दुष्टका हृदय निश्चय ही पत्थर और लोहेका बना हुआ है, जो कि आज इन दोनों भाई नकुल और सहदेवको धरतीपर पड़ा देख विदीर्ण नहीं हो जाता है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शास्त्रज्ञा देशकालज्ञास्तपोयुक्ताः क्रियान्विताः ।
अकृत्वा सदृशं कर्म किं शेध्वं पुरुषर्षभाः ॥ १४ ॥

मूलम्

शास्त्रज्ञा देशकालज्ञास्तपोयुक्ताः क्रियान्विताः ।
अकृत्वा सदृशं कर्म किं शेध्वं पुरुषर्षभाः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पुरुषसिंह बन्धुओ! तुमलोग शास्त्रोंके विद्वान् देशकालको समझनेवाले, तपस्वी और कर्मठ वीर थे। अपने योग्य पराक्रम किये बिना ही तुमलोग (प्राणहीन हो) कैसे सो रहे हो?॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अविक्षतशरीराश्चाप्यप्रमृष्टशरासनाः ।
असंज्ञा भुवि संगम्य किं शेध्वमपराजिताः ॥ १५ ॥

मूलम्

अविक्षतशरीराश्चाप्यप्रमृष्टशरासनाः ।
असंज्ञा भुवि संगम्य किं शेध्वमपराजिताः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हारे शरीरोंमें कोई घाव नहीं है, तुमने धनुष-बाणका स्पर्शतक नहीं किया है तथा तुम किसीसे परास्त होनेवाले नहीं हो; ऐसी दशामें इस पृथ्वीपर संज्ञाशून्य होकर क्यों पड़े हो?’॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सानूनिवाद्रेः संसुप्तान्‌ दृष्ट्‌वा भ्रातॄन्‌ महामतिः।
सुखं प्रसुप्तान् प्रस्विन्नः खिन्नः कष्टां दशां गतः ॥ १६ ॥

मूलम्

सानूनिवाद्रेः संसुप्तान्‌ दृष्ट्‌वा भ्रातॄन्‌ महामतिः।
सुखं प्रसुप्तान् प्रस्विन्नः खिन्नः कष्टां दशां गतः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परम बुद्धिमान् युधिष्ठिर धरतीपर पड़े हुए पर्वत-शिखरोंके समान अपने भाइयोंको इस प्रकार सुखकी नींद सोते देखकर बहुत दुःखी हुए। उनके सारे अंगोंमें पसीना निकल आया और वे अत्यन्त कष्टप्रद अवस्थामें पहुँच गये॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेवेदमित्युक्त्वा धर्मात्मा स नरेश्वरः।
शोकसागरमध्यस्थो दध्यौ कारणमाकुलः ॥ १७ ॥

मूलम्

एवमेवेदमित्युक्त्वा धर्मात्मा स नरेश्वरः।
शोकसागरमध्यस्थो दध्यौ कारणमाकुलः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह ऐसी ही होनहार है’, ऐसा कहकर धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर शोकसागरमें मग्न तथा व्याकुल होकर भाइयोंकी मृत्युके कारणपर विचार करने लगे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इतिकर्तव्यतां चेति देशकालविभागवित् ।
नाभिपेदे महाबाहुश्चिन्तयानो महामतिः ॥ १८ ॥

मूलम्

इतिकर्तव्यतां चेति देशकालविभागवित् ।
नाभिपेदे महाबाहुश्चिन्तयानो महामतिः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे यह भी सोचने लगे कि ‘अब क्या करना चाहिये?’ महाबुद्धिमान् महाबाहु युधिष्ठिर देश और कालके तत्त्वको पृथकृ-पृथक् जाननेवाले थे; तो भी बहुत सोचने-विचारनेपर भी वे किसी निश्चयपर नहीं पहुँच सके॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ संस्तभ्य धर्मात्मा तदाऽऽत्मानं तपोयुतः।
एवं विलप्य बहुधा धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ १९ ॥
बुद्ध्या विचिन्तयामास वीराः केन निपातिताः ॥ २० ॥
नैषां शस्त्रप्रहारोऽस्ति पदं नेहास्ति कस्यचित्।
भूतं महदिदं मन्ये भ्रातरो येन मे हताः ॥ २१ ॥

मूलम्

अथ संस्तभ्य धर्मात्मा तदाऽऽत्मानं तपोयुतः।
एवं विलप्य बहुधा धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ १९ ॥
बुद्ध्या विचिन्तयामास वीराः केन निपातिताः ॥ २० ॥
नैषां शस्त्रप्रहारोऽस्ति पदं नेहास्ति कस्यचित्।
भूतं महदिदं मन्ये भ्रातरो येन मे हताः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् धर्मात्मा और तपस्वी धर्मपुत्र युधिष्ठिर अपने मनको स्थिर करके बहुत विलाप करनेके पश्चात् अपनी बुद्धिद्वारा यह विचार करने लगे—‘इन वीरोंको किसने मार गिराया है? इनके शरीरोंमें अस्त्र-शस्त्रोंके आघातका कोई चिह्न नहीं है और न इस स्थानपर किसी दूसरेके पैरोंका निशान ही है। मैं समझता हूँ, अवश्य वह कोई भारी भूत है, जिसने मेरे भाइयोंको मारा है॥१९—२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकाग्रं चिन्तयिष्यामि पीत्वा वेत्स्यामि वा जलम्।
स्यात् तु दुर्योधनेनेदमुपांशुविहितं कृतम् ॥ २२ ॥

मूलम्

एकाग्रं चिन्तयिष्यामि पीत्वा वेत्स्यामि वा जलम्।
स्यात् तु दुर्योधनेनेदमुपांशुविहितं कृतम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस विषयमें मैं चित्तको एकाग्र करके फिर सोचूँगा अथवा पानी पीकर इस रहस्यको समझनेकी चेष्टा करूँगा। सम्भव है, दुर्योधनने चुपके-चुपके कोई षड्‌यन्त्र किया हो॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गान्धारराजरचितं सततं जिह्मबुद्धिना ।
यस्य कार्यमकार्यं वा सममेव भवत्युत ॥ २३ ॥
कस्तस्य विश्वसेद् वीरो दुष्कृतेरकृतात्मनः।
अथवा पुरुषैर्गूढैः प्रयोगोऽयं दुरात्मनः ॥ २४ ॥

मूलम्

गान्धारराजरचितं सततं जिह्मबुद्धिना ।
यस्य कार्यमकार्यं वा सममेव भवत्युत ॥ २३ ॥
कस्तस्य विश्वसेद् वीरो दुष्कृतेरकृतात्मनः।
अथवा पुरुषैर्गूढैः प्रयोगोऽयं दुरात्मनः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अथवा जिसकी बुद्धिमें सदा कुटिलता ही निवास करती है, उस गान्धारराज शकुनिकी भी यह करतूत हो सकती है। जिसके लिये कर्तव्य और अकर्तव्य दोनों बराबर हैं, उस अजितात्मा पापी शकुनिपर कौन वीर पुरुष विश्वास कर सकता है? अथवा गुप्तरूपसे नियुक्त किये हुए पुरुषोंद्वारा दुरात्मा दुर्योधनने ही यह हिंसात्मक प्रयोग किया होगा’॥२३-२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवेदिति महाबुद्धिर्बहुधा तदचिन्तयत् ।
तस्यासीन्न विषेणेदमुदकं दूषितं यथा ॥ २५ ॥

मूलम्

भवेदिति महाबुद्धिर्बहुधा तदचिन्तयत् ।
तस्यासीन्न विषेणेदमुदकं दूषितं यथा ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार परम बुद्धिमान् युधिष्ठिर भाँति-भाँतिकी चिन्ता करने लगे। (परीक्षा करनेपर) उन्हें इस बातका निश्चय हो गया था कि इस सरोवरके जलमें जहर नहीं मिलाया गया है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृतानामपि चैतेषां विकृतं नैव जायते।
मुखवर्णाः प्रसन्ना मे भ्रातॄणामित्यचिन्तयत् ॥ २६ ॥

मूलम्

मृतानामपि चैतेषां विकृतं नैव जायते।
मुखवर्णाः प्रसन्ना मे भ्रातॄणामित्यचिन्तयत् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘क्योंकि मर जानेपर भी मेरे इन भाइयोंके शरीरमें कोई विकृति नहीं उत्पन्न हुई है। अब भी मेरे भाइयोंके मुखकी कान्ति प्रसन्न है।’ इस तरह वे सोच-विचारमें ही डूबे रहे॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकैकशश्चोघबलानिमान् पुरुषसत्तमान् ।
कोऽन्यः प्रतिसमासेत कालान्तकयमादृते ॥ २७ ॥

मूलम्

एकैकशश्चोघबलानिमान् पुरुषसत्तमान् ।
कोऽन्यः प्रतिसमासेत कालान्तकयमादृते ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरे इन पुरुषरत्न भाइयोंमेंसे प्रत्येकके शरीरमें बलका अगाध सिन्धु लहराता था। आयु पूर्ण होनेपर सबका अन्त कर देनेवाले यमराजके सिवा दूसरा कौन इनसे भिड़ सकता था?’॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतेन व्यवसायेन तत् तोयं व्यवगाढवान्।
गाहमानश्च तत् तोयमन्तरिक्षात् स शुश्रुवे ॥ २८ ॥

मूलम्

एतेन व्यवसायेन तत् तोयं व्यवगाढवान्।
गाहमानश्च तत् तोयमन्तरिक्षात् स शुश्रुवे ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार निश्चय करके युधिष्ठिर जलमें उतरे। पानीमें प्रवेश करते ही उनके कानोंमें आकाशवाणी सुनायी दी॥२८॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं बकः शैवलमत्स्यभक्षो
नीता मया प्रेतवशं तवानुजाः।
त्वं पञ्चमो भविता राजपुत्र
न चेत् प्रश्नान् पृछतो व्याकरोषि ॥ २९ ॥

मूलम्

अहं बकः शैवलमत्स्यभक्षो
नीता मया प्रेतवशं तवानुजाः।
त्वं पञ्चमो भविता राजपुत्र
न चेत् प्रश्नान् पृछतो व्याकरोषि ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्ष बोला— राजकुमार! मैं सेवार और मछली खानेवाला बगुला हूँ। मैंने ही तुम्हारे छोटे भाइयोंको यमलोक भेजा है; अतः मेरे पूछनेपर यदि तुम मेरे प्रश्नोंका उत्तर न दोगे, तो तुम भी यमलोकके पाँचवें अतिथि होओगे॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मा तात साहसं कार्षीर्मम पूर्वपरिग्रहः।
प्रश्नानुक्त्वा तु कौन्तेय ततः पिब हरस्व च ॥ ३० ॥

मूलम्

मा तात साहसं कार्षीर्मम पूर्वपरिग्रहः।
प्रश्नानुक्त्वा तु कौन्तेय ततः पिब हरस्व च ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! जल पीनेका साहस न करना। इसपर मेरा पहलेसे ही अधिकार हो गया है। कुन्तीकुमार! मेरे प्रश्नोंका उत्तर दो और तब जल पीओ और ले भी जाओ॥३०॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुद्राणां वा वसूनां वा मरुतां वा प्रधानभाक्।
पृच्छामि को भवान् देवो नैतच्छकुनिना कृतम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

रुद्राणां वा वसूनां वा मरुतां वा प्रधानभाक्।
पृच्छामि को भवान् देवो नैतच्छकुनिना कृतम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— मैं पूछता हूँ, तुम रुद्रों, वसुओं अथवा मरुद्‌गणोंमेंसे कौन-से प्रधान देवता हो? बताओ। यह काम किसी पक्षीका किया हुआ नहीं हो सकता?॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिमवान् पारियात्रश्च विन्ध्यो मलय एव च।
चत्वारः पर्वताः केन पातिता भूरितेजसः ॥ ३२ ॥

मूलम्

हिमवान् पारियात्रश्च विन्ध्यो मलय एव च।
चत्वारः पर्वताः केन पातिता भूरितेजसः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे महातेजस्वी भाई हिमवान्, पारियात्र, विन्ध्य तथा मलय—इन चारों पर्वतोंके समान हैं। इन्हें किसने मार गिराया है?॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतीव ते महत् कर्म कृतं च बलिनां वर।
यान् न देवा न गन्धर्वा नासुराश्च न राक्षसाः॥३३॥
विषहेरन् महायुद्धे कृतं ते तन्महाद्‌भुतम्।
न ते जानामि यत्‌ कार्यं नाभिजानामि काङ्‌क्षितम् ॥ ३४ ॥

मूलम्

अतीव ते महत् कर्म कृतं च बलिनां वर।
यान् न देवा न गन्धर्वा नासुराश्च न राक्षसाः॥३३॥
विषहेरन् महायुद्धे कृतं ते तन्महाद्‌भुतम्।
न ते जानामि यत्‌ कार्यं नाभिजानामि काङ्‌क्षितम् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बलवानोंमें श्रेष्ठ वीर! तुमने यह अत्यन्त महान् कर्म किया है। बड़े-बड़े युद्धोंमें जिन वीरों-(के प्रभाव)-को देवता, गन्धर्व, असुर तथा राक्षस भी नहीं सह सकते थे, उन्हें गिराकर तुमने परम अद्‌भुत पराक्रम किया है। तुम्हारा कार्य क्या है? यह मैं नहीं जानता। तुम क्या चाहते हो? इसका भी मुझे पता नहीं है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कौतूहलं महज्जातं साध्वसं चागतं मम।
येनास्म्युद्विग्नहृदयः समुत्पन्नशिरोज्वरः ॥ ३५ ॥
पृच्छामि भगवंस्तस्मात् को भवानिह तिष्ठति।

मूलम्

कौतूहलं महज्जातं साध्वसं चागतं मम।
येनास्म्युद्विग्नहृदयः समुत्पन्नशिरोज्वरः ॥ ३५ ॥
पृच्छामि भगवंस्तस्मात् को भवानिह तिष्ठति।

अनुवाद (हिन्दी)

तुम्हारे विषयमें मुझे महान् कौतूहल हो गया है। तुमसे मुझे कुछ भय भी लगने लगा है, जिससे मेरा हृदय उद्विग्न हो उठा है और सिरमें संताप होने लगा है। अतः भगवन्! मैं विनयपूर्वक पूछता हूँ, तुम यहाँ कौन विराज रहे हो?॥३५॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यक्षोऽहमस्मि भद्रं ते नास्मि पक्षी जलेचरः ॥ ३६ ॥
मयैते निहताः सर्वे भ्रातरस्ते महौजसः।

मूलम्

यक्षोऽहमस्मि भद्रं ते नास्मि पक्षी जलेचरः ॥ ३६ ॥
मयैते निहताः सर्वे भ्रातरस्ते महौजसः।

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने कहा— तुम्हारा कल्याण हो। मैं जलचर पक्षी नहीं हूँ, यक्ष हूँ। तुम्हारे ये सभी महान् तेजस्वी भाई मेरे द्वारा ही मारे गये हैं॥३६॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तामशिवां श्रुत्वा वाचं स परुषाक्षराम् ॥ ३७ ॥
यक्षस्य ब्रुवतो राजन्नुपक्रम्य तदा स्थितः।
विरूपाक्षं महाकायं यक्षं तालसमुच्छ्रयम् ॥ ३८ ॥
ज्वलनार्कप्रतीकाशमधृष्यं पर्वतोपमम् ।
वृक्षमाश्रित्य तिष्ठन्तं ददर्श भरतर्षभः ॥ ३९ ॥
मेघगम्भीरनादेन तर्जयन्तं महास्वनम् ।

मूलम्

ततस्तामशिवां श्रुत्वा वाचं स परुषाक्षराम् ॥ ३७ ॥
यक्षस्य ब्रुवतो राजन्नुपक्रम्य तदा स्थितः।
विरूपाक्षं महाकायं यक्षं तालसमुच्छ्रयम् ॥ ३८ ॥
ज्वलनार्कप्रतीकाशमधृष्यं पर्वतोपमम् ।
वृक्षमाश्रित्य तिष्ठन्तं ददर्श भरतर्षभः ॥ ३९ ॥
मेघगम्भीरनादेन तर्जयन्तं महास्वनम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! तत्पश्चात् उस समय इस प्रकार बोलनेवाले उस यक्षकी वह अमंगलमयी और कठोर वाणी सुनकर भरतश्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर उसके पास जाकर खड़े हो गये। उन्होंने देखा, एक विकट नेत्रोंवाला विशालकाय यक्ष वृक्षके ऊपर बैठा है। वह बड़ा ही दुर्धर्ष, ताड़के समान लंबा, अग्नि और सूर्यके समान तेजस्वी तथा पर्वतके समान ऊँचा है। वही अपनी मेघके समान गम्भीर नादयुक्त वाणीसे उन्हें फटकार रहा है। उसकी आवाज बहुत ऊँची है॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमे ते भ्रातरो राजन् वार्यमाणा मयासकृत् ॥ ४० ॥
बलात् तोयं जिहीर्षन्तस्ततो वै मृदिता मया।
न पेयमुदकं राजन् प्राणानिह परीप्सता ॥ ४१ ॥
पार्थ मा साहसं कार्षीर्मम पूर्वपरिग्रहः।
प्रश्नानुक्त्वा तु कौन्तेय ततः पिब हरस्व च ॥ ४२ ॥

मूलम्

इमे ते भ्रातरो राजन् वार्यमाणा मयासकृत् ॥ ४० ॥
बलात् तोयं जिहीर्षन्तस्ततो वै मृदिता मया।
न पेयमुदकं राजन् प्राणानिह परीप्सता ॥ ४१ ॥
पार्थ मा साहसं कार्षीर्मम पूर्वपरिग्रहः।
प्रश्नानुक्त्वा तु कौन्तेय ततः पिब हरस्व च ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने कहा— राजन्! तुम्हारे इन भाइयोंको मैंने बार-बार रोका था; फिर भी ये बलपूर्वक जल ले जाना चाहते थे; इसीसे मैंने इन्हें मार डाला। महाराज युधिष्ठिर! यदि तुम्हें अपने प्राण बचानेकी इच्छा हो, तो वहाँ जल नहीं पीना चाहिये। पार्थ! तुम पानी पीनेका साहस न करना, यह पहलेसे ही मेरे अधिकारकी वस्तु है। कुन्तीनन्दन! पहले मेरे प्रश्नोंका उत्तर दो, उसके बाद जल पीओ और ले भी जाओ॥४०—४२॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चाहं कामये यक्ष तव पूर्वपरिग्रहम्।
कामं नैतत् प्रशंसन्ति सन्तो हि पुरुषाः सदा ॥ ४३ ॥
यदात्मना स्वमात्मानं प्रशंसे पुरुषर्षभ।
यथाप्रज्ञं तु ते प्रश्नान् प्रतिवक्ष्यामि पृच्छ माम् ॥ ४४ ॥

मूलम्

न चाहं कामये यक्ष तव पूर्वपरिग्रहम्।
कामं नैतत् प्रशंसन्ति सन्तो हि पुरुषाः सदा ॥ ४३ ॥
यदात्मना स्वमात्मानं प्रशंसे पुरुषर्षभ।
यथाप्रज्ञं तु ते प्रश्नान् प्रतिवक्ष्यामि पृच्छ माम् ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने कहा— यक्ष! मैं तुम्हारे अधिकारकी वस्तुको नहीं ले जाना चाहता। मैं स्वयं ही अपनी बड़ाई करूँ; इस बातकी सत्पुरुष कभी प्रशंसा नहीं करते। मैं अपनी बुद्धिके अनुसार तुम्हारे प्रश्नोंका उत्तर दूँगा, तुम मुझसे प्रश्न करो॥४३-४४॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं स्विदादित्यमुन्नयति के च तस्याभितश्चराः।
कश्चैनमस्तं नयति कस्मिंश्च प्रतितिष्ठति ॥ ४५ ॥

मूलम्

किं स्विदादित्यमुन्नयति के च तस्याभितश्चराः।
कश्चैनमस्तं नयति कस्मिंश्च प्रतितिष्ठति ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने पूछा— सूर्यको कौन ऊपर उठाता (उदित करता) है? उसके चारों ओर कौन चलते हैं? उसे अस्त कौन करता है? और वह किसमें प्रतिष्ठित है?॥४५॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मादित्यमुन्नयति देवास्तस्याभितश्चराः ।
धर्मश्चास्तं नयति च सत्ये च प्रतितिष्ठति ॥ ४६ ॥

मूलम्

ब्रह्मादित्यमुन्नयति देवास्तस्याभितश्चराः ।
धर्मश्चास्तं नयति च सत्ये च प्रतितिष्ठति ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— ब्रह्म सूर्यको ऊपर उठाता (उदित करता) है, देवता उसके चारों ओर चलते हैं, धर्म उसे अस्त करता है और वह सत्यमें प्रतिष्ठित है॥४६॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

केनस्विच्छ्रोत्रियो भवति केनस्विद्‌ विन्दते महत्।
केनस्विद् द्वितीयवान् भवति राजन् केन च बुद्धिमान् ॥ ४७ ॥

मूलम्

केनस्विच्छ्रोत्रियो भवति केनस्विद्‌ विन्दते महत्।
केनस्विद् द्वितीयवान् भवति राजन् केन च बुद्धिमान् ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने पूछा— राजन्! मनुष्य श्रोत्रिय किससे होता है? महत्पदको किसके द्वारा प्राप्त करता है? वह किसके द्वारा द्वितीयवान् होता है? और किससे बुद्धिमान् होता है?॥४७॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुतेन श्रोत्रियो भवति तपसा विन्दते महत्।
धृत्या द्वितीयवान् भवति बुद्धिमान् वृद्धसेवया ॥ ४८ ॥

मूलम्

श्रुतेन श्रोत्रियो भवति तपसा विन्दते महत्।
धृत्या द्वितीयवान् भवति बुद्धिमान् वृद्धसेवया ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— वेदाध्ययनके द्वारा मनुष्य श्रोत्रिय होता है, तपसे महत्पद प्राप्त करता है, धैर्यसे द्वितीयवान् (दूसरे साथीसे युक्त) होता है और वृद्ध पुरुषोंकी सेवासे बुद्धिमान् होता है॥४८॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं ब्राह्मणानां देवत्वं कश्च धर्मः सतामिव।
कश्चैषां मानुषो भावः किमेषामसतामिव ॥ ४९ ॥

मूलम्

किं ब्राह्मणानां देवत्वं कश्च धर्मः सतामिव।
कश्चैषां मानुषो भावः किमेषामसतामिव ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने पूछा— ब्राह्मणोंमें देवत्व क्या है? उनमें सत्पुरुषोंका-सा धर्म क्या है? उनका मनुष्यभाव क्या है? और उनमें असत्पुरुषोंका-सा आचरण क्या है?॥४९॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वाध्याय एषां देवत्वं तप एषां सतामिव।
मरणं मानुषो भावः परिवादोऽसतामिव ॥ ५० ॥

मूलम्

स्वाध्याय एषां देवत्वं तप एषां सतामिव।
मरणं मानुषो भावः परिवादोऽसतामिव ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— वेदोंका स्वाध्याय ही ब्राह्मणोंमें देवत्व है, तप सत्पुरुषोंका-सा धर्म है, मरना मनुष्य-भाव है और निन्दा करना असत्पुरुषोंका-सा आचरण है॥५०॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं क्षत्रियाणां देवत्वं कश्च धर्मः सतामिव।
कश्चैषां मानुषो भावः किमेषामसतामिव ॥ ५१ ॥

मूलम्

किं क्षत्रियाणां देवत्वं कश्च धर्मः सतामिव।
कश्चैषां मानुषो भावः किमेषामसतामिव ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने पूछा— क्षत्रियोंमें देवत्व क्या है? उनमें सत्पुरुषोंका-सा धर्म क्या है? उनका मनुष्यभाव क्या है? और उनमें असत्पुरुषोंका-सा आचरण क्या है?॥५१॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इष्वस्त्रमेषां देवत्वं यज्ञ एषां सतामिव।
भयं वै मानुषो भावः परित्यागोऽसतामिव ॥ ५२ ॥

मूलम्

इष्वस्त्रमेषां देवत्वं यज्ञ एषां सतामिव।
भयं वै मानुषो भावः परित्यागोऽसतामिव ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— बाणविद्या क्षत्रियोंका देवत्व है, यज्ञ उनका सत्पुरुषोंका-सा धर्म है, भय मानवीय भाव है और शरणमें आये हुए दुःखियोंका परित्याग कर देना उनमें असत्पुरुषोंका-सा आचरण है॥५२॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमेकं यज्ञियं साम किमेकं यज्ञियं यजुः।
का चैषां वृणुते यज्ञं कां यज्ञो नातिवर्तते ॥ ५३ ॥

मूलम्

किमेकं यज्ञियं साम किमेकं यज्ञियं यजुः।
का चैषां वृणुते यज्ञं कां यज्ञो नातिवर्तते ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने पूछा— कौन एक वस्तु यज्ञिय साम है? कौन एक (यज्ञसम्बन्धी) यज्ञिय यजु है? कौन एक वस्तु यज्ञका वरण करती है? और किस एकका यज्ञ अतिक्रमण नहीं करता?॥५३॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राणो वै यज्ञियं साम मनो वै यज्ञियं यजुः।
ऋगेका वृणुते यज्ञं तां यज्ञो नातिवर्तते ॥ ५४ ॥

मूलम्

प्राणो वै यज्ञियं साम मनो वै यज्ञियं यजुः।
ऋगेका वृणुते यज्ञं तां यज्ञो नातिवर्तते ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— प्राण ही यज्ञिय साम है, मन ही यज्ञसम्बन्धी यजु है, एकमात्र ऋचा ही यज्ञका वरण करती है और उसीका यज्ञ अतिक्रमण नहीं करता॥५४॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किंस्विदावपतां श्रेष्ठं किंस्विन्निवपतां वरम्।
किंस्वित् प्रतिष्ठमानानां किंस्वित् प्रसवतां वरम् ॥ ५५ ॥

मूलम्

किंस्विदावपतां श्रेष्ठं किंस्विन्निवपतां वरम्।
किंस्वित् प्रतिष्ठमानानां किंस्वित् प्रसवतां वरम् ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने पूछा— खेती करनेवालोंके लिये कौन-सी वस्तु श्रेष्ठ है? बिखेरने (बोने) वालोंके लिये क्या श्रेष्ठ है? प्रतिष्ठाप्राप्त धनियोंके लिये कौन-सी वस्तु श्रेष्ठ है? तथा संतानोत्पादन करनेवालोंके लिये क्या श्रेष्ठ है?॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्षमावपतां श्रेष्ठं बीजं निवपतां वरम्।
गावः प्रतिष्ठमानानां पुत्रः प्रसवतां वरः ॥ ५६ ॥

मूलम्

वर्षमावपतां श्रेष्ठं बीजं निवपतां वरम्।
गावः प्रतिष्ठमानानां पुत्रः प्रसवतां वरः ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— खेती करनेवालोंके लिये वर्षा श्रेष्ठ है। बिखेरने (बोने) वालोंके लिये बीज श्रेष्ठ है। प्रतिष्ठाप्राप्त धनियोंके लिये गौ (का पालन-पोषण और संग्रह) श्रेष्ठ है और संतानोत्पादन करनेवालोंके लिये पुत्र श्रेष्ठ है॥५६॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रियार्थाननुभवन् बुद्धिमाल्ँलोकपूजितः ।
सम्मतः सर्वभूतानामुच्छ्‌वसन् को न जीवति ॥ ५७ ॥

मूलम्

इन्द्रियार्थाननुभवन् बुद्धिमाल्ँलोकपूजितः ।
सम्मतः सर्वभूतानामुच्छ्‌वसन् को न जीवति ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने पूछा— ऐसा कौन पुरुष है, जो बुद्धिमान्, लोकमें सम्मानित और सब प्राणियोंका माननीय होकर एवं इन्द्रियोंके विषयोंको अनुभव करते तथा श्वास लेते हुए भी वास्तवमें जीवित नहीं है?॥५७॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवतातिथिभृत्यानां पितॄणामात्मनश्च यः ।
न निर्वपति पञ्चानामुच्छ्‌वसन् न स जीवति ॥ ५८ ॥

मूलम्

देवतातिथिभृत्यानां पितॄणामात्मनश्च यः ।
न निर्वपति पञ्चानामुच्छ्‌वसन् न स जीवति ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने कहा— जो देवता, अतिथि, भरणीय कुटुम्बीजन, पितर और आत्मा—इन पाँचोंका पोषण नहीं करता, वह श्वास लेनेपर भी जीवित नहीं है॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किंस्विद् गुरुतरं भूमेः किंस्विदुच्चतरं च खात्।
किंस्विच्छीघ्रतरं वायोः किंस्विद्‌ बहुतरं तृणात् ॥ ५९ ॥

मूलम्

किंस्विद् गुरुतरं भूमेः किंस्विदुच्चतरं च खात्।
किंस्विच्छीघ्रतरं वायोः किंस्विद्‌ बहुतरं तृणात् ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने पूछा— पृथ्वीसे भी भारी क्या है? आकाशसे भी ऊँचा क्या है? वायुसे भी तेज चलनेवाला क्या है? और तिनकोंसे भी अधिक (असंख्य) क्या है?॥५९॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

माता गुरुतरा भूमेः खात् पितोच्चतरस्तथा।
मनः शीघ्रतरं वाताच्चिन्ता बहुतरी तृणात् ॥ ६० ॥

मूलम्

माता गुरुतरा भूमेः खात् पितोच्चतरस्तथा।
मनः शीघ्रतरं वाताच्चिन्ता बहुतरी तृणात् ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— माताका गौरव पृथ्वीसे भी अधिक है। पिता आकाशसे भी ऊँचा है। मन वायुसे भी तेज चलनेवाला है और चिन्ता तिनकोंसे भी अधिक असंख्य एवं अनन्त है॥६०॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किंस्वित्‌ सुप्तं न निमिषति किंस्विज्जातं न चोपति।
कस्यस्विद्‌धृदयं नास्ति किंस्विद्‌ वेगेन वर्धते ॥ ६१ ॥

मूलम्

किंस्वित्‌ सुप्तं न निमिषति किंस्विज्जातं न चोपति।
कस्यस्विद्‌धृदयं नास्ति किंस्विद्‌ वेगेन वर्धते ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने पूछा— कौन सोनेपर भी आँखें नहीं मूँदता? उत्पन्न होकर भी कौन चेष्टा नहीं करता? किसमें हृदय नहीं है? और कौन वेगसे बढ़ता है॥६१॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मत्स्यः सुप्तो न निमिषत्यण्डं जातं न चोपति।
अश्मनो हृदयं नास्ति नदी वेगेन वर्धते ॥ ६२ ॥

मूलम्

मत्स्यः सुप्तो न निमिषत्यण्डं जातं न चोपति।
अश्मनो हृदयं नास्ति नदी वेगेन वर्धते ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— मछली सोनेपर भी आँखें नहीं मूँदती, अण्डा उत्पन्न होकर भी चेष्टा नहीं करता, पत्थरमें हृदय नहीं है और नदी वेगसे बढ़ती है॥६२॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किंस्वित् प्रवसतो मित्रं किंस्विन्मित्रं गृहे सतः।
आतुरस्य च किं मित्रं किंस्विन्मित्रं मरिष्यतः ॥ ६३ ॥

मूलम्

किंस्वित् प्रवसतो मित्रं किंस्विन्मित्रं गृहे सतः।
आतुरस्य च किं मित्रं किंस्विन्मित्रं मरिष्यतः ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने पूछा— प्रवासी (परदेशके यात्री)-का मित्र कौन है? गृहवासी (गृहस्थ)-का मित्र कौन है? रोगीका मित्र कौन है? और मृत्युके समीप पहुँचे हुए पुरुषका मित्र कौन है?॥६३॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सार्थः प्रवसतो मित्रं भार्या मित्रं गृहे सतः।
आतुरस्य भिषङ्‌मित्रं दानं मित्रं मरिष्यतः ॥ ६४ ॥

मूलम्

सार्थः प्रवसतो मित्रं भार्या मित्रं गृहे सतः।
आतुरस्य भिषङ्‌मित्रं दानं मित्रं मरिष्यतः ॥ ६४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— सहयात्रियोंका समुदाय अथवा साथमें यात्रा करनेवाला साथी ही प्रवासीका मित्र है, पत्नी गृहवासीका मित्र है, वैद्य रोगीका मित्र है और दान मुमूर्षु (अर्थात् मरनेवाले) मनुष्यका मित्र है॥६४॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोऽतिथिः सर्वभूतानां किंस्विद् धर्मं सनातनम्।
अमृतं किंस्विद् राजेन्द्र किंस्वित् सर्वमिदं जगत् ॥ ६५ ॥

मूलम्

कोऽतिथिः सर्वभूतानां किंस्विद् धर्मं सनातनम्।
अमृतं किंस्विद् राजेन्द्र किंस्वित् सर्वमिदं जगत् ॥ ६५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने पूछा— राजेन्द्र! समस्त प्राणियोंका अतिथि कौन है? सनातन धर्म क्या है? अमृत क्या है? और यह सारा जगत् क्या है?॥६५॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतिथिः सर्वभूतानामग्निः सोमो गवामृतम्।
सनातनोऽमृतो धर्मो वायुः सर्वमिदं जगत् ॥ ६६ ॥

मूलम्

अतिथिः सर्वभूतानामग्निः सोमो गवामृतम्।
सनातनोऽमृतो धर्मो वायुः सर्वमिदं जगत् ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— अग्नि समस्त प्राणियोंका अतिथि है, गौका दूध अमृत है, अविनाशी नित्य धर्म ही सनातन धर्म है और वायु यह सारा जगत् है॥६६॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किंस्विदेको विचरते जातः को जायते पुनः।
किंस्विद्धिमस्य भैषज्यं किंस्विदावपनं महत् ॥ ६७ ॥

मूलम्

किंस्विदेको विचरते जातः को जायते पुनः।
किंस्विद्धिमस्य भैषज्यं किंस्विदावपनं महत् ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने पूछा— अकेला कौन विचरता है? एक बार उत्पन्न होकर पुनः कौन उत्पन्न होता है? शीतकी ओषधि क्या है? और महान् आवपन (क्षेत्र) क्या है?॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूर्य एको विचरते चन्द्रमा जायते पुनः।
अग्निर्हिमस्य भैषज्यं भूमिरावपनं महत् ॥ ६८ ॥

मूलम्

सूर्य एको विचरते चन्द्रमा जायते पुनः।
अग्निर्हिमस्य भैषज्यं भूमिरावपनं महत् ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— सूर्य अकेला विचरता है, चन्द्रमा एक बार जन्म लेकर पुनः जन्म लेता है, अग्नि शीतकी ओषधि है और पृथ्वी बड़ा भारी आवपन है॥६८॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किंस्विदेकपदं धर्म्यं किंस्विदेकपदं यशः।
किंस्विदेकपदं स्वर्ग्यं किंस्विदेकपदं सुखम् ॥ ६९ ॥

मूलम्

किंस्विदेकपदं धर्म्यं किंस्विदेकपदं यशः।
किंस्विदेकपदं स्वर्ग्यं किंस्विदेकपदं सुखम् ॥ ६९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने पूछा— धर्मका मुख्य स्थान क्या है? यशका मुख्य स्थान क्या है? स्वर्गका मुख्य स्थान क्या है? और सुखका मुख्य स्थान क्या है?॥६९॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दाक्ष्यमेकपदं धर्म्यं दानमेकपदं यशः।
सत्यमेकपदं स्वर्ग्यं शीलमेकपदं सुखम् ॥ ७० ॥

मूलम्

दाक्ष्यमेकपदं धर्म्यं दानमेकपदं यशः।
सत्यमेकपदं स्वर्ग्यं शीलमेकपदं सुखम् ॥ ७० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— धर्मका मुख्य स्थान दक्षता है, यशका मुख्य स्थान दान है, स्वर्गका मुख्य स्थान सत्य है और सुखका मुख्य स्थान शील है॥७०॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किंस्विदात्मा मनुष्यस्य किंस्विद्‌ दैवकृतः सखा।
उपजीवनं किंस्विदस्य किंस्विदस्य परायणम् ॥ ७१ ॥

मूलम्

किंस्विदात्मा मनुष्यस्य किंस्विद्‌ दैवकृतः सखा।
उपजीवनं किंस्विदस्य किंस्विदस्य परायणम् ॥ ७१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने पूछा— मनुष्यकी आत्मा क्या है? इसका दैवकृत सखा कौन है? इसका उपजीवन (जीवनका सहारा) क्या है? और इसका परम आश्रय क्या है?॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्र आत्मा मनुष्यस्य भार्या दैवकृतः सखा।
उपजीवनं च पर्जन्यो दानमस्य परायणम् ॥ ७२ ॥

मूलम्

पुत्र आत्मा मनुष्यस्य भार्या दैवकृतः सखा।
उपजीवनं च पर्जन्यो दानमस्य परायणम् ॥ ७२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— पुत्र मनुष्यकी आत्मा है, स्त्री इसकी दैवकृत सहचरी है, मेघ उपजीवन है और दान इसका परम आश्रय है॥७२॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

धन्यानामुत्तमं किंस्विद् धनानां स्यात्‌ किमुत्तमम्।
लाभानामुत्तमं किं स्यात्‌ सुखानां स्यात्‌ किमुत्तमम् ॥ ७३ ॥

मूलम्

धन्यानामुत्तमं किंस्विद् धनानां स्यात्‌ किमुत्तमम्।
लाभानामुत्तमं किं स्यात्‌ सुखानां स्यात्‌ किमुत्तमम् ॥ ७३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने पूछा— धन्यवादके योग्य पुरुषोंमें उत्तम गुण क्या है? धनोंमें उत्तम धन क्या है? लाभोंमें प्रधान लाभ क्या है? और सुखोंमें उत्तम सुख क्या है?॥७३॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

धन्यानामुत्तमं दाक्ष्यं धनानामुत्तमं श्रुतम्।
लाभानां श्रेय आरोग्यं सुखानां तुष्टिरुत्तमा ॥ ७४ ॥

मूलम्

धन्यानामुत्तमं दाक्ष्यं धनानामुत्तमं श्रुतम्।
लाभानां श्रेय आरोग्यं सुखानां तुष्टिरुत्तमा ॥ ७४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— धन्य पुरुषोंमें दक्षता ही उत्तम गुण है, धनोंमें शास्त्रज्ञान प्रधान है, लाभोंमें आरोग्य श्रेष्ठ है और सुखोंमें संतोष ही उत्तम सुख है॥७४॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कश्च धर्मः परो लोके कश्च धर्मः सदाफलः।
किं नयम्य न शोचन्ति कैश्च संधिर्न जीर्यते ॥ ७५ ॥

मूलम्

कश्च धर्मः परो लोके कश्च धर्मः सदाफलः।
किं नयम्य न शोचन्ति कैश्च संधिर्न जीर्यते ॥ ७५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने पूछा— लोकमें श्रेष्ठ धर्म क्या है? नित्य फलवाला धर्म क्या है? किसको वशमें रखनेसे मनुष्य शोक नहीं करते? और किनके साथ की हुई मित्रता नष्ट नहीं होती?॥७५॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आनृशंस्यं परो धर्मस्त्रयीधर्मः सदाफलः।
मनो यम्य न शोचन्ति संधिः सद्‌भिर्न जीर्यते ॥ ७६ ॥

मूलम्

आनृशंस्यं परो धर्मस्त्रयीधर्मः सदाफलः।
मनो यम्य न शोचन्ति संधिः सद्‌भिर्न जीर्यते ॥ ७६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— लोकमें दया श्रेष्ठ धर्म है, वेदोक्त धर्म नित्य फलवाला है, मनको वशमें रखनेसे मनुष्य शोक नहीं करते और सत्पुरुषोंके साथ की हुई मित्रता नष्ट नहीं होती॥७६॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं नु हित्वा प्रियो भवति
किं नु हित्वा न शोचति।
किं नु हित्वार्थवान् भवति
किं नु हित्वा सुखी भवेत् ॥ ७७ ॥

मूलम्

किं नु हित्वा प्रियो भवति
किं नु हित्वा न शोचति।
किं नु हित्वार्थवान् भवति
किं नु हित्वा सुखी भवेत् ॥ ७७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने पूछा— किस वस्तुको त्यागकर मनुष्य प्रिय होता है? किसको त्यागकर शोक नहीं करता? किसको त्यागकर वह अर्थवान् होता है? और किसको त्यागकर सुखी होता है?॥७७॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मानं हित्वा प्रियो भवति
क्रोधं हित्वा न शोचति।
कामं हित्वार्थवान् भवति
लोभं हित्वा सुखी भवेत् ॥ ७८ ॥

मूलम्

मानं हित्वा प्रियो भवति
क्रोधं हित्वा न शोचति।
कामं हित्वार्थवान् भवति
लोभं हित्वा सुखी भवेत् ॥ ७८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— मानको त्याग देनेपर मनुष्य प्रिय होता है, क्रोधको त्यागकर शोक नहीं करता, कामको त्यागकर वह अर्थवान् होता है और लोभको त्यागकर सुखी होता है॥७८॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमर्थं ब्राह्मणे दानं किमर्थं नटनर्तके।
किमर्थं चैव भृत्येषु किमर्थं चैव राजसु ॥ ७९ ॥

मूलम्

किमर्थं ब्राह्मणे दानं किमर्थं नटनर्तके।
किमर्थं चैव भृत्येषु किमर्थं चैव राजसु ॥ ७९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने पूछा— ब्राह्मणको किसलिये दान दिया जाता है? नट और नर्तकोंको क्यों दान देते हैं? सेवकोंको दान देनेका क्या प्रयोजन है? और राजाओंको क्यों दान दिया जाता है?॥७९॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मार्थं ब्राह्मणे दानं यशोऽर्थं नटनर्तके।
भृत्येषु भरणार्थं वै भयार्थं चैव राजसु ॥ ८० ॥

मूलम्

धर्मार्थं ब्राह्मणे दानं यशोऽर्थं नटनर्तके।
भृत्येषु भरणार्थं वै भयार्थं चैव राजसु ॥ ८० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— ब्राह्मणको धर्मके लिये दान दिया जाता है, नट-नर्तकोंको यशके लिये दान (धन) देते हैं, सेवकोंको उनके भरण-पोषणके लिये दान (वेतन) दिया जाता है और राजाओंको भयके कारण दान (कर) देते हैं॥८०॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

केनस्विदावृतो लोकः केनस्विन्न प्रकाशते।
केन त्यजति मित्राणि केन स्वर्गं न गच्छति ॥ ८१ ॥

मूलम्

केनस्विदावृतो लोकः केनस्विन्न प्रकाशते।
केन त्यजति मित्राणि केन स्वर्गं न गच्छति ॥ ८१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने पूछा— जगत् किस वस्तुसे ढका हुआ है? किसके कारण वह प्रकाशित नहीं होता? मनुष्य मित्रोंको किसलिये त्याग देता है? और स्वर्गमें किस कारण नहीं जाता?॥८१॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अज्ञानेनावृतो लोकस्तमसा न प्रकाशते।
लोभात् त्यजति मित्राणि संगात् स्वर्गं न गच्छति ॥ ८२ ॥

मूलम्

अज्ञानेनावृतो लोकस्तमसा न प्रकाशते।
लोभात् त्यजति मित्राणि संगात् स्वर्गं न गच्छति ॥ ८२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— जगत् अज्ञानसे ढका हुआ है, तमोगुणके कारण वह प्रकाशित नहीं होता, लोभके कारण मनुष्य मित्रोंको त्याग देता है और आसक्तिके कारण स्वर्गमें नहीं जाता॥८२॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृतः कथं स्यात् पुरुषः कथं राष्ट्रं मृतं भवेत्।
श्राद्धं मृतं कथं वा स्यात् कथं यज्ञो मृतो भवेत्॥८३॥

मूलम्

मृतः कथं स्यात् पुरुषः कथं राष्ट्रं मृतं भवेत्।
श्राद्धं मृतं कथं वा स्यात् कथं यज्ञो मृतो भवेत्॥८३॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने पूछा— पुरुष किस प्रकार मरा हुआ कहा जाता है? राष्ट्र किस प्रकार मर जाता है? श्राद्ध किस प्रकार मृत हो जाता है? और यज्ञ कैसे नष्ट हो जाता है?॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृतो दरिद्रः पुरुषो मृतं राष्ट्रमराजकम्।
मृतमश्रोत्रियं श्राद्धं मृतो यज्ञस्त्वदक्षिणः ॥ ८४ ॥

मूलम्

मृतो दरिद्रः पुरुषो मृतं राष्ट्रमराजकम्।
मृतमश्रोत्रियं श्राद्धं मृतो यज्ञस्त्वदक्षिणः ॥ ८४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— दरिद्र पुरुष मरा हुआ है यानी मरे हुएके समान है, बिना राजाका राज्य मर जाता है यानी नष्ट हो जाता है, श्रोत्रिय ब्राह्मणके बिना श्राद्ध मृत हो जाता है और बिना दक्षिणाका यज्ञ नष्ट हो जाता है॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

का दिक् किमुदकं प्रोक्तं किमन्नं किं च वै विषम्।
श्राद्धस्य कालमाख्याहि ततः पिब हरस्व च ॥ ८५ ॥

मूलम्

का दिक् किमुदकं प्रोक्तं किमन्नं किं च वै विषम्।
श्राद्धस्य कालमाख्याहि ततः पिब हरस्व च ॥ ८५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने पूछा— दिशा क्या है? जल क्या है? अन्न क्या है? विष क्या है? और श्राद्धका समय क्या है? यह बताओ। इसके बाद जल पीओ और ले भी जाओ॥८५॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सन्तो दिग् जलमाकाशं गौरन्नं प्रार्थना विषम्।
श्राद्धस्य ब्राह्मणः कालः कथं वा यक्ष मन्यसे ॥ ८६ ॥

मूलम्

सन्तो दिग् जलमाकाशं गौरन्नं प्रार्थना विषम्।
श्राद्धस्य ब्राह्मणः कालः कथं वा यक्ष मन्यसे ॥ ८६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— सत्पुरुष दिशा हैं, आकाश जल है, पृथ्वी अन्न है, प्रार्थना (कामना) विष है और ब्राह्मण ही श्राद्धका समय है अथवा यक्ष! इस विषयमें तुम्हारी क्या मान्यता है?॥८६॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तपः किं लक्षणं प्रोक्तं को दमश्च प्रकीर्तितः।
क्षमा च का परा प्रोक्ता का च ह्रीः परिकीर्तिता॥८७॥

मूलम्

तपः किं लक्षणं प्रोक्तं को दमश्च प्रकीर्तितः।
क्षमा च का परा प्रोक्ता का च ह्रीः परिकीर्तिता॥८७॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने पूछा— तपका क्या लक्षण बताया गया है? दम किसे कहा गया है? उत्तम क्षमा क्या बतायी गयी है? और लज्जा किसको कहा गया है?॥८७॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तपः स्वधर्मवर्तित्वं मनसो दमनं दमः।
क्षमा द्वन्द्वसहिष्णुत्वं ह्रीरकार्यनिवर्तनम् ॥ ८८ ॥

मूलम्

तपः स्वधर्मवर्तित्वं मनसो दमनं दमः।
क्षमा द्वन्द्वसहिष्णुत्वं ह्रीरकार्यनिवर्तनम् ॥ ८८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— अपने धर्ममें तत्पर रहना तप है, मनके दमनका ही नाम दम है, सर्दी-गरमी आदि द्वन्द्वोंको सहन करना क्षमा है तथा न करने योग्य कामसे दूर रहना लज्जा है॥८८॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं ज्ञानं प्रोच्यते राजन् कः शमश्च प्रकीर्तितः।
दया च का परा प्रोक्ता किं चार्जवमुदाहृतम् ॥ ८९ ॥

मूलम्

किं ज्ञानं प्रोच्यते राजन् कः शमश्च प्रकीर्तितः।
दया च का परा प्रोक्ता किं चार्जवमुदाहृतम् ॥ ८९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने पूछा— राजन्! ज्ञान किसे कहते हैं? शम क्या कहलाता है? उत्तम दया किसका नाम है? और आर्जव (सरलता) किसे कहते हैं?॥८९॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञानं तत्त्वार्थसम्बोधः शमश्चित्तप्रशान्तता ।
दया सर्वसुखैषित्वमार्जवं समचित्तता ॥ ९० ॥

मूलम्

ज्ञानं तत्त्वार्थसम्बोधः शमश्चित्तप्रशान्तता ।
दया सर्वसुखैषित्वमार्जवं समचित्तता ॥ ९० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— परमात्मतत्त्वका यथार्थ बोध ही ज्ञान है, चित्तकी शान्ति ही शम है, सबके सुखकी इच्छा रखना ही उत्तम दया है और समचित्त होना ही आर्जव (सरलता) है॥९०॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कः शत्रुर्दुर्जयः पुंसां कश्च व्याधिरनन्तकः।
कीदृशश्च स्मृतः साधुरसाधुः कीदृशः स्मृतः ॥ ९१ ॥

मूलम्

कः शत्रुर्दुर्जयः पुंसां कश्च व्याधिरनन्तकः।
कीदृशश्च स्मृतः साधुरसाधुः कीदृशः स्मृतः ॥ ९१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने पूछा— मनुष्योंका दुर्जय शत्रु कौन है? अनन्त व्याधि क्या है? साधु कौन माना जाता है? और असाधु किसे कहते हैं?॥९१॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रोधः सुदुर्जयः शत्रुर्लोभो व्याधिरनन्तकः।
सर्वभूतहितः साधुरसाधुर्निर्दयः स्मृतः ॥ ९२ ॥

मूलम्

क्रोधः सुदुर्जयः शत्रुर्लोभो व्याधिरनन्तकः।
सर्वभूतहितः साधुरसाधुर्निर्दयः स्मृतः ॥ ९२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— क्रोध दुर्जय शत्रु है, लोभ अनन्त व्याधि है तथा जो समस्त प्राणियोंका हित करनेवाला हो, वही साधु है और निर्दयी पुरुषको ही असाधु माना गया है॥९२॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

को मोहः प्रोच्यते राजन् कश्च मानः प्रकीर्तितः।
किमालस्यं च विज्ञेयं कश्च शोकः प्रकीर्तितः ॥ ९३ ॥

मूलम्

को मोहः प्रोच्यते राजन् कश्च मानः प्रकीर्तितः।
किमालस्यं च विज्ञेयं कश्च शोकः प्रकीर्तितः ॥ ९३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने पूछा— राजन्! मोह किसे कहते हैं? मान क्या कहलाता है? आलस्य किसे जानना चाहिये? और शोक किसे कहते हैं?॥९३॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोहो हि धर्ममूढत्वं मानस्त्वात्माभिमानिता।
धर्मनिष्क्रियताऽऽलस्यं शोकस्त्वज्ञानमुच्यते ॥ ९४ ॥

मूलम्

मोहो हि धर्ममूढत्वं मानस्त्वात्माभिमानिता।
धर्मनिष्क्रियताऽऽलस्यं शोकस्त्वज्ञानमुच्यते ॥ ९४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— धर्ममूढ़ता ही मोह है, आत्माभिमान ही मान है, धर्मका पालन न करना आलस्य है और अज्ञानको ही शोक कहते हैं॥९४॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं स्थैर्यमृषिभिः प्रोक्तं किं च धैर्यमुदाहृतम्।
स्नानं च किं परं प्रोक्तं दानं च किमिहोच्यते॥९५॥

मूलम्

किं स्थैर्यमृषिभिः प्रोक्तं किं च धैर्यमुदाहृतम्।
स्नानं च किं परं प्रोक्तं दानं च किमिहोच्यते॥९५॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने पूछा— ऋषियोंने स्थिरता किसे कहा है? धैर्य क्या कहलाता है? परम स्नान किसे कहते हैं? और दान किसका नाम है?॥९५॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वधर्मे स्थिरता स्थैर्यं धैर्यमिन्द्रियनिग्रहः।
स्नानं मनोमलत्यागो दानं वै भूतरक्षणम् ॥ ९६ ॥

मूलम्

स्वधर्मे स्थिरता स्थैर्यं धैर्यमिन्द्रियनिग्रहः।
स्नानं मनोमलत्यागो दानं वै भूतरक्षणम् ॥ ९६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— अपने धर्ममें स्थिर रहना ही स्थिरता है, इन्द्रियनिग्रह धैर्य है, मानसिक मलोंका त्याग करना परम स्नान है और प्राणियोंकी रक्षा करना ही दान है॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कः पण्डितः पुमान् ज्ञेयो नास्तिकः कश्च उच्यते।
को मूर्खः कश्च कामः स्यात् को मत्सर इति स्मृतः॥९७॥

मूलम्

कः पण्डितः पुमान् ज्ञेयो नास्तिकः कश्च उच्यते।
को मूर्खः कश्च कामः स्यात् को मत्सर इति स्मृतः॥९७॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने पूछा— किस पुरुषको पण्डित समझना चाहिये, नास्तिक कौन कहलाता है? मूर्ख कौन है? काम क्या है? तथा मत्सर किसे कहते हैं?॥९७॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मज्ञः पण्डितो ज्ञेयो नास्तिको मूर्ख उच्यते।
कामः संसारहेतुश्च हृत्तापो मत्सरः स्मृतः ॥ ९८ ॥

मूलम्

धर्मज्ञः पण्डितो ज्ञेयो नास्तिको मूर्ख उच्यते।
कामः संसारहेतुश्च हृत्तापो मत्सरः स्मृतः ॥ ९८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— धर्मज्ञको पण्डित समझना चाहिये, मूर्ख नास्तिक कहलाता है और नास्तिक मूर्ख है तथा जो जन्म-मरणरूप संसारका कारण है, वह वासना काम है और हृदयकी जलन ही मत्सर है॥९८॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोऽहङ्कार इति प्रोक्तः कश्च दम्भः प्रकीर्तितः।
किं तद् दैवं परं प्रोक्तं किं तत् पैशुन्यमुच्यते॥९९॥

मूलम्

कोऽहङ्कार इति प्रोक्तः कश्च दम्भः प्रकीर्तितः।
किं तद् दैवं परं प्रोक्तं किं तत् पैशुन्यमुच्यते॥९९॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने पूछा— अहंकार किसे कहते हैं? दम्भ क्या कहलाता है? जिसे परम दैव कहते हैं, वह क्या है? और पैशुन्य किसका नाम है?॥९९॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

महाज्ञानमहङ्कारो दम्भो धर्मो ध्वजोच्छ्रयः।
दैवं दानफलं प्रोक्तं पैशुन्यं परदूषणम् ॥ १०० ॥

मूलम्

महाज्ञानमहङ्कारो दम्भो धर्मो ध्वजोच्छ्रयः।
दैवं दानफलं प्रोक्तं पैशुन्यं परदूषणम् ॥ १०० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— महान् अज्ञान अहंकार है, अपनेको झूठ-मूठ बड़ा धर्मात्मा प्रसिद्ध करना दम्भ है, दानका फल दैव कहलाता है और दूसरोंको दोष लगाना पैशुन्य (चुगली) है॥१००॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मश्चार्थश्च कामश्च परस्परविरोधिनः ।
एषां नित्यविरुद्धानां कथमेकत्र संगमः ॥ १०१ ॥

मूलम्

धर्मश्चार्थश्च कामश्च परस्परविरोधिनः ।
एषां नित्यविरुद्धानां कथमेकत्र संगमः ॥ १०१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने पूछा— धर्म, अर्थ और काम—ये सब परस्पर विरोधी हैं। इन नित्य-विरुद्ध पुरुषार्थोंका एक स्थानपर कैसे संयोग हो सकता है?॥१०१॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा धर्मश्च भार्या च परस्परवशानुगौ।
तदा धर्मार्थकामानां त्रयाणामपि संगमः ॥ १०२ ॥

मूलम्

यदा धर्मश्च भार्या च परस्परवशानुगौ।
तदा धर्मार्थकामानां त्रयाणामपि संगमः ॥ १०२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— जब धर्म और भार्या—ये दोनों परस्पर अविरोधी होकर मनुष्यके वशमें हो जाते हैं, उस समय धर्म, अर्थ और काम—इन तीनों परस्पर विरोधियोंका भी एक साथ रहना सहज हो जाता है1॥१०२॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अक्षयो नरकः केन प्राप्यते भरतर्षभ।
एतन्मे मृच्छतः प्रश्ननं तच्छीघ्रं वक्तुमर्हसि ॥ १०३ ॥

मूलम्

अक्षयो नरकः केन प्राप्यते भरतर्षभ।
एतन्मे मृच्छतः प्रश्ननं तच्छीघ्रं वक्तुमर्हसि ॥ १०३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने पूछा— भरतश्रेष्ठ! अक्षय नरक किस पुरुषको प्राप्त होता है? मेरे इस प्रश्नका शीघ्र ही उत्तर दो॥१०३॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणं स्वयमाहूय याचमानमकिञ्चनम् ।
पश्चान्नास्तीति यो ब्रूयात् सोऽक्षयं नरकं व्रजेत् ॥ १०४ ॥

मूलम्

ब्राह्मणं स्वयमाहूय याचमानमकिञ्चनम् ।
पश्चान्नास्तीति यो ब्रूयात् सोऽक्षयं नरकं व्रजेत् ॥ १०४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— जो पुरुष भिक्षा माँगनेवाले किसी अकिञ्चन ब्राह्मणको स्वयं बुलाकर फिर उसे ‘नाहीं’ कर देता है, वह अक्षय नरकमें जाता है॥१०४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदेषु धर्मशास्त्रेषु मिथ्या यो वै द्विजातिषु।
देवेषु पितृधर्मेषु सोऽक्षयं नरकं व्रजेत् ॥ १०५ ॥

मूलम्

वेदेषु धर्मशास्त्रेषु मिथ्या यो वै द्विजातिषु।
देवेषु पितृधर्मेषु सोऽक्षयं नरकं व्रजेत् ॥ १०५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष वेद, धर्मशास्त्र, ब्राह्मण, देवता और पितृधर्मोंमें मिथ्याबुद्धि रखता है, वह अक्षय नरकको प्राप्त होता है॥१०५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विद्यमाने धने लोभाद् दानभोगविवर्जितः।
पश्चान्नास्तीति यो ब्रूयात् सोऽक्षयं नरकं व्रजेत् ॥ १०६ ॥

मूलम्

विद्यमाने धने लोभाद् दानभोगविवर्जितः।
पश्चान्नास्तीति यो ब्रूयात् सोऽक्षयं नरकं व्रजेत् ॥ १०६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धन पास रहते हुए भी जो लोभवश दान और भोगसे रहित है तथा (माँगनेवाले ब्राह्मणादिको एवं न्याययुक्त भोगके लिये स्त्री-पुत्रादिको) पीछेसे यह कह देता है कि मेरे पास कुछ नहीं है, वह अक्षय नरकमें जाता है॥१०६॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजन् कुलेन वृत्तेन स्वाध्यायेन श्रुतेन वा।
ब्राह्मण्यं केन भवति प्रब्रूह्येतत् सुनिश्चितम् ॥ १०७ ॥

मूलम्

राजन् कुलेन वृत्तेन स्वाध्यायेन श्रुतेन वा।
ब्राह्मण्यं केन भवति प्रब्रूह्येतत् सुनिश्चितम् ॥ १०७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने पूछा— राजन्! कुल, आचार, स्वाध्याय और शास्त्रश्रवण—इनमेंसे किसके द्वारा ब्राह्मणत्व सिद्ध होता है? यह बात निश्चय करके बताओ॥१०७॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणु यक्ष कुलं तात न स्वाध्यायो न च श्रुतम्।
कारणं हि द्विजत्वे च वृत्तमेव न संशयः ॥ १०८ ॥

मूलम्

शृणु यक्ष कुलं तात न स्वाध्यायो न च श्रुतम्।
कारणं हि द्विजत्वे च वृत्तमेव न संशयः ॥ १०८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— तात यक्ष! सुनो न तो कुल ब्राह्मणत्वमें कारण है न स्वाध्याय और न शास्त्रश्रवण। ब्राह्मणत्वका हेतु आचार ही है, इसमें संशय नहीं है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृत्तं यत्नेन संरक्ष्यं ब्राह्मणेन विशेषतः।
अक्षीणवृत्तो न क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः ॥ १०९ ॥

मूलम्

वृत्तं यत्नेन संरक्ष्यं ब्राह्मणेन विशेषतः।
अक्षीणवृत्तो न क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः ॥ १०९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये प्रयत्नपूर्वक सदाचारकी ही रक्षा करनी चाहिये। ब्राह्मणको तो उसपर विशेषरूपसे दृष्टि रखनी जरूरी है; क्योंकि जिसका सदाचार अक्षुण्ण है, उसका ब्राह्मणत्व भी बना हुआ है और जिसका आचार नष्ट हो गया, वह तो स्वयं भी नष्ट हो गया॥१०९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पठकाः पाठकाश्चैव ये चान्ये शास्त्रचिन्तकाः।
सर्वे व्यसनिनो मूर्खा यः क्रियावान् स पण्डितः ॥ ११० ॥

मूलम्

पठकाः पाठकाश्चैव ये चान्ये शास्त्रचिन्तकाः।
सर्वे व्यसनिनो मूर्खा यः क्रियावान् स पण्डितः ॥ ११० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पढ़नेवाले, पढ़ानेवाले तथा शास्त्रका विचार करनेवाले—ये सब तो व्यसनी और मूर्ख ही हैं। पण्डित तो वही है, जो अपने (शास्त्रोक्त) कर्तव्यका पालन करता है॥११०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्वेदोऽपि दुर्वृत्तः स शूद्रादतिरिच्यते।
योऽग्निहोत्रपरो दान्तः स ब्राह्मण इति स्मृतः ॥ १११ ॥

मूलम्

चतुर्वेदोऽपि दुर्वृत्तः स शूद्रादतिरिच्यते।
योऽग्निहोत्रपरो दान्तः स ब्राह्मण इति स्मृतः ॥ १११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चारों वेद पढ़ा होनेपर भी जो दुराचारी है, वह अधमतामें शूद्रसे भी बढ़कर है। जो (नित्य) अग्निहोत्रमें तत्पर और जितेन्द्रिय है, वही ‘ब्राह्मण’ कहा जाता है॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रियवचनवादी किं लभते
विमृशितकार्यकरः किं लभते ।
बहुमित्रकरः किं लभते
धर्मरतः किं लभते कथय ॥ ११२ ॥

मूलम्

प्रियवचनवादी किं लभते
विमृशितकार्यकरः किं लभते ।
बहुमित्रकरः किं लभते
धर्मरतः किं लभते कथय ॥ ११२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने पूछा— बताओ; मधुर वचन बोलनेवालेको क्या मिलता है? सोच-विचारकर काम करनेवाला क्या पा लेता है? जो बहुत-से मित्र बना लेता है, उसे क्या लाभ होता है? और जो धर्मनिष्ठ है, उसे क्या मिलता है?॥११२॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रियवचनवादी प्रियो भवति
विमृशितकार्यकरोऽधिकं जयति ।
बहुमित्रकरः सुखं वसते
यश्च धर्मरतः स गतिं लभते ॥ ११३ ॥

मूलम्

प्रियवचनवादी प्रियो भवति
विमृशितकार्यकरोऽधिकं जयति ।
बहुमित्रकरः सुखं वसते
यश्च धर्मरतः स गतिं लभते ॥ ११३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— मधुर वचन बोलनेवाला सबको प्रिय होता है, सोच-विचारकर काम करनेवालेको अधिकतर सफलता मिलती है एवं जो बहुत-से मित्र बना लेता है, वह सुखसे रहता है और जो धर्मनिष्ठ है, वह सद्‌गति पाता है॥११३॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

को मोदते किमाश्चर्यं कः पन्थाः का च वार्तिका।
ममैतांश्चतुरः प्रश्नान् कथयित्वा जलं पिब ॥ ११४ ॥

मूलम्

को मोदते किमाश्चर्यं कः पन्थाः का च वार्तिका।
ममैतांश्चतुरः प्रश्नान् कथयित्वा जलं पिब ॥ ११४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने पूछा— सुखी कौन है? आश्चर्य क्या है? मार्ग क्या है और वार्ता क्या है? मेरे इन चार प्रश्नोंका उत्तर देकर जल पीओ॥११४॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पञ्चमेऽहनि षष्ठे वा शाकं पचति स्वे गृहे।
अनृणी चाप्रवासी च स वारिचर मोदते ॥ ११५ ॥

मूलम्

पञ्चमेऽहनि षष्ठे वा शाकं पचति स्वे गृहे।
अनृणी चाप्रवासी च स वारिचर मोदते ॥ ११५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— जलचर यक्ष! जिस पुरुषपर ऋण नहीं है और जो परदेशमें नहीं है, वह भले ही पाँचवें या छठे दिन अपने घरके भीतर साग-पात ही पकाकर खाता हो, तो भी वही सुखी है॥११५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयम्।
शेषाः स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम् ॥ ११६ ॥

मूलम्

अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयम्।
शेषाः स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम् ॥ ११६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संसारसे रोज-रोज प्राणी यमलोकमें जा रहे हैं; किंतु जो बचे हुए हैं, वे सर्वदा जीते रहनेकी इच्छा करते हैं; इससे बढ़कर आश्चर्य और क्या होगा?॥११६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना
नैको ऋषिर्यस्य मतं प्रमाणम्।
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां
महाजनो येन गतः स पन्थाः ॥ ११७ ॥

मूलम्

तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना
नैको ऋषिर्यस्य मतं प्रमाणम्।
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां
महाजनो येन गतः स पन्थाः ॥ ११७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तर्ककी कहीं स्थिति नहीं है, श्रुतियाँ भी भिन्न-भिन्न हैं, एक ही ऋषि नहीं है कि जिसका मत प्रमाण माना जाय तथा धर्मका तत्त्व गुहामें निहित है अर्थात् अत्यन्य गूढ़ है; अतः जिससे महापुरुष जाते रहे हैं, वही मार्ग है॥११७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मिन् महामोहमये कटाहे
सूर्याग्निना रात्रिदिवेन्धनेन ।
मासर्तुदर्वीपरिघट्टनेन
भूतानि कालः पचतीति वार्ता ॥ ११८ ॥

मूलम्

अस्मिन् महामोहमये कटाहे
सूर्याग्निना रात्रिदिवेन्धनेन ।
मासर्तुदर्वीपरिघट्टनेन
भूतानि कालः पचतीति वार्ता ॥ ११८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस महामोहरूपी कड़ाहेमें भगवान् काल समस्त प्राणियोंको मास और ऋतुरूप करछीसे उलट-पलटकर सूर्यरूप अग्नि और रात-दिनरूप ईंधनके द्वारा राँध रहे हैं, यही वार्ता है॥११८॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्याख्याता मे त्वया प्रश्ना याथातथ्यं परंतप।
पुरुषं त्विदानीं व्याख्याहि यश्च सर्वधनी नरः ॥ ११९ ॥

मूलम्

व्याख्याता मे त्वया प्रश्ना याथातथ्यं परंतप।
पुरुषं त्विदानीं व्याख्याहि यश्च सर्वधनी नरः ॥ ११९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने पूछा— परंतप! तुमने मेरे सब प्रश्नोंके उत्तर ठीक-ठीक दे दिये, अब तुम पुरुषकी भी व्याख्या कर दो और यह बताओ कि सबसे बड़ा धनी कौन है?॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिवं स्पृशति भूमिं च शब्दः पुण्येन कर्मणा।
यावत् स शब्दो भवति तावत् पुरुष उच्यते ॥ १२० ॥

मूलम्

दिवं स्पृशति भूमिं च शब्दः पुण्येन कर्मणा।
यावत् स शब्दो भवति तावत् पुरुष उच्यते ॥ १२० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— जिस व्यक्तिके पुण्यकर्मोंकी कीर्तिका शब्द जबतक स्वर्ग और भूमिको स्पर्श करता है, तबतक वह पुरुष कहलाता है॥१२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुल्ये प्रियाप्रिये यस्य सुखदुःखे तथैव च।
अतीतानागते चोभे स वै सर्वधनी नरः ॥ १२१ ॥

मूलम्

तुल्ये प्रियाप्रिये यस्य सुखदुःखे तथैव च।
अतीतानागते चोभे स वै सर्वधनी नरः ॥ १२१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य प्रिय-अप्रिय, सुख-दुःख और भूत-भविष्यत्—इन द्वन्द्वोंमें सम है, वही सबसे बड़ा धनी है॥१२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(भूतभव्यभविष्येषु निःस्पृहः शान्तमानसः ।
सुप्रसन्नः सदा योगी स वै सर्वधनीश्वरः॥)

मूलम्

(भूतभव्यभविष्येषु निःस्पृहः शान्तमानसः ।
सुप्रसन्नः सदा योगी स वै सर्वधनीश्वरः॥)

अनुवाद (हिन्दी)

जो भूत, वर्तमान और भविष्य सभी विषयोंकी ओरसे निःस्पृह, शान्तचित्त, सुप्रसन्न और सदा योगयुक्त है, वही सब धनियोंका स्वामी है॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्याख्यातः पुरुषो राजन् यश्च सर्वधनी नरः।
तस्मात् त्वमेकं भ्रातॄणां यमिच्छसि स जीवतु ॥ १२२ ॥

मूलम्

व्याख्यातः पुरुषो राजन् यश्च सर्वधनी नरः।
तस्मात् त्वमेकं भ्रातॄणां यमिच्छसि स जीवतु ॥ १२२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने कहा— राजन्! जो सबसे बढ़कर धनी पुरुष है, उसकी तुमने ठीक-ठीक व्याख्या कर दी; इसलिये अपने भाइयोंमेंसे जिस एकको तुम चाहो, वही जीवित हो सकता है॥१२२॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्यामो य एष रक्ताक्षो बृहच्छाल इवोत्थितः।
व्यूढोरस्को महाबाहुर्नकुलो यक्ष जीवतु ॥ १२३ ॥

मूलम्

श्यामो य एष रक्ताक्षो बृहच्छाल इवोत्थितः।
व्यूढोरस्को महाबाहुर्नकुलो यक्ष जीवतु ॥ १२३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— यक्ष! यह जो श्यामवर्ण, अरुणनयन, सुविशाल शालवृक्षके समान ऊँचा और चौड़ी छातीवाला महाबाहु नकुल है, वही जीवित हो जाय॥१२३॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रियस्ते भीमसेनोऽयमर्जुनो वः परायणम्।
स कस्मान्नकुलं राजन् सापत्नं जीवमिच्छसि ॥ १२४ ॥

मूलम्

प्रियस्ते भीमसेनोऽयमर्जुनो वः परायणम्।
स कस्मान्नकुलं राजन् सापत्नं जीवमिच्छसि ॥ १२४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने कहा— राजन्! यह तुम्हारा प्रिय भीमसेन है और यह तुमलोगोंका सबसे बड़ा सहारा अर्जुन है; इन्हें छोड़कर तुम किसलिये सौतेले भाई नकुलको जिलाना चाहते हो?॥१२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य नागसहस्रेण दशसंख्येन वै बलम्।
तुल्यं तं भीममुत्सृज्य नकुलं जीवमिच्छसि ॥ १२५ ॥

मूलम्

यस्य नागसहस्रेण दशसंख्येन वै बलम्।
तुल्यं तं भीममुत्सृज्य नकुलं जीवमिच्छसि ॥ १२५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसमें दस हजार हाथियोंके समान बल है, उस भीमको छोड़कर तुम नकुलको ही क्यों जिलाना चाहते हो?॥१२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैनं मनुजाः प्राहुर्भीमसेनं प्रियं तव।
अथ केनानुभावेन सापत्नं जीवमिच्छसि ॥ १२६ ॥

मूलम्

तथैनं मनुजाः प्राहुर्भीमसेनं प्रियं तव।
अथ केनानुभावेन सापत्नं जीवमिच्छसि ॥ १२६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सभी मनुष्य भीमसेनको तुम्हारा प्रिय बतलाते हैं; उसे छोड़कर भला सौतेले भाई नकुलमें तुम कौन-सा सामर्थ्य देखकर उसे जिलाना चाहते हो?॥१२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य बाहुबलं सर्वे पाण्डवाः समुपासते।
अर्जुनं तमपाहाय नकुलं जीवमिच्छसि ॥ १२७ ॥

मूलम्

यस्य बाहुबलं सर्वे पाण्डवाः समुपासते।
अर्जुनं तमपाहाय नकुलं जीवमिच्छसि ॥ १२७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके बाहुबलका सभी पाण्डवोंको पूरा भरोसा है, उस अर्जुनको भी छोड़कर तुम्हें नकुलको जिला देनेकी इच्छा क्यों है?॥१२७॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।
तस्माद् धर्मं न त्यजामि मा नो धर्मो हतोऽवधीत्॥१२८॥

मूलम्

धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।
तस्माद् धर्मं न त्यजामि मा नो धर्मो हतोऽवधीत्॥१२८॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— यदि धर्मका नाश किया जाय, तो वह नष्ट हुआ धर्म ही कर्ताको भी नष्ट कर देता है और यदि उसकी रक्षा की जाय, तो वही कर्ताकी भी रक्षा कर लेता है। इसीसे मैं धर्मका त्याग नहीं करता कि कहीं नष्ट होकर वह धर्म मेरा ही नाश न कर दे॥१२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आनृशंस्यं परो धर्मः परमार्थाच्च मे मतम्।
आनृशंस्यं चिकीर्षामि नकुलो यक्ष जीवतु ॥ १२९ ॥

मूलम्

आनृशंस्यं परो धर्मः परमार्थाच्च मे मतम्।
आनृशंस्यं चिकीर्षामि नकुलो यक्ष जीवतु ॥ १२९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्ष! मेरा ऐसा विचार है कि वस्तुतः अनृशंसता (दया तथा समता) ही परम धर्म है। यही सोचकर मैं सबके प्रति दया और समानभाव रखना चाहता हूँ; इसलिये नकुल ही जीवित हो जाय॥१२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मशीलः सदा राजा इति मां मानवा विदुः।
स्वधर्मान्न चलिष्यामि नकुलो यक्ष जीवतु ॥ १३० ॥

मूलम्

धर्मशीलः सदा राजा इति मां मानवा विदुः।
स्वधर्मान्न चलिष्यामि नकुलो यक्ष जीवतु ॥ १३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्ष! लोग मेरे विषयमें ऐसा समझते हैं कि राजा युधिष्ठिर धर्मात्मा हैं; अतएव मैं अपने धर्मसे विचलित नहीं होऊँगा। मेरा भाई नकुल जीवित हो जाय॥१३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुन्ती चैव तु माद्री च द्वे भार्ये तु पितुर्मम।
उभे सपुत्रे स्यातां वै इति मे धीयते मतिः॥१३१॥

मूलम्

कुन्ती चैव तु माद्री च द्वे भार्ये तु पितुर्मम।
उभे सपुत्रे स्यातां वै इति मे धीयते मतिः॥१३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे पिताके कुन्ती और माद्री नामकी दो भार्याएँ रहीं। वे दोनों ही पुत्रवती बनी रहें, ऐसा मेरा विचार है॥१३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा कुन्ती तथा माद्री विशेषो नास्ति मे तयोः।
मातृभ्यां सममिच्छामि नकुलो यक्ष जीवतु ॥ १३२ ॥

मूलम्

यथा कुन्ती तथा माद्री विशेषो नास्ति मे तयोः।
मातृभ्यां सममिच्छामि नकुलो यक्ष जीवतु ॥ १३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्ष! मेरे लिये जैसी कुन्ती है, वैसी ही माद्री। उन दोनोंमें कोई अन्तर नहीं है। मैं दोनों माताओंके प्रति समानभाव ही रखना चाहता हूँ। इसलिये नकुल ही जीवित हो॥१३२॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य तेऽर्थाच्च कामाच्च आनृशंस्यं परं मतम्।
तस्मात् ते भ्रातरः सर्वे जीवन्तु भरतर्षभ ॥ १३३ ॥

मूलम्

तस्य तेऽर्थाच्च कामाच्च आनृशंस्यं परं मतम्।
तस्मात् ते भ्रातरः सर्वे जीवन्तु भरतर्षभ ॥ १३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षने कहा— भरतश्रेष्ठ! तुमने अर्थ और कामसे भी अधिक दया और समताका आदर किया है, इसलिये तुम्हारे सभी भाई जीवित हो जायँ॥१३३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि आरणेयपर्वणि यक्षप्रश्नने त्रयोदशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३१३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत आरणेयपर्वमें यक्षप्रश्नविषयक तीन सौ तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३१३॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल १३४ श्लोक हैं।)


  1. धर्मानुकूल प्राप्त भार्यासे धर्मका विरोध नहीं होता एवं वह पातिव्रत्यधर्मका पालन करनेवाली हो, तो धर्मसे उसका विरोध नहीं होता। इस प्रकार धर्मानुसार प्राप्त पातिव्रत्यधर्मका पालन करनेवाली स्त्री और धर्म दोनों जिसके अनुकूल हो जाते हैं, वह धर्मात्मा गृहस्थ कभी दरिद्र नहीं होता। इसलिये उसके घरमें धर्म, अर्थ और काम तीनों बिना विरोधके एक साथ रह सकते हैं। ↩︎