३०८ कर्णपरित्यागे

भागसूचना

अष्टाधिकत्रिशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

कर्णका जन्म, कुन्तीका उसे पिटारीमें रखकर जलमें बहा देना और विलाप करना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो गर्भः समभवत् पृथायाः पृथिवीपते।
शुक्ले दशोत्तरे पक्षे तारापतिरिवाम्बरे ॥ १ ॥

मूलम्

ततो गर्भः समभवत् पृथायाः पृथिवीपते।
शुक्ले दशोत्तरे पक्षे तारापतिरिवाम्बरे ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! इस प्रकार आकाशमें जैसे चन्द्रमाका उदय होता है, उसी प्रकार ग्यारहवें मासके1 शुक्लपक्षकी प्रतिपदाको कुन्तीके उदरमें भगवान् सूर्यके द्वारा गर्भ स्थापित हुआ॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा बान्धवभयाद् बाला गर्भं तं विनिगूहती।
धारयामास सुश्रोणी न चैनां बुबुधे जनः ॥ २ ॥

मूलम्

सा बान्धवभयाद् बाला गर्भं तं विनिगूहती।
धारयामास सुश्रोणी न चैनां बुबुधे जनः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुन्दर कटिप्रदेशवाली कुन्ती भाई-बन्धुओंके भयसे उस गर्भको छिपाती हुई धारण करने लगी। अतः कोई भी मनुष्य नहीं जान सका कि यह गर्भवती है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि तां वेद नार्यन्या काचिद् धात्रेयिकामृते।
कन्यापुरगतां बालां निपुणां परिरक्षणे ॥ ३ ॥

मूलम्

न हि तां वेद नार्यन्या काचिद् धात्रेयिकामृते।
कन्यापुरगतां बालां निपुणां परिरक्षणे ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक धायके सिवा दूसरी कोई स्त्री भी इसका पता न पा सकी। कुन्ती सदा कन्याओंके अन्तःपुरमें रहती थी एवं अपने रहस्यको छिपानेमें वह अत्यन्त निपुण थी॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कालेन सा गर्भं सुषुवे वरवर्णिनी।
कन्यैव तस्य देवस्य प्रसादादमरप्रभम् ॥ ४ ॥

मूलम्

ततः कालेन सा गर्भं सुषुवे वरवर्णिनी।
कन्यैव तस्य देवस्य प्रसादादमरप्रभम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर सुन्दरी पृथाने यथासमय भगवान् सूर्यके कृपाप्रसादसे स्वयं कन्या ही बनी रहकर देवताओंके समान तेजस्वी एक पुत्रको जन्म दिया॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैवाबद्धकवचं कनकोज्ज्वलकुण्डलम् ।
हर्यक्षं वृषभस्कन्धं यथास्य पितरं तथा ॥ ५ ॥

मूलम्

तथैवाबद्धकवचं कनकोज्ज्वलकुण्डलम् ।
हर्यक्षं वृषभस्कन्धं यथास्य पितरं तथा ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने अपने पिताके ही समान शरीरपर कवच बाँध रखा था और उसके कानोंमें सोनेके बने हुए दो दिव्य कुण्डल जगमगा रहे थे। उस बालककी आँखें सिंहके समान और कंधे वृषभ-जैसे थे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जातमात्रं च तं गर्भं धात्र्या सम्मन्त्र्य भाविनी।
मञ्जूषायां समाधाय स्वास्तीर्णायां समन्ततः ॥ ६ ॥
मधूच्छिष्टस्थितायां सा सुखायां रुदती तथा।
श्लक्ष्णायां सुपिधानायामश्वनद्यामवासृजत् ॥ ७ ॥

मूलम्

जातमात्रं च तं गर्भं धात्र्या सम्मन्त्र्य भाविनी।
मञ्जूषायां समाधाय स्वास्तीर्णायां समन्ततः ॥ ६ ॥
मधूच्छिष्टस्थितायां सा सुखायां रुदती तथा।
श्लक्ष्णायां सुपिधानायामश्वनद्यामवासृजत् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस बालकके पैदा होते ही भामिनी कुन्तीने धायसे सलाह लेकर एक पिटारी मँगवायी और उसमें सब ओर सुन्दर मुलायम बिछौने बिछा दिये। इसके बाद उस पिटारीमें चारों ओर मोम चुपड़ दिया, जिससे उसके भीतर जल न प्रवेश कर सके। जब वह सब तरहसे चिकनी और सुखद हो गयी, तब उसके भीतर उस बालकको सुला दिया और उसका सुन्दर ढक्कन बंद कर दिया तथा रोते-रोते उस पिटारीको अश्वनदीमें छोड़ दिया1॥६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानती चाप्यकर्तव्यं कन्याया गर्भधारणम्।
पुत्रस्नेहेन सा राजन् करुणं पर्यदेवयत् ॥ ८ ॥

मूलम्

जानती चाप्यकर्तव्यं कन्याया गर्भधारणम्।
पुत्रस्नेहेन सा राजन् करुणं पर्यदेवयत् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! यद्यपि वह यह जानती थी कि किसी कन्याके लिये गर्भधारण करना सर्वथा निषिद्ध और अनुचित है, तथापि पुत्रस्नेह उमड़ आनेसे कुन्ती वहाँ करुणाजनक विलाप करने लगी॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समुत्सृजन्ती मञ्जूषामश्वनद्यां तदा जले।
उवाच रुदती कुन्ती यानि वाक्यानि तच्छृणु ॥ ९ ॥

मूलम्

समुत्सृजन्ती मञ्जूषामश्वनद्यां तदा जले।
उवाच रुदती कुन्ती यानि वाक्यानि तच्छृणु ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय अश्वनदीके जलमें उस पिटारीको छोड़ते समय रोती हुई कुन्तीने जो बातें कहीं, उन्हें बताता हूँ; सुनो॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वस्ति ते चान्तरिक्षेभ्यः पार्थिवेभ्यश्च पुत्रक।
दिव्येभ्यश्चैव भूतेभ्यस्तथा तोयचराश्च ये ॥ १० ॥

मूलम्

स्वस्ति ते चान्तरिक्षेभ्यः पार्थिवेभ्यश्च पुत्रक।
दिव्येभ्यश्चैव भूतेभ्यस्तथा तोयचराश्च ये ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह बोली—‘मेरे बच्चे! जलचर, थलचर, आकाशचारी तथा दिव्य प्राणी तेरा मंगल करें॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिवास्ते सन्तु पन्थानो मा च ते परिपन्थिनः।
आगताश्च तथा पुत्र भवन्त्वद्रोहचेतसः ॥ ११ ॥

मूलम्

शिवास्ते सन्तु पन्थानो मा च ते परिपन्थिनः।
आगताश्च तथा पुत्र भवन्त्वद्रोहचेतसः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तेरा मार्ग मंगलमय हो। बेटा! तेरे पास शत्रु न आयें। जो आ जायँ, उनके मनमें तेरे प्रति द्रोहकी भावना न रहे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पातु त्वां वरुणो राजा सलिले सलिलेश्वरः।
अन्तरिक्षेऽन्तरिक्षस्थः पवनः सर्वगस्तथा ॥ १२ ॥

मूलम्

पातु त्वां वरुणो राजा सलिले सलिलेश्वरः।
अन्तरिक्षेऽन्तरिक्षस्थः पवनः सर्वगस्तथा ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जलमें उसके स्वामी राजा वरुण तेरी रक्षा करें। अन्तरिक्षमें वहाँ रहनेवाले सर्वगामी वायुदेव तेरी रक्षा करें॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिता त्वां पातु सर्वत्र तपनस्तपतां वरः।
येन दत्तोऽसि मे पुत्र दिव्येन विधिना किल ॥ १३ ॥

मूलम्

पिता त्वां पातु सर्वत्र तपनस्तपतां वरः।
येन दत्तोऽसि मे पुत्र दिव्येन विधिना किल ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पुत्र! जिन्होंने दिव्य रीतिसे तुझे मेरे गर्भमें स्थापित किया है वे तपनेवालोंमें श्रेष्ठ तेरे पिता भगवान् सूर्य सर्वत्र तेरा पालन करें॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आदित्या वसवो रुद्राः साध्या विश्वे च देवताः।
मरुतश्च सहेन्द्रेण दिशश्च सदिगीश्वराः ॥ १४ ॥
रक्षन्तु त्वां सुराः सर्वे समेषु विषमेषु च।
वेत्स्यामि त्वां विदेशेऽपि कवचेनाभिसूचितम् ॥ १५ ॥

मूलम्

आदित्या वसवो रुद्राः साध्या विश्वे च देवताः।
मरुतश्च सहेन्द्रेण दिशश्च सदिगीश्वराः ॥ १४ ॥
रक्षन्तु त्वां सुराः सर्वे समेषु विषमेषु च।
वेत्स्यामि त्वां विदेशेऽपि कवचेनाभिसूचितम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आदित्य, वसु, रुद्र, साध्य, विश्वेदेव, इन्द्रसहित मरुद्‌गण, दिक्पालोंसहित दिशाएँ तथा समस्त देवता सभी सम-विषम स्थानोंमें तेरी रक्षा करें। यदि विदेशमें भी तू जीवित रहेगा तो मैं इन कवच-कुण्डल आदि चिह्नोंसे उपलक्षित होनेपर तुझे पहचान लूँगी॥१४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धन्यस्ते पुत्र जनको देवो भानुर्विभावसुः।
यस्त्वां द्रक्ष्यति दिव्येन चक्षुषा वाहिनीगतम् ॥ १६ ॥

मूलम्

धन्यस्ते पुत्र जनको देवो भानुर्विभावसुः।
यस्त्वां द्रक्ष्यति दिव्येन चक्षुषा वाहिनीगतम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बेटा! तेरे पिता भगवान् भुवनभास्कर धन्य हैं, जो अपनी दिव्य दृष्टिसे नदीकी धारामें स्थित हुए तुझको देखेंगे॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धन्या सा प्रमदा या त्वां पुत्रत्वे कल्पयिष्यति।
यस्यास्त्वं तृषितः पुत्र स्तनं पास्यसि देवज ॥ १७ ॥

मूलम्

धन्या सा प्रमदा या त्वां पुत्रत्वे कल्पयिष्यति।
यस्यास्त्वं तृषितः पुत्र स्तनं पास्यसि देवज ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देवपुत्र! वह रमणी धन्य है जो तुझे अपना पुत्र बनाकर पालेगी और तू भूख-प्यास लगनेपर जिसके स्तनोंका दूध पियेगा॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

को नु स्वप्नस्तया दृष्टो या त्वामादित्यवर्चसम्।
दिव्यवर्मसमायुक्तं दिव्यकुण्डलभूषितम् ॥ १८ ॥
पद्मायतविशालाक्षं पद्मताम्रदलोज्ज्वलम् ।
सुललाटं सुकेशान्तं पुत्रत्वे कल्पयिष्यति ॥ १९ ॥

मूलम्

को नु स्वप्नस्तया दृष्टो या त्वामादित्यवर्चसम्।
दिव्यवर्मसमायुक्तं दिव्यकुण्डलभूषितम् ॥ १८ ॥
पद्मायतविशालाक्षं पद्मताम्रदलोज्ज्वलम् ।
सुललाटं सुकेशान्तं पुत्रत्वे कल्पयिष्यति ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उस भाग्यशालिनी नारीने कौन-सा ऐसा शुभ स्वप्न देखा होगा, जो सूर्यके समान तेजस्वी, दिव्य कवचसे संयुक्त, दिव्य कुण्डलभूषित, कमलदलके समान विशाल नेत्रवाले, लाल कमलदलके सदृश गौर कान्तिवाले, सुन्दर ललाट और मनोहर केशसमूहसे विभूषित तुझ-जैसे दिव्य बालकको अपना पुत्र बनायेगी’॥१८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धन्या द्रक्ष्यन्ति पुत्र त्वां भूमौ संसर्पमाणकम्।
अव्यक्तकलवाक्यानि वदन्तं रेणुगुण्ठितम् ॥ २० ॥

मूलम्

धन्या द्रक्ष्यन्ति पुत्र त्वां भूमौ संसर्पमाणकम्।
अव्यक्तकलवाक्यानि वदन्तं रेणुगुण्ठितम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वत्स! जब तू धरतीपर पेटके बल सरकता फिरेगा और समझमें न आनेवाली मधुर तोतली बोली बोलेगा, उस समय तेरे धूलिधूसरित अंगोंको जो लोग देखेंगे, वे धन्य हैं॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धन्या द्रक्ष्यन्ति पुत्र त्वां पुनर्यौवनगोचरम्।
हिमवद्वनसम्भूतं सिंहं केसरिणं यथा ॥ २१ ॥

मूलम्

धन्या द्रक्ष्यन्ति पुत्र त्वां पुनर्यौवनगोचरम्।
हिमवद्वनसम्भूतं सिंहं केसरिणं यथा ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पुत्र! हिमालयके जंगलमें उत्पन्न हुए केसरी सिंहके समान तुझे जवानीमें जो लोग देखेंगे, वे धन्य हैं॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं बहुविधं राजन् विलप्य करुणं पृथा।
अवासृजत मञ्जूषामश्वनद्यास्तदा जले ॥ २२ ॥

मूलम्

एवं बहुविधं राजन् विलप्य करुणं पृथा।
अवासृजत मञ्जूषामश्वनद्यास्तदा जले ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इस तरह बहुत-सी बातें कहकर करुण-विलाप करती हुई कुन्तीने उस समय अश्वनदीके जलमें वह पिटारी छोड़ दी॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुदती पुत्रशोकार्ता निशीथे कमलेक्षणा।
धात्र्या सह पृथा राजन् पुत्रदर्शनलालसा ॥ २३ ॥

मूलम्

रुदती पुत्रशोकार्ता निशीथे कमलेक्षणा।
धात्र्या सह पृथा राजन् पुत्रदर्शनलालसा ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय! आधी रातके समय कमलनयनी कुन्ती पुत्रशोकसे आतुर हो उसके दर्शनकी लालसासे धात्रीके साथ नदीके तटपर देरतक रोती रही॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विसर्जयित्वा मञ्जूषां सम्बोधनभयात् पितुः।
विवेश राजभवनं पुनः शोकातुरा ततः ॥ २४ ॥

मूलम्

विसर्जयित्वा मञ्जूषां सम्बोधनभयात् पितुः।
विवेश राजभवनं पुनः शोकातुरा ततः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पेटीको पानीमें बहाकर, कहीं पिताजी जग न जायँ, इस भयसे वह शोकसे आतुर हो पुनः राजभवनमें चली गयी॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मञ्जूषा त्वश्वनद्याः सा ययौ चर्मण्वतीं नदीम्।
चर्मण्वत्याश्च यमुनां ततो गङ्गां जगाम ह ॥ २५ ॥

मूलम्

मञ्जूषा त्वश्वनद्याः सा ययौ चर्मण्वतीं नदीम्।
चर्मण्वत्याश्च यमुनां ततो गङ्गां जगाम ह ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह पिटारी अश्वनदीसे चर्मण्वती (चम्बल) नदीमें गयी। चर्मण्वतीसे यमुनामें और वहाँसे गंगामें जा पहुँची॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गङ्गायाः सूतविषयं चम्पामनुययौ पुरीम्।
स मञ्जूषागतो गर्भस्तरङ्गैरुह्यमानकः ॥ २६ ॥

मूलम्

गङ्गायाः सूतविषयं चम्पामनुययौ पुरीम्।
स मञ्जूषागतो गर्भस्तरङ्गैरुह्यमानकः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पिटारीमें सोया हुआ वह बालक गंगाकी लहरोंसे बहाया जाता हुआ चम्पापुरीके पास सूतराज्यमें जा पहुँचा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमृतादुत्थितं दिव्यं तनुवर्म सकुण्डलम्।
धारयामास तं गर्भं दैवं च विधिनिर्मितम् ॥ २७ ॥

मूलम्

अमृतादुत्थितं दिव्यं तनुवर्म सकुण्डलम्।
धारयामास तं गर्भं दैवं च विधिनिर्मितम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके शरीरका दिव्य कवच और कानोंके कुण्डल—ये अमृतसे प्रकट हुए थे। वे ही विधाताद्वारा रचित उस देवकुमारको जीवित रख रहे थे॥२७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि कुण्डलाहरणपर्वणि कर्णपरित्यागे अष्टाधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३०८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत कुण्डलाहरणपर्वमें कर्णपरित्यागविषयक तीन सौ आठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३०८॥


  1. यहाँ मूल पाठमें मासका निर्देश करनेके लिये ‘दशोत्तरे’ यह पद आया है, जिसका अर्थ है ग्यारहवें महीनेमें। यह ग्यारहवाँ महीना कौन-सा है? इस विषयमें दो प्रकारके मत उपलब्ध होते हैं। एक मतके अनुसार यहाँ ‘माघ’ मास ग्रहण किया जाना चाहिये; कारण कि वर्षका आरम्भ चैत्रसे होता है, अतः इस क्रमसे गणना करनेपर ‘माघ’ ही ग्यारहवाँ मास निश्चित होता है। दूसरे मतवालोंका कहना यह है कि पहले मार्गशीर्ष माससे वर्षकी गणना होती थी। इसीलिये वह ‘अग्रहायण’ (वर्षका प्रथम मास) कहा जाता है। ‘मासानां मार्गशीर्षोऽहम्’ इस वचनसे भी यही सूचित होता है। इस क्रमसे गणना करनेपर ‘आश्विन मास’ ग्यारहवाँ सिद्ध होता है। ↩︎ ↩︎