३०३ पृथोपदेशे

भागसूचना

त्र्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

कुन्तिभोजके यहाँ ब्रह्मर्षि दुर्वासाका आगमन तथा राजाका उनकी सेवाके लिये पृथाको आवश्यक उपदेश देना

मूलम् (वचनम्)

जनमेजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं तद् गुह्यं न चाख्यातं कर्णायेहोष्णरश्मिना।
कीदृशे कुण्डले ते च कवचं चैव कीदृशम् ॥ १ ॥
कुतश्च कवचं तस्य कुण्डले चैव सत्तम।
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं तन्मे ब्रूहि तपोधन ॥ २ ॥

मूलम्

किं तद् गुह्यं न चाख्यातं कर्णायेहोष्णरश्मिना।
कीदृशे कुण्डले ते च कवचं चैव कीदृशम् ॥ १ ॥
कुतश्च कवचं तस्य कुण्डले चैव सत्तम।
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं तन्मे ब्रूहि तपोधन ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजयने पूछा— सज्जनशिरोमणे! कौन-सी ऐसी गोपनीय बात थी, जिसे भगवान् सूर्यने कर्णपर प्रकट नहीं किया। उसके वे दोनों कुण्डल और कवच कैसे थे? तपोधन! कर्णको कुण्डल और कवच कहाँसे प्राप्त हुए थे? मैं यह सुनना चाहता हूँ, आप कृपापूर्वक मुझे बताइये॥१-२॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं राजन् ब्रवीम्येतत् तस्य गुह्यं विभावसोः।
यादृशे कुण्डले ते च कवचं चैव यादृशम् ॥ ३ ॥

मूलम्

अयं राजन् ब्रवीम्येतत् तस्य गुह्यं विभावसोः।
यादृशे कुण्डले ते च कवचं चैव यादृशम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजीने कहा— राजन्! सूर्यदेवकी दृष्टिमें जो गोपनीय रहस्य था, उसे बताता हूँ। इसके साथ कर्णके कुण्डल और कवच कैसे थे? यह भी बता रहा हूँ॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुन्तिभोजं पुरा राजन् ब्राह्मणः पर्युपस्थितः।
तिग्मतेजा महाप्रांशुः श्मश्रुदण्डजटाधरः ॥ ४ ॥

मूलम्

कुन्तिभोजं पुरा राजन् ब्राह्मणः पर्युपस्थितः।
तिग्मतेजा महाप्रांशुः श्मश्रुदण्डजटाधरः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! प्राचीनकालकी बात है, राजा कुन्तिभोजके दरबारमें अत्यन्त ऊँचे कदके एक प्रचण्ड तेजस्वी ब्राह्मण उपस्थित हुए। उन्होंने दाढ़ी, मूँछ, दण्ड और जटा धारण कर रखी थी॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दर्शनीयोऽनवद्याङ्गस्तेजसा प्रज्वलन्निव ।
मधुपिङ्गो मधुरवाक् तपःस्वाध्यायभूषणः ॥ ५ ॥

मूलम्

दर्शनीयोऽनवद्याङ्गस्तेजसा प्रज्वलन्निव ।
मधुपिङ्गो मधुरवाक् तपःस्वाध्यायभूषणः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनका स्वरूप देखने ही योग्य था। उनके सभी अंग निर्दोष थे। वे तेजसे प्रज्वलित होते-से जान पड़ते थे। उनके शरीरकी कान्ति मधुके समान पिंगलवर्णकी थी। वे मधुर वचन बोलनेवाले तथा तपस्या और स्वाध्यायरूप सद्‌गुणोंसे विभूषित थे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स राजानं कुन्तिभोजमब्रवीत् सुमहातपाः।
भिक्षामिच्छामि वै भोक्तुं तव गेहे विमत्सर ॥ ६ ॥

मूलम्

स राजानं कुन्तिभोजमब्रवीत् सुमहातपाः।
भिक्षामिच्छामि वै भोक्तुं तव गेहे विमत्सर ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन महातपस्वीने राजा कुन्तिभोजसे कहा—‘किसीसे ईर्ष्या न करनेवाले नरेश! मैं तुम्हारे घरमें भिक्षान्न भोजन करना चाहता हूँ॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न मे व्यलीकं कर्तव्यं त्वया वा तव चानुगैः।
एवं वत्स्यामि ते गेहे यदि ते रोचतेऽनघ ॥ ७ ॥

मूलम्

न मे व्यलीकं कर्तव्यं त्वया वा तव चानुगैः।
एवं वत्स्यामि ते गेहे यदि ते रोचतेऽनघ ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘परंतु एक शर्त है, तुम या तुम्हारे सेवक कभी मेरे मनके प्रतिकूल आचरण न करें। अनघ! यदि तुम्हें मेरी यह शर्त ठीक जान पड़े तो उस दशामें मैं तुम्हारे घरमें निवास करूँगा॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथाकामं च गच्छेयमागच्छेयं तथैव च।
शय्यासने च मे राजन् नापराध्येत कश्चन ॥ ८ ॥

मूलम्

यथाकामं च गच्छेयमागच्छेयं तथैव च।
शय्यासने च मे राजन् नापराध्येत कश्चन ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं अपनी इच्छाके अनुसार जब चाहूँगा चला जाऊँगा और जब जीमें आयेगा चला आऊँगा। राजन्! मेरी शय्या और आसनपर बैठना अपराध होगा। अतः यह अपराध कोई न करे’॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमब्रवीत् कुन्तिभोजः प्रीतियुक्तमिदं वचः।
एवमस्तु परं चेति पुनश्चैनमथाब्रवीत् ॥ ९ ॥

मूलम्

तमब्रवीत् कुन्तिभोजः प्रीतियुक्तमिदं वचः।
एवमस्तु परं चेति पुनश्चैनमथाब्रवीत् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब राजा कुन्तिभोजने बड़ी प्रसन्नताके साथ उत्तर दिया—‘विप्रवर! ‘एवमस्तु’—जैसा आप चाहते हैं, वैसा ही होगा’, इतना कहकर वे फिर बोले—॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मम कन्या महाप्राज्ञ पृथा नाम यशस्विनी।
शीलवृत्तान्विता साध्वी नियता चैव भाविनी ॥ १० ॥

मूलम्

मम कन्या महाप्राज्ञ पृथा नाम यशस्विनी।
शीलवृत्तान्विता साध्वी नियता चैव भाविनी ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाप्राज्ञ! मेरे पृथा नामकी एक यशस्विनी कन्या है, जो शील और सदाचारसे सम्पन्न, साध्वी, संयम-नियमसे रहनेवाली और विचारशील है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपस्थास्यति सा त्वां वै पूजयानवमन्य च।
तस्याश्च शीलवृत्तेन तुष्टिं समुपयास्यसि ॥ ११ ॥

मूलम्

उपस्थास्यति सा त्वां वै पूजयानवमन्य च।
तस्याश्च शीलवृत्तेन तुष्टिं समुपयास्यसि ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वह सदा आपकी सेवा-पूजाके लिये उपस्थित रहेगी। उसके द्वारा आपका अपमान कभी न होगा। मेरा विश्वास है कि उसके शील और सदाचारसे आप संतुष्ट होंगे’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा तु तं विप्रमभिपूज्य यथाविधि।
उवाच कन्यामभ्येत्य पृथां पृथुललोचनाम् ॥ १२ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा तु तं विप्रमभिपूज्य यथाविधि।
उवाच कन्यामभ्येत्य पृथां पृथुललोचनाम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर उन ब्राह्मणदेवताकी विधिपूर्वक पूजा करके राजाने अपनी विशाल नेत्रोंवाली कन्या पृथाके पास जाकर कहा—॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं वत्से महाभागो ब्राह्मणो वस्तुमिच्छति।
मम गेहे मया चास्य तथेत्येवं प्रतिश्रुतम् ॥ १३ ॥

मूलम्

अयं वत्से महाभागो ब्राह्मणो वस्तुमिच्छति।
मम गेहे मया चास्य तथेत्येवं प्रतिश्रुतम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वत्से! ये महाभाग ब्राह्मण मेरे घरमें निवास करना चाहते हैं। मैंने ‘तथास्तु’ कहकर इन्हें अपने यहाँ ठहरानेकी प्रतिज्ञा कर ली है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वयि वत्से पराश्वस्य ब्राह्मणस्याभिराधनम्।
तन्मे वाक्यममिथ्या त्वं कर्तुमर्हसि कर्हिचित् ॥ १४ ॥

मूलम्

त्वयि वत्से पराश्वस्य ब्राह्मणस्याभिराधनम्।
तन्मे वाक्यममिथ्या त्वं कर्तुमर्हसि कर्हिचित् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बेटी! तुमपर भरोसा करके ही मैंने इन तेजस्वी ब्राह्मणकी आराधना स्वीकार की है; अतः तुम मेरी बात कभी मिथ्या न होने दोगी, ऐसी आशा है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं तपस्वी भगवान् स्वाध्यायनियतो द्विजः।
यद् यद् ब्रूयान्महातेजास्तत्तद् देयममत्सरात् ॥ १५ ॥

मूलम्

अयं तपस्वी भगवान् स्वाध्यायनियतो द्विजः।
यद् यद् ब्रूयान्महातेजास्तत्तद् देयममत्सरात् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ये विप्रवर महातेजस्वी, तपस्वी, ऐश्वर्यशाली तथा नियमपूर्वक वेदोंके स्वाध्यायमें संलग्न रहनेवाले हैं। ये जिस-जिस वस्तुके लिये कहें, वह सब इन्हें ईर्ष्यारहित हो श्रद्धाके साथ देना॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणो हि परं तेजो ब्राह्मणो हि परं तपः।
ब्राह्मणानां नमस्कारैः सूर्यो दिवि विराजते ॥ १६ ॥

मूलम्

ब्राह्मणो हि परं तेजो ब्राह्मणो हि परं तपः।
ब्राह्मणानां नमस्कारैः सूर्यो दिवि विराजते ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘क्योंकि ब्राह्मण ही उत्कृष्ट तेज है, ब्राह्मण ही परम तप है, ब्राह्मणोंके नमस्कारसे ही सूर्यदेव आकाशमें प्रकाशित हो रहे हैं॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमानयन् हि मानार्हान् वातापिश्च महासुरः।
निहतो ब्रह्मदण्डेन तालजङ्घस्तथैव च ॥ १७ ॥

मूलम्

अमानयन् हि मानार्हान् वातापिश्च महासुरः।
निहतो ब्रह्मदण्डेन तालजङ्घस्तथैव च ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘माननीय ब्राह्मणोंका सम्मान न करनेके कारण ही महान् असुर वातापि और उसी प्रकार तालजंघ ब्रह्मदण्डसे मारे गये॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽयं वत्से महाभार आहितस्त्वयि साम्प्रतम्।
त्वं सदा नियता कुर्या ब्राह्मणस्याभिराधनम् ॥ १८ ॥

मूलम्

सोऽयं वत्से महाभार आहितस्त्वयि साम्प्रतम्।
त्वं सदा नियता कुर्या ब्राह्मणस्याभिराधनम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतः बेटी! इस समय सेवाका यह महान् भार मैंने तुम्हारे ऊपर रखा है। तुम सदा नियमपूर्वक इन ब्राह्मणदेवताकी आराधना करती रहो॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानामि प्रणिधानं ते बाल्यात् प्रभृति नन्दिनी।
ब्राह्मणेष्विह सर्वेषु गुरुबन्धुषु चैव ह ॥ १९ ॥
तथा प्रेष्येषु सर्वेषु मित्रसम्बन्धिमातृषु।
मयि चैव यथावत् त्वं सर्वमावृत्य वर्तसे ॥ २० ॥

मूलम्

जानामि प्रणिधानं ते बाल्यात् प्रभृति नन्दिनी।
ब्राह्मणेष्विह सर्वेषु गुरुबन्धुषु चैव ह ॥ १९ ॥
तथा प्रेष्येषु सर्वेषु मित्रसम्बन्धिमातृषु।
मयि चैव यथावत् त्वं सर्वमावृत्य वर्तसे ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘माता-पिताका आनन्द बढ़ानेवाली पुत्री! मैं जानता हूँ, बचपनसे ही तुम्हारा चित्त एकाग्र है। समस्त ब्राह्मणों, गुरुजनों, बन्धु-बान्धवों, सेवकों, मित्रों, सम्बन्धियों तथा माताओंके प्रति और मेरे प्रति भी तुम सदा यथोचित बर्ताव करती आयी हो। तुमने अपने सद्‌भावसे सबको प्रभावित कर लिया है॥१९-२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ह्यतुष्टो जनोऽस्तीह पुरे चान्तःपुरे च ते।
सम्यग्वृत्त्यानवद्याङ्गि तव भृत्यजनेष्वपि ॥ २१ ॥

मूलम्

न ह्यतुष्टो जनोऽस्तीह पुरे चान्तःपुरे च ते।
सम्यग्वृत्त्यानवद्याङ्गि तव भृत्यजनेष्वपि ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘निर्दोष अंगोंवाली पुत्री! नगरमें या अन्तःपुरमें, सेवकोंमें भी कोई ऐसा मनुष्य नहीं है, जो तुम्हारे उत्तम बर्तावसे संतुष्ट न हो॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संदेष्टव्यां तु मन्ये त्वां द्विजातिं कोपनं प्रति।
पृथे बालेति कृत्वा वै सुता चासि ममेति च॥२२॥

मूलम्

संदेष्टव्यां तु मन्ये त्वां द्विजातिं कोपनं प्रति।
पृथे बालेति कृत्वा वै सुता चासि ममेति च॥२२॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तथापि पृथे! तुम अभी बालिका और मेरी पुत्री हो, इसलिये इन क्रोधी ब्राह्मणके प्रति बर्ताव करनेके विषयमें तुम्हें कुछ उपदेश देनेकी आवश्यकताका अनुभव मैं करता हूँ॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृष्णीनां च कुले जाता शूरस्य दयिता सुता।
दत्ता प्रीतिमता मह्यं पित्रा बाला पुरा स्वयम् ॥ २३ ॥

मूलम्

वृष्णीनां च कुले जाता शूरस्य दयिता सुता।
दत्ता प्रीतिमता मह्यं पित्रा बाला पुरा स्वयम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वृष्णिवंशमें तुम्हारा जन्म हुआ है। तुम शूरसेनकी प्यारी पुत्री हो। पूर्वकालमें स्वयं तुम्हारे पिताने बाल्यावस्थामें ही बड़ी प्रसन्नताके साथ तुम्हें मेरे हाथों सौंपा था॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वसुदेवस्य भगिनी सुतानां प्रवरा मम।
अग्र्यमग्रे प्रतिज्ञाय तेनासि दुहिता मम ॥ २४ ॥

मूलम्

वसुदेवस्य भगिनी सुतानां प्रवरा मम।
अग्र्यमग्रे प्रतिज्ञाय तेनासि दुहिता मम ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम वसुदेवकी बहिन तथा मेरी संतानोंमें सबसे बड़ी हो। पहले उन्होंने यह प्रतिज्ञा कर रखी थी कि मैं अपनी पहली संतान तुम्हें दे दूँगा। उसीके अनुसार उन्होंने तुम्हें मेरी गोदमें अर्पित किया है, इस कारण तुम मेरी दत्तक पुत्री हो॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तादृशे हि कुले जाता कुले चैव विवर्धिता।
सुखात् सुखमनुप्राप्ता ह्रदाद् ह्रदमिवागता ॥ २५ ॥

मूलम्

तादृशे हि कुले जाता कुले चैव विवर्धिता।
सुखात् सुखमनुप्राप्ता ह्रदाद् ह्रदमिवागता ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वैसे उत्तम कुलमें तुम्हारा जन्म हुआ तथा मेरे श्रेष्ठ कुलमें तुम पालित और पोषित होकर बड़ी हुई। जैसे जलकी धारा एक सरोवरसे निकलकर दूसरे सरोवरमें गिरती है, उसी प्रकार तुम एक सुखमय स्थानसे दूसरे सुखमय स्थानमें आयी हो॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दौष्कुलेया विशेषेण कथंचित् प्रग्रहं गताः।
बालभावाद् विकुर्वन्ति प्रायशः प्रमदाः शुभे ॥ २६ ॥

मूलम्

दौष्कुलेया विशेषेण कथंचित् प्रग्रहं गताः।
बालभावाद् विकुर्वन्ति प्रायशः प्रमदाः शुभे ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शुभे! जो दूषित कुलमें उत्पन्न होनेवाली स्त्रियाँ हैं, वे किसी तरह विशेष आग्रहमें पड़कर अपने अविवेकके कारण प्रायः बिगड़ जाती हैं (परंतु तुमसे ऐसी आशंका नहीं है)॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृथे राजकुले जन्म रूपं चापि तवाद्‌भुतम्।
तेन तेनासि सम्पन्ना समुपेता च भाविनी ॥ २७ ॥

मूलम्

पृथे राजकुले जन्म रूपं चापि तवाद्‌भुतम्।
तेन तेनासि सम्पन्ना समुपेता च भाविनी ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पृथे! तुम्हारा जन्म राजकुलमें हुआ है। तुम्हारा रूप भी अद्‌भुत है। कुल और स्वरूपके अनुसार ही तुम उत्तम शील, सदाचार और सद्‌गुणोंसे संयुक्त एवं सम्पन्न हो। साथ ही विचारशील भी हो॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा त्वं दर्पं परित्यज्य दम्भं मानं च भाविनि।
आराध्य वरदं विप्रं श्रेयसा योक्ष्यसे पृथे ॥ २८ ॥

मूलम्

सा त्वं दर्पं परित्यज्य दम्भं मानं च भाविनि।
आराध्य वरदं विप्रं श्रेयसा योक्ष्यसे पृथे ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुन्दर भाववाली पृथे! तुम दर्प, दम्भ और मानको त्यागकर यदि इन वरदायक ब्राह्मणकी आराधना करोगी तो परम कल्याणकी भागिनी होओगी॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं प्राप्स्यसि कल्याणि कल्याणमनघे ध्रुवम्।
कोपिते च द्विजश्रेष्ठे कृत्स्नं दह्येत मे कुलम् ॥ २९ ॥

मूलम्

एवं प्राप्स्यसि कल्याणि कल्याणमनघे ध्रुवम्।
कोपिते च द्विजश्रेष्ठे कृत्स्नं दह्येत मे कुलम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कल्याणि! तुम पापरहित हो। यदि इस प्रकार इनकी सेवा करनेमें सफल हो गयी तो तुम्हें निश्चय ही कल्याणकी प्राप्ति होगी, और यदि तुमने अपने अनुचित बर्तावसे इन श्रेष्ठ ब्राह्मणको कुपित कर दिया तो मेरा सम्पूर्ण कुल जलकर भस्म हो जायगा’॥२९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि कुण्डलाहरणपर्वणि पृथोपदेशे त्र्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३०३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत कुण्डलाहरणपर्वमें पृथाको उपदेशविषयक तीन सौ तीनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३०३॥