२९९ सावित्र्युपाख्याने

भागसूचना

नवनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

शाल्वदेशकी प्रजाके अनुरोधसे महाराज द्युमत्सेनका राज्याभिषेक कराना तथा सावित्रीको सौ पुत्रों और सौ भाइयोंकी प्राप्ति

मूलम् (वचनम्)

मार्कण्डेय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यां रात्र्यां व्यतीतायामुदिते सूर्यमण्डले।
कृतपौर्वाह्णिकाः सर्वे समेयुस्ते तपोधनाः ॥ १ ॥

मूलम्

तस्यां रात्र्यां व्यतीतायामुदिते सूर्यमण्डले।
कृतपौर्वाह्णिकाः सर्वे समेयुस्ते तपोधनाः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मार्कण्डेयजी कहते हैं— जब वह रात बीत गयी और सूर्यमण्डलका उदय हुआ, उस समय सब तपोधन ऋषिगण पूर्वाह्णकालका नित्यकृत्य पूरा करके पुनः उस आश्रममें एकत्र हुए॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदेव सर्वं सावित्र्या महाभाग्यं महर्षयः।
द्युमत्सेनाय नातृप्यन् कथयन्तः पुनः पुनः ॥ २ ॥

मूलम्

तदेव सर्वं सावित्र्या महाभाग्यं महर्षयः।
द्युमत्सेनाय नातृप्यन् कथयन्तः पुनः पुनः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे महर्षिगण राजा द्युमत्सेनसे सावित्रीके उस परम सौभाग्यका बारंबार वर्णन करते हुए भी तृप्त नहीं होते थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रकृतयः सर्वाः शाल्वेभ्योऽभ्यागता नृप।
आचख्युर्निहतं चैव स्वेनामात्येन तं द्विषम् ॥ ३ ॥

मूलम्

ततः प्रकृतयः सर्वाः शाल्वेभ्योऽभ्यागता नृप।
आचख्युर्निहतं चैव स्वेनामात्येन तं द्विषम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उसी समय शाल्वदेशसे वहाँकी सारी प्रजाओंने आकर महाराज द्युमत्सेनसे कहा—‘प्रभो! आपका शत्रु अपने ही मन्त्रीके हाथों मारा गया है’॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं मन्त्रिणा हतं श्रुत्वा ससहायं सबान्धवम्।
न्यवेदयन् यथावृत्तं विद्रुतं च द्विषद्‌बलम् ॥ ४ ॥
ऐकमत्यं च सर्वस्य जनस्याथ नृपं प्रति।
सचक्षुर्वाप्यचक्षुर्वा स नो राजा भवत्विति ॥ ५ ॥

मूलम्

तं मन्त्रिणा हतं श्रुत्वा ससहायं सबान्धवम्।
न्यवेदयन् यथावृत्तं विद्रुतं च द्विषद्‌बलम् ॥ ४ ॥
ऐकमत्यं च सर्वस्य जनस्याथ नृपं प्रति।
सचक्षुर्वाप्यचक्षुर्वा स नो राजा भवत्विति ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने यह भी निवेदन किया कि ‘उसके सहायक और बन्धु-बान्धव भी मन्त्रीके ही हाथों मर चुके हैं। शत्रुकी सारी सेना पलायन कर गयी है। यह यथावत् वृत्तान्त सुनकर सब लोगोंका एकमतसे यह निश्चय हुआ है कि हमें पूर्व नरेशपर ही विश्वास है। उन्हें दिखायी देता हो या न दीखता हो, वे ही हमारे राजा हों’॥४-५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनेन निश्चयेनेह वयं प्रस्थापिता नृप।
प्राप्तानीमानि यानानि चतुरङ्गं च ते बलम् ॥ ६ ॥

मूलम्

अनेन निश्चयेनेह वयं प्रस्थापिता नृप।
प्राप्तानीमानि यानानि चतुरङ्गं च ते बलम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरेश्वर! ऐसा निश्चय करके ही हमें यहाँ भेजा गया है। ये सवारियाँ प्रस्तुत हैं और आपकी चतुरंगिणी सेना भी सेवामें उपस्थित है’॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रयाहि राजन् भद्रं ते घुष्टस्ते नगरे जयः।
अध्यास्स्व चिररात्राय पितृपैतामहं पदम् ॥ ७ ॥

मूलम्

प्रयाहि राजन् भद्रं ते घुष्टस्ते नगरे जयः।
अध्यास्स्व चिररात्राय पितृपैतामहं पदम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! आपका कल्याण हो। अब अपने राज्यमें पधारिये। नगरमें आपकी विजय घोषित कर दी गयी है। आप दीर्घकालतक अपने बाप-दादोंके राज्यपर प्रतिष्ठित रहें’॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चक्षुष्मन्तं च तं दृष्ट्‌वा राजानं वपुषान्वितम्।
मूर्ध्ना निपतिताः सर्वे विस्मयोत्फुल्ललोचनाः ॥ ८ ॥

मूलम्

चक्षुष्मन्तं च तं दृष्ट्‌वा राजानं वपुषान्वितम्।
मूर्ध्ना निपतिताः सर्वे विस्मयोत्फुल्ललोचनाः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् राजा द्युमत्सेनको नेत्रयुक्त और स्वस्थ शरीरसे सुशोभित देखकर उन सबके नेत्र आश्चर्यसे खिल उठे और सबने मस्तक झुकाकर उन्हें प्रणाम किया॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽभिवाद्य तान् वृद्धान् द्विजानाश्रमवासिनः।
तैश्चाभिपूजितः सर्वैः प्रययौ नगरं प्रति ॥ ९ ॥

मूलम्

ततोऽभिवाद्य तान् वृद्धान् द्विजानाश्रमवासिनः।
तैश्चाभिपूजितः सर्वैः प्रययौ नगरं प्रति ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद राजाने आश्रममें रहनेवाले उन वृद्ध ब्राह्मणोंका अभिवादन किया और उन सबसे समादृत हो वे अपनी राजधानीकी ओर चले॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शैब्या च सह सावित्र्या स्वास्तीर्णेन सुवर्चसा।
नरयुक्तेन यानेन प्रययौ सेनया वृता ॥ १० ॥

मूलम्

शैब्या च सह सावित्र्या स्वास्तीर्णेन सुवर्चसा।
नरयुक्तेन यानेन प्रययौ सेनया वृता ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शैब्या भी अपनी बहू सावित्रीके साथ सुन्दर बिछावनसे युक्त तेजस्वी शिबिकापर, जिसे कई कहार ढो रहे थे, आरूढ़ हो सेनासे घिरी हुई चल दी॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽभिषिषिचुः प्रीत्या द्युमत्सेनं पुरोहिताः।
पुत्रं चास्य महात्मानं यौवराज्येऽभ्यषेचयन् ॥ ११ ॥

मूलम्

ततोऽभिषिषिचुः प्रीत्या द्युमत्सेनं पुरोहिताः।
पुत्रं चास्य महात्मानं यौवराज्येऽभ्यषेचयन् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ पहुँचनेपर पुरोहितोंने बड़ी प्रसन्नताके साथ द्युमत्सेनका राज्याभिषेक किया। साथ ही उनके महामना पुत्र सत्यवान्‌को भी युवराजके पदपर अभिषिक्त कर दिया॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कालेन महता सावित्र्याः कीर्तिवर्धनम्।
तद् वै पुत्रशतं जज्ञे शूराणामनिवर्तिनाम् ॥ १२ ॥

मूलम्

ततः कालेन महता सावित्र्याः कीर्तिवर्धनम्।
तद् वै पुत्रशतं जज्ञे शूराणामनिवर्तिनाम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर दीर्घकालके पश्चात् सावित्रीके गर्भसे उसकी कीर्ति बढ़ानेवाले सौ पुत्र उत्पन्न हुए। वे सब-के-सब शूरवीर तथा संग्राममें कभी पीछे न हटनेवाले थे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रातॄणां सोदराणां च तथैवास्याभवच्छतम्।
मद्राधिपस्याश्वपतेर्मालव्यां सुमहद् बलम् ॥ १३ ॥

मूलम्

भ्रातॄणां सोदराणां च तथैवास्याभवच्छतम्।
मद्राधिपस्याश्वपतेर्मालव्यां सुमहद् बलम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार मद्रराज अश्वपतिके भी मालवीके गर्भसे सावित्रीके सौ सहोदर भाई उत्पन्न हुए, जो अत्यन्त बलशाली थे॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमात्मा पिता माता श्वश्रूः श्वशुर एव च।
भर्तुः कुलं च सावित्र्या सर्वं कृच्छ्रात्‌ समुद्‌धृतम् ॥ १४ ॥

मूलम्

एवमात्मा पिता माता श्वश्रूः श्वशुर एव च।
भर्तुः कुलं च सावित्र्या सर्वं कृच्छ्रात्‌ समुद्‌धृतम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस तरह सावित्रीने अपने आपको, पिता-माताको, सास-ससुरको तथा पतिके समस्त कुलको भी भारी संकटसे बचा लिया था॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैवैषा हि कल्याणी द्रौपदी शीलसम्मता।
तारयिष्यति वः सर्वान् सावित्रीव कुलाङ्गना ॥ १५ ॥

मूलम्

तथैवैषा हि कल्याणी द्रौपदी शीलसम्मता।
तारयिष्यति वः सर्वान् सावित्रीव कुलाङ्गना ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सावित्रीकी ही भाँति यह कल्याणमयी उत्तम कुलवाली सुशीला द्रौपदी तुम सब लोगोंका महान् संकटसे उद्धार करेगी॥१५॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं स पाण्डवस्तेन अनुनीतो महात्मना।
विशोको विज्वरो राजन् काम्यके न्यवसत् तदा ॥ १६ ॥

मूलम्

एवं स पाण्डवस्तेन अनुनीतो महात्मना।
विशोको विज्वरो राजन् काम्यके न्यवसत् तदा ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! इस प्रकार उन महात्मा मार्कण्डेयजीके समझाने-बुझाने और आश्वासन देनेपर उस समय पाण्डुनन्दन राजा युधिष्ठिर शोक तथा चिन्तासे रहित हो काम्यकवनमें सुखपूर्वक रहने लगे॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यश्चेदं शृणुयाद् भक्त्या सावित्र्याख्यानमुत्तमम्।
स सुखी सर्वसिद्धार्थो न दुःखं प्राप्नुयान्नरः ॥ १७ ॥

मूलम्

यश्चेदं शृणुयाद् भक्त्या सावित्र्याख्यानमुत्तमम्।
स सुखी सर्वसिद्धार्थो न दुःखं प्राप्नुयान्नरः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो इस परम उत्तम सावित्री-उपाख्यानको भक्तिभावसे सुनेगा, वह मनुष्य सदा अपने समस्त मनोरथोंके सिद्ध होनेसे सुखी होगा और कभी दुःख नहीं पायेगा॥१७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि पतिव्रतामाहात्म्यपर्वणि सावित्र्युपाख्याने नवनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २९९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत पतिव्रतामाहात्म्यपर्वमें सावित्री-उपाख्यानविषयक दो सौ निन्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२९९॥