भागसूचना
पञ्चाधिकत्रिशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
कुन्तीकी सेवासे संतुष्ट होकर तपस्वी ब्राह्मणका उसको मन्त्रका उपदेश देना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा तु कन्या महाराज ब्राह्मणं संशितव्रतम्।
तोषयामास शुद्धेन मनसा संशितव्रता ॥ १ ॥
मूलम्
सा तु कन्या महाराज ब्राह्मणं संशितव्रतम्।
तोषयामास शुद्धेन मनसा संशितव्रता ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— महाराज! इस प्रकार वह कन्या पृथा कठोर व्रतका पालन करती हुई शुद्ध हृदयसे उन उत्तम व्रतधारी ब्राह्मणको अपनी सेवाओंद्वारा संतुष्ट रखने लगी॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रातरेष्याम्यथेत्युक्त्वा कदाचिद् द्विजसत्तमः ।
तत आयाति राजेन्द्र सायं रात्रावथो पुनः ॥ २ ॥
मूलम्
प्रातरेष्याम्यथेत्युक्त्वा कदाचिद् द्विजसत्तमः ।
तत आयाति राजेन्द्र सायं रात्रावथो पुनः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! वे श्रेष्ठ ब्राह्मण कभी यह कहकर कि ‘मैं प्रातःकाल लौट आऊँगा’ चल देते और सायंकाल अथवा बहुत रात बीतनेपर पुनः वापस आते थे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं च सर्वासु वेलासु भक्ष्यभोज्यप्रतिश्रयैः।
पूजयामास सा कन्या वर्धमानैस्तु सर्वदा ॥ ३ ॥
मूलम्
तं च सर्वासु वेलासु भक्ष्यभोज्यप्रतिश्रयैः।
पूजयामास सा कन्या वर्धमानैस्तु सर्वदा ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु वह कन्या प्रतिदिन हर समय पहलेकी अपेक्षा अधिक-अधिक परिणाममें भक्ष्य-भोज्य आदि सामग्री तथा शय्या-आसन आदि प्रस्तुत करके उनका सेवा-सत्कार किया करती थी॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्नादिसमुदाचारः शय्यासनकृतस्तथा ।
दिवसे दिवसे तस्य वर्धते न तु हीयते ॥ ४ ॥
मूलम्
अन्नादिसमुदाचारः शय्यासनकृतस्तथा ।
दिवसे दिवसे तस्य वर्धते न तु हीयते ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नित्यप्रति अन्न आदिके द्वारा उन ब्राह्मणका सत्कार अन्य दिनोंकी अपेक्षा बढ़कर ही होता था। उनके लिये शय्या और आसन आदिकी सुविधा भी पहलेकी अपेक्षा अधिक ही दी जाती थी। किसी बातमें तनिक भी कमी नहीं की जाती थी॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्भर्त्सनापवादैश्च तथैवाप्रियया गिरा ।
ब्राह्मणस्य पृथा राजन् न चकाराप्रियं तदा ॥ ५ ॥
मूलम्
निर्भर्त्सनापवादैश्च तथैवाप्रियया गिरा ।
ब्राह्मणस्य पृथा राजन् न चकाराप्रियं तदा ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! वे ब्राह्मण कभी धिक्कारते, कभी बात-बातमें दोषारोपण करते और प्रायः कटु वचन भी बोला करते थे, तो भी पृथा उनके प्रति कभी कोई अप्रिय बर्ताव नहीं करती थी॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यस्ते काले पुनश्चैति न चैति बहुशो द्विजः।
सुदुर्लभमपि ह्यन्नं दीयतामिति सोऽब्रवीत् ॥ ६ ॥
मूलम्
व्यस्ते काले पुनश्चैति न चैति बहुशो द्विजः।
सुदुर्लभमपि ह्यन्नं दीयतामिति सोऽब्रवीत् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे कभी ऐसे समयमें लौटकर आते थे, जब कि पृथाको दूसरे कामोंसे दम लेनेकी भी फुरसत नहीं होती थी और कभी वे कई दिनोंतक आते ही नहीं थे। आनेपर भी ऐसा भोजन माँग लेते जो अत्यन्त दुर्लभ होता॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतमेव च तत् सर्वं यथा तस्मै न्यवेदयत्।
शिष्यवत् पुत्रवच्चैव स्वसृवच्च सुसंयता ॥ ७ ॥
मूलम्
कृतमेव च तत् सर्वं यथा तस्मै न्यवेदयत्।
शिष्यवत् पुत्रवच्चैव स्वसृवच्च सुसंयता ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु कुन्ती उन्हें उनकी माँगी हुई सब वस्तुएँ इस प्रकार प्रस्तुत कर देती थी, मानो उनको पहलेसे ही तैयार करके रखा हो। वह अत्यन्त संयत होकर शिष्य, पुत्र तथा छोटी बहिनकी भाँति सदा उनकी सेवामें लगी रहती थी॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथोपजोषं राजेन्द्र द्विजातिप्रवरस्य सा।
प्रीतिमुत्पादयामास कन्यारत्नमनिन्दिता ॥ ८ ॥
मूलम्
यथोपजोषं राजेन्द्र द्विजातिप्रवरस्य सा।
प्रीतिमुत्पादयामास कन्यारत्नमनिन्दिता ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! उस अनिन्द्य कन्यारत्न कुन्तीने उन श्रेष्ठ ब्राह्मणको उनकी रुचिके अनुसार सेवा करके अत्यन्त प्रसन्न कर लिया॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यास्तु शीलवृत्तेन तुतोष द्विजसत्तमः।
अवधानेन भूयोऽस्याः परं यत्नमथाकरोत् ॥ ९ ॥
मूलम्
तस्यास्तु शीलवृत्तेन तुतोष द्विजसत्तमः।
अवधानेन भूयोऽस्याः परं यत्नमथाकरोत् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके शील, सदाचार तथा सावधानीसे उन द्विजश्रेष्ठको बड़ा संतोष हुआ। उन्होंने कुन्तीका हित करनेका पूरा प्रयत्न किया॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां प्रभाते च सायं च पिता पप्रच्छ भारत।
अपि तुष्यति ते पुत्रि ब्राह्मणः परिचर्यया ॥ १० ॥
मूलम्
तां प्रभाते च सायं च पिता पप्रच्छ भारत।
अपि तुष्यति ते पुत्रि ब्राह्मणः परिचर्यया ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजय! पिता कुन्तिभोज प्रतिदिन प्रातःकाल और सायंकालमें पूछते थे—‘बेटी! तुम्हारी सेवासे ब्राह्मणको संतोष तो है न?’॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं सा परममित्येव प्रत्युवाच यशस्विनी।
ततः प्रीतिमवापाग्र्यां कुन्तिभोजो महामनाः ॥ ११ ॥
मूलम्
तं सा परममित्येव प्रत्युवाच यशस्विनी।
ततः प्रीतिमवापाग्र्यां कुन्तिभोजो महामनाः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह यशस्विनी कन्या उन्हें उत्तर देती—‘हाँ पिताजी! वे बहुत प्रसन्न हैं।’ यह सुनकर महामना कुन्तिभोजको बड़ा हर्ष प्राप्त होता था॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः संवत्सरे पूर्णो यदासौ जपतां वरः।
नापश्यद् दुष्कृतं किंचित् पृथायाः सौहृदे रतः ॥ १२ ॥
ततः प्रीतमना भूत्वा स एनां ब्राह्मणोऽब्रवीत्।
प्रीतोऽस्मि परमं भद्रे परिचारेण ते शुभे ॥ १३ ॥
वरान् वृणीष्व कल्याणि दुरापात् मानुषैरिह।
यैस्त्वं सीमन्तिनीः सर्वा यशसाभिभविष्यसि ॥ १४ ॥
मूलम्
ततः संवत्सरे पूर्णो यदासौ जपतां वरः।
नापश्यद् दुष्कृतं किंचित् पृथायाः सौहृदे रतः ॥ १२ ॥
ततः प्रीतमना भूत्वा स एनां ब्राह्मणोऽब्रवीत्।
प्रीतोऽस्मि परमं भद्रे परिचारेण ते शुभे ॥ १३ ॥
वरान् वृणीष्व कल्याणि दुरापात् मानुषैरिह।
यैस्त्वं सीमन्तिनीः सर्वा यशसाभिभविष्यसि ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर जब एक वर्ष पूरा हो गया और पृथाके प्रति वात्सल्य स्नेह रखनेवाले जपकर्ताओंमें श्रेष्ठ ब्राह्मण दुर्वासाजीने उसकी सेवामें कोई त्रुटि नहीं देखी, तब वे प्रसन्नचित्त होकर पृथासे इस प्रकार बोले—‘भद्रे! मैं तुम्हारी सेवासे बहुत प्रसन्न हूँ। शुभे! कल्याणि! तुम मुझसे ऐसे वर माँगो, जो यहाँ दूसरे मनुष्योंके लिये दुर्लभ हों और जिनके कारण तुम संसारकी समस्त सुन्दरियोंको अपने सुयशसे पराजित कर सको’॥१२—१४॥
मूलम् (वचनम्)
कुन्त्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतानि मम सर्वाणि यस्या मे वेदवित्तम।
त्वं प्रसन्नः पिता चैव कृतं विप्र वरैर्मम ॥ १५ ॥
मूलम्
कृतानि मम सर्वाणि यस्या मे वेदवित्तम।
त्वं प्रसन्नः पिता चैव कृतं विप्र वरैर्मम ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्ती बोली— वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ! जब मुझ सेविकाके ऊपर आप और पिताजी प्रसन्न हो गये तब मेरी सब कामनाएँ पूर्ण हो गयीं। विप्रवर! मुझे वर लेनेकी आवश्यकता नहीं है॥१५॥
मूलम् (वचनम्)
ब्राह्मण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि नेच्छसि मत्तस्त्वं वरं भद्रे शुचिस्मिते।
इमं मन्त्रं गृहाण त्वमाह्वानाय दिवौकसाम् ॥ १६ ॥
मूलम्
यदि नेच्छसि मत्तस्त्वं वरं भद्रे शुचिस्मिते।
इमं मन्त्रं गृहाण त्वमाह्वानाय दिवौकसाम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणने कहा— भद्रे! पवित्र मुसकानवाली पृथे! यदि तुम मुझसे वर नहीं लेना चाहती हो तो देवताओंका आवाहन करनेके लिये यह एक मन्त्र ही ग्रहण कर लो॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यं यं देवं त्वमेतेन मन्त्रेणावाहयिष्यसि।
तेन तेन वशे भद्रे स्थातव्यं ते भविष्यति ॥ १७ ॥
मूलम्
यं यं देवं त्वमेतेन मन्त्रेणावाहयिष्यसि।
तेन तेन वशे भद्रे स्थातव्यं ते भविष्यति ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भद्रे! तुम इस मन्त्रके द्वारा जिस-जिस देवताका आवाहन करोगी वह-वह तुम्हारे अधीन हो जानेके लिये बाध्य होगा॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अकामो वा सकामो वा स समेष्यति ते वशे।
विबुधो मन्त्रसंशान्तो भवेद् भृत्य इवानतः ॥ १८ ॥
मूलम्
अकामो वा सकामो वा स समेष्यति ते वशे।
विबुधो मन्त्रसंशान्तो भवेद् भृत्य इवानतः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह देवता कामनारहित हो या कामनायुक्त, मन्त्रके प्रभावसे शान्तचित्त हो विनीत सेवककी भाँति तुम्हारे पास आकर तुम्हारे अधीन हो जायगा॥१८॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न शशाक द्वितीयं सा प्रत्याख्यातुमनिन्दिता।
तं वै द्विजातिप्रवरं तदा शापभयान्नृप ॥ १९ ॥
मूलम्
न शशाक द्वितीयं सा प्रत्याख्यातुमनिन्दिता।
तं वै द्विजातिप्रवरं तदा शापभयान्नृप ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! साध्वी पृथा दूसरी बार उन श्रेष्ठ ब्राह्मणकी बात न टाल सकी; क्योंकि वैसा करनेपर उसे उनके शापका भय था॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तामनवद्याङ्गीं ग्राहयामास स द्विजः।
मन्त्रग्रामं तदा राजन्नथर्वशिरसि श्रुतम् ॥ २० ॥
मूलम्
ततस्तामनवद्याङ्गीं ग्राहयामास स द्विजः।
मन्त्रग्रामं तदा राजन्नथर्वशिरसि श्रुतम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तब ब्राह्मणने निर्दोष अंगोंवाली कुन्तीको उस मन्त्रसमूहका उपदेश दिया जो अथर्ववेदीय उपनिषद्में प्रसिद्ध है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं प्रदाय तु राजेन्द्र कुन्तिभोजमुवाच ह।
उषितोऽस्मि सुखं राजन् कन्यया परितोषितः ॥ २१ ॥
तव गेहेषु विहितः सदा सुप्रतिपूजितः।
साधयिष्यामहे तावदित्युक्त्वान्तरधीयत ॥ २२ ॥
मूलम्
तं प्रदाय तु राजेन्द्र कुन्तिभोजमुवाच ह।
उषितोऽस्मि सुखं राजन् कन्यया परितोषितः ॥ २१ ॥
तव गेहेषु विहितः सदा सुप्रतिपूजितः।
साधयिष्यामहे तावदित्युक्त्वान्तरधीयत ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! पृथाको वह मन्त्र देकर ब्राह्मणने राजा कुन्तिभोजसे कहा—‘राजन्! मैं तुम्हारे घरमें तुम्हारी कन्याद्वारा सदा समादृत और संतुष्ट होकर बड़े सुखसे रहा हूँ। अब हम अपनी कार्यसिद्धिके लिये यहाँसे जायँगे।’ ऐसा कहकर वे ब्राह्मण वहीं अन्तर्धान हो गये॥२१-२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तु राजा द्विजं दृष्ट्वा तत्रैवान्तर्हितं तदा।
बभूव विस्मयाविष्टः पृथां च समपूजयत् ॥ २३ ॥
मूलम्
स तु राजा द्विजं दृष्ट्वा तत्रैवान्तर्हितं तदा।
बभूव विस्मयाविष्टः पृथां च समपूजयत् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणको अन्तर्हित हुआ देख उस समय राजाको बड़ा विस्मय हुआ और उन्होंने अपनी पुत्री कुन्तीका विशेष आदर-सत्कार किया॥२३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि कुण्डलाहरणपर्वणि पृथाया मन्त्रप्राप्तौ पञ्चाधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३०५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत कुण्डलाहरणपर्वमें पृथाको मन्त्रकी प्राप्तिविषयक तीन सौ पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३०५॥