३१२ नकुलादिपतने

भागसूचना

द्वादशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

पानी लानेके लिये गये हुए नकुल आदि चार भाइयोंका सरोवरके तटपर अचेत होकर गिरना

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नापदामस्ति मर्यादा न निमित्तं न कारणम्।
धर्मस्तु विभजत्यर्थमुभयोः पुण्यपापयोः ॥ १ ॥

मूलम्

नापदामस्ति मर्यादा न निमित्तं न कारणम्।
धर्मस्तु विभजत्यर्थमुभयोः पुण्यपापयोः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— भैया! आपत्तियोंकी न तो कोई सीमा है, न कोई निमित्त दिखायी देता है और न कोई विशेष कारण ही परिलक्षित होता है। पहलेका किया हुआ पुण्य और पापरूप कर्म ही प्रारब्ध बनकर सुख और दुःखरूप फल बाँटता रहता है॥१॥

मूलम् (वचनम्)

भीम उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रातिकाम्यनयत् कृष्णां सभायां प्रेष्यवत् तदा।
न मया निहतस्तत्र तेन प्राप्ताः स्म संशयम् ॥ २ ॥

मूलम्

प्रातिकाम्यनयत् कृष्णां सभायां प्रेष्यवत् तदा।
न मया निहतस्तत्र तेन प्राप्ताः स्म संशयम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेनने कहा— जब प्रातिकामीकी जगह दूत बनकर गया हुआ दुःशासन द्रौपदीको कौरवोंकी सभामें दासीकी भाँति बलपूर्वक खींच ले आया, उस समय मैंने जो उसका वध नहीं कर डाला; इसीके कारण हमलोग ऐसे धर्मसंकटमें पड़े हैं॥२॥

मूलम् (वचनम्)

अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाचस्तीक्ष्णास्थिभेदिन्यः सूतपुत्रेण भाषिताः ।
अतितीव्रा मया क्षान्तास्तेन प्राप्ताः स्म संशयम् ॥ ३ ॥

मूलम्

वाचस्तीक्ष्णास्थिभेदिन्यः सूतपुत्रेण भाषिताः ।
अतितीव्रा मया क्षान्तास्तेन प्राप्ताः स्म संशयम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन बोले— सूतपुत्र कर्णके कहे हुए कठोर अस्थियोंको भी विदीर्ण कर देनेवाले अत्यन्त कड़वे वचन सुनकर भी जो हमने सहन कर लिये; उसीसे आज हम धर्मसंकटकी अवस्थामें आ पहुँचे हैं॥३॥

मूलम् (वचनम्)

सहदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शकुनिस्त्वां यदाजैषीदक्षद्यूतेन भारत ।
स मया न हतस्तत्र तेन प्राप्ताः स्म संशयम्॥४॥

मूलम्

शकुनिस्त्वां यदाजैषीदक्षद्यूतेन भारत ।
स मया न हतस्तत्र तेन प्राप्ताः स्म संशयम्॥४॥

अनुवाद (हिन्दी)

सहदेवने कहा— भारत! जब शकुनिने आपको जूएमें जीत लिया और उस समय मैंने उसे मार नहीं डाला, उसीका यह फल है कि आज हमलोग धर्मसंकटमें पड़ गये हैं॥४॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो युधिष्ठिरो राजा नकुलं वाक्यमब्रवीत्।
आरुह्य वृक्षं माद्रेय निरीक्षस्व दिशो दश ॥ ५ ॥
पानीयमन्तिके पश्य वृक्षांश्चाप्युदकाश्रितान् ।
एते हि भ्रातरः श्रान्तास्तव तात पिपासिताः ॥ ६ ॥

मूलम्

ततो युधिष्ठिरो राजा नकुलं वाक्यमब्रवीत्।
आरुह्य वृक्षं माद्रेय निरीक्षस्व दिशो दश ॥ ५ ॥
पानीयमन्तिके पश्य वृक्षांश्चाप्युदकाश्रितान् ।
एते हि भ्रातरः श्रान्तास्तव तात पिपासिताः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— तदनन्तर राजा युधिष्ठिरने नकुलसे कहा—‘माद्रीनन्दन! किसी वृक्षपर चढ़कर सब दिशाओंमें दृष्टिपात करो। कहीं आस-पास पानी हो, तो देखो अथवा जलके किनारे होनेवाले वृक्षोंपर भी दृष्टि डालो। तात! तुम्हारे ये भाई थके-माँदे और प्यासे हैं’॥५-६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नकुलस्तु तथेत्युक्त्वा शीघ्रमारुह्य पादपम्।
अब्रवीद् भ्रातरं ज्येष्ठमभिवीक्ष्य समन्ततः ॥ ७ ॥

मूलम्

नकुलस्तु तथेत्युक्त्वा शीघ्रमारुह्य पादपम्।
अब्रवीद् भ्रातरं ज्येष्ठमभिवीक्ष्य समन्ततः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब नकुल ‘बहुत अच्छा’ कहकर शीघ्र ही एक पेड़पर चढ़ गये और चारों ओर दृष्टि डालकर अपने बड़े भाईसे बोले—॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्यामि बहुलान् राजन् वृक्षानुदकसंश्रयान्।
सारसानां च निर्ह्रादमत्रोदकमसंशयम् ॥ ८ ॥

मूलम्

पश्यामि बहुलान् राजन् वृक्षानुदकसंश्रयान्।
सारसानां च निर्ह्रादमत्रोदकमसंशयम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! मैं ऐसे बहुतेरे वृक्ष देख रहा हूँ, जो जलके किनारे ही होते हैं। सारसोंकी आवाज भी सुनायी देती है; अतः निःसंदेह यहाँ आस-पास ही कोई जलाशय है’॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽब्रवीत् सत्यधृतिः कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
गच्छ सौम्य ततः शीघ्रं तूणौः पानीयमानय ॥ ९ ॥

मूलम्

ततोऽब्रवीत् सत्यधृतिः कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
गच्छ सौम्य ततः शीघ्रं तूणौः पानीयमानय ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब सत्यका पालन करनेवाले कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरने नकुलसे कहा—‘सौम्य! शीघ्र जाओ और तरकसोंमें पानी भर लाओ’॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नकुलस्तु तथेत्युक्त्वा भ्रातुर्ज्येष्ठस्य शासनात्।
प्राद्रवद् यत्र पानीयं शीघ्रं चैवान्वपद्यत ॥ १० ॥

मूलम्

नकुलस्तु तथेत्युक्त्वा भ्रातुर्ज्येष्ठस्य शासनात्।
प्राद्रवद् यत्र पानीयं शीघ्रं चैवान्वपद्यत ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नकुल ‘बहुत अच्छा’ कहकर बड़े भाईकी आज्ञासे शीघ्रतापूर्वक गये और जहाँ जलाशय था, वहाँ तुरंत पहुँच गये॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स दृष्ट्‌वा विमल तोयं सारसैः परिवारितम्।
पातुकामस्ततो वाचमन्तरिक्षात् स शुश्रुवे ॥ ११ ॥

मूलम्

स दृष्ट्‌वा विमल तोयं सारसैः परिवारितम्।
पातुकामस्ततो वाचमन्तरिक्षात् स शुश्रुवे ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ सारसोंसे घिरे हुए जलाशयका स्वच्छ जल देखकर नकुलको उसे पीनेकी इच्छा हुई। इतनेमें ही आकाशसे उनके कानोंमें एक स्पष्ट वाणी सुनायी दी॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मा तात साहसं कार्षीर्मम पूर्वपरिग्रहः।
प्रश्नानुक्त्वा तु माद्रेय ततः पिब हरस्व च ॥ १२ ॥

मूलम्

मा तात साहसं कार्षीर्मम पूर्वपरिग्रहः।
प्रश्नानुक्त्वा तु माद्रेय ततः पिब हरस्व च ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्ष बोला— तात! तुम इस सरोवरका पानी पीनेका साहस न करो। इसपर पहलेसे ही मेरा अधिकार हो चुका है। माद्रीकुमार! पहले मेरे प्रश्नोंका उत्तर दे दो, फिर पानी पीओ और ले भी जाओ॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनादृत्य तु तद् वाक्यं नकुलः सुपिपासितः।
अपिबच्छीतलं तोयं पीत्वा च निपपात ह ॥ १३ ॥

मूलम्

अनादृत्य तु तद् वाक्यं नकुलः सुपिपासितः।
अपिबच्छीतलं तोयं पीत्वा च निपपात ह ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नकुलकी प्यास बहुत बढ़ गयी थी। उन्होंने यक्षके कथनकी अवहेलना करके वहाँका शीतल जल पी लिया। पीते ही वे अचेत होकर गिर पड़े॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चिरायमाणे नकुले कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
अब्रवीद् भ्रातरं वीरं सहदेवमरिंदमम् ॥ १४ ॥

मूलम्

चिरायमाणे नकुले कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
अब्रवीद् भ्रातरं वीरं सहदेवमरिंदमम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नकुलके लौटनेमें जब अधिक विलम्ब हो गया, तब कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरने अपने शत्रुहन्ता वीर भ्राता सहदेवसे कहा—॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्राता हि चिरयातो नः सहदेव तवाग्रजः।
तथैवानय सोदर्यं पानीयं च त्वमानय ॥ १५ ॥

मूलम्

भ्राता हि चिरयातो नः सहदेव तवाग्रजः।
तथैवानय सोदर्यं पानीयं च त्वमानय ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सहदेव! हमारे अनुज और तुम्हारे अग्रज भ्राता नकुलको यहाँसे गये बहुत देर हो गयी। तुम जाकर अपने सहोदर भाईको बुला लाओ और पानी भी ले आओ’॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहदेवस्तथेत्यक्त्वा तां दिशं प्रत्यपद्यत।
ददर्श च हतं भूमौ भ्रातरं नकुलं तदा ॥ १६ ॥

मूलम्

सहदेवस्तथेत्यक्त्वा तां दिशं प्रत्यपद्यत।
ददर्श च हतं भूमौ भ्रातरं नकुलं तदा ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब सहदेव ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसी दिशाकी ओर चल दिये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा, भाई नकुल पृथ्वीपर मरे पड़े हैं॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रातृशोकाभिसंतप्तस्तृषया च प्रपीडितः ।
अभिदुद्राव पानीयं ततो वागभ्यभाषत ॥ १७ ॥

मूलम्

भ्रातृशोकाभिसंतप्तस्तृषया च प्रपीडितः ।
अभिदुद्राव पानीयं ततो वागभ्यभाषत ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भाईके शोकसे उनका हृदय संतप्त हो उठा। साथ ही प्याससे भी वे बहुत कष्ट पा रहे थे; अतः पानीकी ओर दौड़े। उसी समय आकाशवाणी बोल उठी—॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मा तात साहसं कार्षीर्मम पूर्वपरिग्रहः।
प्रश्नानुक्त्वा यथाकामं पिबस्व च हरस्व च ॥ १८ ॥

मूलम्

मा तात साहसं कार्षीर्मम पूर्वपरिग्रहः।
प्रश्नानुक्त्वा यथाकामं पिबस्व च हरस्व च ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! पानी पीनेका साहस न करो। यहाँ पहलेसे ही मेरा अधिकार हो चुका है। तुम पहले मेरे प्रश्नोंका उत्तर दे दो, फिर इच्छानुसार जल पीओ और साथ ले भी जाओ’॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनादृत्य तु तद् वाक्यं सहदेवः पिपासितः।
अपिबच्छीतलं तोयं पीत्वा च निपपात ह ॥ १९ ॥

मूलम्

अनादृत्य तु तद् वाक्यं सहदेवः पिपासितः।
अपिबच्छीतलं तोयं पीत्वा च निपपात ह ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्यासे सहदेव उस वचनकी अवहेलना करके वहाँका ठंडा जल पीने लगे एवं पीते ही अचेत होकर गिर पड़े॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथाब्रवीत् स विजयं कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
भ्रातरौ ते चिरगतौ बीभत्सो शत्रुकर्शन ॥ २० ॥

मूलम्

अथाब्रवीत् स विजयं कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
भ्रातरौ ते चिरगतौ बीभत्सो शत्रुकर्शन ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर कुन्तीकुमार युधिष्ठिरने अर्जुनसे कहा—‘शत्रुनाशन बीभत्सो! तुम्हारे दोनों भाइयोंको गये बहुत देर हो गयी॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तौ चैवानय भद्रं ते पानीयं च त्वमानय।
त्वं हि नस्तात सर्वेषां दुःखितानामपाश्रयः ॥ २१ ॥

मूलम्

तौ चैवानय भद्रं ते पानीयं च त्वमानय।
त्वं हि नस्तात सर्वेषां दुःखितानामपाश्रयः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हारा कल्याण हो। तुम उन दोनोंको बुला लाओ और साथ ही पानी भी ले आओ। तात! तुम्हीं हम सब दुःखी बन्धुओंके सहारे हो’॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तो गुडाकेशः प्रगृह्य सशरं धनुः।
आमुक्तखड्‌गो मेधावी तत् सरः प्रत्यपद्यत ॥ २२ ॥

मूलम्

एवमुक्तो गुडाकेशः प्रगृह्य सशरं धनुः।
आमुक्तखड्‌गो मेधावी तत् सरः प्रत्यपद्यत ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरके ऐसा कहनेपर निद्राविजयी बुद्धिमान् अर्जुन धनुष-बाण और खड्‌ग लिये उस सरोवरके तटपर गये॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः पुरुषशार्दूलौ पानीयहरणे गतौ।
तौ ददर्श हतौ तत्र भ्रातरौ श्वेतवाहनः ॥ २३ ॥

मूलम्

ततः पुरुषशार्दूलौ पानीयहरणे गतौ।
तौ ददर्श हतौ तत्र भ्रातरौ श्वेतवाहनः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्वेतवाहन अर्जुनने जल लानेके लिये गये हुए उन दोनों पुरुषसिंह भाइयोंको वहाँ मरे हुए देखा॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रसुप्ताविव तौ दृष्ट्‌वा नरसिंहः सुदुःखितः।
धनुरुद्यम्य कौन्तेयो व्यलोकयत तद् वनम् ॥ २४ ॥

मूलम्

प्रसुप्ताविव तौ दृष्ट्‌वा नरसिंहः सुदुःखितः।
धनुरुद्यम्य कौन्तेयो व्यलोकयत तद् वनम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनोंको प्रगाढ़ निद्रामें सोये हुएकी भाँति देखकर मनुष्योंमें सिंहके समान पराक्रमी अर्जुनको बहुत दुःख हुआ। उन्होंने धनुष उठाकर उस वनका अच्छी तरह निरीक्षण किया॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नापश्यत्‌ तत्र किञ्चित्‌ स भूतमस्मिन्‌ महावने।
सव्यसाची ततः श्रान्तः पानीयं सोऽभ्यधावत ॥ २५ ॥

मूलम्

नापश्यत्‌ तत्र किञ्चित्‌ स भूतमस्मिन्‌ महावने।
सव्यसाची ततः श्रान्तः पानीयं सोऽभ्यधावत ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब उस विशाल वनमें उन्हें कोई भी हिंसक प्राणी नहीं दिखायी दिया, तब सव्यसाची अर्जुन थककर पानीकी ओर दौड़े॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिधावंस्ततो वाक्यमन्तरिक्षात् स शुश्रुवे।
किमासीदसि पानीयं नैतच्छक्यं बलात् त्वया ॥ २६ ॥
कौन्तेय यदि प्रश्नांस्तान् मयोक्तान् प्रतिपत्स्यसे।
ततः पास्यसि पानीयं हरिष्यसि च भारत ॥ २७ ॥

मूलम्

अभिधावंस्ततो वाक्यमन्तरिक्षात् स शुश्रुवे।
किमासीदसि पानीयं नैतच्छक्यं बलात् त्वया ॥ २६ ॥
कौन्तेय यदि प्रश्नांस्तान् मयोक्तान् प्रतिपत्स्यसे।
ततः पास्यसि पानीयं हरिष्यसि च भारत ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दौड़ते समय उन्हें आकाशकी ओरसे आती हुई वाणी सुनायी दी—‘कुन्तीनन्दन! क्यों पानीके निकट जा रहे हो? तुम जबरदस्ती यह जल नहीं पी सकते। भारत! यदि मेरे उन प्रश्नोंका उत्तर दे सको, तो यहाँका पानी पीओ और साथ ले भी जाओ’॥२६-२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वारितस्त्वब्रवीत् पार्थो दृश्यमानो निवारय।
यावद् बाणैर्विनिर्भिन्नः पुनर्नैवं वदिष्यसि ॥ २८ ॥

मूलम्

वारितस्त्वब्रवीत् पार्थो दृश्यमानो निवारय।
यावद् बाणैर्विनिर्भिन्नः पुनर्नैवं वदिष्यसि ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार रोके जानेपर अर्जुनने कहा—‘जरा सामने आकर रोको। सामने आते ही बाणोंसे टुकड़े-टुकड़े हो जानेपर फिर तुम इस प्रकार नहीं बोल पाओगे’॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा ततः पार्थः शरैरस्त्रानुमन्त्रितैः।
प्रववर्ष दिशः कृत्स्नाः शब्दवेधं च दर्शयन् ॥ २९ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा ततः पार्थः शरैरस्त्रानुमन्त्रितैः।
प्रववर्ष दिशः कृत्स्नाः शब्दवेधं च दर्शयन् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर अर्जुनने अपनी शब्दवेध-कलाका परिचय देते हुए दिव्यास्त्रोंसे अभिमन्त्रित बाणोंकी सब ओर झड़ी लगा दी॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णिनालीकनाराचानुत्सृजन् भरतर्षभ ।
स त्वमोघानिषून् मुक्त्वा तृष्णयाभिप्रपीडितः ॥ ३० ॥
अनेकैरिषुसङ्घातैरन्तरिक्षे ववर्ष ह ।

मूलम्

कर्णिनालीकनाराचानुत्सृजन् भरतर्षभ ।
स त्वमोघानिषून् मुक्त्वा तृष्णयाभिप्रपीडितः ॥ ३० ॥
अनेकैरिषुसङ्घातैरन्तरिक्षे ववर्ष ह ।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ जनमेजय! अर्जुन उस समय कर्णि, नालीक तथा नाराच आदि बाणोंकी वर्षा कर रहे थे। प्याससे पीड़ित हुए अर्जुनने कितने ही अमोघ बाणोंका प्रयोग करके आकाशमें भी कई बार बाण-समूहकी वर्षा की॥३०॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं विघातेन ते पार्थ प्रश्नानुक्त्वा ततः पिब ॥ ३१ ॥
अनुक्त्वा च पिबन् प्रश्नान् पीत्वैव न भविष्यसि।

मूलम्

किं विघातेन ते पार्थ प्रश्नानुक्त्वा ततः पिब ॥ ३१ ॥
अनुक्त्वा च पिबन् प्रश्नान् पीत्वैव न भविष्यसि।

अनुवाद (हिन्दी)

यक्ष बोला— पार्थ! इस प्रकार प्राणियोंपर आघात करनेसे क्या लाभ? पहले मेरे प्रश्नोंका उत्तर दो, फिर जल पीओ। यदि तुम प्रश्नोंका उत्तर दिये बिना ही यहाँका जल पीओगे, तो पीते ही मर जाओगे॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्ततः पार्थः सव्यसाची धनंजयः ॥ ३२ ॥
अवज्ञायैव तां वाचं पीत्वैव निपपात ह।

मूलम्

एवमुक्तस्ततः पार्थः सव्यसाची धनंजयः ॥ ३२ ॥
अवज्ञायैव तां वाचं पीत्वैव निपपात ह।

अनुवाद (हिन्दी)

उसके ऐसा कहनेपर कुन्तीपुत्र सव्यसाची धनंजय उसके वचनोंकी अवहेलना करके जल पीने लगे और पीते ही अचेत होकर गिर पड़े॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथाब्रवीद् भीमसेनं कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ ३३ ॥
नकुलः सहदेवश्च बीभत्सुश्च परंतप।
चिरं गतास्तोयहेतोर्न चागच्छन्ति भारत ॥ ३४ ॥
तांश्चैवानय भद्रं ते पानीयं च त्वमानय।

मूलम्

अथाब्रवीद् भीमसेनं कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ ३३ ॥
नकुलः सहदेवश्च बीभत्सुश्च परंतप।
चिरं गतास्तोयहेतोर्न चागच्छन्ति भारत ॥ ३४ ॥
तांश्चैवानय भद्रं ते पानीयं च त्वमानय।

अनुवाद (हिन्दी)

तब कुन्तीकुमार युधिष्ठिरने भीमसेनसे कहा—‘परंतप! भरतनन्दन! नकुल, सहदेव और अर्जुनको पानीके लिये गये बहुत देर हो गयी। वे अभीतक नहीं आ रहे हैं। तुम्हारा कल्याण हो। तुम जाकर उन्हें बुला लाओ और पानी भी ले आओ’॥३३-३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमसेनस्तथेत्युक्त्वा तं देशं प्रत्यपद्यत ॥ ३५ ॥
यत्र ते पुरुषव्याघ्रा भ्रातरोऽस्य निपातिताः।
तान् दृष्ट्‌वा दुःखितो भीमस्तृषया च प्रपीडितः ॥ ३६ ॥

मूलम्

भीमसेनस्तथेत्युक्त्वा तं देशं प्रत्यपद्यत ॥ ३५ ॥
यत्र ते पुरुषव्याघ्रा भ्रातरोऽस्य निपातिताः।
तान् दृष्ट्‌वा दुःखितो भीमस्तृषया च प्रपीडितः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब भीमसेन ‘बहुत अच्छा’ कहकर उस स्थान-पर गये, जहाँ वे पुरुषसिंह तीनों भाई पृथ्वीपर पड़े थे। उन्हें उस अवस्थामें देखकर भीमसेनको बड़ा दुःख हुआ। इधर प्यास भी उन्हें बहुत कष्ट दे रही थी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमन्यत महाबाहुः कर्म तद् यक्षरक्षसाम्।
स चिन्तयामास तदा योद्धव्यं ध्रुवमद्य वै ॥ ३७ ॥
पास्यामि तावत् पानीयमिति पार्थो वृकोदरः।
ततोऽभ्यधावत् पानीयं पिपासुः पुरुषर्षभः ॥ ३८ ॥

मूलम्

अमन्यत महाबाहुः कर्म तद् यक्षरक्षसाम्।
स चिन्तयामास तदा योद्धव्यं ध्रुवमद्य वै ॥ ३७ ॥
पास्यामि तावत् पानीयमिति पार्थो वृकोदरः।
ततोऽभ्यधावत् पानीयं पिपासुः पुरुषर्षभः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहु भीमसेनने मन-ही-मन यह निश्चय किया कि ‘यह यक्षों तथा राक्षसोंका काम है।’ फिर उन्होंने सोचा; ‘आज निश्चय ही मुझे शत्रुके साथ युद्ध करना पड़ेगा, अतः पहले जल तो पी लूँ।’ ऐसा निश्चय करके प्यासे नरश्रेष्ठ कुन्तीकुमार भीमसेन जलकी ओर दौड़े॥

मूलम् (वचनम्)

यक्ष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मा तात साहसं कार्षीर्मम पूर्वपरिग्रहः।
प्रश्नानुक्त्वा तु कौन्तेय ततः पिब हरस्व च ॥ ३९ ॥

मूलम्

मा तात साहसं कार्षीर्मम पूर्वपरिग्रहः।
प्रश्नानुक्त्वा तु कौन्तेय ततः पिब हरस्व च ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्ष बोला— तात! पानी पीनेका साहस न करना। इस जलपर पहलेसे ही मेरा अधिकार स्थापित हो चुका है। कुन्तीकुमार! पहले मेरे प्रश्नोंका उत्तर दे दो, फिर पानी पीओ और ले भी जाओ॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तदा भीमो यक्षेणामिततेजसा ।
अनुक्त्वैव तु तान् प्रश्नान् पीत्वैव निपपात ह ॥ ४० ॥

मूलम्

एवमुक्तस्तदा भीमो यक्षेणामिततेजसा ।
अनुक्त्वैव तु तान् प्रश्नान् पीत्वैव निपपात ह ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अमिततेजस्वी यक्षके ऐसा कहनेपर भी भीमसेन उन प्रश्नोंका उत्तर दिये बिना ही जल पीने लगे और पीते ही मूर्च्छित होकर गिर पड़े॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कुन्तीसुतो राजा प्रचिन्त्य पुरुषर्षभः।
समुत्थाय महाबाहुर्दह्यमानेन चेतसा ॥ ४१ ॥
व्यपेतजननिर्घोषं प्रविवेश महावनम् ।
रुरुभिश्च वराहैश्च पक्षिभिश्च निषेवितम् ॥ ४२ ॥

मूलम्

ततः कुन्तीसुतो राजा प्रचिन्त्य पुरुषर्षभः।
समुत्थाय महाबाहुर्दह्यमानेन चेतसा ॥ ४१ ॥
व्यपेतजननिर्घोषं प्रविवेश महावनम् ।
रुरुभिश्च वराहैश्च पक्षिभिश्च निषेवितम् ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर कुन्तीपुत्र पुरुषरत्न महाबाहु राजा युधिष्ठिर बहुत देरतक सोच-विचार करके उठे और जलते हुए हृदयसे उन्होंने उस विशाल वनमें प्रवेश किया, जहाँ मनुष्योंकी आवाजतक नहीं सुनायी देती थी। वहाँ रुरु मृग, वराह तथा पक्षियोंके समुदाय ही निवास करते थे॥४१-४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नीलभास्वरवर्णैश्च पादपैरुपशोभितम् ।
भ्रमरैरुपगीतं च पक्षिभिश्च महायशाः ॥ ४३ ॥

मूलम्

नीलभास्वरवर्णैश्च पादपैरुपशोभितम् ।
भ्रमरैरुपगीतं च पक्षिभिश्च महायशाः ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नीले रंगके चमकीले वृक्ष उस वनकी शोभा बढ़ा रहे थे। भ्रमरोंके गुंजन और विहंगोंके कलरवसे वह वनप्रान्त शब्दायमान हो रहा था॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स गच्छन् कानने तस्मिन्‌ हेमजालपरिष्कृतम्।
ददर्श तत् सरः श्रीमान् विश्वकर्मकृतं यथा ॥ ४४ ॥

मूलम्

स गच्छन् कानने तस्मिन्‌ हेमजालपरिष्कृतम्।
ददर्श तत् सरः श्रीमान् विश्वकर्मकृतं यथा ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महायशस्वी श्रीमान् युधिष्ठिरने उस वनमें विचरण करते हुए उस सरोवरको देखा, जो सुनहरे रंगके कुसुमकेसरोंसे विभूषित था। जान पड़ता था; साक्षात् विश्वकर्माने ही उसका निर्माण किया है॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपेतं नलिनीजालैः सिन्धुवारैः सवेतसैः।
केतकैः करवीरैश्च पिप्पलैश्चैव संवृतम्।
(ततो धर्मसुतः श्रीमान् भ्रातृदर्शनलालसः।)
श्रमार्तस्तदुपागम्य सरो दृष्ट्वाथ विस्मितः ॥ ४५ ॥

मूलम्

उपेतं नलिनीजालैः सिन्धुवारैः सवेतसैः।
केतकैः करवीरैश्च पिप्पलैश्चैव संवृतम्।
(ततो धर्मसुतः श्रीमान् भ्रातृदर्शनलालसः।)
श्रमार्तस्तदुपागम्य सरो दृष्ट्वाथ विस्मितः ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस सरोवरका जल कमलकी बेलोंसे आच्छादित हो रहा था और उसके चारों किनारोंपर सिंदुवार, बेंत, केवड़े, करवीर तथा पीपलके वृक्ष उसे घेरे हुए थे। उस समय भाइयोंसे मिलनेके लिये उत्सुक श्रीमान् धर्मनन्दन युधिष्ठिर थकावटसे पीड़ित हो उस सरोवरपर आये और वहाँकी अवस्था देखकर बड़े विस्मित हुए॥४५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि आरणेयपर्वणि नकुलादिपतने द्वादशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३१२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत आरणेयपर्वमें नकुल आदि चारों भाइयोंके मूर्च्छित होकर गिरनेसे सम्बन्ध रखनेवाला तीन सौ बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३१२॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल ४५ श्लोक हैं।)