भागसूचना
द्व्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
सूर्य-कर्ण-संवाद, सूर्यकी आज्ञाके अनुसार कर्णका इन्द्रसे शक्ति लेकर ही उन्हें कुण्डल और कवच देनेका निश्चय
मूलम् (वचनम्)
कर्ण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवन्तमहं भक्तो यथा मां वेत्थ गोपते।
तथा परमतिग्मांशो नास्त्यदेयं कथंचन ॥ १ ॥
मूलम्
भगवन्तमहं भक्तो यथा मां वेत्थ गोपते।
तथा परमतिग्मांशो नास्त्यदेयं कथंचन ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्णने कहा— सूर्यदेव! मैं आपका अनन्य भक्त हूँ, जैसा कि आप भी मुझे जानते हैं। प्रचण्डरश्मे! आपके लिये किसी प्रकार कुछ भी अदेय नहीं है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मे दारा न मे पुत्रा न चात्मा सुहृदो न च।
तथेष्टा वै सदा भक्त्या यथा त्वं गोपते मम॥२॥
मूलम्
न मे दारा न मे पुत्रा न चात्मा सुहृदो न च।
तथेष्टा वै सदा भक्त्या यथा त्वं गोपते मम॥२॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्त्री, पुत्र, सुहृद् और अपना शरीर भी मुझे वैसा प्रिय नहीं है, जैसे आप हैं। किरणोंके स्वामी सूर्यदेव! सदा आप ही मेरे भक्तिभावके आश्रय हैं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इष्टानां च महात्मानो भक्तानां च न संशयः।
कुर्वन्ति भक्तिमिष्टां च जानीषे त्वं च भास्कर ॥ ३ ॥
मूलम्
इष्टानां च महात्मानो भक्तानां च न संशयः।
कुर्वन्ति भक्तिमिष्टां च जानीषे त्वं च भास्कर ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभाकर! आप भी जानते ही हैं कि महात्मा पुरुष भी अपने प्रिय भक्तोंपर पूर्ण स्नेह रखते हैं, इसमें संदेह नहीं है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इष्टो भक्तश्च मे कर्णो न चान्यद् दैवतं दिवि।
जानीत इति वै कृत्वा भगवानाह मद्धितम् ॥ ४ ॥
मूलम्
इष्टो भक्तश्च मे कर्णो न चान्यद् दैवतं दिवि।
जानीत इति वै कृत्वा भगवानाह मद्धितम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपको यह मालूम है कि कर्ण मेरा प्रिय भक्त है और वह स्वर्गके दूसरे किसी भी देवताको (अपने इष्टरूपमें नहीं जानता है, यही समझकर आप मुझे मेरे हितका उपदेश कर रहे हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूयश्च शिरसा याचे प्रसाद्य च पुनः पुनः।
इति ब्रवीमि तिग्मांशो त्वं तु मे क्षन्तुमर्हसि ॥ ५ ॥
मूलम्
भूयश्च शिरसा याचे प्रसाद्य च पुनः पुनः।
इति ब्रवीमि तिग्मांशो त्वं तु मे क्षन्तुमर्हसि ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रचण्ड किरणोंवाले देव! मैं पुनः आपके चरणोंमें मस्तक रखकर, आपको प्रसन्न करके बारंबार क्षमायाचना करता हूँ। इस समय मैं जो कुछ कहता हूँ, उसके लिये आप मुझे क्षमा करें॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिभेमि न तथा मृत्योर्यथा बिभ्येऽनृतादहम्।
विशेषेण द्विजातीनां सर्वेषां सर्वदा सताम् ॥ ६ ॥
प्रदाने जीवितस्यापि न मेऽत्रास्ति विचारणा।
मूलम्
बिभेमि न तथा मृत्योर्यथा बिभ्येऽनृतादहम्।
विशेषेण द्विजातीनां सर्वेषां सर्वदा सताम् ॥ ६ ॥
प्रदाने जीवितस्यापि न मेऽत्रास्ति विचारणा।
अनुवाद (हिन्दी)
मैं मृत्युसे भी उतना नहीं डरता जितना झूठसे डरता हूँ। विशेषतः सदा समस्त सज्जन ब्राह्मणोंको उनके माँगनेपर अपने प्राण देनेमें भी मुझे कोई सोच-विचार नहीं हो सकता॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यच्च मामात्थ देव त्वं पाण्डवं फाल्गुनं प्रति ॥ ७ ॥
व्येतु संतापजं दुःखं तव भास्कर मानसम्।
अर्जुनप्रतिमं चैव विजेष्यामि रणेऽर्जुनम् ॥ ८ ॥
मूलम्
यच्च मामात्थ देव त्वं पाण्डवं फाल्गुनं प्रति ॥ ७ ॥
व्येतु संतापजं दुःखं तव भास्कर मानसम्।
अर्जुनप्रतिमं चैव विजेष्यामि रणेऽर्जुनम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देव! आपने पाण्डुनन्दन अर्जुनसे जो मेरे लिये डरकी बात बतायी है, उसके लिये आपके मनमें कोई दुःख और संताप नहीं होना चाहिये। भास्कर! मैं कार्तवीर्य अर्जुनके समान पराक्रमी अर्जुनको युद्धमें अवश्य जीत लूँगा॥७-८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तवापि विदितं देव ममाप्यस्त्रबलं महत्।
जामदग्न्यादुपात्तं यत्र तथा द्रोणान्महात्मनः ॥ ९ ॥
मूलम्
तवापि विदितं देव ममाप्यस्त्रबलं महत्।
जामदग्न्यादुपात्तं यत्र तथा द्रोणान्महात्मनः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देव! मेरे पास भी अस्त्रोंका जो महान् बल है। इसे आप भी जानते हैं। मैंने जमदग्निनन्दन परशुराम तथा महात्मा द्रोणाचार्यसे अस्त्रविद्या सीखी है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं त्वमनुजानीहि सुरश्रेष्ठ व्रतं मम।
भिक्षते वज्रिणे दद्यामपि जीवितमात्मनः ॥ १० ॥
मूलम्
इदं त्वमनुजानीहि सुरश्रेष्ठ व्रतं मम।
भिक्षते वज्रिणे दद्यामपि जीवितमात्मनः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुरश्रेष्ठ! यह जो मेरा दान देनेका व्रत है, उसके लिये आप भी मुझे आज्ञा दीजिये, जिससे मैं याचक बनकर आये हुए इन्द्रको अपने प्राणतक दे सकूँ॥१०॥
मूलम् (वचनम्)
सूर्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि तात ददास्येते वज्रिणे कुण्डले शुभे।
त्वमप्येनमथो ब्रूया विजयार्थं महाबलम् ॥ ११ ॥
नियमेन प्रदद्यां ते कुण्डले वै शतक्रतो।
मूलम्
यदि तात ददास्येते वज्रिणे कुण्डले शुभे।
त्वमप्येनमथो ब्रूया विजयार्थं महाबलम् ॥ ११ ॥
नियमेन प्रदद्यां ते कुण्डले वै शतक्रतो।
अनुवाद (हिन्दी)
सूर्य बोले— तात! यदि तुम इन्द्रको ये दोनों सुन्दर कुण्डल दे रहे हो तो तुम भी उन महाबली इन्द्रसे अपनी विजयके लिये कोई अस्त्र माँग लेना और उनसे स्पष्ट कह देना कि देवराज! मैं एक शर्तके साथ ये दोनों कुण्डल आपको दे सकता हूँ॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवध्यो ह्यसि भूतानां कुण्डलाभ्यां समन्वितः ॥ १२ ॥
अर्जुनेन विनाशं हि तव दानवसूदनः।
प्रार्थयानो रणे वत्स कुण्डले ते जिहीर्षति ॥ १३ ॥
मूलम्
अवध्यो ह्यसि भूतानां कुण्डलाभ्यां समन्वितः ॥ १२ ॥
अर्जुनेन विनाशं हि तव दानवसूदनः।
प्रार्थयानो रणे वत्स कुण्डले ते जिहीर्षति ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्ण! इन दोनों कुण्डलोंसे युक्त रहनेपर तुम सभी प्राणियोंके लिये अवध्य बने रहोगे। वत्स! दानवसूदन इन्द्र युद्धमें अर्जुनके द्वारा तुम्हारा विनाश चाहते हैं। इसीलिये वे तुम्हारे दोनों कुण्डलोंको हर लेनेकी इच्छा करते हैं॥१२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स त्वमप्येनमाराध्य सूनृताभिः पुनः पुनः।
अभ्यर्थयेथा देवेशममोघार्थं पुरन्दरम् ॥ १४ ॥
मूलम्
स त्वमप्येनमाराध्य सूनृताभिः पुनः पुनः।
अभ्यर्थयेथा देवेशममोघार्थं पुरन्दरम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः तुम भी उनकी आराधना करके बारंबार मीठे वचन बोलकर देवेश्वर इन्द्रसे किसी अमोघ अस्त्रके लिये प्रार्थना करना॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमोधां देहि मे शक्तिममित्रविनिबर्हिणीम्।
दास्यामि ते सहस्राक्ष कुण्डले वर्म चोत्तमम् ॥ १५ ॥
मूलम्
अमोधां देहि मे शक्तिममित्रविनिबर्हिणीम्।
दास्यामि ते सहस्राक्ष कुण्डले वर्म चोत्तमम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम उनसे कहना—‘सहस्राक्ष! मैं आपको अपने शरीरका उत्तम कवच और दोनों कुण्डल दे दूँगा, परंतु आप भी मुझे अपनी वह अमोघ शक्ति प्रदान कीजिये, जो शत्रुओंका संहार करनेवाली है’॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येव नियमेन त्वं दद्याः शक्राय कुण्डले।
तया त्वं कर्ण संग्रामे हनिष्यसि रणे रिपून् ॥ १६ ॥
मूलम्
इत्येव नियमेन त्वं दद्याः शक्राय कुण्डले।
तया त्वं कर्ण संग्रामे हनिष्यसि रणे रिपून् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी शर्तके साथ तुम इन्द्रको अपने कुण्डल देना। कर्ण! उस शक्तिके द्वारा तुम युद्धमें अपने शत्रुओंको मार डालोगे॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाहत्वा हि महाबाहो शत्रूनेति करं पुनः।
सा शक्तिर्देवराजस्य शतशोऽथ सहस्रशः ॥ १७ ॥
मूलम्
नाहत्वा हि महाबाहो शत्रूनेति करं पुनः।
सा शक्तिर्देवराजस्य शतशोऽथ सहस्रशः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहो! देवराज इन्द्रकी वह शक्ति युद्धमें सैकड़ों-हजारों शत्रुओंका वध किये बिना पुनः हाथमें लौटकर नहीं आती॥१७॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा सहस्रांशुः सहसान्तरधीयत ।
मूलम्
एवमुक्त्वा सहस्रांशुः सहसान्तरधीयत ।
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! ऐसा कहकर सूर्यदेव सहसा वहीं अन्तर्धान हो गये॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(कर्णस्तु बुबुधे राजन् स्वप्नान्ते प्रवदन्निव।
प्रतिबुद्धस्तु राधेयः स्वप्नं संचिन्त्य भारत॥
चकार निश्चयं राजन् शक्त्यर्थं वदतां वरः।
यदि मामिन्द्र आयाति कुण्डलार्थं परंतपः॥
शक्त्या तस्मै प्रदास्यामि कुण्डले वर्म चैव ह।
स कृत्वा प्रातरुत्थाय कार्याणि भरतर्षभ॥
ब्राह्मणान् वाचयित्वाथ यथाकार्यमुपाक्रमत् ।
विधिना राजशार्दूल मुहूर्तमजपत् ततः॥)
मूलम्
(कर्णस्तु बुबुधे राजन् स्वप्नान्ते प्रवदन्निव।
प्रतिबुद्धस्तु राधेयः स्वप्नं संचिन्त्य भारत॥
चकार निश्चयं राजन् शक्त्यर्थं वदतां वरः।
यदि मामिन्द्र आयाति कुण्डलार्थं परंतपः॥
शक्त्या तस्मै प्रदास्यामि कुण्डले वर्म चैव ह।
स कृत्वा प्रातरुत्थाय कार्याणि भरतर्षभ॥
ब्राह्मणान् वाचयित्वाथ यथाकार्यमुपाक्रमत् ।
विधिना राजशार्दूल मुहूर्तमजपत् ततः॥)
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! स्वप्नके अन्तमें कुछ बोलता हुआ-सा कर्ण जाग उठा। भारत! जगनेपर वक्ताओंमें श्रेष्ठ राधानन्दन कर्णने स्वप्नका चिन्तन करके शक्तिके लिये इस प्रकार निश्चय किया, ‘यदि शत्रुओंको संताप देनेवाले इन्द्र कुण्डलके लिये मेरे पास आ रहे हैं तो मैं शक्ति लेकर ही उन्हें कुण्डल और कवच दूँगा।’ भरतश्रेष्ठ! ऐसा निश्चय करके कर्ण प्रातःकाल उठा और आवश्यक कार्य करके ब्राह्मणोंसे स्वस्तिवाचन कराकर यथासमय संध्योपासन आदि कार्य करने लगा। नृपश्रेष्ठ! फिर उसने विधिपूर्वक दो घड़ीतक जप किया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सूर्याय जप्यान्ते कर्णः स्वप्नं न्यवेदयत् ॥ १८ ॥
यथादृष्टं यथातत्त्वं यथोक्तमुभयोर्निशि ।
तत् सर्वमानुपूर्व्येण शशंसास्मै वृषस्तदा ॥ १९ ॥
मूलम्
ततः सूर्याय जप्यान्ते कर्णः स्वप्नं न्यवेदयत् ॥ १८ ॥
यथादृष्टं यथातत्त्वं यथोक्तमुभयोर्निशि ।
तत् सर्वमानुपूर्व्येण शशंसास्मै वृषस्तदा ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर जपके अन्तमें कर्णने भगवान् सूर्यसे स्वप्नका वृत्तान्त निवेदन किया। उसने जो कुछ देखा था तथा रातमें उन दोनोंमें जैसी बातें हुई थीं, उन सबको कर्णने क्रमशः उनसे ठीक-ठीक कह सुनाया॥१८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा भगवान् देवो भानुः स्वर्भानुसूदनः।
उवाच तं तथेत्येव कर्णं सूर्यः स्मयन्निव ॥ २० ॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा भगवान् देवो भानुः स्वर्भानुसूदनः।
उवाच तं तथेत्येव कर्णं सूर्यः स्मयन्निव ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राहुका संहार करनेवाले भगवान् सूर्यदेवने यह सब सुनकर कर्णसे मुसकराते हुए-से कहा—‘तुमने जो कुछ देखा है, वह सब ठीक है’॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तत्त्वमिति ज्ञात्वा राधेयः परवीरहा।
शक्तिमेवाभिकाङ्क्षन् वै वासवं प्रत्यपालयत् ॥ २१ ॥
मूलम्
ततस्तत्त्वमिति ज्ञात्वा राधेयः परवीरहा।
शक्तिमेवाभिकाङ्क्षन् वै वासवं प्रत्यपालयत् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब शत्रुओंका संहार करनेवाला राधानन्दन कर्ण उस स्वप्नकी घटनाको यथार्थ जानकर शक्ति प्राप्त करनेकी ही अभिलाषा ले इन्द्रकी प्रतीक्षा करने लगा॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि कुण्डलाहरणपर्वणि सूर्यकर्णसंवादे द्व्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३०२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत कुण्डलाहरणपर्वमें सूर्य-कर्ण-संवादविषयक तीन सौ दोवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३०२॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ४ श्लोक मिलाकर कुल २५ श्लोक हैं)