भागसूचना
(आरणेयपर्व)
एकादशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
ब्राह्मणकी अरणि एवं मन्थन-काष्ठका पता लगानेके लिये पाण्डवोंका मृगके पीछे दौड़ना और दुःखी होना
मूलम् (वचनम्)
जनमेजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं हृतायां भार्यायां प्राप्य क्लेशमनुत्तमम्।
प्रतिपद्य ततः कृष्णां किमकुर्वत पाण्डवाः ॥ १ ॥
मूलम्
एवं हृतायां भार्यायां प्राप्य क्लेशमनुत्तमम्।
प्रतिपद्य ततः कृष्णां किमकुर्वत पाण्डवाः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजयने पूछा— ब्रह्मन्! इस प्रकार अपनी पत्नी द्रौपदीका अपहरण होनेपर अत्यन्त क्लेश उठाकर पाण्डवोंने जब उन्हें पुनः प्राप्त कर लिया, उसके बाद उन्होंने क्या किया?॥१॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं हृतायां कृष्णायां प्राप्य क्लेशमनुत्तमम्।
विहाय काम्यकं राजा सह भ्रातृभिरच्युतः ॥ २ ॥
पुनर्द्वैतवनं रम्यमाजगाम युधिष्ठिरः ।
स्वादुमूलफलं रम्यं विचित्रबहुपादपम् ॥ ३ ॥
मूलम्
एवं हृतायां कृष्णायां प्राप्य क्लेशमनुत्तमम्।
विहाय काम्यकं राजा सह भ्रातृभिरच्युतः ॥ २ ॥
पुनर्द्वैतवनं रम्यमाजगाम युधिष्ठिरः ।
स्वादुमूलफलं रम्यं विचित्रबहुपादपम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजीने कहा— राजन्! पूर्वोक्त प्रकारसे द्रौपदीका हरण होनेपर भारी क्लेश उठानेके बाद जब पाण्डवोंने उन्हें पा लिया, तब धर्मसे कभी च्युत न होनेवाले राजा युधिष्ठिर अपने भाइयोंके साथ काम्यकवन छोड़कर पुनः रमणीय द्वैतवनमें ही चले आये। वहाँ स्वादिष्ट फल-मूलोंकी बहुतायत थी तथा बहुत-से विचित्र वृक्ष उस वनकी शोभा बढ़ाते थे॥२-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुभुक्तफलाहाराः सर्व एव मिताशनाः।
न्यवसन् पाण्डवास्तत्र कृष्णया सह भार्यया ॥ ४ ॥
मूलम्
अनुभुक्तफलाहाराः सर्व एव मिताशनाः।
न्यवसन् पाण्डवास्तत्र कृष्णया सह भार्यया ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ सब पाण्डव अपनी पत्नी द्रौपदीके साथ केवल फलाहार करके परिमित भोजनपर जीवन-निर्वाह करते हुए रहते थे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वसन् द्वैतवने राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
भीमसेनोऽर्जुनश्चैव माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ ॥ ५ ॥
ब्राह्मणार्थे पराक्रान्ता धर्मात्मानो यतव्रताः।
क्लेशमार्च्छन्त विपुलं सुखोदर्कं परंतपाः ॥ ६ ॥
मूलम्
वसन् द्वैतवने राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
भीमसेनोऽर्जुनश्चैव माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ ॥ ५ ॥
ब्राह्मणार्थे पराक्रान्ता धर्मात्मानो यतव्रताः।
क्लेशमार्च्छन्त विपुलं सुखोदर्कं परंतपाः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्वैतवनमें रहते समय कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन तथा माद्रीकुमार नकुल-सहदेव—इन सभी शत्रुसंतापी संयम-नियम-परायण धर्मात्मा पाण्डवोंने एक दिन एक ब्राह्मणके लिये पराक्रम करते हुए महान् क्लेश उठाया, परंतु उसका भावी परिणाम सुखमय ही हुआ॥५-६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् प्रतिवसन्तस्ते यत् प्रापुः कुरुसत्तमाः।
वने क्लेशं सुखोदर्कं तत् प्रवक्ष्यामि ते शृणु ॥ ७ ॥
मूलम्
तस्मिन् प्रतिवसन्तस्ते यत् प्रापुः कुरुसत्तमाः।
वने क्लेशं सुखोदर्कं तत् प्रवक्ष्यामि ते शृणु ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उस वनमें रहते हुए उन कुरुश्रेष्ठ पाण्डवोंने जो भविष्यमें सुख देनेवाला क्लेश उठाया, उसका वर्णन करता हूँ, सुनो—॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अरणीसहितं मन्थं ब्राह्मणस्य तपस्विनः।
मृगस्य घर्षमाणस्य विषाणे समसज्जत ॥ ८ ॥
मूलम्
अरणीसहितं मन्थं ब्राह्मणस्य तपस्विनः।
मृगस्य घर्षमाणस्य विषाणे समसज्जत ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक तपस्वी ब्राह्मणका (रस्सीमें बँधा) अरणीसहित मन्थनकाष्ठ एक वृक्षमें रंगा था; वहीं एक मृग आकर उस वृक्षसे अपना शरीर रगड़ने लगा। उस समय वे दोनों काष्ठ उस मृगके सींगमें अटक गये॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदादाय गतो राजंस्त्वरमाणो महामृगः।
आश्रमान्तरितः शीघ्रं प्लवमानो महाजवः ॥ ९ ॥
मूलम्
तदादाय गतो राजंस्त्वरमाणो महामृगः।
आश्रमान्तरितः शीघ्रं प्लवमानो महाजवः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उन काष्ठोंको लेकर वह महामृग बड़ी उतावलीसे भागा और बड़े वेगसे चौकड़ी भरता हुआ शीघ्र ही आश्रमसे ओझल हो गया॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ह्रियमाणं तु तं दृष्ट्वा स विप्रः कुरुसत्तम।
त्वरितोऽभ्यागमत् तत्र अग्निहोत्रपरीप्सया ॥ १० ॥
मूलम्
ह्रियमाणं तु तं दृष्ट्वा स विप्रः कुरुसत्तम।
त्वरितोऽभ्यागमत् तत्र अग्निहोत्रपरीप्सया ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुश्रेष्ठ! उस ब्राह्मणने जब देखा कि मृग मेरी अरणी और मथानीको लेकर तेजीसे भागा जा रहा है, तब वह अग्निहोत्रकी रक्षाके लिये तुरंत वहीं (पाण्डवोंके आश्रममें) आया॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अजातशत्रुमासीनं भ्रातृभिः सहितं वने।
आगम्य ब्राह्मणस्तूर्णं संतप्तश्चेदमब्रवीत् ॥ ११ ॥
मूलम्
अजातशत्रुमासीनं भ्रातृभिः सहितं वने।
आगम्य ब्राह्मणस्तूर्णं संतप्तश्चेदमब्रवीत् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वनमें भाइयोंके साथ बैठे हुए अजातशत्रु युधिष्ठिरके पास तुरंत आकर संतप्त हुए उस ब्राह्मणने इस प्रकार कहा—॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अरणीसहितं मन्थं समासक्तं वनस्पतौ।
मृगस्य घर्षमाणस्य विषाणे समसज्जत ॥ १२ ॥
तमादाय गतो राजंस्त्वरमाणो महामृगः।
आश्रमात् त्वरितः शीघ्रं प्लवमानो महाजवः ॥ १३ ॥
मूलम्
अरणीसहितं मन्थं समासक्तं वनस्पतौ।
मृगस्य घर्षमाणस्य विषाणे समसज्जत ॥ १२ ॥
तमादाय गतो राजंस्त्वरमाणो महामृगः।
आश्रमात् त्वरितः शीघ्रं प्लवमानो महाजवः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! मैंने अपनी अरणी और मथानी एक वृक्षपर रख दी थी। एक मृग वहाँ आकर उस वृक्षसे शरीर रगड़ने लगा और उसके सींगमें वे दोनों काष्ठ फँस गये। वह महान् मृग उन काष्ठोंको लेकर बड़ी उतावलीके साथ भाग गया है और अत्यन्त वेगवान् होनेके कारण चौकड़ी भरता हुआ शीघ्र ही आश्रमसे बहुत दूर निकल गया है॥१२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य गत्वा पदं राजन्नासाद्य च महामृगम्।
अग्निहोत्रं न लुप्येत तदानयत पाण्डवाः ॥ १४ ॥
मूलम्
तस्य गत्वा पदं राजन्नासाद्य च महामृगम्।
अग्निहोत्रं न लुप्येत तदानयत पाण्डवाः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज युधिष्ठिर! तथा वीर पाण्डवो। तुम सब लोग उसके पदचिह्नोंको देखते हुए उस महामृगके पास पहुँचो और वे दोनों काष्ठ ले आओ, जिससे मेरा अग्निहोत्रकर्म लुप्त न हो’॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणस्य वचः श्रुत्वा संतप्तोऽथ युधिष्ठिरः।
धनुरादाय कौन्तेयः प्राद्रवद् भ्रातृभिः सह ॥ १५ ॥
मूलम्
ब्राह्मणस्य वचः श्रुत्वा संतप्तोऽथ युधिष्ठिरः।
धनुरादाय कौन्तेयः प्राद्रवद् भ्रातृभिः सह ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणकी बात सुनकर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर बहुत दुःखी हुए और मृगका पता लगानेके लिये वे धनुष लेकर भाइयोंसहित दौड़े॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सन्नद्धा धन्विनः सर्वे प्राद्रवन् नरपुङ्गवाः।
ब्राह्मणार्थे यतन्तस्ते शीघ्रमन्वगमन् मृगम् ॥ १६ ॥
मूलम्
सन्नद्धा धन्विनः सर्वे प्राद्रवन् नरपुङ्गवाः।
ब्राह्मणार्थे यतन्तस्ते शीघ्रमन्वगमन् मृगम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सभी नरश्रेष्ठ कवच बाँध एवं कमर कसकर धनुष लिये आश्रमसे दौड़े और ब्राह्मणकी कार्यसिद्धिके लिये प्रयत्नशील होकर तीव्र गतिसे मृगका पीछा करने लगे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णिनालीकनाराचानुत्सृजन्तो महारथाः ।
नाविध्यन् पाण्डवास्तत्र पश्यन्तो मृगमन्तिकात् ॥ १७ ॥
मूलम्
कर्णिनालीकनाराचानुत्सृजन्तो महारथाः ।
नाविध्यन् पाण्डवास्तत्र पश्यन्तो मृगमन्तिकात् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ दूर जानेपर उन्हें वह मृग अपने पास ही दिखायी दिया। तब वे महारथी पाण्डव कर्णि, नालीक और नाराच नामक बाण उसपर छोड़ने लगे; किंतु वे देखते हुए भी वहाँ उस मृगको बींध न सके॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां प्रयतमानानां नादृश्यत महामृगः।
अपश्यन्तो मृगं शान्ता दुःखं प्राप्ता मनस्विनः ॥ १८ ॥
मूलम्
तेषां प्रयतमानानां नादृश्यत महामृगः।
अपश्यन्तो मृगं शान्ता दुःखं प्राप्ता मनस्विनः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
घोर प्रयत्न करनेपर भी वह महामृग उनके हाथ न लगा; सहसा अदृश्य हो गया। मृगको न देखकर वे मनस्वी वीर हतोत्साह और दुःखी हो गये॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शीतलच्छायमागम्य न्यग्रोधं गहने वने।
क्षुत्पिपासापरीताङ्गाः पाण्डवाः समुपाविशन् ॥ १९ ॥
मूलम्
शीतलच्छायमागम्य न्यग्रोधं गहने वने।
क्षुत्पिपासापरीताङ्गाः पाण्डवाः समुपाविशन् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् उस गहन वनमें भूख-प्याससे पीड़ित अंगोंवाले पाण्डव एक शीतल छायावाले बरगदके पास आकर बैठ गये॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां समुपविष्टानां नकुलो दुःखितस्तदा।
अब्रवीद् भ्रातरं श्रेष्ठममर्षात् कुरुनन्दनम् ॥ २० ॥
मूलम्
तेषां समुपविष्टानां नकुलो दुःखितस्तदा।
अब्रवीद् भ्रातरं श्रेष्ठममर्षात् कुरुनन्दनम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके बैठ जानेपर नकुल अत्यन्त दुःखी हो अमर्षमें आकर बड़े भाई कुरुनन्दन युधिष्ठिरसे इस प्रकार बोले—॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नास्मिन् कुले जातु ममज्ज धर्मो
न चालस्यादर्थलोपो बभूव ।
अनुत्तराः सर्वभूतेषु भूयः
सम्प्राप्ताः स्मः संशयं किंनु राजन् ॥ २१ ॥
मूलम्
नास्मिन् कुले जातु ममज्ज धर्मो
न चालस्यादर्थलोपो बभूव ।
अनुत्तराः सर्वभूतेषु भूयः
सम्प्राप्ताः स्मः संशयं किंनु राजन् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! हमारे कुलमें कभी आलस्यवश धर्मका लोप नहीं हुआ; अर्थका भी कभी नाश नहीं हुआ। हमने किसी भी प्राणीके प्रार्थना करनेपर कभी उसे कोरा जवाब नहीं दिया—निराश नहीं किया। फिर भी हम धर्मसंकटमें कैसे पड़ गये?’॥२१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि आरणेयपर्वणि मृगान्वेषणे एकादशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३११ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत आरणेयपर्वमें मृगका अनुसंधानविषयक तीन सौ ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३११॥